श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २३                 

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २३ "शिशुमार चक्र का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २३

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २३                                     

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः २३                                        

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध तेइसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ त्रयोविंशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

अथ तस्मात्परतस्त्रयोदशलक्षयोजनान्तरतो

यत्तद्विष्णोः परमं पदमभिवदन्ति यत्र ह महा-

भागवतो ध्रुव औत्तानपादिरग्निनेन्द्रेण प्रजापतिना

कश्यपेन धर्मेण च समकालयुग्भिः सबहुमानं

दक्षिणतः क्रियमाण इदानीमपि कल्पजीविना-

माजीव्य उपास्ते तस्येहानुभाव उपवर्णितः ॥ १॥

स हि सर्वेषां ज्योतिर्गणानां ग्रहनक्षत्रादीना-

मनिमिषेणाव्यक्तरंहसा भगवता कालेन

भ्राम्यमाणानां स्थाणुरिवावष्टम्भ ईश्वरेण विहितः

शश्वदवभासते ॥ २॥

यथा मेढीस्तम्भ आक्रमणपशवः संयोजिता-

स्त्रिभिस्त्रिभिः सवनैर्यथास्थानं मण्डलानि

चरन्त्येवं भगणा ग्रहादय एतस्मिन्नन्तर्बहिर्योगेन

कालचक्र आयोजिता ध्रुवमेवावलम्ब्य

वायुनोदीर्यमाणा आकल्पान्तं परिचङ्क्रमन्ति

नभसि यथा मेघाः श्येनादयो वायुवशाः

कर्मसारथयः परिवर्तन्ते एवं ज्योतिर्गणाः

प्रकृतिपुरुषसंयोगानुगृहीताः कर्मनिर्मित-

गतयो भुवि न पतन्ति ॥ ३॥

केचनैतज्ज्योतिरनीकं शिशुमारसंस्थानेन भगवतो

वासुदेवस्य योगधारणायामनुवर्णयन्ति ॥ ४॥

यस्य पुच्छाग्रेऽवाक्शिरसः कुण्डलीभूतदेहस्य

ध्रुव उपकल्पितस्तस्य लाङ्गूले प्रजापतिरग्निरिन्द्रो

धर्म इति पुच्छमूले धाता विधाता च कट्यां

सप्तर्षयः तस्य दक्षिणावर्तकुण्डलीभूतशरीरस्य

यान्युदगयनानि दक्षिणपार्श्वे तु नक्षत्राण्युप-

कल्पयन्ति दक्षिणायनानि तु सव्ये यथा

शिशुमारस्य कुण्डलाभोगसन्निवेशस्य

पार्श्वयोरुभयोरप्यवयवाः समसङ्ख्या भवन्ति

पृष्ठे त्वजवीथी आकाशगङ्गा चोदरतः ॥ ५॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! सप्तर्षियों से तेरह लाख योजन के ऊपर ध्रुवलोक है। इसे भगवान् विष्णु का परमपद कहते हैं। यहाँ उत्तानपाद के पुत्र परमभगवद्भक्त ध्रुव जी विराजमान हैं। अग्नि, इन्द्र, प्रजापति कश्यप और धर्म-ये सब एक साथ अत्यन्त आदरपूर्वक इनकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। अब भी कल्पपर्यन्त रहने वाले लोक इन्हीं के आधार स्थित हैं। इनका इस लोक का प्रभाव हम पहले (चौथे स्कन्ध में) वर्णन कर चुके हैं। सदा जागते रहने वाले अव्यक्तगति भगवान् काल के द्वारा जो ग्रह-नक्षत्रादि ज्योतिर्गण निरन्तर घुमाये जाते हैं, भगवान् ने ध्रुवलोक को ही उन सबके आधार स्तम्भरूप से नियुक्त किया है। अतः यह एक ही स्थान में रहकर सदा प्रकाशित होता है।

जिस प्रकर दायँ चलाने के समय अनाज को खूँदने वाले पशु छोटी, बड़ी और मध्यम रस्सी में बँधकर क्रमशः निकट, दूर और मध्य में रहकर खंभे के चारों ओर मण्डल बाँधकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सारे नक्षत्र और ग्रहगण बाहर-भीतर के क्रम से इस कालचक्र में नियुक्त होकर ध्रुवलोक का ही आश्रय लेकर वायु की प्रेरणा से कल्प के अन्त तक घूमते रहते हैं। जिस प्रकार मेघ और बाज आदि पक्षी अपने कर्मों की सहायता से वायु के अधीन रहकर आकाश में उड़ते रहते हैं, उसी प्रकार ये ज्योतिर्गण भी प्रकृति और पुरुष के संयोगवश अपने-अपने कर्मों के अनुसार चक्कर काटते रहते हैं, पृथ्वी पर नहीं गिरते।

कोई-कोई पुरुष भगवान् की योगमाया के आधार पर स्थित इस ज्योतिश्चक्र का शिशुमार (सूँस) के रूप में वर्णन करते हैं। यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए है और इनका मुख नीचे की ओर हैं। इसकी पूँछ के सिरे पर ध्रुव स्थित है। पूँछ के मध्य भाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म है। पूँछ की जड़ में धाता और विधाता हैं। इसके कटिप्रदेश में सप्तर्षि हैं। यह शिशुमार दाहिनी ओर को सिकुड़कर कुण्डली मारे हुए है। ऐसी स्थिति में अभिजित् से लेकर पुनर्वसुपर्यन्त जो उत्तरायण के चौदह नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने भाग में हैं और पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ापर्यन्त जो दक्षिणायन के चौदह नक्षत्र हैं, वे बायें भाग में हैं। लोक में भी जब शिशुमार कुण्डलाकार होता है, तब उसके दोनों ओर के अंगों की संख्या समान रहती है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्र-संख्या में भी समानता है। इसकी पीठ में अजवीथी (मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नाम के तीन नक्षत्रों का समूह) है और उदर में आकाशगंगा है।

पुनर्वसुपुष्यौ दक्षिणवामयोः श्रोण्योरार्द्राऽऽश्लेषे

च दक्षिणवामयोः पश्चिमयोः पादयोरभिजि-

दुत्तराषाढे दक्षिणवामयोर्नासिकयोर्यथासङ्ख्यं

श्रवणपूर्वाषाढे दक्षिणवामयोर्लोचनयोर्धनिष्ठा

मूलं च दक्षिणवामयोः कर्णयोर्मघादीन्यष्ट

नक्षत्राणि दक्षिणायनानि वामपार्श्ववङ्क्रिषु

युञ्जीत तथैव मृगशीर्षादीन्युदगयनानि

दक्षिणपार्श्ववङ्क्रिषु प्रातिलोम्येन प्रयुञ्जीत

शतभिषा ज्येष्ठे स्कन्धयोर्दक्षिणवामयोर्न्यसेत् ॥ ६॥

उत्तराहनावगस्तिरधराहनौ यमो मुखेषु चाङ्गारकः

शनैश्चर उपस्थे बृहस्पतिः ककुदि वक्षस्यादित्यो

हृदये नारायणो मनसि चन्द्रो नाभ्यामुशना

स्तनयोरश्विनौ बुधः प्राणापानयो राहुर्गले केतवः

सर्वाङ्गेषु रोमसु सर्वे तारागणाः ॥ ७॥

एतदु हैव भगवतो विष्णोः सर्वदेवतामयं

रूपमहरहः सन्ध्यायां प्रयतो वाग्यतो

निरीक्षमाण उपतिष्ठेत नमो ज्योतिर्लोकाय

कालायनायानिमिषां पतये महापुरुषाया-

भिधीमहीति ॥ ८॥

ग्रहर्क्षतारामयमाधिदैविकं

पापापहं मन्त्रकृतां त्रिकालम् ।

नमस्यतः स्मरतो वा त्रिकालं

नश्येत तत्कालजमाशु पापम् ॥ ९॥

राजन्! इसके दाहिने और बायें कटितटों में पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हैं, पीछे के दाहिने और बायें चरणों में आर्द्रा और आश्लेषा नक्षत्र हैं तथा दाहिने और बायें नथुनों में क्रमशः अभिजित् और उत्तराषाढ़ा हैं। इसी प्रकार दाहिने और बायें नेत्रों में श्रवण और पूर्वाषाढ़ा एवं दाहिने और बायें कानों में धनिष्ठा और मूल नक्षत्र हैं। मघा आदि दक्षिणायन के आठ नक्षत्र बायीं पसलियों में और विपरीत क्रम से मृगशिरा आदि उत्तरायण के आठ नक्षत्र दाहिनी पसलियों में हैं।

शतभिषा और ज्येष्ठा-ये दो नक्षत्र क्रमशः दाहिने और बायें कंधों की जगह हैं। इसकी ऊपर की थूथनी में अगस्त्य, नीचे की ठोड़ी में नक्षत्ररूप यम, मुखों में मंगल, लिंगप्रदेश में शनि, कुकुद् में बृहस्पति, छाती में सूर्य, हृदय में नारायण, मन में चन्द्रमा, नाभि में शुक्र, स्तनों में अश्विनीकुमार, प्राण और अपान में बुध, गले में राहु, समस्त अंगों में केतु और रोमों में सम्पूर्ण तारागण स्थित हैं।

राजन्! यह भगवान् विष्णु का सर्वदेवमय स्वरूप है। इसका नित्यप्रति सायंकाल के समय पवित्र और मौन होकर दर्शन करते हुए चिन्तन करना चाहिये तथा इस मन्त्र का जप करते हुए भगवान् की स्तुति करनी चाहिये- सम्पूर्ण ज्योतिर्गणों के आश्रय कालचक्र स्वरूप, सर्वदेवाधिपति परमपुरुष परमात्मा का हम नमस्कारपूर्वक ध्यान करते हैं

ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के रूप में भगवान् का आधिदैविक रूप प्रकाशित हो रहा है; वह तीनों समय उपर्युक्त मन्त्र का जप करने वाले पुरुषों के पाप नष्ट कर देता है। जो पुरुष प्रातः, मध्याह्न और सायं-तीनों काल उनके इस आधिदैविक स्वरूप का नित्यप्रति चिन्तन और वन्दन करता है, उसके उस समय किये हुए पाप तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे शिशुमारसंस्थावर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के २३ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय २४  

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