श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १४
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध
अध्याय १४ "ब्रह्मा जी के द्वारा भगवान
की स्तुति"
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं चतुर्दश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध
अध्याय १४
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१०पूर्वार्ध अध्यायः१४
श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध
चौदहवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः
पूर्वार्धं
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥
॥ चतुर्दशोऽध्यायः - १४ ॥
ब्रह्मोवाच
नौमीड्य तेऽभ्रवपुषे तडिदम्बराय
गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय ।
वन्यस्रजे कवलवेत्रविषाणवेणु-
लक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपाङ्गजाय ॥
१॥
अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य
स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि
।
नेशे महि त्ववसितुं मनसाऽऽन्तरेण
साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूतेः
॥ २॥
ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव
जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम्
।
स्थाने स्थिताः श्रुतिगतां
तनुवाङ्मनोभिः
ये प्रायशोऽजित जितोऽप्यसि
तैस्त्रिलोक्याम् ॥ ३॥
श्रेयःसृतिं/स्रुतिं भक्तिमुदस्य ते
विभो
क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये ।
तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते
नान्यद्यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥ ४॥
पुरेह भूमन् बहवोऽपि योगिन-
स्त्वदर्पितेहा निजकर्मलब्धया ।
विबुध्य भक्त्यैव कथोपनीतया
प्रपेदिरेऽञ्जोऽच्युत ते गतिं पराम्
॥ ५॥
तथापि भूमन् महिमागुणस्य ते
विबोद्धुमर्हत्यमलान्तरात्मभिः ।
अविक्रियात्स्वानुभवादरूपतो
ह्यनन्यबोध्यात्मतया न चान्यथा ॥ ६॥
ब्रह्मा जी ने स्तुति की ;-
प्रभो! एकमात्र आप ही स्तुति करने योग्य हैं। मैं आपके चरणों में
नमस्कार करता हूँ। आपका यह शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है, इस पर स्थिर बिजली के समान झिलमिल-झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है
आपके गले में घुँघची की माला, कानों में मकराकृति कुण्डल तथा
सिर पर मोर पंखों का मुकुट है, इन सबकी कान्ति से आपके मुख
पर अनोखी छटा छिटक रही है। वक्षःस्थल पर लटकती हुई वनमाला और नन्ही-सी हथेली पर
दही-भात का कौर। बगल में बेंत और सिंगी तथा कमर की फेंट में में आपकी पहचान बताने
वाली बाँसुरी शोभा पा रही है।
आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण
और यह गोपाल-बालक का सुमधुर वेष। स्वयं-प्रकाश परमात्मन! आपका यह श्रीविग्रह
भक्तों की लालसा-अभिलाषा पूर्ण करने वाला है। यह आपकी चिन्मयी इच्छा का मूर्तिमान
स्वरूप मुझ पर आपका साक्षात कृपा-प्रसाद है। मुझे अनुगृहीत करने के लिए ही आपने
इसे प्रकट किया है। कौन कहता है कि यह पंचभूतों की रचना है?
प्रभो! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्त्वमय है। मैं या और कोई समाधि
लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रह की महिमा नहीं जान सकता। फिर
आत्मा-नन्दानुभवस्वरूप साक्षात आपकी ही महिमा को तो कोई एकाग्र मन से भी कैसे जान
सकता है।
प्रभो! जो लोग ज्ञान के लिए प्रयत्न
न करके अपने स्थान में ही स्थित रहकर केवल सत्संग करते हैं और आपके प्रेमी संत
पुरुषों के द्वारा गयी हुई आपकी लीला-कथा का, जो
उन लोगों के पास रहने से अपने-आप सुनने को मिलती है, शरीर,
वाणी और मन से विनयावनत होकर सेवन करते हैं - यहाँ तक कि उसे ही
अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना जी ही नहीं सकते - प्रभो!
यद्यपि आप पर त्रिलोकी में कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आप पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके
प्रेम के अधीन हो जाते हैं। भगवन! आपकी भक्ति सब प्रकार से कल्याण का मूलस्त्रोत -
उद्गम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये श्रम उठाते और दुःख
भोगते हैं, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है, और कुछ नहीं - जैसे थोथी भूसी कूटनेवाले को केवल श्रम ही मिलता है,
चावल नहीं।
हे अच्युत! हे अनन्त! इस लोकों में
पहले भी बहुत-से योगी हो गये हैं। जब उन्हें योगादि के द्वारा आपकी प्राप्ति न हुई,
तब उन्होंने अपने लौकिक और वैदिक समस्त कर्म आपके चरणों में समर्पित
कर दिये। उन समर्पित कर्मों से तथा आपकी लीला-कथा से उन्हें आपकी भक्ति प्राप्त
हुई। उस भक्ति से ही आपके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने बड़ी सुगमता से
आपके परमपद की प्राप्ति कर ली। हे अनन्त! आपके सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपों का
ज्ञान कठिन होने पर भी निर्गुण स्वरूप की महिमा इन्द्रियों का प्रत्याहार करके
शुद्धान्तःकरण से जानी जा सकती है। (जानने की प्रक्रिया यह है कि) विशेष आकर के
परित्यागपूर्वक आत्माकार अन्तःकरण का साक्षात्कार किया जाय। यह आत्माकार घट-पटादि
रूप के समान ज्ञेय नहीं है, प्रत्युत आवरण का भंगमात्र है।
यह साक्षात्कार ‘यह ब्रह्म है’, ‘मैं
ब्रह्म को जानता हूँ’ इस प्रकार नहीं, किन्तु
स्वयंप्रकाश रूप से ही होता है।
गुणात्मनस्तेऽपि गुणान् विमातुं
हितावतीर्णस्य क ईशिरेऽस्य ।
कालेन यैर्वा विमिताः सुकल्पै-
र्भूपांसवः खे मिहिका द्युभासाः ॥
७॥
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो
भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते
जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥ ८॥
पश्येश मेऽनार्यमनन्त आद्ये
परात्मनि त्वय्यपि मायिमायिनि ।
मायां वितत्येक्षितुमात्मवैभवं
ह्यहं कियानैच्छमिवार्चिरग्नौ ॥ ९॥
अतः क्षमस्वाच्युत मे रजोभुवो
ह्यजानतस्त्वत्पृथगीशमानिनः ।
अजावलेपान्धतमोऽन्धचक्षुष
एषोऽनुकम्प्यो मयि नाथवानिति ॥ १०॥
क्वाहं तमोमहदहङ्खचराग्निवार्भू-
संवेष्टिताण्डघटसप्तवितस्तिकायाः ।
क्वेदृग्विधाविगणिताण्डपराणुचर्या-
वाताध्वरोमविवरस्य च ते महित्वम् ॥
११॥
उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः
किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।
किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूषितं
तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनन्तः ॥ १२॥
जगत्त्रयान्तोदधिसम्प्लवोदे
नारायणस्योदरनाभिनालात् ।
विनिर्गतोऽजस्त्विति वाङ्न वै मृषा
किन्त्वीश्वर त्वन्न विनिर्गतोऽस्मि
॥ १३॥
परन्तु भगवन! जिन समर्थ पुरुषों ने
अनेक जन्मों तक परिश्रम करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु,
आकाश के हिमकण तथा उसमें चमकने वाले नक्षत्र एवं तारों तक को गिन
डाला है - उसमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण
स्वरूप के अनन्त गुणों को गिन सके? प्रभो! आप केवल संसार के
कल्याण के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं। सो भगवन! आपकी महिमा का ज्ञान तप बड़ा ही कठिन
है। इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भली-भाँति
अनुभव करता रहता है और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे
निर्विकार मन से भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय,
गद्गद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों में समर्पित करता
रहता है - इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पद का
अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिता की सम्पत्ति का पुत्र।
प्रभो! मेरी कुटिलता तो देखिये। आप
अनन्त आदिपुरुष परमात्मा और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी माया के चक्र में
हैं। फिर भी मैंने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा! प्रभो! मैं
आपके सामने हूँ ही क्या। क्या आग के सामने चिनगारी की भी कुछ गिनती है?
भगवन! मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ। आपके स्वरूप को मैं ठीक-ठाक
नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मैं अजन्मा
जगत्कर्ता हूँ - इस मायाकृत मोह के घने अन्धकार से मैं अन्धा हो रहा था। इसलिये आप
यह समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है - मेरा भृत्य है, इस पर कृपा करनी चाहिए’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये।
मेरे स्वामी! प्रकृति,
महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश,
वायु, अग्नि, जल और
पृथ्वी रूप आवरणों से घिरा हुआ यह ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है। और आपके एक-एक रोम
के छिद्र में ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखे की जाली में से आने वाली सूर्य की किरणों में रज के छोटे-छोटे
परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं। कहाँ अपने परिमाण से साढ़े तीन हाथ के शरीर
वाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा।
वृत्तियों की पकड़ में न आने वाले परमात्मन! जब बच्चा माता के पेट में रहता है,
तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परन्तु
क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है? ‘है’ और ‘नहीं है’ - इन शब्दों से कही जाने वाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो? श्रुतियाँ कहती हैं कि
जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जल में लीन थे, उस समय उस जल
में स्थित श्रीनारायण के नाभि कमल से ब्रह्मा का जन्म हुआ। उनका यह कहना किसी
प्रकार असत्य नहीं हो सकता। तब आप भी बतलाइये, प्रभो! क्या
मैं आपका पुत्र नहीं हूँ?
नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिना-
मात्मास्यधीशाखिललोकसाक्षी ।
नारायणोऽङ्गं नरभूजलायनात्
तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥ १४॥
तच्चेज्जलस्थं तव सज्जगद्वपुः
किं मे न दृष्टं भगवंस्तदैव ।
किं वा सुदृष्टं हृदि मे तदैव
किं नो सपद्येव पुनर्व्यदर्शि ॥ १५॥
अत्रैव मायाधमनावतारे
ह्यस्य प्रपञ्चस्य बहिः स्फुटस्य ।
कृत्स्नस्य चान्तर्जठरे जनन्या
मायात्वमेव प्रकटीकृतं ते ॥ १६॥
यस्य कुक्षाविदं सर्वं सात्मं भाति
यथा तथा ।
तत्त्वय्यपीह तत्सर्वं किमिदं मायया
विना ॥ १७॥
अद्यैव त्वदृतेऽस्य किं मम न ते
मायात्वमादर्शित-
मेकोऽसि प्रथमं ततो
व्रजसुहृद्वत्साः समस्ता अपि ।
तावन्तोऽसि चतुर्भुजास्तदखिलैः साकं
मयोपासिता-
स्तावन्त्येव जगन्त्यभूस्तदमितं
ब्रह्माद्वयं शिष्यते ॥ १८॥
अजानतां त्वत्पदवीमनात्म-
न्यात्माऽऽत्मना भासि वितत्य मायाम्
।
सृष्टाविवाहं जगतो विधान
इव त्वमेषोऽन्त इव त्रिनेत्रः ॥ १९॥
सुरेष्वृषिष्वीश तथैव नृष्वपि
तिर्यक्षु यादःस्वपि तेऽजनस्य ।
जन्मासतां दुर्मदनिग्रहाय
प्रभो विधातः सदनुग्रहाय च ॥ २०॥
को वेत्ति भूमन् भगवन् परात्मन्
योगेश्वरोतीर्भवतस्त्रिलोक्याम् ।
क्व वा कथं वा कति वा कदेति
विस्तारयन् क्रीडसि योगमायाम् ॥ २१॥
तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं
स्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदुःखदुःखम् ।
त्वय्येव नित्यसुखबोधतनावनन्ते
मायात उद्यदपि यत्सदिवावभाति ॥ २२॥
प्रभो! आप समस्त जीवों के आत्मा
हैं। इसलिये आप नारायण हैं। आप समस्त जगत के और जीवों के अधीश्वर हैं,
इसलिए भी नारायण हैं। आप समस्त लोकों के साक्षी हैं, इसलिए भी नारायण हैं। नर से
उत्पन्न होने वाले जल में निवास करने के कारण जिन्हें नारायण कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं। वह अंशरूप से दीखना भी सत्य नहीं हैं, आपकी माया ही है।
भगवन! यदि आपका विराट स्वरूप सचमुच
उस समय जल में ही था तो मैंने उसी समय क्यों नहीं देखा,
जबकि मैं कमलनाल के मार्ग से उसे सौ वर्ष तक जल में ढूंढ़ता रहा?
फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदय
में उसका दर्शन कैसे हो गया? और फिर कुछ ही क्षणों में वह
पुनः क्यों नहीं दीखा, अंतर्धयान क्यों गया? माया का नाश करने वाले प्रभो! दूर की बात कौन करे - अभी इसी अवतार में
आपने इस बाहर दीखने वाले जगत को अपने पेट में ही दिखला दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं। इससे यही सिद्ध होता है कि यह
सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है जब आपके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा
बाहर दीखता है वैसा ही आपके उदर में भी दीखा, तब क्या यह सब
आपकी माया के बिना ही आप में प्रतीत हुआ? अवश्य ही आपकी लीला
है।
उस दिन की बात जाने दीजिये,
आज की ही लीजिये। क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण
विश्व को अपनी माया का खेल नहीं दिखलाया है? पहले आप अकेले
थे। फिर सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो
गये। उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरे सहित सब-के-सब
तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हैं। आपने अलग-अलग उतने ही ब्रह्माण्डों का रूप भी धारण
कर लिया था, परन्तु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रह्मरूप
से ही शेष रह गये हैं।
जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूप को
नहीं जानते, उन्हीं को आप प्रकृति में स्थित
जीव के रूप से प्रतीत होते हैं और उन पर अपनी माया का परदा डालकर सृष्टि के समय
मेरे (ब्रह्मा) रूप से, पालन के समय अपने (विष्णु) रूप से और
संहार के समय रुद्र के रूप में प्रतीत होते हैं। प्रभो! आप सारे जगत के स्वामी और
विधाता हैं। अजन्मा होने पर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियों में अवतार
ग्रहण करते हैं, इसलिए कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों
का घमण्ड तोड़ दें और सत्पुरुषों पर अनुग्रह करें।
भगवन आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर
हैं। जिस समय आप अपनी योगमाया का विस्तार करके लीला करने लगते हैं,
उस समय त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो यह जान
सके कि आपकी लीला कहाँ, किसलिये, कब और
कितनी होती है। इसलिए यह सम्पूर्ण जगत स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर-दुःख देने वाला है। आप परमानन्द, परम ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हैं। यह माया से उत्पन्न एवं विलीन होने पर भी
आपमें आपकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होता है।
एकस्त्वमात्मा पुरुषः पुराणः
सत्यः स्वयञ्ज्योतिरनन्त आद्यः ।
नित्योऽक्षरोऽजस्रसुखो निरञ्जनः
पूर्णोऽद्वयो मुक्त उपाधितोऽमृतः ॥
२३॥
एवं विधं त्वां सकलात्मनामपि
स्वात्मानमात्माऽऽत्मतया विचक्षते ।
गुर्वर्कलब्धोपनिषत्सुचक्षुषा
ये ते तरन्तीव भवानृताम्बुधिम् ॥
२४॥
आत्मानमेवात्मतयाविजानतां
तेनैव जातं निखिलं प्रपञ्चितम् ।
ज्ञानेन भूयोऽपि च तत्प्रलीयते
रज्ज्वामहेर्भोगभवाभवौ यथा ॥ २५॥
अज्ञानसंज्ञौ भवबन्धमोक्षौ
द्वौ नाम नान्यौ स्त ऋतज्ञभावात् ।
अजस्रचित्याऽऽत्मनि केवले परे
विचार्यमाणे तरणाविवाहनी ॥ २६॥
त्वामात्मानं परं मत्वा
परमात्मानमेव च ।
आत्मा पुनर्बहिर्मृग्य
अहोऽज्ञजनताज्ञता ॥ २७॥
अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव
ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः ।
असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेण
सन्तं गुणं तं किमु यन्ति सन्तः ॥
२८॥
अथापि ते देव पदाम्बुजद्वय-
प्रसादलेशानुगृहीत एव हि ।
जानाति तत्त्वं भगवन् महिम्नो-
न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् ॥
२९॥
तदस्तु मे नाथ स भूरिभागो
भवेऽत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम् ।
येनाहमेकोऽपि भवज्जनानां
भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम् ॥ ३०॥
अहोऽतिधन्या व्रजगोरमण्यः
स्तन्यामृतं पीतमतीव ते मुदा ।
यासां विभो वत्सतरात्मजात्मना
यत्तृप्तयेऽद्यापि न चालमध्वराः ॥
३१॥
प्रभो! आज ही एकमात्र सत्य हैं।
क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं। आप पुराण पुरुष होने के कारण समस्त जन्मादि विकारों
से रहित हैं। आप स्वयं प्रकाश है; इसलिये देश,
काल और वस्तु - जो पर प्रकाश हैं - किसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर
सकते। आप उनके भी आदि प्रकाशक हैं। आप अविनाशी होने के कारण नित्य हैं। आपका आनन्द
अखण्डित है। आपमें न तो किसी प्रकार का मल है और न अभाव। आप पूर्ण, एक हैं। समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हैं। आपका यह
ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही अपना स्वरूप है।
जो गुरु रूप सूर्य से तत्त्वज्ञान
रूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूप के रूप में साक्षात्कार कर
लेते हैं,
वे इस झूठे संसार-सागर को मानो पार कर जाते हैं। जो पुरुष परमात्मा
को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण
ही इस नाम रूपात्मक निखिल प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है। किन्तु ज्ञान
होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है। जैसे रस्सी के भ्रम के कारण ही साँप की
प्रतीति होती है और भ्रम के निवृत होते ही उसकी निवृति हो जाती है।
संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्ष
- ये दोनों ही नाम अज्ञान से कल्पित हैं। वास्तव में ये अज्ञान के ही दो नाम हैं।
ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से भिन्न अस्तित्व नहीं रखते। जैसे सूर्य में दिन
और रात का भेद नहीं है, वैसे ही विचार करने
पर अखण्ड चित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व में न बन्धन है और न तो मोक्ष। भगवन!
कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको
पराया मानते हैं। और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा
मान बैठते हैं। और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूंढ़ने लगते हैं।
भला, अज्ञानी जीवों का यह कितना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त! आप तो सबके अंतःकरण
में ही विराजमान हैं। इसलिये सन्त लोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है,
उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूंढ़ते हैं। क्योंकि
यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँप को
मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को
कैसे जान सकता है? अपने भक्तजनों के हृदय में स्वयं स्फुरित
होने वाले भगवन! आपके ज्ञान का स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे
अज्ञान कल्पित जगत का नाश हो जाता है।
फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरण
कमलों का तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है,
उससे अनुगृहीत हो जाता है - वही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमा का
तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधन रूप अपने प्रयत्न से बहुत
काल तक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमा का
यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।
इसलिये भगवन! मुझे इस जन्म में,
दूसरे जन्म में अथवा किसी पशु-पक्षी आदि के जन्म में भी ऐसा सौभाग्य
प्राप्त हो कि मैं आपके दासों में से कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलों की
सेवा करूँ। मेरे स्वामी! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक
आपको पूर्णतः तृप्त न कर सके। परन्तु आपने ब्रज की गायों और ग्वालिनों के बछड़े
एवं बालक बनकर उनके स्तनों का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से पिया है। वास्तव में
उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं।
अहोभाग्यमहोभाग्यं
नन्दगोपव्रजौकसाम् ।
यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म
सनातनम् ॥ ३२॥
एषां तु भाग्यमहिमाच्युत तावदास्ता-
मेकादशैव हि वयं बत भूरिभागाः ।
एतद्धृषीकचषकैरसकृत्पिबामः
शर्वादयोऽङ्घ्र्युदजमध्वमृतासवं ते
॥ ३३॥
तद्भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां
यद्गोकुलेऽपि कतमाङ्घ्रिरजोऽभिषेकम्
।
यज्जीवितं तु निखिलं भगवान्
मुकुन्दः
त्वद्यापि यत्पदरजः श्रुतिमृग्यमेव
॥ ३४॥
एषां घोषनिवासिनामुत भवान् किं देव
रातेति नः
चेतो विश्वफलात्फलं त्वदपरं
कुत्राप्ययन् मुह्यति ।
सद्वेषादिव पूतनापि सकुला त्वामेव
देवापिता
यद्धामार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते
॥ ३५॥
तावद्रागादयः स्तेनास्तावत्कारागृहं
गृहम् ।
तावन्मोहोऽङ्घ्रिनिगडो यावत्कृष्ण न
ते जनाः ॥ ३६॥
प्रपञ्चं निष्प्रपञ्चोऽपि विडम्बयसि
भूतले ।
प्रपन्नजनतानन्दसन्दोहं प्रथितुं
प्रभो ॥ ३७॥
जानन्त एव जानन्तु किं बहूक्त्या न
मे प्रभो ।
मनसो वपुषो वाचो वैभवं तव गोचरः ॥
३८॥
अहो, नन्द आदि ब्रजवासी गोपों के धन्य भाग्य हैं। वास्तव में उनका अहोभाग्य है।
क्योंकि परमानन्द स्वरूप सनातन परिपूर्ण ब्रह्म आप उनके अपने सगे-सम्बन्धी और
सुहृद हैं। हे अच्युत! इन ब्रजवासियों के सौभाग्य की महिमा तो अलग रही - मन आदि
ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवताओं के रूप में रहने वाले महादेव आदि हम लोग
बड़े ही भाग्यवान हैं। क्योंकि इन ब्रजवासियों की मन आदि ग्यारह इन्द्रियों को
प्याले बनाकर हम आपके चरण कमलों का अमृत से भी मीठा, मदिरा
से भी मादक, मधुर मकरकन्द रस पान करते रहते हैं। जब उसका
एक-एक इन्द्रिय से पान करके हम धन्य-धन्य हो रहे हैं, तब
समस्त इन्द्रियों से उसका सेवन करने वाले ब्रजवासियों की तो बात ही क्या है।
प्रभो! इस ब्रजवासी के किसी वन में
और विशेष करके गोकुल में किसी भी योनि में जन्म हो जाय,
यही हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी! क्योंकि यहाँ जन्म हो
जाने पर आपके किसी-न-किसी प्रेमी के चरणों की धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी। प्रभो!
आपके प्रेमी ब्रजवासियों का सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के
एकमात्र सर्वस्व हैं। किसी वन में और विशेष करके गोकुल में किसी भी योनि में जन्म
हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी! क्योंकि
यहाँ जन्म हो जाने पर आपके किसी-न-किसी प्रेमी के चरणों की धूलि अपने ऊपर पड़ ही
जायगी।
प्रभो! आपके प्रेमी ब्रजवासियों का
सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमात्र सर्वस्व हैं। इसलिए
उनके चरणों की धूलि मिलना आपके ही चरणों की धूलि मिलना है और आपके चरणों की धूलि
को तो श्रुतियाँ भी अनादि काल से अब तक ढूंढ़ ही रही हैं। देवताओं के भी आराध्य
देव प्रभो! इन ब्रजवासियों को इनकी सेवा के बदले में आप क्या फल देंगे?
सम्पूर्ण फलों के फलस्वरूप! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं,
यह सोचकर मेरा चित्त मोहित हो रहा है। आप उन्हें अपना स्वरूप भी
देकर उऋण नहीं सकते। क्योंकि आपके स्वरूप को तो उस पूतना ने भी अपने सम्बन्धियों -
अघासुर, बकासुर आदि के साथ प्राप्त कर लिया, जिसका केवल वेश ही साध्वी स्त्री का था, पर जो हृदय
से महान क्रूर थी। फिर, जिन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, प्रिय, शरीर, पुत्र, प्राण और मन - सब
कुछ आपके ही चरणों में समर्पित कर दिया है, जिनका सब कुछ
आपके ही लिये है, उन ब्रजवासियों को भी वही फल देकर आप कैसे उऋण
हो सकते हैं।
सच्चिदानन्दस्वरूप श्यामसुन्दर! तभी
तक राग-द्वेष आदि चोरों के समान सर्वस्व अपहरण करते रहते हैं,
तभी तक घर और उसके सम्बन्धी क़ैद की तरह सम्बन्ध के बन्धनों में
बाँध रखते हैं और तभी तक मोह पैर की बेड़ियों की तरह जकड़े रखता है - जब तक जीव
आपका नहीं हो जाता। प्रभो! आप विश्व के बखेड़े से सर्वथा रहित हैं, फिर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनन्द वितरण करने के लिए पृथ्वी में
अवतार लेकर विश्व के समान ही लीला-विलास का विस्तार करते हैं। मेरे स्वामी! बहुत
कहने की आवश्यकता नहीं - जो लोग आपकी महिमा जानते हैं, वे
जानते रहें; मेरे मन, वाणी और शरीर तो
आपकी महिमा जानने में सर्वथा असमर्थ हैं।
अनुजानीहि मां कृष्ण सर्वं त्वं
वेत्सि सर्वदृक् ।
त्वमेव जगतां नाथो
जगदेतत्तवार्पितम् ॥ ३९॥
श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्करजोषदायिन्
क्ष्मानिर्जरद्विजपशूदधिवृद्धिकारिन्
।
उद्धर्मशार्वरहर क्षितिराक्षसध्रु-
गाकल्पमार्कमर्हन् भगवन् नमस्ते ॥
४०॥
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप
सबके साक्षी हैं। इसलिये आप सब कुछ जानते हैं। आप समस्त जगत के स्वामी हैं। यह
सम्पूर्ण प्रपंच आपमें ही स्थित है। आपसे मैं और क्या कहूँ?
अब आप मुझे स्वीकार कीजिये। मुझे अपने लोक में जाने की आज्ञा
दीजिये। सबके मन-प्राण को अपनी रूप-माधुरी से आकर्षित करवाले श्यामसुन्दर! आप
यदुवंशरूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य हैं। प्रभो! पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण और पशुरूप समुद्र की अभिवृद्धि करने
वाले चन्द्रमा भी आप ही हैं। आप पाखण्डियों के धर्मरूप रात्रि का घोर अन्धकार नष्ट
करने के लिये सूर्य और चन्द्रमा दोनों के ही समान हैं। पृथ्वी पर रहने वाले
राक्षसों के नष्ट करने वाले आप चन्द्रमा, सूर्य आदि समस्त
देवताओं के भी परम पूजनीय हैं। भगवन! मैं अपने जीवन भर, महाकल्प
पर्यंत आपको नमस्कार ही करता रहूँ।
श्रीशुक उवाच
इत्यभिष्टूय भूमानं त्रिः परिक्रम्य
पादयोः ।
नत्वाभीष्टं जगद्धाता स्वधाम
प्रत्यपद्यत ॥ ४१॥
ततोऽनुज्ञाप्य भगवान् स्वभुवं
प्रागवस्थितान् ।
वत्सान् पुलिनमानिन्ये यथापूर्वसखं
स्वकम् ॥ ४२॥
एकस्मिन्नपि यातेऽब्दे प्राणेशं
चान्तरात्मनः ।
कृष्णमायाहता राजन् क्षणार्धं
मेनिरेऽर्भकाः ॥ ४३॥
किं किं न विस्मरन्तीह
मायामोहितचेतसः ।
यन्मोहितं जगत्सर्वमभीक्ष्णं
विस्मृतात्मकम् ॥ ४४॥
ऊचुश्च सुहृदः कृष्णं स्वागतं
तेऽतिरंहसा ।
नैकोऽप्यभोजि कवल एहीतः साधु
भुज्यताम् ॥ ४५॥
ततो हसन् हृषीकेशोऽभ्यवहृत्य सहार्भकैः
।
दर्शयंश्चर्माजगरं न्यवर्तत
वनाद्व्रजम् ॥ ४६॥
बर्हप्रसूननवधातुविचित्रिताङ्गः
प्रोद्दामवेणुदलशृङ्गरवोत्सवाढ्यः ।
वत्सान् गृणन्ननुगगीतपवित्रकीर्ति-
र्गोपीदृगुत्सवदृशिः प्रविवेश
गोष्ठम् ॥ ४७॥
अद्यानेन महाव्यालो यशोदानन्दसूनुना
।
हतोऽविता वयं चास्मादिति बाला व्रजे
जगुः ॥ ४८॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! संसार के रचयिता ब्रह्मा जी ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण
की स्तुति की। इसके बाद उन्होंने तीन बार परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम
किया और फिर अपने गंतव्य स्थान सत्यलोक में चले गये। ब्रह्माजी ने बछड़ों और
ग्वालबालों को पहले ही यथास्थान पहुँचा दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को
विदा कर दिया और बछड़ों को लेकर यमुना जी के पुलिन पर आये, जहाँ
वे अपने सखा ग्वालबालों को पहले छोड़ गये थे।
परीक्षित! अपने जीवनसर्वस्व -
प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के वियोग में यद्यपि एक वर्ष बीत गया था,
तथापि उन ग्वालबालों को वह समय आधे क्षण के समान जान पड़ा। क्यों न
हो, वे भगवान की विश्व-विमोहिनी योगमाया से मोहित जो हो गये
थे। जगत के सभी जीव उसी माया से मोहित होकर शास्त्र और आचार्यों के बार-बार समझाने
पर भी अपने आत्मा को निरन्तर भूले गए हैं। वास्तव में उस माया की ऐसी ही शक्ति है।
भला, उससे मोहित होकर जीव यहाँ क्या-क्या नहीं भूल जाते हैं?
परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण को देखते
ही ग्वालबालों ने बड़ी उतावली से कहा - ‘भाई!
तुम भले आये। स्वागत है, स्वागत! अभी तो हमने तुम्हारे बिना
एक कौर भी नहीं खाया है। आओ, इधर आओ; आनन्द
से भोजन करो। तब हँसते हुए भगवान ने ग्वालबालों के साथ भोजन किया और उन्हें अघासुर
के शरीर का ढाँचा दिखाते हुए वन से ब्रज में लौट आये।
श्रीकृष्ण के सिर पर मोरपंख का
मनोहर मुकुट और घुँघराले बालों में सुन्दर-सुन्दर महँ-महँ महँकते हुए पुष्प गुँथ
रहे थे। नयी-नयी रंगीन धातुओं से श्याम शरीर पर चित्रकारी की हुई थी। वे चलते समय
रास्ते में उच्च स्वर से कभी बाँसुरी, कभी
पत्ते और कभी सिंगी बजाकर वाद्योत्सव में मग्न हो रहे हैं। पीछे-पीछे ग्वालबाल
उनकी लोकपावन कीर्ति का गान करते जा रहे हैं। कभी वे नाम ले-लेकर अपने बछड़ों को
पुकारते, तो कभी उनके साथ लाड़-लड़ाने लगते। मार्ग के दोनों
ओर गोपियाँ खड़ी हैं; जब वे कभी तिरछे नेत्रों से उनकी नज़र
में नज़र मिला देते हैं, तब गोपियाँ आनन्द-मुग्ध हो जाती है।
इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने गोष्ठ में प्रवेश किया। परीक्षित! उसी दिन बालकों ने
ब्रज में जाकर कहा कि ‘आज यशोदा मैया के लाड़ले नन्दनन्दन ने
वन में एक बड़ा भारी अजगर मार डाला है और उससे हम लोगों की रक्षा की है।'
राजोवाच
ब्रह्मन् परोद्भवे कृष्णे इयान्
प्रेमा कथं भवेत् ।
योऽभूतपूर्वस्तोकेषु स्वोद्भवेष्वपि
कथ्यताम् ॥ ४९॥
राजा परीक्षित ने कहा ;-
ब्रह्मन्! ब्रजवासियों के लिये श्रीकृष्ण अपने पुत्र नहीं थे,
दूसरे के पुत्र थे। फिर उनका श्रीकृष्ण के प्रति इतना प्रेम कैसे
हुआ? ऐसा प्रेम तो उनका अपने बालकों पर भी पहले कभी नहीं हुआ
था! आप कृपा करके बतलाइये, इसका क्या कारण है?
श्रीशुक उवाच
सर्वेषामपि भूतानां नृप स्वात्मैव
वल्लभः ।
इतरेऽपत्यवित्ताद्यास्तद्वल्लभतयैव
हि ॥ ५०॥
तद्राजेन्द्र यथा स्नेहः
स्वस्वकात्मनि देहिनाम् ।
न तथा ममतालम्बिपुत्रवित्तगृहादिषु
॥ ५१॥
देहात्मवादिनां पुंसामपि
राजन्यसत्तम ।
यथा देहः प्रियतमस्तथा न ह्यनु ये च
तम् ॥ ५२॥
देहोऽपि ममताभाक्चेत्तर्ह्यसौ
नात्मवत्प्रियः ।
यज्जीर्यत्यपि देहेऽस्मिन् जीविताशा
बलीयसी ॥ ५३॥
तस्मात्प्रियतमः स्वात्मा
सर्वेषामपि देहिनाम् ।
तदर्थमेव सकलं जगदेतच्चराचरम् ॥ ५४॥
कृष्णमेनमवेहि
त्वमात्मानमखिलात्मनाम् ।
जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति
मायया ॥ ५५॥
वस्तुतो जानतामत्र कृष्णं स्थास्नु
चरिष्णु च ।
भगवद्रूपमखिलं नान्यद्वस्त्विह
किञ्चन ॥ ५६॥
सर्वेषामपि वस्तूनां भावार्थो भवति
स्थितः ।
तस्यापि भगवान् कृष्णः किमतद्वस्तु
रूप्यताम् ॥ ५७॥
समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः ।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं
पदं पदं यद्विपदां न तेषाम् ॥ ५८॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहमिह
त्वया ।
यत्कौमारे हरिकृतं पौगण्डे
परिकीर्तितम् ॥ ५९॥
एतत्सुहृद्भिश्चरितं मुरारे-
रघार्दनं शाद्वलजेमनं च ।
व्यक्तेतरद्रूपमजोर्वभिष्टवं
शृण्वन् गृणन्नेति नरोऽखिलार्थान्
॥ ६०॥
एवं विहारैः कौमारैः कौमारं
जहतुर्व्रजे ।
निलायनैः
सेतुबन्धैर्मर्कटोत्प्लवनादिभिः ॥ ६१॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
राजन! संसार के सभी प्राणी अपने आत्मा से ही सबसे बढ़कर प्रेम करते
हैं। पुत्र से, धन से या और किसी से जो प्रेम होता है - वह
तो इसलिये कि वे वस्तुएँ अपने आत्मा को प्रिय लगती हैं। राजेन्द्र! यही कारण है कि
सभी प्राणियों का अपने आत्मा के प्रति जैसा प्रेम होता है, वैसा
अपने कहलाने वाले पुत्र, धन और गृह आदि में होता।
नृपश्रेष्ठ! जो लोग देह को आत्मा
मानते हैं, वे भी अपने शरीर से जितना प्रेम
करते हैं, उतना प्रेम शरीर के सम्बन्धी पुत्र-मित्र आदि से
नहीं करते। जब विचार के द्वारा यह मालूम हो जाता है कि ‘यह
शरीर मैं नहीं हूँ, यह शरीर मेरा है’ तब
इस शरीर से भी आत्मा के समान प्रेम नहीं रहता। यही कारण है कि इस देह के जीर्ण-शीर्ण
हो जाने पर भी जीने की आशा प्रबल रूप से बनी रहती है। इससे यह बात सिद्ध होती है
कि सभी प्राणी अपने आत्मा से ही सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं और उसी के लिये इस सारे
चराचर जगत से भी प्रेम करते हैं।
इन श्रीकृष्ण को ही तुम सब आत्माओं
का आत्मा समझो। संसार के कल्याण के लिये ही योगमाया का आश्चर्य लेकर वे यहाँ
देहधारी के समान जान पड़ते हैं। जो लोग भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को
जानते हैं, उनके लिये तो इस जगत में जो कुछ
भी चराचर पदार्थ हैं, अथवा इससे परे परमात्मा, ब्रह्म, नारायण आदि जो भगवत्स्वरूप हैं, सभी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई
प्राकृत-अप्राकृत वस्तु है ही नहीं। सभी वस्तुओं का अन्तिम रूप अपने कारण में
स्थित होता है। उस कारण के भी परम कारण है भगवान श्रीकृष्ण। तब भला बताओ, किस वस्तु को श्रीकृष्ण से भिन्न बतलायें। जिन्होंने पुण्यकीर्ति मुकुन्द
मुरारी के पद पल्लव की नौका का आश्रय लिया है, जो कि
सत्पुरुषों का सर्वस्व है, उनके लिये यह भव सागर बछड़े के
खुर के गड्ढे के समान है। उन्हें परमपद की प्राप्ति हो जाती है और उनके लिये
विपत्तियों का निवास स्थान - यह संसार नहीं रहता।
परीक्षित! तुमने मुझसे पूछा था कि
भगवान के पाँचवें वर्ष की लीला ग्वालबालों ने छठे वर्ष में कैसे कही,
उसका सारा रहस्य मैंने तुम्हें बतला दिया। भगवान श्रीकृष्ण की
ग्वालबालों के साथ वनक्रीडा, अघासुर को मारना, हरी-हरी घास से युक्त भूमि पर बैठकर भोजन करना, अप्राकृत
रूपधारी बछड़ों और ग्वालबालों का प्रकट होना और ब्रह्मा जी के द्वारा की हुई इस
महान स्तुति को जो मनुष्य सुनता और कहता है - उसको धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। परीक्षित! इस प्रकार श्रीकृष्ण
और बलराम ने कुमार-अवस्था के अनुरूप आँखमिचौनी, सेतु-बन्धन,
बन्दरों की भाँति उछलना-कूदना आदि अनेकों लीलाएँ करके अपनी
कुमार-अवस्था ब्रज में ही त्याग दी।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे ब्रह्मस्तुतिर्नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥
१४॥
जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 15
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