नरसिंहपुराण अध्याय १

नरसिंहपुराण अध्याय १

नरसिंहपुराण अध्याय १ में प्रयाग में ऋषियों का समागम; सूतजी के प्रति भरद्वाजजी का प्रश्न सूतजी द्वारा कथारम्भ और सृष्टिक्रम का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय १

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय १

Narasingha puran

नरसिंह पुराण अध्याय एक

नरसिंहपुराण अध्याय १

श्रीनरसिंहपुराण प्रथमोऽध्यायः

॥ श्रीलक्ष्मीनृसिंहाय नमः ॥

श्रीवेदव्यासाय नमः ॥

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।

देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ॥१॥

अन्तर्यामी भगवान् नारायण ( श्रीकृष्ण ) उनके सखा नरश्रेष्ठ नर ( अर्जुन ) तथा इनकी लीला प्रकट करनेवाली सरस्वती देवीको नमस्कार करनेके पश्चात् ' जय ' ( इतिहासपुराण ) - का पाठ करे ॥१॥

तप्तहाटककेशान्तज्वलत्पावकलोचन ।

वज्राधिकनखस्पर्श दिव्यसिंह नमोऽस्तु ते ॥२॥

पान्तु वो नरसिंहस्य नखलाङ्गूलकोटयः ।

हिरण्यकशिपोर्वक्षः क्षेत्रासृककर्दमारुणाः ॥३॥

दिव्य सिंह ! तपाये हुए सुवर्णके समान पीले केशोंके भीतर प्रज्वलित अग्निकी भाँति आपके नेत्र देदीप्यमान हो रहे हैं तथा आपके नखोंका स्पर्श वज्रसे भी अधिक कठोर है, इस प्रकार अमित प्रभावशाली आप परमेश्वरको मेरा नमस्कार है । भगवान् नृसिंहके नखरुपी हलके अग्रभाग, जो हिरण्यकशिपु नामक दैत्यके वक्षः स्थलरुपी खेतकी रक्तमयी कीचड़के लगनेसे लाल हो गये हैं, आप लोगोंकी रक्षा करें ॥२-३॥

हिमवद्वासिनः सर्वे मुनयो वेदपारगाः ।

त्रिकालज्ञा महात्मानो नैमिषारण्यवासिनः ॥४॥

येऽर्बुदारण्यनिरताः पुष्करारण्यवासिनः ।

महेन्द्राद्रिरता ये च ये च विन्ध्यनिवासिनः ॥५॥

धर्मारण्यरता ये च दण्डकारण्यवासिनः ।

श्रीशैलनिरता ये च कुरुक्षेत्रनिवासिनः ॥६॥

कौमारपर्वते ये च ये च पम्पानिवासिनः ।

एते चान्ये च बहवः सशिष्या मुनयोऽमलाः ॥७॥

माघमासे प्रयागं तु स्नातुं तीर्थं समागताः ।

एक समय हिमालयकी घाटियोंमें रहनेवाले, वेदोंके पारगामी एवं त्रिकालवेत्ता समस्त महात्मा मुनिगण नैमिषारण्य, अर्बुदारण्य और पुष्करारण्यके निवासी मुनि, महेन्द्र पर्वत और विन्ध्यगिरिके निवासी ऋषि, धर्मारण्य, दण्डकारण्य, श्रीशैल और कुरुक्षेत्रमें वास करनेवाले मुनि तथा कुमार पर्वत एवं पम्पासरके निवासी ऋषि - ये तथा अन्य भी बहुत - से शुद्ध हदयवाले महर्षिगण अपने शिष्योंके साथ माघके महीनेमें स्नान करनेके लिये प्रयाग - तीर्थमें आये ॥४ - ७१/२॥

तत्र स्रात्वा यथान्यायं कृत्वा कर्म जपादिकम् ॥८॥

नत्वा तु माधवं देवं कृत्वा च पितृतर्पणम् ।

दृष्ट्वा तत्र भरद्वाजं पुण्यतीर्थनिवासिनम् ॥९॥

तं पूजयित्वा विधिवत्तेनैव च सुपूजिताः ।

आसनेषु विचित्रेषु वृष्यादिषु यथाक्रमम् ॥१०॥

भरद्वाजेन दत्तेषु आसीनास्ते तपोधनाः ।

कृष्णाश्रिताः कथाः सर्वे परस्परमथाबुवन् ॥११॥

कथान्तेषु ततस्तेषां मुनीनां भावितात्मनाम् ।

आजगाम महातेजास्तत्र सूतो महामतिः ॥१२॥

व्यासशिष्यः पुराणज्ञो लोमहर्षणसंज्ञकः ।

तान् प्रणम्य यथान्यायं स च तैश्चाभिपूजितः ॥१३॥

उपविष्टो यथायोग्यं भरद्वाजमतेन सः ।

व्यासशिष्यं सुखासीनं ततस्तं लोमहर्षणम् ।

स पप्रच्छ भरद्वाजो मुनीनामग्रतस्तदा ॥१४॥

वहाँपर यथोचित रीतिसे स्नान और जप आदि करके उन्होंने भगवान् वेणीमाधवको नमस्कार किया; फिर पितरोंका तर्पण करके उस पावन तीर्थके निवासी भरद्वाज मुनिका दर्शन किया । वहाँ उन ऋषियोनें भरद्वाजजीके द्वारा पूजित हुए । तपश्चात् वे सभी तपोधन भरद्वाज मुनिके दिये हुए वृषी आदि विचित्र आसनोंपर विराजमान हुए और परस्पर भगवान् श्रीकृष्णसे सम्बन्ध रखनेवाली कथाएँ कहने लगे । उन शुद्ध अन्तः करणवाले मुनियोंकी कथा हो ही रही थी कि व्यासजीके शिष्य लोमहर्षण नामक सूतजी वहाँ आ पहुँचे । वे अत्यन्त तेजस्वी, परम बुद्धिमान् और पुराणोंके विद्वान् थे । सूतजीने वहाँ बैठे हुए सभी ऋषियोंको यथोचित विधिसे प्रणाम किया और स्वयं भी उनके द्वारा सम्मानित हुए । फिर भरद्वाजजीकी अनुमतिसे वे यथायोग्य आसनपर बैठे । इस प्रकार जब वे सुखपूर्वक विराजमान हुए, तब उस समय उन व्यासशिष्य लोमहर्षणजीसे भरद्वाजजीने सभी मुनियोंके समक्ष यह प्रश्न किया ॥८ - १४॥

भरद्वाज उवाच

शौनकस्य महासत्रे वाराहाख्या तु संहिता ।

त्वत्तः श्रुता पुरा सूत एतैरस्माभिरेव च ॥१५॥

साम्प्रतं नारसिंहाख्यां त्वत्तः पौराणसंहिताम् ।

श्रोतुमिच्छाम्यहं सूत श्रोतुकामा इमे स्थिताः ॥१६॥

अतस्त्वां परिपृच्छामि प्रश्नमेतं महामुने ।

ऋषीणामग्रतः सूत प्रातर्ह्येषां महात्मनाम् ॥१७॥

कुत एतत् समुत्पन्नं केन वा परिपाल्यते ।

कस्मिन् वा लयमभ्येति जगदेतच्चराचरम् ॥१८॥

किं प्रमाणं च वै भूमेर्नृसिंहः केन तुष्यति ।

कर्मणा तु महाभाग तन्मे ब्रूहि महामते ॥१९॥

कथं च सृष्टेरादिः स्यादवसानं कथं भवेत् ।

कथं युगस्य गणना किं वा स्यात्तु चतुर्युगम् ॥२०॥

को वा विशेषस्तेष्वत्र का वावस्था कलौ युगे ।

कथमाराध्यते देवो नरसिंहोऽप्यमानुषैः ॥२१॥

क्षेत्राणि कानि पुण्यानि के च पुण्याः शिलोच्चयाः ।

नद्यश्च काः पराः पुण्या नृणां पापहराः शुभाः ॥२२॥

देवादीनां कथं सृष्टिर्मनोर्मन्वन्तरस्य तु ।

तथा विद्याधरादीनां सृष्टिरादौ कथं भवेत् ॥२३॥

यज्वानः के च राजानः के च सिद्धिं परां गताः ।

एतत्सर्व महाभाग कथयस्व यथाक्रमम् ॥२४॥

भरद्वाजजी बोले - सूतजी ! पूर्वकालमें शौनकजीके महान् यज्ञमें हम सभी लोगोंने आपसे ' वाराह - संहिता ' सुनी थी । अब हम ' नरसिंहपुराण ' की संहिता सुनना चाहते हैं तथा ये ऋषि लोग भी उसे ही सुननेके लिये यहाँ उपस्थित हैं । अतः महामुने सूतजी ! आज प्रातः काल इन महात्मा मुनियोंके समक्ष हम आपसे ये प्रश्न पूछते हैं - ' यह चराचर जगत् कहाँसे उत्पन्न हुआ है ? कौन इसकी रक्षा करता है ? अथवा किसमें इसका लय होता है ? महाभाग ! इस भूमिका प्रमाण क्या है तथा महामते ! भगवान् नृसिंह किस कर्मसे संतुष्ट होते हैं - यह हमें बताइये । सृष्टिका आरम्भ कैसे हुआ ? उसका अवसान ( अन्त ) किस प्रकार होता है ? युगोंकी गणना कैसे होती है ? चतुर्युगका स्वरुप क्या है ? उन चारों युगोंमें क्या अन्तर होता है ? कलियुगमें लोगोंकी क्या अवस्था होती है ? तथा देवतालोग भगवान् नरसिंहकी किस प्रकार आराधना करते हैं ? पुण्यक्षेत्र कौन - कौन हैं ? पावन पर्वत कौन - से हैं ? और मनुष्योंके पापोंको हर लेनेवाली परम पावन एवं उत्तम नदियाँ कौन - कौन - सी हैं ? देवताओंकी सृष्टि कैसे हुई ? मनु, मन्वन्तर एवं विद्याधर आदिकी सृष्टि किस प्रकार होती है ? कौन - कौन राजा यज्ञ करनेवाले हुए हैं और किस - किसने परम उत्तम सिद्धि प्राप्त की है ?' महाभाग ! ये सारी बातें आप क्रमशः बताइये ॥१५ - २४॥

सूत उवाच

व्यासप्रसादाज्जानामि पुराणानि तपोधनाः ।

तं प्रणम्य प्रवक्ष्यामि पुराणं नारसिंहकम् ॥२५॥

पाराशर्यं परमपुरुषं विश्वदेवैकयोनिं 

विद्यावन्तं विपुलमतिदं वेदवेदाङ्गवेद्यम् ।    

शश्चच्छान्तं शमितविषयं शुद्धतेजो विशालं

वेदव्यासं विगतशमलं सर्वदाहं नमामि ॥२६॥

नमो भगवते तस्मै व्यासायामिततेजसे ।

यस्य प्रसादाद्वक्ष्यामि वासुदेवकथामिमाम् ॥२७॥

सुनिर्णीतो महान् प्रश्नस्त्वया यः परिकीर्तितः ।

विष्णुप्रसादेन विना वक्तुं केनापि शक्यते ॥२८॥

तथापि नरसिंहस्य प्रसादादेव तेऽधुना ।

प्रवक्ष्यामि महापुण्यं भारद्वाज श्रृणुष्व मे ॥२९॥

श्रृण्वन्तु मुनयः सर्वे सशिष्यास्त्वत्र ये स्थिताः ।

पुराणं नरसिंहस्य प्रवक्ष्यामि यथातथा ॥३०॥

सूतजी बोले - तपोधनो ! मैं जिन गुरुदेव व्यासजीके प्रसादसे पुराणोंका ज्ञान प्राप्त कर सका हूँ, उनकी भक्तिपूर्वक वन्दना करके आपलोगोंसे नरसिंहपुराणकी कथा कहना आरम्भ करता हूँ । जो समस्त देवताओंके एकमात्र कारण और वेदों तथा उनके छहों अङ्गोंद्वारा जाननेयोग्य परम पुरुष विष्णुके स्वरुप हैं; जो विद्यावान्, विमल बुद्धिदाता, नित्य शान्त, विषयकामनाशून्य और पापरहित हैं, उन विशुद्ध तेजोमय महात्मा पराशरनन्दन वेदव्यासजीको मैं सदा प्रणाम करता हूँ । उन अमित तेजस्वी भगवान् व्यासजीको नमस्कार है, जिनकी कृपासे मैं भगवान् वासुदेवकी इस कथाको कह सकूँगा । मुनिगण ! आपलोगोंने भलीभाँति विचार करके मुझसे जो महान् प्रश्न पूछे हैं, उनका उत्तर भगवान् विष्णुकी कृपा हुए बिना कौन बतला सकता है ? तथापि भरद्वाजजी ! भगवान् नरसिंहकी कृपाके बलसे ही आपके प्रश्नोंके उत्तरमें अत्यन्त पवित्र नरसिंहपुराणकी कथा आरम्भ करता हूँ । आप ध्यानसे सुनें । अपने शिष्योंके साथ जो - जो मुनि यहाँ उपस्थित हैं, वे सब लोग भी सावधान होकर सुनें । मैं सभीको यथावत् रुपसे नरसिंहपुराणकी कथा सुनाता हूँ ॥२५ - ३०॥

नारायणादिदं सर्वं समुत्पन्नं चराचरम् ।

तेनैव पाल्यते सर्वं नरसिंहादिमूर्तिभिः ॥३१॥

तथैव लीयते चान्ते हरौ ज्योतिः स्वरुपिणि ।

यथैव देवः सृजति तथा वक्ष्यामि तच्छृणु ॥३२॥

पुराणानां हि सर्वेषामयं साधारणः स्मृतः ।

श्लोको यस्तं मुने श्रुत्वा निः शेषं त्वं ततः श्रृणु ॥३३॥

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।

वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥३४॥

आदिसर्गोऽनुसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।

वंशानुचरितं चैव वक्ष्याम्यनुसमासतः ॥३५॥

यह समस्त चराचर जगत् भगवान् नारायणसे ही उत्पन्न हुआ और वे ही नरसिंहादि रुपोंसे सबका पालन करते हैं । इसी प्रकार अन्तमें यह जगत् उन्हीं ज्योतिः स्वरुप भगवान् विष्णुमें लीन हो जाता है । भगवान् जिस प्रकार सृष्टि करते हैं, उसे मैं बतलाता हूँ, आप सुनें । सृष्टिकी कथा पुराणोंमें ही विस्तारके साथ वर्णित है, अतः पुराणोंका लक्षण बतानेके लिये यह एक श्लोक साधारणता सभी पुराणोंमें कहा गया है । मुने ! इस श्लोकको पहले सुनकर फिर सारी बातें सुनियेगा । यह श्लोक इस प्रकार है - सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित - इन्हीं पाँच लक्षणोंसे युक्त ' पुराण ' होता है । आदिसर्ग, अनुसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित - इन सबका मैं क्रमशः संक्षिप्तरुपसे वर्णन करता हूँ ॥३१ - ३५॥

आदिसर्गो महांस्तावत् कथयिष्यामि वै द्विजाः ।

यस्मादारभ्य देवानां राज्ञां चरितमेव च ॥३६॥

ज्ञायते सरहस्यं च परमात्मा सनातनः ।

प्राक्सृष्टेः प्रलयादूर्ध्वं नासीत् किंचिदद्विजोत्तम ॥३७॥

ब्रह्मसंज्ञमभूदेकं ज्योतिष्मत्सर्वंकारणम् ।

नित्यं निरञ्ञनं शान्तं निर्गुणं नित्यनिर्मलम् ॥३८॥

आनन्दसागरं स्वच्छं यं काडक्षन्ति मुमुक्षवः ।

सर्वज्ञं ज्ञानरुपत्वादनन्तमजमव्ययम् ॥३९॥

सर्गकाले तु सम्प्राप्ते ज्ञात्वाऽसौ ज्ञातृनायकः ।

अन्तर्लीनं विकारं च तत्स्त्रष्टुमुपचक्रमे ॥४०॥

द्विजगण ! आदिसर्ग महान् है, अतः पहले मैं उसीका वर्णन करता हूँ । वहाँसे सृष्टिका वर्णन आरम्भ करनेपर देवताओं और राजाओंके चरित्रोंका तथा सनातन परमात्माके तत्त्वका भी रहस्यसहित ज्ञान हो जाता है । द्विजोत्तम ! सृष्टिके पहले महाप्रलय होनेके बाद ( परब्रह्मके सिवा ) कुछ भी शेष नहीं था । उस समय एकमात्र ' ब्रह्म ' नामक तत्त्व ही विद्यमान था, जो परम प्रकाशमय और सबका कारण है । वह नित्य, निरञ्जन, शान्त, निर्गुण एवं सदा ही दोषरहित हैं । मुमुक्षु पुरुष विशुद्ध आनन्दमहासागर परमेश्वरकी अभिलाषा किया करते हैं । वह ज्ञानस्वरुप होनेके कारण सर्वज्ञ, अनन्त, अजन्मा और अव्यय ( अविकारी ) है । सृष्टि - रचनाका समय आनेपर उसी ज्ञानीश्वर परब्रह्मने जगतको अपनेमें लीन जानकर पुनः उसकी सृष्टि आरम्भ की ॥३६ - ४०॥

तस्मात् प्रधानमुद्भूतं ततश्चापि महानभूत् ।

सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान् ॥४१॥

वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामसः ।

त्रिविधोऽयमहंकारो महत्तत्त्वादजायत ॥४२॥

यथा प्रधानं हि महान् महता स तथाऽऽवृतः ।

भूतादिस्तु विकुर्वाणः शब्दतन्मात्रकं ततः ॥४३॥

ससर्ज शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दलक्षणम् ।

शब्दमात्रं तथाऽऽकाशं भूतादिः स समावृणोत् ॥४४॥

आकाशस्तु विकुर्वाणः स्पर्शमात्रं ससर्ज ह ।

बलवानभवद्वायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः ॥४५॥

आकाशं शब्दतन्मात्रं स्पर्शमात्रं तथाऽऽवृणोत् ।

ततो वायुर्विकुर्वाणो रुपमात्रं ससर्ज ह ॥४६॥

ज्योतिरुत्पद्यते वायोस्तद्रूपगुणमुच्यते ।

स्पर्शमात्रं तु वै वायू रुपमात्रं समावृणोत् ॥४७॥

ज्योतिश्चापि विकुर्वाणं रसमात्रं ससर्ज ह ।

सम्भवन्ति ततोऽम्भांसि रसाधाराणि तानि तु ॥४८॥

रसमात्राणि चाम्भांसि रुपमात्रं समावृणोत् ।

विकुर्णावानि चाम्भांसि गन्धमात्रं ससर्जिरे ॥४९॥

तस्मज्जाता मही चेयं सर्वभूतगुणाधिका ।

संघातो जायते तस्मात्तस्य गन्धगुणो मतः ॥५०॥  

तस्मिंस्तस्मिंस्तु तन्मात्रा तेन तन्मात्रता स्मृता ।

तन्मात्राण्यविशेषाणि विशेषाः क्रमशोपराः ॥५१॥

भूततन्मात्रसर्गोऽयमहंकारात्तु तामसात् ।

कीर्तितस्ते समासेन भरद्वाज मया तव ॥५२॥

उस ब्रह्मसे प्रधान ( मूलप्रकृति ) - का आविर्भाव हुआ । प्रधानसे महत्तत्व प्रकट हुआ । सात्त्विक, राजस और तामस - भेदसे महत्तत्व तीन प्रकारका है । महत्तत्वसे वैकारिक ( सात्विक ), तैजस ( राजस ) और भूतादिरुप ( तामस ) - इन तीन भेदोंसे युक्त अहंकार उत्पन्न हुआ । जिस प्रकार प्रधानसे महत्तत्व आवृत है, उसी प्रकार महत्तत्वसे अहंकार भी व्याप्त है । तदनन्तर ' भूतादि ' नामक तामस अहंकाराने विकृत होकर शब्दतन्मात्राकी सृष्टि की और उससे ' शब्द ' गुणवाला आकाश उत्पन्न हुआ । तब उस भूतादिने शब्द गुणवाले आकाशको आवृत किया । आकाशने भी विकृत होकर स्पर्शतन्मात्राकी सृष्टि की । उससे बलवान् वायुकी उत्पत्ति हुई । वायुका गुण स्पर्श माना गया है । फिर शब्द गुणवाले आकाशको आवृत्त किया । आकाशने भी विकृत होकर स्पर्शतन्मात्राकी सृष्टि की । उससे बलवान् वायुकी उत्पत्ति हुई । वायुका गुण स्पर्श माना गया है । फिर शब्द गुणवाले आकाशने ' स्पर्श ' गुणवाले वायुको आवृत्त किया । तत्पश्चात् वायुने विकृत होकर रुपतन्मात्राकी सृष्टि की । उससे ज्योतिर्मय अग्निका प्रादुर्भाव हुआ । ज्योतिका गुण ' रुप ' कहा गया है । फिर स्पर्शतन्मात्रारुप वायुने रुपतन्मात्रावाले तेजको आवृत्त किया । तब तेजने विकृत होकर रस - तन्मात्राकी सृष्टि की । उससे रस गुणवाला जल प्रकट हुआ । रुप गुणवाले तेजने रस गुणवाले जलको आवृत्त किया । तब जलने विकारको प्राप्त होकर गन्ध - तन्मात्राकी सृष्टि की । उससे यह पृथिवी उत्पन्न हुई जो आकाशादि सभी भूतोंके गुणोंसे युक्त होनेके कारण उनसे अधिक गुणवाली है । गन्धतन्मात्रारुप पार्थिवतत्त्वसे ही स्थूल पिण्डकी उत्पत्ति होती है । पृथिवीका गुण ' गन्ध ' है । उन - उन आकाशादि भूतोंमें तन्मात्राएँ हैं अर्थात् केवल उनके गुण शब्द आदि ही हैं । इसलिये वे तन्मात्रा ( गुण ) रुप ही कहे गये हैं । तन्मात्राएँ अविशेष कही गयी हैं; क्योंकि उनमें ' अमुक तन्मात्रा आकाशकी है और अमुक वायुकी ' इसका ज्ञान करानेवाला कोई विशेष भेद ( अन्तर ) नहीं होता । किंतु उन तन्मात्राओंसे प्रकट हुए आकाशादि भूत क्रमशः विशेष ( भेद ) - युक्त होते हैं । इसलिये उनकी ' विशेष ' संज्ञा है । भरद्वाजजी ! तामस अहंकारसे होनेवाली यह पञ्चभूतों और तन्मात्राओंकी सृष्टि मैंने आपसे थोड़ेमें कह दी ॥४१ - ५२॥

तैजसानीन्द्रियाण्याहुर्देवा वैकारिका दश ।

एकादशं मनश्चात्र कीर्तितं तत्र चिन्तकैः ॥५३॥

बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चात्र पञ्च कर्मेन्द्रियाणि च ।

तानि वक्ष्यामि तेषां च कर्माणि कुलपावन ॥५४॥

श्रवणे च दृशौ जिह्वा नासिका त्वक् च पञ्चमी ।

शब्दादिज्ञानसिद्धर्यं बुद्धियुक्तानि पञ्च वै ॥५५॥

पायूपस्थे हस्तपादौ वाग् भरद्वाज पञ्चमी ।

विसर्गानन्दशिल्पी च गत्युक्ती कर्म तत्स्मृतम् ॥५६॥

सृष्टि - तत्त्वपर विचार करनेवाले विद्वानोंने इन्द्रियोंको तैजस अहंकारसे उत्पन्न बतलाया है और उनके अभिमानी दस देवताओं तथ ग्यारहवें मनको वैकारिक अहंकारसे उत्पन्न कहा है । कुलको पवित्र करनेवाले भरद्वाजजी ! इन इन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कमेंन्द्रियाँ हैं । अब मैं उन सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा उनके कर्मोंका वर्णन कर रहा हूँ । कान, नेत्र, जिह्वा, नाक और पाँचवीं त्वचा - ये पाँच ' ज्ञानेन्द्रियाँ ' कही गयी हैं, जो शब्द आदि विषयोंका ज्ञान करानेके लिये हैं । तथा पायु ( गुदा ), उपस्थ ( लिङ्ग ), हाथ, पाँव और वाक् - इन्द्रिय - ये ' कर्मेन्द्रियाँ ' कहलाती हैं । विसर्ग ( मल - त्याग ), आनन्द ( मैथुनजनित सुख ), शिल्प ( हाथकी कला ), गमन और बोलना - ये ही क्रमशः इन कर्मेंन्द्रियोके पाँच कर्म कहे गये हैं ॥५३ - ५६॥

आकाशवायुतेजांसि सलिलं पृथिवी तथा ।

शब्दादिभिर्गुणैर्विप्र संयुक्तान्युत्तरोत्तरैः ॥५७॥

नानावीर्याः पृथग्भूतास्ततस्ते संहतिं विना ।

नाशक्नुवन् प्रजां स्त्रष्टुमसमागम्य कृत्स्त्रशः ॥५८॥

समेत्यान्योन्यसंयोगं परस्परसमाश्रयात् ।

एकसंघातलक्ष्याश्च सम्प्राप्यैक्यमशेषतः ॥५९॥

पुरुषाधिष्ठितत्त्वाच्च प्रधानानुग्रहेण च ।

महदाद्या विशेषान्तास्त्वण्डमुत्पादयन्ति ते ॥६०॥

तत्क्रमेण विवृद्धं तु जलबुदबुदवत् स्थितम् ।

भूतेभ्योऽण्डं महाबुद्धे बृहत्तदुदकेशयम् ॥६१॥

प्राकृतं ब्रह्मरुपस्य विष्णोः स्थानमनुत्तमम् ।

तत्राव्यक्तस्वरुपोऽसौ विष्णुर्विश्वश्वरः प्रभुः ॥६२॥

ब्रह्मस्वरुपमास्थाय स्वयमेव व्यवस्थितः ।

मेरुरुल्बमभूत्तस्य जरायुश्च महीधराः ।

गर्भोदकं समुद्राश्च तस्याभूवन् महात्मनः ॥६३॥

विप्र ! आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी - ये पाँच भूत क्रमशः शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध - इन गुणोंसे उत्तरोत्तर युक्त हैं, अर्थात् आकाशमें एकमात्र शब्द गुण है, वायुमें शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, तेजमें शब्द, स्पर्श और रुप तीन गुण हैं, इसी प्रकार जलमें चार और पृथिवीमें पाँच गुण हैं । ये पञ्चभूत अलग - अलग भिन्न - भिन्न प्रकारकी शक्तियोंसे युक्त हैं । अतः परस्पर पूर्णतया मिले बिना ये सृष्टि - रचना नहीं कर सके । तब एक ही संघातको उत्पन्न करना जिनका लक्ष्य है, उन महत्तत्वसे लेकर पञ्चभूतपर्यन्त सभी विकारोंने पुरुषसे अधिष्ठित होनेके कारण परस्पर मिलकर एक - दूसरेका आश्रय ले, सर्वथा एकरुपताको प्राप्त हो, प्रधानतत्त्वके अनुग्रहसे एक अण्डकी उत्पत्ति की । वह अण्ड क्रमशः बड़ा होकर जलके ऊपर बुलबुलेके समान स्थित हुआ । महाबुद्धे ! समस्त भूतोंसे प्रकट हो जलपर स्थित हुआ । वह महान् प्राकृत अण्ड ब्रह्मा ( हिरण्यगर्भ ) - रुप भगवान् विष्णुका अत्यन्त उत्तम आधार हुआ । उसमें वे अव्यक्तस्वरुप जगदीश्वर भगवान् विष्णु स्वयं ही हिरण्यगर्भरुपसे विराजमान हुए । उस समय सुमेरु पर्वत उन महात्मा भगवान् हिरण्यगर्भका उल्ब ( गर्भको ढँकनेवाली झिल्ली ) था । अन्यान्य पर्वत जरायुज ( गर्भाशय ) थे और समुद्र ही गर्भाशयके जल थे ॥५७ - ६३॥

अद्रिद्वीपसमुद्राश्च सज्योतिर्लोकसंग्रहः ।

तस्मिन्नण्डेऽभवत्सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥६४॥

रजोगुणयुतो देवः स्वयमेव हरिः परः ।

ब्रह्मरुपं समास्थाय गजत्सृष्टौ प्रवर्तते ॥६५॥

सृष्टं च पात्यनुयुगं यावत्कल्पविकल्पना ।

नरसिंहादिरुपेण रुद्ररुपेण संहरेत् ॥६६॥

ब्राह्मेण रुपेण सृजत्यनन्तो

जगत्समस्तं परिपातुमिच्छन् ।

रामादिरुपं स तु गृह्य पाति

भूत्वाथ रुद्रः प्रकरोति नाशम् ॥६७॥

पर्वत, द्वीप, समुद्र और ग्रह - ताराओंसहित समस्त लोक तथा देवता, असुर और मनुष्यादि प्राणी सभी उस अण्डसे ही प्रकट हुए हैं । परमेश्वर भगवान् विष्णु स्वयं ही रजोगुणसे युक्त ब्रह्माका स्वरुप धारणकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं । जबतक कल्पकी सृष्टि रहती हैं, तबतक वे ही नरसिंहादिरुपसे प्रत्येक युगमें अपने रचे हुए इस जगतकी रक्षा करते हैं और कल्पान्तमें रुद्ररुपसे इसका संहार कर लेते हैं । भगवान् अनन्त स्वयं ही ब्रह्मारुपसे सम्पूर्ण जगतकी सृष्टि करते हैं, फिर इसके पालनकी इच्छासे रामादि अवतार धारणकर इसकी रक्षा करते है और अन्तमें रुद्ररुप होकर जगतका नाश कर देते हैं ॥६४ - ६७॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे 'सर्गानिरुपणं' नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें 'सर्ग का निरुपण' विषयक पहला अध्याय पुरा हुआ ॥१॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 2

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