श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २१

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २१               

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २१ "सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २१

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: एकविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २१                                   

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः २१                                      

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध इक्कीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २१ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकविंशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

एतावानेव भूवलयस्य सन्निवेशः प्रमाणलक्षणतो

व्याख्यातः ॥ १॥

एतेन हि दिवो मण्डलमानं तद्विद उपदिशन्ति

यथा द्विदलयोर्निष्पावादीनां ते अन्तरेणान्तरिक्षं

तदुभयसन्धितम् ॥ २॥

यन्मध्यगतो भगवांस्तपतां पतिस्तपन आतपेन

त्रिलोकीं प्रतपत्यवभासयत्यात्मभासा स एष

उदगयनदक्षिणायनवैषुवतसंज्ञाभिर्मान्द्यशैघ्र्य-

मानाभिर्गतिभिरारोहणावरोहणसमानस्थानेषु

यथा सवनमभिपद्यमानो मकरादिषु राशिष्व-

होरात्राणि दीर्घह्रस्वसमानानि विधत्ते ॥ ३॥

यदा मेषतुलयोर्वर्तते तदाहोरात्राणि

समानानि भवन्ति यदा वृषभादिषु पञ्चसु

च राशिषु चरति तदाहान्येव वर्धन्ते ह्रसति

च मासि मास्येकैका घटिका रात्रिषु ॥ ४॥

यदा वृश्चिकादिषु पञ्चसु वर्तते तदाहोरात्राणि

विपर्ययाणि भवन्ति ॥ ५॥

यावद्दक्षिणायनमहानि वर्धन्ते यावदुदगयनं

रात्रयः ॥ ६॥

एवं नवकोटय एकपञ्चाशल्लक्षाणि योजनानां

मानसोत्तरगिरिपरिवर्तनस्योपदिशन्ति

तस्मिन्नैन्द्रीं पुरीं पूर्वस्मान्मेरोर्देवधानीं नाम

दक्षिणतो याम्यां संयमनीं नाम पश्चाद्वारुणीं

निम्लोचनीं नाम उत्तरतः सौम्यां विभावरीं नाम

तासूदयमध्याह्नास्तमयनिशीथानीति भूतानां

प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तानि समयविशेषेण

मेरोश्चतुर्दिशम् ॥ ७॥

तत्रत्यानां दिवसमध्यङ्गत एव सदाऽऽदित्यस्तपति

सव्येनाचलं दक्षिणेन करोति ॥ ८॥

यत्रोदेति तस्य ह समानसूत्रनिपाते निम्लोचति

यत्र क्वचन स्यन्देनाभितपति तस्य हैष समानसूत्र-

निपाते प्रस्वापयति तत्र गतं न पश्यन्ति ये तं

समनुपश्येरन् ॥ ९॥

यदा चैन्द्र्याः पुर्याः प्रचलते पञ्चदशघटिकाभिर्याम्यां

सपादकोटिद्वयं योजनानां सार्धद्वादशलक्षाणि

साधिकानि चोपयाति ॥ १०॥

एवं ततो वारुणीं सौम्यामैन्द्रीं च पुनस्तथान्ये च

ग्रहाः सोमादयो नक्षत्रैः सह ज्योतिश्चक्रे सम-

भ्युद्यन्ति सह वा निम्लोचन्ति ॥ ११॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! परिमाण और लक्षणों के सहित इस भूमण्डल का कुल इतना ही विस्तार है, सो हमने तुम्हें बता दिया। इसी के अनुसार विद्वान् लोग द्युलोक का भी परिमाण बताते हैं। जिस प्रकार चना-मटर आदि के दो दलों में से एक का स्वरूप जान लेने से दूसरे का भी जाना जा सकता है, उसी प्रकार भूर्लोक के परिमाण से ही द्युलोक का भी परिमाण जान लेना चाहिये। इन दोनों के बीच में अन्तरिक्षलोक है। यह इन दोनों का सन्धिस्थान है। इसके मध्यभाग में स्थित ग्रह और नक्षत्रों के अधिपति भगवान् सूर्य अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों को तपाते और प्रकाशित करते रहते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत् नाम वाली क्रमशः मन्द, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन-रात को बड़ा, छोटा या समान करते हैं।

जब सूर्य भगवान् मेष या तुला राशि पर आते हैं, तब दिन-रात समान हो जाते हैं; जब वृषादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब प्रतिमास रात्रियों में एक-एक घड़ी कम होती जाती है और उसी हिसाब से दिन बढ़ते जाते हैं। जब वृश्चिकादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब दिन और रात्रियों में इसके विपरीत परिवर्तन होता है। इस प्रकार दक्षिणायन आरम्भ होने तक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण लगने तक रात्रियाँ। इस प्रकार पण्डितजन मानसोत्तर पर्वत पर सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताते हैं। उस पर्वत पर मेरु के पूर्व की ओर इन्द्र की देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरुण की निम्लोचनी और उत्तर में चन्द्रमा की विभावरी नाम की पुरियाँ हैं। इन पुरियों में मेरु के चारों ओर समय-समय पर सूर्योदय, मध्याह्न, सायंकाल और अर्धरात्रि होते रहते हैं; इन्हीं के कारण सम्पूर्ण जीवों की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है।

राजन्! जो लोग सुमेरु पर रहते हैं, उन्हें तो सूर्यदेव सदा मध्याह्नकालीन रहकर ही तपाते रहते हैं। वे अपनी गति के अनुसार अश्विनी आदि नक्षत्रों की ओर जाते हुए यद्यपि मेरु को बायीं रखकर चलते हैं तो भी सारे ज्योतिर्मण्डल को घुमाने वाली निरन्तर दायीं ओर बहती हुई प्रवह वायु द्वारा घुमा दिये जाने से वे उसे दायीं ओर रखकर चलते जान पड़ते हैं। जिस पुरी में सूर्य भगवान् का उदय होता है, उसके ठीक दूसरी ओर की पुरी में अस्त होते मालूम होंगे और जहाँ वे लोगों को पसीने-पसीने करके तपा रहे होंगे, उसके ठीक सामने की ओर आधी रात होने की कारण वे उन्हें निद्रावश किये होंगे। जिन लोगों के मध्याह्न के समय वे स्पष्ट दीख रहे होंगे, वे ही जब सूर्य सौम्यदिशा में पहुँच जायें, तब उनका दर्शन नहीं कर सकेंगे।

सूर्यदेव जब इन्द्र की पुरी से यमराज की पुरी को चलते हैं, तब पंद्रह घड़ी में वे सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजन से कुछपचीस हजार योजन-अधिक चलते हैं। फिर इसी क्रम से वे वरुण और चन्द्रमा की पुरियों को पार करके पुनः इन्द्र की पुरी में पहुँचते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा आदि अन्य ग्रह भी ज्योतिश्चक्र में अन्य नक्षत्रों के साथ-साथ उदित और अस्त होते रहते हैं।

एवं मुहूर्तेन चतुस्त्रिंशल्लक्षयोजनान्यष्टशताधिकानि

सौरो रथस्त्रयीमयोऽसौचतसृषु परिवर्तते पुरीषु ॥ १२॥

यस्यैकं चक्रं द्वादशारं षण्नेमि त्रिणाभि संवत्सरात्मकं

समामनन्ति तस्याक्षो मेरोर्मूर्धनि कृतो मानसोत्तरे

कृतेतरभागो यत्र प्रोतं रविरथचक्रं तैलयन्त्रचक्रवद्भ्रमन्

मानसोत्तरगिरौ परिभ्रमति ॥ १३॥

तस्मिन्नक्षे कृतमूलो द्वितीयोऽक्षस्तुर्यमानेन

सम्मितस्तैलयन्त्राक्षवद्ध्रुवे कृतोपरिभागः ॥ १४॥

रथनीडस्तु षट्त्रिंशल्लक्षयोजनायतस्तत्तुरीयभाग-

विशालस्तावान् रविरथयुगो यत्र हयाश्छन्दो

नामानः सप्तारुणयोजिता वहन्ति देवमादित्यम् ॥ १५॥

पुरस्तात्सवितुररुणः पश्चाच्च नियुक्तः सौत्ये

कर्मणि किलास्ते ॥ १६॥

तथा वालिखिल्या ऋषयोङ्गुष्ठपर्वमात्राः षष्टिसहस्राणि

पुरतः सूर्यं सूक्तवाकाय नियुक्ताः संस्तुवन्ति ॥ १७॥

तथान्ये च ऋषयो गन्धर्वाप्सरसो नागा ग्रामण्यो

यातुधाना देवा इत्येकैकशो गणाः सप्तचतुर्दश

मासि मासि भगवन्तं सूर्यमात्मानं नानानामानं

पृथङ्नानानामानः पृथक्कर्मभिर्द्वन्द्वश उपासते ॥ १८॥

लक्षोत्तरं सार्धनवकोटियोजनपरिमण्डलं

भूवलयस्य क्षणेन सगव्यूत्युत्तरं द्विसहस्रयोजनानि

स भुङ्क्ते ॥ १९॥

इस प्रकार भगवान् सूर्य का वेदमय रथ एक मुर्हूत में चौंतीस लाख आठ सौ योजन के हिसाब से चलता हुआ इन चारों पुरियों में घूमता रहता है। इसका संवत्सर नाम का एक चक्र (पहिया) बतलाया जाता है। उसमें मासरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छः नेमियाँ (हाल) हैं, तीन चौमासेरूप तीन नाभि (आँवन) हैं। इस रथ की धुरी का एक सिरा मेरु पर्वत की चोटी पर है और दूसरा मानसोत्तर पर्वत पर। इसमें लगा हुआ यह पहिया कोल्हू के पहिये के समान घूमता हुआ मानसोत्तर पर्वत के ऊपर चक्कर लगाता है। इस धुरी में-जिसका मूल भाग जुड़ा हुआ है, ऐसी एक धुरी और है। वह लंबाई में इससे चौथाई है। उसका ऊपरी भाग तैलयन्त्र के धुरे के समान ध्रुवलोक से लगा हुआ है।

इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लंबा और नौ लाख योजन चौड़ा है। इसक जुआ भी छत्तीस लाख योजन ही लंबा है। उसमें अरुण नाम के सारथि ने गायत्री आदि छन्दों के-से नाम वाले सात घोड़े जोत रखे हैं, वे ही इस रथ पर बैठे हुए भगवान् सूर्य को ले चलते हैं।

सूर्यदेव के आगे उन्हीं की ओर मुँह करके बैठे हुए अरुण उनके सारथि का कार्य करते हैं। भगवान् सूर्य के आगे अँगूठे के पोरुए के बराबर आकार वाले वालखिल्यादि साठ हजार ऋषि स्वस्तिवाचन के लिये नियुक्त हैं। वे उनकी स्तुति करते रहते हैं। इनके अतिरिक्त ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता भी-जो कुल मिलाकर चौदह हैं, किन्तु जोड़े से रहने के कारण सात गण कहे जाते हैं-प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नामों वाले होकर अपने भिन्न-भिन्न कर्मों से प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नाम धारण करने वाले आत्मस्वरूप भगवान् सूर्य की दो-दो मिलकर उपासना करते हैं।

इस प्रकार भगवान् सूर्य भूमण्डल के नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन लंबे घेरे में से प्रत्येक क्षण में दो हजार दो योजन की दूरी पार कर लेते हैं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ज्योतिश्चक्रसूर्यरथमण्डलवर्णनं नमैकविंशोऽध्यायः ॥ २१॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के २१ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय २२  

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