श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २४                  

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २४ "राहु आदि की स्थिति, अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २४

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: चतुविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २४                                      

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः २४                                         

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध चौबीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ चतुर्विंशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

अधस्तात्सवितुर्योजनायुते स्वर्भानुर्नक्षत्रव-

च्चरतीत्येके योऽसावमरत्वं ग्रहत्वं चालभत ।

भगवदनुकम्पया स्वयमसुरापसदः सैंहिकेयो

ह्यतदर्हस्तस्य तात जन्मकर्माणि चोपरिष्टा-

द्वक्ष्यामः ॥ १॥

यददस्तरणेर्मण्डलं प्रतपतस्तद्विस्तरतो योजना-

युतमाचक्षते द्वादशसहस्रं सोमस्य त्रयोदशसहस्रं

राहोर्यः पर्वणि तद्व्यवधानकृद्वैरानुबन्धः

सूर्याचन्द्रमसावभिधावति ॥ २॥

तन्निशम्योभयत्रापि भगवता रक्षणाय प्रयुक्तं

सुदर्शनं नाम भागवतं दयितमस्त्रं तत्तेजसा

दुर्विषहं मुहुः परिवर्तमानमभ्यवस्थितो मुहूर्त-

मुद्विजमानश्चकितहृदय आरादेव निवर्तते

तदुपरागमिति वदन्ति लोकाः ॥ ३॥

ततोऽधस्तात्सिद्धचारणविद्याधराणां सदनानि

तावन्मात्र एव ॥ ४॥

ततोऽधस्ताद्यक्षरक्षःपिशाचप्रेतभूतगणानां

विहाराजिरमन्तरिक्षं यावद्वायुः प्रवाति यावन्मेघा

उपलभ्यन्ते ॥ ५॥

ततोऽधस्ताच्छतयोजनान्तर इयं पृथिवी याव-

द्धंसभासश्येनसुपर्णादयः पतत्त्रिप्रवरा उत्पतन्तीति ॥ ६॥

उपवर्णितं भूमेर्यथा सन्निवेशावस्थानमवनेर-

प्यधस्तात्सप्तभूविवरा एकैकशो योजनायुतान्तरेणा-

यामविस्तारेणोपकॢप्ता अतलं वितलं सुतलं

तलातलं महातलं रसातलं पातालमिति ॥ ७॥

एतेषु हि बिलस्वर्गेषु स्वर्गादप्यधिककामभोगै-

श्वर्यानन्दभूतिविभूतिभिः सुसमृद्धभवनोद्याना-

क्रीडाविहारेषु दैत्यदानवकाद्रवेया नित्यप्रमुदिता-

नुरक्तकलत्रापत्यबन्धुसुहृदनुचरा गृहपतय

ईश्वरादप्यप्रतिहतकामा मायाविनोदा निवसन्ति ॥ ८॥

येषु महाराज मयेन मायाविना विनिर्मिताः

पुरो नानामणिप्रवरप्रवेकविरचितविचित्रभवन-

प्राकारगोपुरसभाचैत्यचत्वरायतनादिभि-

र्नागासुरमिथुनपारावतशुकसारिकाऽऽकीर्णकृत्रिम-

भूमिभिर्विवरेश्वरगृहोत्तमैः समलङ्कृताश्चकासति ॥ ९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कुछ लोगों का कथन है कि सूर्य से दस हजार योजन नीचे राहु नक्षत्रों के समान घूमता है। इसने भगवान् की कृपा से ही देवत्व और ग्रहत्व प्राप्त किया है, स्वयं यह सिंहिकापुत्र असुराधम होने के कारण किसी प्रकार इस पद के योग्य नहीं है। इसके जन्म और कर्मों का हम आगे वर्णन करेंगे।

सूर्य का जो यह अत्यन्त तपता हुआ मण्डल है, उसका विस्तार दस हजार योजन बतलाया जाता है। इसी प्रकार चन्द्रमण्डल का विस्तार बारह हजार योजन है और राहु का तेरह हजार योजन। अमृतपान के समय राहु देवता के वेष में सूर्य और चन्द्रमा के बीच में आकर बैठ गया था, उस समय सूर्य और चन्द्रमा ने इसका भेद खोल दिया था; उस वैर को याद करके यह अमावस्या और पूर्णिमा के दिन उन पर आक्रमण करता है। यह देखकर भगवान् ने सूर्य और चन्द्रमा की रक्षा के लिये उन दोनों के पास अपने प्रिय आयुध सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया है। वह निरन्तर घूमता रहता है, इसलिये राहु उसके असह्य तेज से उद्विग्न और चकितचित्त होकर मुहूर्तमात्र उनके सामने टिककर फिर सहसा लौट आता है। उसके उतनी देर उनके सामने ठहरने को ही लोग ग्रहणकहते हैं।

राहु से दस हजार योजन नीचे सिद्ध, चारण और विद्याधर आदि के स्थान हैं। उनके नीचे जहाँ तक वायु की गति है और बादल दिखायी देते हैं, अन्तरिक्ष लोक है। यह यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेत और भूतों का विहार स्थल है। उससे नीचे सौ योजन की दूरी पर यह पृथ्वी है। जहाँ तक हंस, गिद्ध, बाज और गरुड़ आदि प्रधान-प्रधान पक्षी उड़ सकते हैं, वहीं तक इसकी सीमा है। पृथ्वी के विस्तार और स्थिति आदि का वर्णन तो हो ही चुका है। इसके अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल नाम के सात भू-विवर (भूगर्भस्थित बिल या लोक) हैं। ये एक के नीचे एक दस-दस हजार योजन की दूरी पर स्थित हैं और इनमें से प्रत्येक की लंबाई-चौड़ाई भी दस-दस हजार योजन ही है। ये भूमि के बिल भी एक प्रकार के स्वर्ग ही हैं। इनमें स्वर्ग से भी अधिक विषय भोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तान-सुख और धन-सम्पत्ति है। यहाँ के वैभवपूर्ण भवन, उद्यान और क्रीड़ास्थानों में दैत्य, दानव और नाग तरह-तरह की मायामयी क्रीड़ाएँ करते हुए निवास करते हैं। वे सब गार्हस्थ्य धर्म का पालन करने वाले हैं। उनके स्त्री, पुत्र, बन्धु, बान्धव और सेवक लोग उनसे बड़ा प्रेम रखते हैं और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। उनके भोगों में बाधा डालने की इन्द्रादि में भी सामर्थ्य नहीं है।

महाराज! इन बिलों में मायावी मय दानव की बनायी हुई अनेकों पुरियाँ शोभा से जगमगा रही हैं, जो अनेक जाति की सुन्दर-सुन्दर श्रेष्ठ मणियों से रचे हुए चित्र-विचित्र भवन, परकोटे, नगर द्वार, सभा भवन, मन्दिर, बड़े-बड़े आँगन और गृहों से सुशोभित हैं; तथा जिनकी कृत्रिम भूमियों (फर्शों) पर नाग और असुरों के जोड़े एवं कबूतर, तोता और मैना आदि पक्षी किलोल करते रहते हैं, ऐसे पातालधिपतियों के भव्य भवन उन पुरियों की शोभा बढ़ाते हैं।

उद्यानानि चातितरां मन इन्द्रियानन्दिभिः

कुसुमफलस्तबकसुभगकिसलयावनतरुचिर-

विटपविटपिनां लताङ्गालिङ्गितानां श्रीभिः

समिथुनविविधविहङ्गमजलाशयानाममल-

जलपूर्णानां झषकुलोल्लङ्घनक्षुभितनीरनीरज-

कुमुदकुवलयकह्लारनीलोत्पललोहितशतपत्रादि

वनेषु कृतनिकेतनानामेकविहाराकुलमधुर-

विविधस्वनादिभिरिन्द्रियोत्सवैरमरलोकश्रिय-

मतिशयितानि ॥ १०॥

यत्र ह वाव न भयमहोरात्रादिभिः

कालविभागैरुपलक्ष्यते ॥ ११॥

यत्र हि महाहिप्रवरशिरोमणयः सर्वं तमः प्रबाधन्ते ॥ १२॥

न वा एतेषु वसतां दिव्यौषधिरसरसायनान्नपान-

स्नानादिभिराधयो व्याधयो वलीपलितजरादयश्च

देहवैवर्ण्यदौर्गन्ध्यस्वेदक्लमग्लानिरिति वयोऽवस्थाश्च

भवन्ति ॥ १३॥

न हि तेषां कल्याणानां प्रभवति कुतश्चन मृत्युर्विना

भगवत्तेजसश्चक्रापदेशात् ॥ १४॥

यस्मिन् प्रविष्टेऽसुरवधूनां प्रायः पुंसवनानि

भयादेव स्रवन्ति पतन्ति च ॥ १५॥

अथातले मयपुत्रोऽसुरो बलो निवसति येन ह वा

इह सृष्टाः षण्णवतिर्मायाः काश्चनाद्यापि मायाविनो

धारयन्ति यस्य च जृम्भमाणस्य मुखतस्त्रयः स्त्रीगणा

उदपद्यन्त स्वैरिण्यः कामिन्यः पुंश्चल्य इति या वै

बिलायनं प्रविष्टं पुरुषं रसेन हाटकाख्येन साधयित्वा

स्वविलासावलोकनानुरागस्मितसंलापोपगूहनादिभिः

स्वैरं किल रमयन्ति यस्मिन्नुपयुक्ते पुरुष ईश्वरोऽहं

सिद्धोऽहमित्ययुतमहागजबलमात्मानमभिमन्यमानः

कत्थते मदान्ध इव ॥ १६॥

वहाँ के बगीचे भी अपनी शोभा से देवलोक के उद्यानों की शोभा को मात करते हैं। उनमें अनेकों वृक्ष हैं, जिनकी सुन्दर डालियाँ फल-फूलों के गुच्छों और कोमल कोंपलों के भार से झुकी रहती हैं तथा जिन्हें तरह-तरह की लताओं ने अपने अंगपाश से बाँध रखा है। वहाँ जो निर्मल जल से भरे हुए अनेकों जलाशय हैं, उनमें विविध विहंगों के जोड़े विलास करते रहते हैं। इन वृक्षों और जलाशयों की सुषमा से वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे हैं। उन जलाशयों में रहने वाली मछलियाँ जब खिलवाड़ करती हुई उछलती हैं, तब उनका जल हिल उठता है। साथ ही जल के ऊपर उगे हुए कमल, कुमुद, कुवलय, कल्हार, नीलकमल, लालकमल और शतपत्र कमल आदि के समुदाय भी हिलने लगते हैं।

इन कमलों के वनों में रहने वाले पक्षी अविराम क्रीड़ा-कौतुक करते हुए भाँति-भाँति की बड़ी मीठी बोली बोलते रहते हैं, जिसे सुनकर मन और इन्द्रियों को बड़ा ही आह्लाद होता है। उस समय समस्त इन्द्रियों में उत्सव-सा छा जाता है। वहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं जाता, इसलिये दिन-रात आदि काल विभाग का भी कोई खटका नहीं देखा जाता। वहाँ के सम्पूर्ण अन्धकार को बड़े-बड़े नागों के मस्तकों की मणियाँ ही दूर करती हैं। इन लोकों के निवासी जन ओषधि, रस, रसायन, अन्न, पान और स्नानादि का सेवन करते हैं, वे सभी पदार्थ दिव्य होते हैं; इन दिव्य वस्तुओं के सेवन से उन्हें मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते तथा झुर्रियां पड़ जाना, बाल पक जाना, बुढ़ापा आ जाना, देह का कान्तिहीन हो जाना, शरीर में से दुर्गन्ध आना, पसीना चूना, थकावट अथवा शिथिलता आना तथा आयु के साथ शरीर की अवस्थाओं का बदलना-ये कोई विकार नहीं होते। वे सदा सुन्दर, स्वस्थ, जवान और शक्तिसम्पन्न रहते हैं।

उन पुण्य पुरुषों की भगवान् के तेजरूप सुदर्शन चक्र के सिवा और किसी साधन से मृत्यु नहीं हो सकती। सुदर्शन चक्र के आते ही भय के कारण असुर रमणियों का गर्भपात हो जाता है। अतल लोक में मय दानव का पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानबे प्रकार की माया रची है। उनमें से कोई-कोई आज भी मायावी पुरुषों में पायी जाती हैं। उसने एक बार जँभाई ली थी, उस समय उसके मुख से स्वैरिणी (केवल अपने वर्ण के पुरुषों से रमण करने वाली), कामिनी (अन्य वर्णों के पुरुषों से भी समागम करने वाली) और पुंश्चली (अत्यन्त चंचल स्वभाव वाली)-तीन प्रकार की स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं। ये उस लोक में रहने वाले पुरुषों को हाटक नाम रस पिलाकर सम्भोग करने में समर्थ बना लेती हैं और फिर उनके साथ अपनी हाव-भावमयी चितवन, प्रेममयी मुसकान, प्रेमालाप और आलिंगनादि के द्वारा यथेष्ट रमण करती हैं। उस हाटक-रस को पीकर मनुष्य मदान्ध-सा हो जाता है और अपने को दस हजार हाथियों के समान बलवान् समझकर मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँइस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें करने लगता है।

ततोऽधस्ताद्वितले हरो भगवान् हाटकेश्वरः स्वपार्षद-

भूतगणावृतः प्रजापतिसर्गोपबृंहणाय भवो भवान्या सह

मिथुनीभूत आस्ते यतः प्रवृत्ता सरित्प्रवरा हाटकी नाम

भवयोर्वीर्येण यत्र चित्रभानुर्मातरिश्वना समिध्यमान

ओजसा पिबति तन्निष्ठ्यूतं हाटकाख्यं सुवर्णं भूषणेना-

सुरेन्द्रावरोधेषु पुरुषाः सह पुरुषीभिर्धारयन्ति ॥ १७॥

ततोऽधस्तात्सुतले उदारश्रवाः पुण्यश्लोको

विरोचनात्मजो बलिर्भगवता महेन्द्रस्य प्रियं

चिकीर्षमाणेनादितेर्लब्धकायो भूत्वा वटुवामनरूपेण

पराक्षिप्तलोकत्रयो भगवदनुकम्पयैव पुनः प्रवेशित

इन्द्रादिष्वविद्यमानया सुसमृद्धया श्रियाभिजुष्टः

स्वधर्मेणाराधयंस्तमेव भगवन्तमाराधनीयमपगत-

साध्वस आस्तेऽधुनापि ॥ १८॥

नो एवैतत्साक्षात्कारो भूमिदानस्य यत्तद्भगवत्यशेष-

जीवनिकायानां जीवभूतात्मभूते परमात्मनि वासुदेवे

तीर्थतमे पात्र उपपन्ने परया श्रद्धया परमादरसमाहित-

मनसा सम्प्रतिपादितस्य साक्षादपवर्गद्वारस्य

यद्बिलनिलयैश्वर्यम् ॥ १९॥

यस्य ह वाव क्षुतपतनप्रस्खलनादिषु विवशः

सकृन्नामाभिगृणन् पुरुषः कर्मबन्धनमञ्जसा

विधुनोति यस्य हैव प्रतिबाधनं मुमुक्षवो-

ऽन्यथैवोपलभन्ते ॥ २०॥

तद्भक्तानामात्मवतां सर्वेषामात्मन्यात्मद

आत्मतयैव ॥ २१॥

न वै भगवान् नूनममुष्यानुजग्राह यदुत पुनरात्मा-

नुस्मृतिमोषणं मायामयभोगैश्वर्यमेवातनुतेति ॥ २२॥

यत्तद्भगवतानधिगतान्योपायेन याच्ञाच्छलेनापहृत

स्वशरीरावशेषितलोकत्रयो वरुणपाशैश्च सम्प्रतिमुक्तो

गिरिदर्यां चापविद्ध इति होवाच ॥ २३॥

नूनं बतायं भगवानर्थेषु न निष्णातो योऽसाविन्द्रो

यस्य सचिवो मन्त्राय वृत एकान्ततो बृहस्पतिस्त-

मतिहाय यमुपेन्द्रेणात्मानमयाचतात्मनश्चाशिषो

नो एव तद्दास्यमतिगम्भीरवयसः कालस्य

मन्वन्तरपरिवृत्तं कियल्लोकत्रयमिदम् ॥ २४॥

यस्यानुदास्यमेवास्मत्पितामहः किल वव्रे न तु

स्वपित्र्यं यदुताकुतोभयं पदं दीयमानं भगवतः परमिति

भगवतोपरते खलु स्वपितरि ॥ २५॥

उसके नीचे वितल लोक में भगवान् हाटकेश्वर नामक महादेव जी अपने पार्षद भूतगणों के सहित रहते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि की वृद्धि के लिये भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के तेज से वहाँ हाटकी नाम की एक श्रेष्ठ नदी निकली है। उसके जल को वायु से प्रज्वलित अग्नि बड़े उत्साह से पीता है। वह जो हाटक नाम का सोना थूकता है, उससे बने हुए आभूषणों को दैत्यराजों के अन्तःपुरों में स्त्री-पुरुष सभी धारण करते हैं।

वितल के नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशस्वी पवित्र कीर्ति विरोचन पुत्र बलि रहते हैं। भगवान् ने इन्द्र का प्रिय करने के लिये अदिति के गर्भ से वटु-वामन रूप में अवतीर्ण होकर उनसे तीनों लोक छीन लिये थे। फिर भगवान् की कृपा से ही उनका इस लोक में प्रवेश हुआ। यहाँ उन्हें जैसी उत्कृष्ट सम्पत्ति मिली हुई है, वैसी इन्द्रादि के पास भी नहीं है। अतः वे उन्हीं पूज्यतम प्रभु की अपने धर्माचरण द्वारा आराधना करते हुए यहाँ आज भी निर्भयतापूर्वक रहते हैं।

राजन्! सम्पूर्ण जीवों के नियन्ता एवं आत्मस्वरूप परमात्मा भगवान् वासुदेव-जैसे पूज्यतम, पवित्रतम पात्र आने पर उन्हें परम श्रद्धा और आदर के साथ स्थिर चित्त से दिये हुए भूमिदान का यही कोई मुख्य फल नहीं है कि बलि को सुतल लोक का ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। यह ऐश्वर्य तो अनित्य है। किन्तु वह भूमिदान तो साक्षात् मोक्ष का ही द्वार है। भगवान् का तो छींकने, गिरने और फिसलने के समय विवश होकर एक बार नाम लेने से भी मनुष्य सहसा कर्म-बन्धन को काट देता है, जबकि मुमुक्षु लोग इस कर्म बन्धन को योग साधन आदि अन्य अनेकों उपायों का आश्रय लेने पर बड़े कष्ट से कहीं काट पाते हैं। अतएव अपने संयमी भक्त और ज्ञानियों को स्वस्वरूप प्रदान करने वाले और समस्त प्राणियों के आत्मा श्रीभगवान् को आत्मभाव से किये हुए भूमिदान का यह फल नहीं हो सकता। भगवान् ने यदि बलि को उसके सर्वस्वदान के बदले अपनी विस्मृति कराने वाला यह मायामय भोग और ऐश्वर्य ही दिया तो उन्होंने उस पर यह कोई अनुग्रह नहीं किया।

जिस समय कोई और उपाय न देखकर भगवान् ने याचकों के छल से उसका त्रिलोकी का राज्य छीन लिया और उसके पास केवल उसका शरीर मात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुण के पाशों में बाँधकर पर्वत की गुफा में डाल दिये जाने पर उसने कहा था- खेद है, यह ऐश्वर्यशाली इन्द्र विद्वान् होकर भी अपना सच्चा स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल नहीं है। इसने सम्मति लेने के लिये अनन्यभाव से बृहस्पति जी को अपना मन्त्री बनाया; फिर भी उनकी अवहेलना करके इसने श्रीविष्णु भगवान् से उनका दास्य न माँगकर उनके द्वारा मुझसे अपने लिये ये भोग ही माँगे। ये तीन लोक तो केवल एक मन्वन्तर तक ही रहते हैं, जो अनन्त काल का एक अवयव मात्र है। भगवान् के कैंकर्य के आगे भला, इन तुच्छ भोगों का क्या मूल्य है। हमारे पितामह प्रह्लाद जी ने-भगवान् के हाथों अपने पिता हिरण्यकशिपु के मारे जाने पर-प्रभु की सेवा का ही वर माँगा था। भगवान् देना भी चाहते थे, तो भी उनसे दूर करने वाला समझकर उन्होंने अपने पिता का निष्कण्टक राज्य लेना स्वीकार नहीं किया।

तस्य महानुभावस्यानुपथममृजितकषायः को वास्मद्विधः

परिहीणभगवदनुग्रह उपजिगमिषतीति ॥ २६॥

तस्यानुचरितमुपरिष्टाद्विस्तरिष्यते यस्य भगवान् स्वय-

मखिलजगद्गुरुर्नारायणो द्वारि गदापाणिरवतिष्ठते निज-

जनानुकम्पितहृदयो येनाङ्गुष्ठेन पदा दशकन्धरो योजना-

युतायुतं दिग्विजय उच्चाटितः ॥ २७॥

ततोऽधस्तात्तलातले मयो नाम दानवेन्द्रस्त्रिपुराधिपति-

र्भगवता पुरारिणा त्रिलोकीशं चिकीर्षुणा निर्दग्धस्व-

पुरत्रयः तत्प्रसादाल्लब्धपदो मायाविनामाचार्यो

महादेवेन परिरक्षितो विगतसुदर्शनभयो महीयते ॥ २८॥

ततोऽधस्तान्महातले काद्रवेयाणां सर्पाणां

नैकशिरसां क्रोधवशो नाम गणः कुहकतक्षककालिय-

सुषेणादिप्रधाना महाभोगवन्तः पतत्त्रिराजाधिपतेः

पुरुषवाहादनवरतमुद्विजमानाः स्वकलत्रापत्यसुहृ-

त्कुटुम्बसङ्गेन क्वचित्प्रमत्ता विहरन्ति ॥ २९॥

ततोऽधस्ताद्रसातले दैतेया दानवाः पणयो नाम

निवातकवचाः कालेया हिरण्यपुरवासिन इति

विबुधप्रत्यनीका उत्पत्त्या महौजसो महासाहसिनो

भगवतः सकललोकानुभावस्य हरेरेव तेजसा

प्रतिहतबलावलेपा बिलेशया इव वसन्ति ये वै

सरमयेन्द्रदूत्या वाग्भिर्मन्त्रवर्णाभिरिन्द्राद्बिभ्यति ॥ ३०॥

ततोऽधस्तात्पाताले नागलोकपतयो वासुकिप्रमुखाः

शङ्खकुलिकमहाशङ्खश्वेतधनञ्जयधृतराष्ट्रशङ्खचूड-

कम्बलाश्वतरदेवदत्तादयो महाभोगिनो महामर्षा

निवसन्ति येषामु ह वै पञ्चसप्तदशशतसहस्रशीर्षाणां

फणासु विरचिता महामणयो रोचिष्णवः पातालविवर-

तिमिरनिकरं स्वरोचिषा विधमन्ति ॥ ३१॥

बड़े महानुभाव थे। मुझ पर तो न भगवान् की कृपा ही है और न मेरी वासनाएँ ही शान्त हुई हैं; फिर मेरे-जैसा कौन पुरुष उनके पास पहुँचने का साहस कर सकता है?

राजन्! इस बलि का चरित हम आगे (अष्टम स्कन्ध में) विस्तार से कहेंगे। अपने भक्तों के प्रति भगवान् का हृदय दया से भरा रहता है। इसी से अखिल जगत् के परम पूजनीय गुरु भगवान् नारायण हाथ में गदा लिये सुतल लोक में राजा बलि के द्वार पर सदा उपस्थित रहते हैं। एक बार जब दिग्विजय करता हुआ घमंडी रावण वहाँ पहुँचा, तब उसे भगवान् ने अपने पैर के अँगूठे की ठोकर से ही लाखों योजन दूर फेंक दिया था।

सुतल लोक से नीचे तलातल है। वहाँ त्रिपुराधिती दानवराज मय रहता है। पहले तीनों लोको को शान्ति प्रदान करने के लिये भगवान् शंकर ने उसके तीनों पुर भस्म कर दिये थे। फिर उन्हीं की कृपा से उसे यह स्थान मिला। वह मायावियों का परम गुरु है और महादेव जी के द्वारा सुरक्षित है, इसलिये उसे सुदर्शन चक्र से भी कोई भय नहीं है। वहाँ के निवासी उसका बहुत आदर करते हैं। उसके नीचे महातल में कद्रु से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का क्रोधवश नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कुहक, तक्षक, कालिय और सुषेण आदि प्रधान हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं। वे सदा भगवान् के वाहन पक्षिराज गरुड़ जी से डरते रहते हैं; तो भी कभी-कभी अपने स्त्री, पुत्र, मित्र और कुटुम्ब के संग से प्रमत्त होकर विहार करने लगते हैं।

उसके नीचे रसातल में पणि नाम के दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओं से विरोध है। ये जन्म से ही बड़े बलवान् और महान् साहसी होते हैं। किन्तु जिनका प्रभाव सम्पूर्ण लोकों में फैला हुआ है, उन श्रीहरि के तेज से बलाभिमान चूर्ण हो जाने के कारण ये सर्पों के समान लुक-छिपकर रहते हैं तथा इन्द्र की दूती सरमा के कहे हुए मन्त्रवर्णरूप[1] वाक्य के कारण सर्वदा इन्द्र से डरते रहते हैं।

रसातल के नीचे पाताल है। वहाँ शंख, कुलिक, महाशंख, श्वेत, धनजंय, ध्रितराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अश्वतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनों वाले नाग रहते हैं। इनमें वासुकि प्रधान हैं। उनमें से किसी के पाँच, किसी के सात, किसी के दस, किसी के सौ और किसी के हजार सिर हैं। उनके फनों की दमकती हुई मणियाँ अपने प्रकाश से पाताल लोक का सारा अन्धकार नष्ट कर देती हैं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे राह्वादिस्थितिबिलस्वर्गमर्यादानिरूपणं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के २४ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय २५ 

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