वराहपुराण अध्याय १
वराहपुराण के अध्याय १ में भगवान्
वराह के प्रति पृथ्वी का प्रश्न और भगवान् के उदर में विश्वब्रह्माण्ड का दर्शनकर
भयभीत हुई पृथ्वी द्वारा उनकी स्तुति का वर्णन है।
वराह पुराण अध्याय १
Varah Purana chapter 1
श्रीवराहपुराणम् प्रथमोऽध्यायः
वराहपुराणम् अध्यायः १
श्रीवराहपुराण पहला अध्याय
श्रीवराहपुराण प्रथम अध्याय
श्रीवराहपुराण
अध्याय १
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते महावराहाय ॥
अथ श्रीवराहपुराणम्
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव
नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो
जयमुदीरयेत् ॥
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान्
वराह,
नररत्न नरऋषि, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती
सरस्वती और उसके वक्ता भगवान् व्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों का नाश
करके अन्तःकरण पर विजय प्राप्त करानेवाले वराहपुराण का पाठ करना चाहिये ।
नमस्तस्मै वराहाय लीलयोद्धरते महीम्
।
खुरमध्यगतो यस्य मेरुः खणखणायते ॥ १.१
।।
जिनके लीलापूर्वक पृथ्वी का उद्धार
करते समय उनके खुरों में फँसकर सुमेरु पर्वत खन- खन शब्द करता है,
उन भगवान् वराह को नमस्कार है।
दंष्ट्राग्रेणोद्धृता
गौरुदधिपरिवृता पर्वतैर्निम्नगाभिः
साकं
मृत्पिण्डवत्प्राग्बृहदुरुवपुषाऽनन्तरूपेण येन ।
सोऽयं
कंसासुरारिर्मुरनरकदशास्यान्तकृत्सर्वसंस्थः
कृष्णो विष्णुः सुरेशो नुदतु मम
रिपूनादिदेवो वराहः ॥१.२ ।।
यः संसारार्णवे नौरिव
मरणजराव्याधिनक्रोर्मिभीमे
भक्तानां भीतिहर्ता
मुरनरकदशास्यान्तकृत् कोलरूपी ।
विष्णुः सर्वेश्वरोऽयं यमिह कृतधियो
लीलया प्राप्नुवन्ति
मुक्तात्मानो नपापं भवत्तु
नुदितारातिपक्षः क्षितीशः ।। १.३ ।।
जिन अनन्तरूप भगवान् विष्णु ( वराह)
- ने प्राचीन काल में समुद्रों से घिरी, वन
पर्वत एवं नदियोंसहित पृथ्वी को अत्यन्त विशाल शरीर के द्वारा अपनी दाढ़ के
अग्रभाग पर मिट्टी के (छोटे-से ) ढले की भाँति उठा लिया था, वे
कंस, मुर, नरक तथा रावण आदि असुरों का
अन्त करनेवाले कृष्ण एवं विष्णुरूप से सबमें व्याप्त देवदेवेश्वर आदिदेव भगवान्
वराह मेरी सभी बाधाओं (काम, क्रोध, लोभ
आदि आध्यात्मिक शत्रुओं) को नष्ट करें।
सूत उवाच।
यस्मिन् काले क्षितिः पूर्वं
वराहवपुषा तु सा ।
उद्धृता विष्णुना भक्त्या पप्रच्छ
परमेश्वरम् ।। १.४ ।।
सूतजी कहते हैं- पूर्वकाल में जब
सर्वव्यापी भगवान् नारायण ने वराह रूप धारण करके अपनी शक्ति द्वारा एकार्णव की
अनन्त जलराशि में निमग्न पृथ्वी का उद्धार किया, उस समय पृथ्वी ने उनसे पूछा ।
धरण्युवाच।
कल्पे कल्पे भवानेव मां समुद्धरते
विभो।
न चाहं वेद ते मूर्तिं नादिसर्गं च
केशव।। १.५ ।।
वेदेषु चैव नष्टेषु मत्स्यो भूत्वा
रसातलम्।
प्रविश्य तानपाकृष्य ब्रह्मणे
दत्तवानसि ।। १.६ ।।
अन्यत् सुरासुरमयं त्वं समुद्रस्य
मन्थने।
धृतवानसि कौर्म्येण मन्दरं मधुसूदन
।। १.७ ।।
पुनर्वाराहरूपेण मां गच्छन्तीं
रसातलम् ।
उज्जहारैकदंष्ट्रेण भगवान् वै
महार्णवात्।। १.८ ।।
अन्यद्धिरण्यकशिपुर्वरदानेन
दर्पितः।
आबाधमानः पृथिवीं स त्वया
विनिपातितः ।
बलिस्तु बद्धो भगवंस्त्वया
वामनरूपिणा ।। १.९ ।।
पुनर्निःक्षत्रिया देव त्वया चापि
पुरा कृता ।
जामदग्न्येन रामेण त्वया
भूत्वाऽसकृत्प्रभो ।। १.१० ।।
पुनश्च रावणो रक्षः क्षपितं
क्षात्रतेजसा ।
न च जानाम्यहं देव तव
किञ्चिद्विचेष्टितम् ।। १.११ ।।
पृथ्वी ने कहा - प्रभो! आप प्रत्येक
कल्प में सृष्टि के आदिकाल में इसी प्रकार मेरा उद्धार करते रहते हैं;
परंतु केशव ! आपके स्वरूप एवं सृष्टि के प्रारम्भ के विषय में मैं
आज तक न जान सकी। जब वेद लुप्त हो गये थे, उस समय आप
मत्स्यरूप धारण कर समुद्र में प्रविष्ट हो गये थे और वहाँ से वेदों का उद्धार करके
आपने ब्रह्मा को दे दिया था। मधुसूदन ! इसके अतिरिक्त जब देवता और दानव एकत्र होकर
समुद्र का मन्थन करने लगे, तब आपने कच्छपावतार ग्रहण करके
मन्दराचल पर्वत को धारण किया था। भगवन्! आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं । जब मैं
जल में डूब रही थी, तब आपने रसातल से, जहाँ
सब ओर जल-ही- जल था, अपनी एक दाढ़पर रखकर मेरा उद्धार किया
है। इसके अतिरिक्त जब वरदान के प्रभाव से हिरण्यकशिपु को असीम अभिमान हो गया था और
वह पृथ्वी पर भाँति-भाँति के उपद्रव करने लगा था, उस समय वह
आपके द्वारा ही मारा गया था । देवाधिदेव ! प्राचीन काल में आपने ही जमदग्निनन्दन
परशुराम के रूप में अवतीर्ण होकर मुझे क्षत्रियरहित कर दिया था। भगवन्! आपने
क्षत्रियकुल में दाशरथि श्रीराम के रूप में अवतीर्ण होकर क्षत्रियोचित पराक्रम से
रावण को नष्ट कर दिया था तथा वामनरूप से आपने ही बलि को बाँधा था। प्रभो ! मुझे जल
से ऊपर उठाकर आप सृष्टि की रचना किस प्रकार करते हैं तथा इसका क्या कारण है ?
आपकी इन लीलाओं के रहस्य को मैं कुछ भी नहीं जानती ।
उद्धृत्य मां कथं सृष्टिं सृजसे किं
च सा त्वया।
सकृद् ध्रियेत कृत्वा च पाल्यते
चापि केन च ।। १.१२ ।।
केन वा सुलभो देव जायसे सततं विभो ।
कथं च सृष्टेरादिः स्यादवसानं कथं
भवेत् ।। १.१३ ।।
कथं युगस्य गणना
संख्याऽस्यानुचतुर्युगम् ।
के वा विशेषास्तेष्वस्मिन् का
वाऽवस्था महेश्वर ।। १.१४ ।।
यज्वानः के च राजानः के च सिद्धिं
परां गताः ।
एतत्सर्वं समासेन कथयस्व प्रसीद मे
।। १.१५ ।।
विभो ! मुझे एक बार जल के ऊपर
स्थापित करने के अनन्तर आप किस प्रकार सृष्टि के पालन की व्यवस्था करते हैं?
आपके निरन्तर सुलभ रहने का कौन-सा उपाय है ? सृष्टि
का किस प्रकार आरम्भ और अवसान होता है ? चारों युगों की गणना
का कौन-सा प्रकार है तथा युगों का क्रम किस प्रकार चलता है ? महेश्वर ! उन युगों में किस युग की प्रधानता है तथा किस युग में आप कौन-सी
लीला किया करते हैं ? यज्ञ में सदा संलग्न रहनेवाले कितने
राजा हो चुके हैं और उनमें से किन- किन को सिद्धि सुलभ हुई है ? प्रभो ! आप मुझपर प्रसन्न हों और ये सब विषय संक्षेप से बताने की कृपा
करें।
इत्युक्तः क्रोडरूपेण जहास
परमेश्वरः ।
हसतस्तस्य कुक्षौ तु जगद्धात्री
ददर्श ह ।।
रुद्रान् देवान् सवसवः सिद्धसंघान्
महर्षिभिः ।। १.१६ ।।
सचन्द्रसूर्यग्रहसप्तलोका-
नन्तः स्थितांस्तावदुपात्तधर्मान् ।
इतीदृशं पश्यति सा समस्तं
यावत्क्षितिर्वेपितसर्वगात्रा ।।
१.१७ ।।
उन्मीलितास्यस्तु यदा महात्मा
दृष्टो धरण्याऽमलसर्वगात्र्या ।
तावत्स्वरूपेण चतुर्भुजेन
महोदधौ सुप्तमथोऽन्वपश्यत् ।। १.१८
।।
शेषपर्यङ्कशयने सुप्तं देवं
जनार्दनम् ।
दृष्ट्वा तन्नाभिपङ्कस्थमन्तःस्थं च
चतुर्मुखम्।
कृताञ्जलिपुटा देवी स्तुतिं धात्री
जगाद ह ।। १.१९ ।।
पृथ्वी के ऐसा कहने पर शूकररूपधारी
भगवान् आदिवराह हँस पड़े। हँसते समय उनके उदर में जगद्धात्री पृथ्वी को महर्षियों सहित
रुद्र,
वसु, सिद्ध एवं देवताओं का समुदाय दीखने लगा।
साथ ही उसने वहाँ अपने-अपने कर्तव्यपालन में तत्पर सूर्य, चन्द्रमा,
ग्रहों और सातों लोकों को भी देखा । यह सब देखते ही भय एवं विस्मय से
पृथ्वी के सभी अङ्ग काँपने लगे। इस प्रकार पृथ्वी को भयभीत देखकर भगवान् वराह ने
अपना मुख बंद कर लिया। तब पृथ्वी ने उनको चतुर्भुज रूप धारणकर महासागर में शेषनाग की
शय्यापर सोये देखा । उनकी नाभि से कमल निकला हुआ था। फिर तो चार भुजाओं से सुशोभित
उन परमेश्वर को देखकर देवी पृथ्वी ने हाथ जोड़ लिया और उनकी स्तुति करने लगी
।"
धरणिकृतं विष्णुस्तोत्रम्
धरण्युवाच ।
नमः कमलपत्राक्ष नमस्ते पीतवाससे ।
नमः सुरारिविध्वंसकारिणे परमात्मने
॥ २०॥
पृथ्वी ने कहा—
कमलनयन ! आपके श्रीअङ्गों में पीताम्बर फहरा रहा है, आप स्मरण करते ही भक्तों के पापों का हरण करनेवाले हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है । देवताओं के द्वेषी दैत्यों का दलन करनेवाले आप
परमात्मा को नमस्कार है।
शेषपर्यङ्कशयने धृतवक्षस्थलश्रिये ।
नमस्ते सर्वदेवेश नमस्ते
मोक्षकारिणे ॥ २१॥
जो शेषनाग की शय्यापर शयन करते हैं,
जिनके वक्षःस्थल पर लक्ष्मी शोभा पाती हैं तथा भक्तों को मुक्ति
प्रदान करना ही जिनका स्वभाव है, ऐसे सम्पूर्ण देवताओं के ईश्वर
आप प्रभु को बारम्बार नमस्कार है।
नमः शार्ङ्गासिचक्राय
जन्ममृत्युविवर्जित ।
नमो नाभ्युत्थितमहाकमलासनजन्मने ॥
२२॥
प्रभो! आपके हाथ में खड्ग,
चक्र और शार्ङ्ग धनुष शोभा पाते हैं, आप पर
जन्म एवं मृत्यु का प्रभाव नहीं पड़ता तथा आपके नाभिकमल पर ब्रह्मा का प्राकट्य
हुआ है, ऐसे आप प्रभु के लिये बारम्बार नमस्कार है।
नमो विद्रुमरक्तोष्ठपाणिपल्लवशोभिने
।
शरणं त्वां प्रपन्नास्मि त्राहि
नारीमनागसम् ॥२३॥
जिनके अधर और करकमल लाल विद्रुममणि के
समान सुशोभित होते हैं, उन जगदीश्वर के
लिये नमस्कार है। भगवन् ! मैं निरुपाय नारी आपकी शरण में आयी हूँ, मेरी रक्षा करने की कृपा करें।
पूर्णनीलाञ्जनाकारं वाराहं ते
जनार्दन ।
दृष्ट्वा भीताऽस्मि भूयोऽपि
जगत्त्वद्देहगोचरे
इदानीं कुरु मे नाथ दयां त्राहि
महाप्रभो ॥ २४॥
जनार्दन ! सघन नील अञ्जन के समान
श्यामल आपके इस वराहविग्रह को देखकर मैं भयभीत हो गयी हूँ। इसके अतिरिक्त चराचर
सम्पूर्ण जगत् को आपके शरीर में देखकर भी मैं पुनः भय को प्राप्त हो रही हूँ। नाथ
! अब आप मुझपर दया कीजिये । महाप्रभो ! मेरी रक्षा आपकी कृपा पर निर्भर है।
केशवः पातु मे पादौ जङ्घे नारायणो
मम ।
माधवो मे कटिं पातु गोविन्दो
गुह्यमेव च ॥ २५॥
भगवान् केशव मेरे पैरों की,
नारायण मेरे कटिभाग की तथा माधव दोनों जङ्घाओं की रक्षा करें।
भगवान् गोविन्द गुह्याङ्ग की रक्षा करें।
नाभिं विष्णुस्तु मे पातु उदरं
मधुसूदनः ।
उरस्त्रिविक्रमः पातु हृदयं पातु
वामनः ॥ २६॥
विष्णु मेरी नाभि की तथा मधुसूदन
उदर की रक्षा करें । भगवान् वामन वक्षःस्थल एवं हृदय की रक्षा करें।
श्रीधरः पातु मे कण्ठं हृषीकशो मुखं
मम ।
पद्मनाभस्तु नयने शिरो दामोदरो मम ॥
२७॥
लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु मेरे कण्ठ
की,
हृषीकेश मुख की, पद्मनाभ नेत्रों की तथा
दामोदर मस्तक की रक्षा करें।
एवं न्यस्य हरेर्न्यासमामानि जगती
तदा ।
नमस्ते भगवन् विष्णो इत्युक्त्वा
विरराम ह ।। १.२८ ।।
इस प्रकार भगवान् श्रीहरि के नामों का
अपने अङ्गों में न्यास करके पृथ्वीदेवी 'भगवन्
! विष्णो ! आपको नमस्कार है' ऐसा कहकर मौन हो गयीं।
इति श्रीवराहपुराणे भगवच्छास्त्रे प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।
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