नरसिंहपुराण अध्याय २
नरसिंहपुराण अध्याय २ में ब्रह्मा
आदि की आयु और काल का स्वरूप का वर्णन है।
श्रीनरसिंहपुराण अध्याय २
Narasingha puran
chapter 2
नरसिंह पुराण दूसरा अध्याय
नरसिंहपुराण अध्याय २
श्रीनरसिंहपुराण द्वितीयोऽध्यायः
॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥
सूत उवाच
ब्रह्मा भूत्वा जगत्सृष्टौ नरसिंहः
प्रवर्तते ।
यथा ते कथयिष्यामि भरद्वाज निबोध मे
॥१॥
नारायणाख्यो भगवान्
ब्रह्मलोकपितामहः ।
उत्पन्नः प्रोच्यते विद्वन्
नित्योऽसावुपचारतः ॥२॥
निजेन तस्य मानेन आयुर्वर्षशतं
स्मृतम् ।
तत्पराख्यं तदर्धं च परार्धमभिधीयते
॥३॥
कालस्वरुपं विष्णोश्च यन्मयोक्तं
तवानघ ।
तेन तस्य निबोध त्वं परिमाणोपपादनम्
॥४॥
अन्येषां चैव भूतानां चराणामचराश्च
ये ।
भूभूभृत्सागरादीनामशेषाणां च सत्तम
॥५॥
संख्याज्ञानं च ते वच्मि मनुष्याणां
निबोध मे ।
सूतजी कहते हैं - भरद्वाज ! भगवान्
नरसिंह जिस प्रकार ब्रह्मा होकर जगतकी सृष्टिके कार्यमें प्रवृत्त होते हैं,
उसका मैं आपसे वर्णन करता हूँ, सुनिये ।
विद्वन् ! ' नारायण ' नामसे प्रसिद्ध
लोकपितामह भगवान् ब्रह्मा नित्य - सनातन पुरुष हैं, तथापि वे
' उत्पन्न हुए हैं ' - ऐसा उपचारसे कहा
जाता है । उनके अपने परिमाणसे उनकी आयु सौ वर्षकी बतायी जाती है । उस सौ वर्षका
नाम ' पर ' हैं । उसका आधा ' परार्ध ' कहलाता है । निष्पाप महर्षे ! साधुशिरोमणे
! मैंने तुमसे भगवान् विष्णुके जिस कालस्वरुपका वर्णन किया था, उसीके द्वारा उस ब्रह्माकी तथा दूसरे भी जो पृथ्वी, पर्वत
और समुद्र आदि पदार्थ एवं चराचर जीव हैं, उनकी आयुका परिमाण
नियत किया जाता है । अब मैं आपसे मनुष्योंकी ' काल - गणना '
का ज्ञान बता रहा हूँ, सुनिये ॥१ - ५१/२॥
अष्टादश निमेषास्तु काष्ठैका
परिकीर्तिता ॥६॥
काष्ठास्त्रिंशत्कला ज्ञेया
कलास्त्रिंशन्मुहूर्तकम् ।
त्रिंशत्संख्यैरहोरात्रं
मूहूर्तैर्मानुषं स्मृतम् ॥७॥
अहोरात्राणि तावन्ति
मासपक्षद्वयात्मकः ।
तैः षडभिरयनं मासैर्द्वेऽयने
दक्षिणोत्तरे ॥८॥
अयनं
दक्षिणं रात्रिर्देवानामुत्तरं दिनम् ।
अयनद्वितयं वर्षं मर्त्यानामिह
कीर्तितम् ॥९॥
नृणां मासः पितृणां तु
अहोरात्रमुदाहतम् ।
वस्वादीनामहोरात्रं मानुषो वत्सरः
स्मृतः ॥१०॥
दिव्यैर्वर्षसहस्त्रैस्तु युगं
त्रेतादिसंज्ञितम् ।
चतुर्युगं द्वादशभिस्तद्विभागं
निबोध मे ॥११॥
अठारह निमेषोंकी एक '
काष्ठा ' कही गयी है, तीस
काष्ठाओंकी एक ' कला ' समझनी चाहिये
तथा तीस कलाओंका एक ' मुहूर्त ' होता
है । तीस मुहूर्तोका एक मानव ' दिन - रात ' माना गया है । उतने ही ( तीस ही ) दिन - रात मिलकर एक ' मास ' होता है । इसमें दो पक्ष होते हैं । छः
महीनोंका एक ' अयन ' होता है । अयन दो
हैं - ' दक्षिणायन ' और ' उत्तरायण ' । दक्षिणायण देवताओंकी रात्रि है और
उत्तरायण दिन । दो अयन मिलकर मनुष्योंका एक ' वर्ष ' कहा गया है । मनुष्योंका एक मास पितरोंका एक दिन - रात बताया गया है और
मनुष्योंका एक वर्ष वसु आदि देवताओंका एक दिन - रात कहा गया है । देवताओंके बारह
हजार वर्षोंका त्रेता आदि नामक चतुर्युग होता है । उसका विभाग आपलोग मुझसे समझ लें
॥६ - ११॥
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु
यथाक्रमम् ।
दिव्याब्दानां सहस्त्राणि
युगेष्वाहुः पुराविदः ॥१२॥
तत्प्रमाणैः शतैः संध्या पूर्वा
तत्र विधीयते ।
संध्यांशकश्च तत्तुल्यो
युगस्यानन्तरो हि सः ॥१३॥
संध्यासंध्यांशयोर्मध्ये यः कालो
वर्तते द्विज ।
युगाख्यः स तु विज्ञेयः कृतत्रेतादिसंज्ञकः
॥१४॥
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चेति
चतुर्युगम् ।
प्रोच्यते तत्सहस्त्रं तु ब्रह्मणो
दिवसं द्विज ॥१५॥
ब्रह्मणो दिवसे ब्रह्मन् मनवस्तु
चतुर्दश ।
भवन्ति परिमाणं च तेषां कालकृतं
श्रृणु ॥१६॥
सप्तर्षयस्तु शक्रोऽथ
मनुस्तत्सूनवोऽपि ये ।
एककालं हि सृज्यन्ते संह्रियन्ते च
पूर्ववत् ॥१७॥
चतुर्युगानां संख्या च साधिका
ह्येकसप्ततिः ।
मन्वन्तरं मनोः कालः शक्रादीनामपि
द्विज ॥१८॥
अष्टौ शतसहस्त्राणि दिव्यया संख्यया
स्मृतः ।
द्विपञ्चाशत्तथान्यानि
सहस्त्राण्यधिकानि तु ॥१९॥
त्रिंशत्कोट्यस्तु सम्पूर्णाः
संख्याताः संख्यया द्विज ।
सप्तषष्टिस्तथान्यानि नियुतानि
महामुने ॥२०॥
विशंतिश्च सहस्त्राणि कालोऽयमधिकं
विना ।
मन्वन्तरस्य संख्येयं
मानुवैर्वत्सरैर्द्विज ॥२१॥
पुराण - तत्त्ववेत्ताओंने कृत आदि
युगोंका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाया है । ब्रह्मन् ! प्रत्येक युगके पूर्व
उतने पीछे उतने ही परिमाणवाले ' संध्यांश ' होते हैं । विप्र ! संध्या और संध्यांशके बीचका जो काल है, उसे सत्ययुग और त्रेता आदि नामोंसे प्रसिद्ध युग समझना चाहिये । ' सत्ययुग ', ' त्रेता ', ' द्वापर
' और ' कलि ' - ये
चार युग मिलकर ' चतुर्युग ' कहलाते हैं
। द्विज ! एक हजार चतुर्युग मिलकर ' ब्रह्माका एक दिन '
होता है । ब्रह्मन् ! ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं । उनका
कालकृत परिमाण सुनिये । सप्तर्षि, इन्द्र, मनु और मनु - पुत्र - ये पूर्व कल्पानुसार एक ही समय उत्पन्न किये जाते हैं
तथा इनका संहार भी एक ही साथ होता है । ब्रह्मन् ! इकहत्तर चतुर्युगसे कुछ अधिक
काल एक ' मन्वन्तर ' कहलाता है । यही
मनु तथा इन्द्रादि देवोंका काल है । इस प्रकार दिव्य वर्ष - गणनाके अनुसार यह
मन्वन्तर आठ लाख बावन हजार वर्षोंका समय कहा गया है । महामुने ! द्विजवर ! मानवीय
वर्ष - गणनाके अनुसार पूरे तीस करोड़ सरसठ लाख, बीस हजार
वर्षोंका काल एक मन्वन्तरका परिमाण है, इससे अधिक नहीं ॥१२ -
२१॥
चतुर्दशगुणो ह्येष कालो ब्राह्ममहः
स्मृतम् ।
विश्वस्यादौ सुमनसा सृष्ट्वा
देवांस्तथा पितृन् ॥२२॥
गन्धर्वान् राक्षसान् यक्षान् पिशाचान्
गुह्यकांस्तथा ।
ऋषीन् विद्याधरांश्चैव मनुष्यांश्च
पशूंस्तथा ॥२३॥
पक्षिणः स्थावरांश्चैव
पिपीलिकभुजंगमान् ।
चातुर्वर्ण्यं तथा सृष्ट्वा
नियुज्याध्वरकर्मणि ॥२४॥
पुनर्दिनान्ते त्रैलोक्यमुपसंहत्य स
प्रभुः ।
शेते चानन्तशयने तावन्तीं
रात्रिमव्ययः ॥२५॥
तस्यान्तेऽभूतन्महान्कल्पो ब्राह्य
इत्यभिविश्रुतः ।
यस्मिन् मत्स्यावतारोऽभून्मथनं च
महोदधेः ॥२६॥
तद्वद्वराहकल्पश्च तृतीयः
परिकल्पितः ।
यत्र विष्णुः स्वयं प्रीत्या वाराहं
वपुराश्रितः ।
उद्धर्तुं वसुधां देवीं स्तूयमानो
महर्षिभिः ॥२७॥
सृष्ट्वा जगदव्योमचराप्रमेयः
प्रजाश्च सृष्ट्वा सकलास्तथेशः ।
नैमित्तिकाख्ये प्रलये समस्तं
संहत्य शेते हरिरादिदेवः ॥२८॥
इस कालका चौदह गुना ब्रह्माका एक
दिन होता है । ब्रह्माजीने विश्व - सृष्टिके आदिकालकें प्रसन्न मनसे देवताओं तथा
पितरोंकी सृष्टि करके गन्धर्व, राक्षस,
यक्ष, पिशाच, गुह्यक,
ऋषि, विद्याधर, मनुष्य,
पशु, पक्षी, स्थावर (
वृक्ष, पर्वत आदि ), पिपीलिका ( चींटी
) और साँपोंकी रचना की हैं । फिर चारों वर्णोंकी सृष्टि करके वे उन्हें
यज्ञकर्ममें नियुक्त करते हैं । तत्पश्चात् दिन बीतनेपर वे अविनाशी प्रभु
त्रिभुवनका उपसंहार करके दिनके ही बराबर परिमाणवाली रात्रिमें शेषनागकी शय्यापर
सोते हैं । उस रात्रिकें बीतनेपर ' ब्राह्य ' नामक विख्यात महाकल्प हुआ, जिसमें भगवानका
मत्स्यावतार और समुद्र - मन्थन हुआ । इस ब्राह्य - कल्पके ही समान तीसरा ' वाराह - कल्प ' हुआ, जिसमें कि
भगवती वसुंधरा ( पृथ्वी ) - का उद्धार करनेके लिये साक्षात् भगवान् विष्णुने
प्रसन्नतापूर्वक वाराहरुप धारण किया । उस समय महर्षिगण उनकी स्तुति करते थे ।
स्थलचर और आकाशचारी जीवोंके द्वारा जिनकी इयत्ताको जान लेना नितान्त असम्भव है,
वे आदिदेव भगवान् विष्णु समस्त प्रजाओंकी सृष्टि कर ' नैमित्तिक प्रलय ' में सबका संहार करके शयन करते हैं
॥२२ - २८॥
इति श्रीनरसिंहपुराणे सर्गरचनायां
द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें '
सृष्टिरचनाविषयक ' दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥२॥
आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 3
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