श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५                   

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५ "श्रीसंकर्षणदेव का विवरण और स्तुति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: पञ्चविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५                                       

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः २५                                          

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध पच्चीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ पञ्चविंशोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

तस्य मूलदेशे त्रिंशद्योजनसहस्रान्तर आस्ते या वै

कला भगवतस्तामसी समाख्यातानन्त इति सात्वतीया

द्रष्टृदृश्ययोः सङ्कर्षणमहमित्यभिमान-लक्षणं यं

सङ्कर्षणमित्याचक्षते ॥ १॥

यस्येदं क्षितिमण्डलं भगवतोऽनन्तमूर्तेः सहस्रशिरस

एकस्मिन्नेव शीर्षणि ध्रियमाणं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते ॥ २॥

यस्य ह वा इदं कालेनोपसञ्जिहीर्षतोऽमर्षविरचित-

रुचिरभ्रमद्भ्रुवोरन्तरेण साङ्कर्षणो नाम रुद्र एकादश-

व्यूहस्त्र्यक्षस्त्रिशिखं शूलमुत्तम्भयन्नुदतिष्ठत् ॥ ३॥

यस्याङ्घ्रिकमलयुगलारुणविशदनखमणिषण्ड-

मण्डलेषु अहिपतयः सह सात्वतर्षभैरेकान्तभक्ति-

योगेनावनमन्तः स्ववदनानि परिस्फुरत्कुण्डलप्रभा-

मण्डितगण्डस्थलान्यतिमनोहराणि प्रमुदितमनसः

खलु विलोकयन्ति ॥ ४॥

यस्यैव हि नागराजकुमार्य आशिष आशासाना-

श्चार्वङ्गवलयविलसितविशदविपुलधवलसुभग-

रुचिरभुजरजतस्तम्भेष्वगुरुचन्दनकुङ्कुमपङ्कानु-

लेपेनावलिम्पमानास्तदभिमर्शनोन्मथितहृदय-

मकरध्वजावेशरुचिरललितस्मितास्तदनुराग-

मदमुदितमदविघूर्णितारुणकरुणावलोकनयन-

वदनारविन्दं सव्रीडं किल विलोकयन्ति ॥ ५॥

स एव भगवाननन्तोऽनन्तगुणार्णव आदिदेव

उपसंहृतामर्षरोषवेगो लोकानां स्वस्तय आस्ते ॥ ६॥

ध्यायमानः सुरासुरोरगसिद्धगन्धर्वविद्याधर-

मुनिगणैरनवरतमदमुदितविकृतविह्वललोचनः

सुललितमुखरिकामृतेनाप्यायमानः स्वपार्षद-

विबुधयूथपतीनपरिम्लानरागनवतुलसिकामोद-

मध्वासवेन माद्यन् मधुकरव्रातमधुरगीतश्रियं

वैजयन्तीं स्वां वनमालां नीलवासा एककुण्डलो

हलककुदि कृतसुभगसुन्दरभुजो भगवान् माहेन्द्रो

वारणेन्द्र इव काञ्चनीं कक्षामुदारलीलो बिभर्ति ॥ ७॥

य एष एवमनुश्रुतो ध्यायमानो मुमुक्षूणामनादि-

कालकर्मवासनाग्रथितमविद्यामयं हृदयग्रन्थिं

सत्त्वरजस्तमोमयमन्तर्हृदयं गत आशु निर्भिनत्ति

तस्यानुभावान् भगवान् स्वायम्भुवो नारदः सह

तुम्बुरुणा सभायां ब्रह्मणः संश्लोकयामास ॥ ८॥

उत्पत्तिस्थितिलयहेतवोऽस्य कल्पाः

सत्त्वाद्याः प्रकृतिगुणा यदीक्षयाऽऽसन् ।

यद्रूपं ध्रुवमकृतं यदेकमात्मन्

नानाधात्कथमु ह वेद तस्य वर्त्म ॥ ९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! पाताल लोक के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनन्त नाम से विख्यात भगवान् की तामसी नित्य कला है। यह अहंकाररूपा होने से द्रष्टा और दृश्य को खींचकर एक कर देती है, इसलिये पांचरात्र आगम के अनुयायी भक्तजन इसे संकर्षणकहते हैं। इन भगवान् अनन्त के एक हजार मस्तक हैं। उनमें से एक पर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसों के दाने के समान दिखायी देता है। प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब इन्हें इस विश्व का उपसंहार करने की इच्छा होती है, तब इनकी क्रोधवश घूमती हुई मनोहर भ्रुकुटियों के मध्यभाग से संकर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं। उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है। वे सभी तीन नेत्रों वाले होते हैं और हाथ में तीन नोकों वाले शूल लिये रहते हैं।

भगवान् संकर्षण के चरणकमलों के गोल-गोल स्वच्छ और अरुणवर्ण नख मणियों की पंक्ति के समान देदीप्यमान हैं। जब अन्य प्रधान-प्रधान भक्तों के सहित अनेकों नागराज अनन्य भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करते हैं, तब उन्हें उन नख मणियों में अपने कुण्डल कान्तिमण्डित कमनीय कपोलों वाले मनोहर मुखारविन्दों की मनमोहिनी झाँकी होती है और उनका मन आनन्द से भर जाता है। अनेकों नागराजों की कन्याएँ विविध कामनाओं से उनके अंगमण्डल पर चाँदी के खम्भों के समान सुशोभित उनकी वलयविलसित लंबी-लंबी श्वेतवर्ण सुन्दर भुजाओं पर अरगजा, चन्दन और कुंकुम पंक का लेप करती हैं। उस समय अंग स्पर्श से मथित हुए उनके हृदय में काम का संचार हो जाता है। तब वे उनके मदविह्वल सकरुण अरुण नयनकमलों से सुशोभित तथा प्रेममद से मुदित मुखारविन्द की ओर मधुर मनोहर मुस्कान के साथ सलज्जभाव से निहारने लगती हैं। वे अनन्त गुणों के सागर आदिदेव भगवान् अनन्त अपने अमर्ष (असहनशीलता) और रोष के वेग को रोके हुए वहाँ समस्त लोकों के कल्याण के लिये विराजमान हैं।

देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और मुनिगण भगवान् अनन्त का ध्यान किया करते हैं। उनके नेत्र निरन्तर प्रेममद से मुदित, चंचल और विह्वल रहते हैं। वे सुललित वचनामृत से अपने पार्षद और देवयूथपों को सन्तुष्ट करते रहते हैं। उनके अंग पर नीलाम्बर और कानों में केवल एक कुण्डल जगमगाता रहता है तथा उनका सुभग और सुन्दर हाथ हाल की मूठ पर रख रहता है। वे उदार लीलामय भगवान् संकर्षण गले में वैजयन्ती माला धारण किये रहते हैं, जो साक्षात् इन्द्र के हाथी ऐरावत के गले में पड़ी हुई सुवर्ण की श्रृंखला के समान जान पड़ती है। जिसकी कान्ति कभी फीकी नहीं पड़ती, ऐसी नवीन तुलसी की गन्ध और मधुर मकरन्द से उन्मत्त हुए भौंरे निरन्तर मधुर गुंजार करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान् अनन्त माहात्म्य-श्रवण और ध्यान करने से मुमुक्षुओं के हृदय में आविर्भूत होकर उनकी अनादिकालीन कर्मवासनाओं से ग्रथित सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अविद्यामयी हृदयग्रन्थि को तत्काल काट डालते हैं। उनके गुणों का एक बार ब्रह्मा जी के पुत्र भगवान् नारद ने तुम्बुरु गन्धर्व के साथ ब्रह्मा जी की सभा में इस प्रकार गान किया था।

जिनकी दृष्टि पड़ने से ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृत गुण अपने-अपने कार्य में समर्थ होते हैं, जिनका स्वरूप ध्रुव (अनन्त) और अकृत (अनादि) है तथा जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपंच को अपने में धारण किये हुए हैं-उन भगवान् संकर्षण के तत्त्व को कोई कैसे जान सकता है।

मूर्तिं नः पुरुकृपया बभार सत्त्वं

संशुद्धं सदसदिदं विभाति तत्र ।

यल्लीलां मृगपतिराददेऽनवद्या-

मादातुं स्वजनमनांस्युदारवीर्यः ॥ १०॥

यन्नामश्रुतमनुकीर्तयेदकस्मा-

दार्तो वा यदि पतितः प्रलम्भनाद्वा ।

हन्त्यंहः सपदि नृणामशेषमन्यं

कं शेषाद्भगवत आश्रयेन्मुमुक्षुः ॥ ११॥

मूर्धन्यर्पितमणुवत्सहस्रमूर्ध्नो

भूगोलं सगिरिसरित्समुद्रसत्त्वम् ।

आनन्त्यादनिमितविक्रमस्य भूम्नः

को वीर्याण्यधिगणयेत्सहस्रजिह्वः ॥ १२॥

एवम्प्रभावो भगवाननन्तो

दुरन्तवीर्योरुगुणानुभावः ।

मूले रसायाः स्थित आत्मतन्त्रो

यो लीलया क्ष्मां स्थितये बिभर्ति ॥ १३॥

एता ह्येवेह नृभिरुपगन्तव्या गतयो यथा

कर्मविनिर्मिता यथोपदेशमनुवर्णिताः कामान्

कामयमानैः ॥ १४॥

एतावतीर्हि राजन् पुंसः प्रवृत्तिलक्षणस्य धर्मस्य

विपाकगतय उच्चावचा विसदृशा यथाप्रश्नं

व्याचख्ये किमन्यत्कथयाम इति ॥ १५॥

जिनमें यह कार्य-कारणरूप सारा प्रपंच भास रहा है तथा अपने निजजनों का चित्त आकर्षित करने के लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीला को परम पराक्रमी सिंह ने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य संकर्षण भगवान् ने हम पर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है।

जिनके सुने-सुनाये नाम का कोई पीड़ित अथवा पतित पुरुष अकस्मात् अथवा हँसी में भी उच्चारण कर लेता है तो वह पुरुष दूसरे मनुष्यों के भी सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देता है-ऐसे शेष भगवान् को छोड़कर मुमुक्षु पुरुष और किसका आश्रय ले सकता है?

यह पर्वत, नदी और समुद्रादि से पूर्ण सम्पूर्ण भूमण्डल उन सहस्रशीर्षा भगवान् के एक मस्तक पर एक रजःकण के समान रखा हुआ है। वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रम का कोई परिमाण नहीं है। किसी के हजार जीभें हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान् के पराक्रमों की गणना करने का साहस वह कैसे कर सकता है?

वास्तव में उनके वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम हैं। ऐसे प्रभावशाली भगवान् अनन्त रसातल के मूल में अपनी ही महिमा में स्थित स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये लीला से ही पृथ्वी को धारण किये हुए हैं।

राजन्! भोगों की कामना वाले पुरुषों की अपने कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली भगवान् की रची हुई ये ही गतियाँ हैं। इन्हें जिस प्रकार मैंने गुरुमुख से सुना था, उसी प्रकार तुम्हें सुना दिया। मनुष्य को प्रवृत्तिरूप धर्म के परिणाम में प्राप्त होने वाली जो परस्पर विलक्षण ऊँची-नीची गतियाँ हैं, वे इतनी ही हैं; इन्हें तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने सुना दिया। अब बताओ और क्या सुनाऊँ?

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भूविवरविध्युपवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के २५ अध्याय समाप्त हुआ ।।

शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय २६  

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