श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २२                

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २२ "भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २२

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २२                                    

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः २२                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध बाइसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ द्वाविंशोऽध्यायः ॥

राजोवाच

यदेतद्भगवत आदित्यस्य मेरुं ध्रुवं च प्रदक्षिणेन

परिक्रामतो राशीनामभिमुखं प्रचलितं चाप्रदक्षिणं

भगवतोपवर्णितममुष्य वयं कथमनुमिमीमहीति ॥ १॥

स होवाच

यथा कुलालचक्रेण भ्रमता सह भ्रमतां तदाश्रयाणां

पिपीलिकादीनां गतिरन्यैव प्रदेशान्तरेष्वप्युपलभ्य-

मानत्वादेवं नक्षत्रराशिभिरुपलक्षितेन कालचक्रेण ध्रुवं

मेरुं च प्रदक्षिणेन परिधावता सह परिधावमानानां

तदाश्रयाणां सूर्यादीनां ग्रहाणां गतिरन्यैव नक्षत्रान्तरे

राश्यन्तरे चोपलभ्यमानत्वात् ॥ २॥

स एष भगवानादिपुरुष एव साक्षान्नारायणो

लोकानां स्वस्तय आत्मानं त्रयीमयं कर्मविशुद्धि-

निमित्तं कविभिरपि च वेदेन विजिज्ञास्यमानो

द्वादशधा विभज्य षट्सु वसन्तादिष्वृतुषु

यथोपजोषमृतुगुणान् विदधाति ॥ ३॥

तमेतमिह पुरुषास्त्रय्या विद्यया वर्णाश्रमा-

चारानुपथा उच्चावचैः कर्मभिराम्नातैर्योगवितानैश्च

श्रद्धया यजन्तोऽञ्जसा श्रेयः समधिगच्छन्ति ॥ ४॥

अथ स एष आत्मा लोकानां द्यावापृथिव्योरन्तरेण

नभोवलयस्य कालचक्रगतो द्वादशमासान् भुङ्क्ते

राशिसंज्ञान् संवत्सरावयवान् मासः पक्षद्वयं दिवा

नक्तं चेति सपादर्क्षद्वयमुपदिशन्ति यावता षष्ठमंशं

भुञ्जीत स वै ऋतुरित्युपदिश्यते संवत्सरावयवः ॥ ५॥

अथ च यावतार्धेन नभोवीथ्यां प्रचरति तं

कालमयनमाचक्षते ॥ ६॥

अथ च यावन्नभोमण्डलं सह द्यावापृथिव्यो-

र्मण्डलाभ्यां कार्त्स्न्येन स ह भुञ्जीत तं कालं

संवत्सरं परिवत्सरमिडावत्सरमनुवत्सरं

वत्सरमिति भानोर्मान्द्यशैघ्र्यसमगतिभिः

समामनन्ति ॥ ७॥

एवं चन्द्रमा अर्कगभस्तिभ्य उपरिष्टाल्लक्षयोजनत

उपलभ्यमानोऽर्कस्य संवत्सरभुक्तिं पक्षाभ्यां

मासभुक्तिं सपादर्क्षाभ्यां दिनेनैव पक्षभुक्तिमग्रचारी

द्रुततरगमनो भुङ्क्ते ॥ ८॥

अथ चापूर्यमाणाभिश्च कलाभिरमराणां

क्षीयमाणाभिश्च कलाभिः पितॄणामहोरात्राणि

पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यां वितन्वानः सर्वजीव-

निवहप्राणो जीवश्चैकमेकं नक्षत्रं त्रिंशता

मुहूर्तैर्भुङ्क्ते ॥ ९॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! आपने जो कहा कि यद्यपि भगवान् सूर्य राशियों की ओर जाते समय मेरु और ध्रुव को दायीं ओर रखकर चलते मालूम होते हैं, किन्तु वस्तुतः उनकी गति दक्षिणावर्त नहीं होती- इस विषय को हम किस प्रकार समझें?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! जैसे कुम्हार के घूमते हुए चाक पर बैठकर उसके साथ घूमती हुई चींटी आदि की अपनी गति उससे भिन्न ही है, क्योंकि वह भिन्न-भिन्न समय में उस चक्र के भिन्न-भिन्न स्थानों में देखी जाती है- उसी प्रकार नक्षत्र और राशियों से उपलक्षित कालचक्र में पड़कर ध्रुव और मेरु को दायें रखकर घूमने वाले सूर्य आदि ग्रहों की गति वास्तव में उससे भिन्न ही है; क्योंकि वे कालभेद से भिन्न-भिन्न राशि और नक्षत्रों में देख पड़ते हैं।

वेद और विद्वान् लोग भी जिनकी गति को जानने के लिये उत्सुक रहते हैं, वे साक्षात् आदि पुरुष भगवान् नारायण ही लोकों के कल्याण और कर्मों की शुद्धि के लिये अपने वेदमय विग्रह काल को बारह मासों में विभक्त कर वसन्तादि छः ऋतुओं में उनके यथायोग्य गुणों का विधान करते हैं। इस लोक में वर्णाश्रम धर्म का अनुसरण करने वाले पुरुष वेदत्रयी द्वारा प्रतिपादित छोटे-बड़े कर्मों से इन्द्रादि देवताओं के रूप में और योग के साधनों से अन्तर्यामीरूप में उनकी श्रद्धापूर्वक आराधना करके सुगमता से ही परमपद प्राप्त कर सकते हैं। भगवान् सूर्य सम्पूर्ण लोकों के आत्मा हैं। वे पृथ्वी और द्युलोक के मध्य में स्थित आकाश मण्डल के भीतर कालचक्र में स्थित होकर बारह मासों को भोगते हैं, जो संवत्सर के अवयव हैं और मेष आदि राशियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें से प्रत्येक मास चन्द्रमा से शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष का, पितृमान से एक रात और एक दिन का तथा सौरमान से सवा दो नक्षत्र का बताया जाता है। जितने काल के सूर्यदेव इस संवत्सर का छठा भाग भोगते हैं, उसका वह अवयव ऋतुकहा जाता है। आकाश में भगवान् सूर्य का जितना मार्ग है, उसका आधा वे जितने समय में पार कर लेते हैं, उसे एक अयनकहते हैं तथा जितने समय में वे अपनी मन्द, तीव्र और समान गति से स्वर्ग और पृथ्वीमण्डल के सहित पूरे आकाश का चक्कर लगा जाते हैं, उसे अवान्तर भेद से संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर अथवा वत्सर कहते हैं।

इसी प्रकार सूर्य की किरणों से एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमा है। उसकी चाल बहुत तेज है, इसलिये वह सब नक्षत्रों से आगे रहता है। यह सूर्य के एक वर्ष के मार्ग को एक मास में, एक मास के मार्ग को सवा दो दिनों में और एक पक्ष के मार्ग को एक ही दिन में तै कर लेता है। यह कृष्ण पक्ष में क्षीण होती हुई कलाओं से पितृगण के और शुक्ल पक्ष में बढ़ती हुई कलाओं से देवताओं के दिन-रात का विभाग करता है तथा तीस-तीस मुहूर्तों में एक-एक नक्षत्र को पार करता है। अन्नमय और अमृतमय होने के कारण यही समस्त जीवों का प्राण और जीवन है।

य एष षोडशकलः पुरुषो भगवान् मनोमयो-

ऽन्नमयोऽमृतमयो देवपितृमनुष्यभूतपशुपक्षि-

सरीसृपवीरुधां प्राणाप्यायनशीलत्वात्सर्वमय

इति वर्णयन्ति ॥ १०॥

तत उपरिष्टात्त्रिलक्षयोजनतो नक्षत्राणि मेरुं

दक्षिणेनैव कालायन ईश्वरयोजितानि

सहाभिजिताष्टाविंशतिः ॥ ११॥

तत उपरिष्टादुशना द्विलक्षयोजनत उपलभ्यते

पुरतः पश्चात्सहैव वार्कस्य शैघ्र्यमान्द्यसाम्याभि-

र्गतिभिरर्कवच्चरति लोकानां नित्यदानुकूल एव

प्रायेण वर्षयंश्चारेणानुमीयते स वृष्टिविष्टम्भ-

ग्रहोपशमनः ॥ १२॥

उशनसा बुधो व्याख्यातस्तत उपरिष्टाद्द्विलक्ष-

योजनतो बुधः सोमसुत उपलभ्यमानःप्रायेण

शुभकृद्यदार्काद्व्यतिरिच्येत तदातिवाताभ्रप्राया-

नावृष्ट्यादि भयमाशंसते ॥ १३॥

अत ऊर्ध्वमङ्गारकोऽपि योजनलक्षद्वितय

उपलभ्यमानस्त्रिभिस्त्रिभिः पक्षैरेकैकशो

राशीन् द्वादशानुभुङ्क्ते यदि न वक्रेणाभिवर्तते

प्रायेणाशुभग्रहोऽघशंसः ॥ १४॥

तत उपरिष्टाद्द्विलक्षयोजनान्तरगतो

भगवान् बृहस्पतिरेकैकस्मिन् राशौ

परिवत्सरं परिवत्सरं चरति यदि न वक्रः

स्यात्प्रायेणानुकूलो ब्राह्मणकुलस्य ॥ १५॥

तत उपरिष्टाद्योजनलक्षद्वयात्प्रतीयमानः

शनैश्चर एकैकस्मिन् राशौ त्रिंशन्मासान्

विलम्बमानः सर्वानेवानुपर्येति तावद्भि-

रनुवत्सरैः प्रायेण हि सर्वेषामशान्तिकरः ॥ १६॥

तत उत्तरस्मादृषय एकादशलक्षयोजनान्तर

उपलभ्यन्ते य एव लोकानां शमनुभावयन्तो

भगवतो विष्णोर्यत्परमं पदं प्रदक्षिणं प्रक्रमन्ति ॥ १७॥

ये जो सोलह कलाओं से युक्त मनोमय, अन्नमय, अमृतमय, पुरुषस्वरूप भगवान् चन्द्रमा हैं- ये ही देवता, पितर, मनुष्य, भूत, पशु, पक्षी, सरीसृप और वृक्षादि समस्त प्राणियों के प्राणों का पोषण करते हैं; इसलिये इन्हें सर्वमयकहते हैं।

चन्द्रमा से तीन लाख योजन ऊपर अभिजित् के सहित अट्ठाईस नक्षत्र हैं। भगवान् ने इन्हें कालचक्र में नियुक्त कर रखा है, अतः ये मेरु को दायीं ओर रखकर घूमते रहते हैं। इनसे दो लाख योजन ऊपर शुक्र दिखायी देता है। यह सूर्य की शीघ्र, मन्द और समान गतियों के अनुसार उन्हीं के समान कभी आगे, कभी पीछे और कभी साथ-साथ रहकर चलता है। यह वर्षा करने वाला ग्रह है, इसलिये लोकों को प्रायः सर्वदा ही अनुकूल रहता है। इसकी गति से ऐसा अनुमान होता है कि यह वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शान्त कर देता है।

शुक्र की गति के साथ-साथ बुध की भी व्याख्या हो गयी-शुक्र के अनुसार ही बुध की गति भी समझ लेनी चाहिये। यह चन्द्रमा का पुत्र शुक्र से दो लाख योजन ऊपर है। यह प्रायः मंगलकारी ही है; किन्तु जब सूर्य की गति का उल्लंघन करके चलता है, तब बहुत अधिक आँधी, बादल और सूखे के भय की सूचना देता है। इससे दो लाख योजन ऊपर मंगल है। वह यदि वक्रगति से न चले तो, एक-एक राशि को तीन-तीन पक्ष में भोगता हुआ बारहों राशियों को पार करता है। यह अशुभ ग्रह है और प्रायः अमंगल का सूचक है।

इसके ऊपर दो लाख योजन की दूरी पर भगवान् बृहस्पति जी हैं। ये यदि वक्रगति से न चलें, तो एक-एक राशि को एक-एक वर्ष में भोगते हैं। ये प्रायः ब्राह्मण कुल के लिये अनुकूल रहते हैं। बृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर दिखायी देते हैं। ये तीस-तीस महीने तक एक-एक राशि में रहते हैं। अतः इन्हें सब राशियों को पार करने में तीस वर्ष लग जाते हैं। ये प्रायः सभी के लिये अशान्तिकारक हैं। इनके ऊपर ग्यारह लाख योजन की दूरी पर कश्यपादि सप्तर्षि दिखायी देते हैं। ये सब लोकों की मंगल-कामना करते हुए भगवान् विष्णु के परमपद ध्रुवलोक की प्रदक्षिणा किया करते हैं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ज्योतिश्चक्रवर्णने द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के २२ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय २३    

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