श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १८                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १८ "अदिति और दिति की सन्तानों की तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १८                                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः १८                                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टादशोऽध्यायः - १८ ॥

श्रीशुक उवाच

पृश्निस्तु पत्नी सवितुः सावित्रीं व्याहृतिं त्रयीम् ।

अग्निहोत्रं पशुं सोमं चातुर्मास्यं महामखान् ॥ १॥

सिद्धिर्भगस्य भार्याङ्ग महिमानं विभुं प्रभुम् ।

आशिषं च वरारोहां कन्यां प्रासूत सुव्रताम् ॥ २॥

धातुः कुहूः सिनीवाली राका चानुमतिस्तथा ।

सायं दर्शमथ प्रातः पूर्णमासमनुक्रमात् ॥ ३॥

अग्नीन् पुरीष्यानाधत्त क्रियायां समनन्तरः ।

चर्षणी वरुणस्यासीद्यस्यां जातो भृगुः पुनः ॥ ४॥

वाल्मीकिश्च महायोगी वल्मीकादभवत्किल ।

अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च मित्रावरुणयोरृषी ॥ ५॥

रेतः सिषिचतुः कुम्भे उर्वश्याः सन्निधौ द्रुतम् ।

रेवत्यां मित्र उत्सर्गमरिष्टं पिप्पलं व्यधात् ॥ ६॥

पौलोम्यामिन्द्र आधत्त त्रीन् पुत्रानिति नः श्रुतम् ।

जयन्तमृषभं तात तृतीयं मीढुषं प्रभुः ॥ ७॥

उरुक्रमस्य देवस्य मायावामनरूपिणः ।

कीर्तौ पत्न्यां बृहच्छ्लोकस्तस्यासन् सौभगादयः ॥ ८॥

तत्कर्मगुणवीर्याणि काश्यपस्य महात्मनः ।

पश्चाद्वक्ष्यामहेऽदित्यां यथा वावततार ह ॥ ९॥

अथ कश्यपदायादान् दैतेयान् कीर्तयामि ते ।

यत्र भागवतः श्रीमान् प्रह्लादो बलिरेव च ॥ १०॥

दितेर्द्वावेव दायादौ दैत्यदानववन्दितौ ।

हिरण्यकशिपुर्नाम हिरण्याक्षश्च कीर्तितौ ॥ ११॥

हिरण्यकशिपोर्भार्या कयाधुर्नाम दानवी ।

जम्भस्य तनया दत्ता सुषुवे चतुरः सुतान् ॥ १२॥

संह्लादं प्रागनुह्लादं ह्लादं प्रह्लादमेव च ।

तत्स्वसा सिंहिका नाम राहुं विप्रचितोऽग्रहीत् ॥ १३॥

शिरोऽहरद्यस्य हरिश्चक्रेण पिबतोऽमृतम् ।

संह्लादस्य कृतिर्भार्यासूत पञ्चजनं ततः ॥ १४॥

ह्लादस्य धमनिर्भार्यासूत वातापिमिल्वलम् ।

योऽगस्त्याय त्वतिथये पेचे वातापिमिल्वलः ॥ १५॥

अनुह्लादस्य सूर्म्यायां बाष्कलो महिषस्तथा ।

विरोचनस्तु प्राह्लादिर्देव्यास्तस्याभवद्बलिः ॥ १६॥

बाणज्येष्ठं पुत्रशतमशनायां ततोऽभवत् ।

तस्यानुभावं सुश्लोक्याः पश्चादेवाभिधास्यते ॥ १७॥

बाण आराध्य गिरिशं लेभे तद्गणमुख्यताम् ।

यत्पार्श्वे भगवानास्ते ह्यद्यापि पुरपालकः ॥ १८॥

मरुतश्च दितेः पुत्राश्चत्वारिंशन्नवाधिकाः ।

त आसन्नप्रजाः सर्वे नीता इन्द्रेण सात्मताम् ॥ १९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सविता की पत्नी पृश्नि के गर्भ से आठ सन्तानें हुईं- सावित्री, व्याहृति, त्रयी, अग्निहोत्र, पशु, सोम, चातुर्मास्य और पंचमहायज्ञ। भग की पत्नी सिद्धि ने महिमा, विभु और प्रभु- ये तीन पुत्र और आशिष् नाम की एक कन्या उत्पन्न की। यह कन्या बड़ी सुन्दरी और सदाचारिणी थी।

धाता की चार पत्नियाँ थीं- कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति। उनसे क्रमशः सायं, दर्श, प्रातः और पूर्णमास- ये चार पुत्र हुए। धाता के छोटे भाई का नाम था-विधाता, उनकी पत्नी क्रिया थी। उससे पुरीष्य नाम के पाँच अग्नियों की उत्पत्ति हुई। वरुण जी की पत्नी का नाम चर्षणी था। उससे भृगु जी ने पुनः जन्म ग्रहण किया। इसके पहले वे ब्रह्मा जी के पुत्र थे।

महायोगी वाल्मीकि जी भी वरुण के पुत्र थे। वाल्मीक से पैदा होने के कारण ही उनका नाम वाल्मीकि पड़ गया था। उर्वशी को देखकर मित्र और वरुण दोनों का वीर्य स्खलित हो गया था। उसे उन लोगों ने घड़े में रख दिया। उसी से मुनिवर अगस्त्य और वसिष्ठ जी का जन्म हुआ। मित्र की पत्नी थी रेवती। उसके तीन पुत्र हुए- उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल।

प्रिय परीक्षित! देवराज इन्द्र की पत्नी थीं पुलोमनन्दिनी शची। उनसे हमने सुना है, उन्होंने तीन पुत्र उत्पन्न किये- जयन्त, ऋषभ और मीढ़वान। स्वयं भगवान् विष्णु ही (बलि पर अनुग्रह करने और इन्द्र का राज्य लौटाने के लिये) माया से वामन (उपेन्द्र) के रूप में अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तीन पग पृथ्वी माँगकर तीनों लोक नाप लिये थे। उनकी पत्नी का नाम था कीर्ति। उससे बृहच्छ्रलोक नाम का पुत्र हुआ। उसके सौभाग आदि कई सन्तानें हुईं। कश्यपनन्दन भगवान् वामन ने माता अदिति के गर्भ से क्यों जन्म लिया और इस अवतार में उन्होंने कौन-से गुण, लीलाएँ और पराक्रम प्रकट किये-इसका वर्णन मैं आगे (आठवें स्कन्ध में) करूँगा।

प्रिय परीक्षित! अब मैं कश्यप जी की दूसरी पत्नी दिति से उत्पन्न होने वाली उस सन्तान परम्परा का वर्णन सुनाता हूँ, जिसमें भगवान् के प्यारे भक्त श्रीप्रह्लाद जी और बलि का जन्म हुआ। दिति के दैत्य और दानवों के वन्दनीय दो ही पुत्र हुए-हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। इनकी संक्षिप्त कथा मैं तुम्हें (तीसरे स्कन्ध में) सुना चुका हूँ।

हिरण्यकशिपु की पत्नी दानवी कयाधु थी। उसके पिता जम्भ ने उसका विवाह हिरण्यकशिपु से कर दिया। कयाधु के चार पुत्र हुए- संह्लाद, अनुह्लाद, ह्लाद और प्रह्लाद। इनकी सिंहीका नाम की एक बहिन भी थी। उसका विवाह विप्रचित्ति नामक दानव से हुआ। उससे राहु नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई। यह वही राहु है, जिसका सिर अमृतपान के समय मोहिनीरूपधारी भगवान् ने चक्र से काट लिया था। संह्राद की पत्नी थी कृति। उससे पंचजन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ह्राद की पत्नी थी धमनि। उसके दो पुत्र हुए- वातापि और इल्वल। इस इल्वल ने ही महर्षि अगस्त्य के आतिथ्य के समय वातापि को पकाकर उन्हें खिला दिया था। अनुह्राद की पत्नी सूर्म्या थी, उसके दो पुत्र हुए- बाष्कल और महिषासुर। प्रह्लाद का पुत्र था विरोचन। उसकी पत्नी देवी के गर्भ से दैत्यराज बलि का जन्म हुआ। बलि की पत्नी का नाम अशना था। उससे बाण आदि सौ पुत्र हुए। दैत्यराज बलि की महिमा गान करने योग्य है। उसे मैं आगे (आठवें स्कन्ध में) सुनाऊँगा।

बलि का पुत्र बाणासुर भगवान् शंकर की आराधना करके उनके गणों का मुखिया बन गया। आज भी भगवान् शंकर उसके नगर की रक्षा करने के लिये उसके पास ही रहते हैं। दिति के हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के अतिरिक्त उनचास पुत्र और थे। उन्हें मरुद्गण कहते हैं। वे सब निःसन्तान रहे। देवराज इन्द्र ने उन्हें अपने ही समान देवता बना लिया।

राजोवाच

कथं त आसुरं भावमपोह्यौत्पत्तिकं गुरो ।

इन्द्रेण प्रापिताः सात्म्यं किं तत्साधु कृतं हि तैः ॥ २०॥

इमे श्रद्दधते ब्रह्मन्नृषयो हि मया सह ।

परिज्ञानाय भगवंस्तन्नो व्याख्यातुमर्हसि ॥ २१॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! मरुद्गण ने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया था, जिसके कारण वे अपने जन्मजात असुरोसित भाव को छोड़ सके और देवराज इन्द्र के द्वारा देवता बना लिये गये? ब्रह्मन! मेरे साथ यहाँ की सभी ऋषिमण्डली यह बात जानने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो रही है। अतः आप कृपा करके विस्तार से वह रहस्य बतलाइये।

सूत उवाच

तद्विष्णुरातस्य स बादरायणि-

र्वचो निशम्यादृतमल्पमर्थवत् ।

सभाजयन् सन्निभृतेन चेतसा

जगाद सत्रायण सर्वदर्शनः ॥ २२॥

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! राजा परीक्षित का प्रश्न थोड़े शब्दों में बड़ा सारगर्भित था। उन्होंने बड़े आदर से पूछा भी था। इसलिये सर्वज्ञ श्रीशुकदेव जी महाराज ने बड़े ही प्रसन्न चित्त से उनका अभिनन्दन करके यों कहा।

श्रीशुक उवाच

हतपुत्रा दितिः शक्रपार्ष्णिग्राहेण विष्णुना ।

मन्युना शोकदीप्तेन ज्वलन्ती पर्यचिन्तयत् ॥ २३॥

कदा नु भ्रातृहन्तारमिन्द्रियाराममुल्बणम् ।

अक्लिन्नहृदयं पापं घातयित्वा शये सुखम् ॥ २४॥

कृमिविड्भस्मसंज्ञासीद्यस्येशाभिहितस्य च ।

भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ २५॥

आशासानस्य तस्येदं ध्रुवमुन्नद्धचेतसः ।

मदशोषक इन्द्रस्य भूयाद्येन सुतो हि मे ॥ २६॥

इति भावेन सा भर्तुराचचारासकृत्प्रियम् ।

शुश्रूषयानुरागेण प्रश्रयेण दमेन च ॥ २७॥

भक्त्या परमया राजन् मनोज्ञैर्वल्गुभाषितैः ।

मनो जग्राह भावज्ञा सुस्मितापाङ्गवीक्षणैः ॥ २८॥

एवं स्त्रिया जडीभूतो विद्वानपि विदग्धया ।

बाढमित्याह विवशो न तच्चित्रं हि योषिति ॥ २९॥

विलोक्यैकान्तभूतानि भूतान्यादौ प्रजापतिः ।

स्त्रियं चक्रे स्वदेहार्धं यया पुंसां मतिर्हृता ॥ ३०॥

एवं शुश्रूषितस्तात भगवान् कश्यपः स्त्रिया ।

प्रहस्य परमप्रीतो दितिमाहाभिनन्द्य च ॥ ३१॥

श्रीशुकदेव जी कहने लगे ;- परीक्षित! भगवान् विष्णु ने इन्द्र का पक्ष लेकर दिति के दोनों पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष को मार डाला। अतः दिति शोक की आग से उद्दीप्त क्रोध से जलकर इस प्रकार सोचने लगी- सचमुच इन्द्र बड़ा विषयी, क्रूर और निर्दयी है। राम! राम! उसने अपने भाइयों को ही मरवा डाला। वह दिन कब होगा, जब मैं भी उस पापी को मरवाकर आराम से सौऊँगी। लोग राजाओं के, देवताओं के शरीर को प्रभुकहकर पुकारते हैं; परन्तु एक दिन वह कीड़ा, विष्ठा या राख का ढेर जो जाता है, इसके लिये जो दूसरे प्राणियों को सताता है, उसे अपने सच्चे स्वार्थ या परमार्थ का पता नहीं है; क्योंकि इससे तो नरक में जाना पड़ेगा। मैं समझती हूँ इन्द्र अपने शरीर को नित्य मानकर मतवाला हो रहा है। उसे अपने विनाश का पता ही नहीं है। अब मैं वह उपाय करूँगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर कर दे

दिति अपने मन में ऐसा विचार करके सेवा-शुश्रूषा, विनय-प्रेम और जितेन्द्रियता आदि के द्वारा निरन्तर अपने पतिदेव कश्यप जी को प्रसन्न रखने लगी। वह अपने पतिदेव के हृदय का एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुस्कान भरी तिरछी चितवन से उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी। कश्यप जी महाराज बड़े विद्वान् और विचारवान् होने पर भी चतुर दिति की सेवा से मोहित हो गये और उन्होंने विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा।स्त्रियों के सम्बन्ध में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

सृष्टि के प्रभात में ब्रह्मा जी ने देखा कि सभी जीव असंग हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने आधे शरीर से स्त्रियों की रचना की और स्त्रियों ने पुरुषों की मति अपनी ओर आकर्षित कर ली। हाँ, तो भैया! मैं कह रहा था कि दिति ने भगवान् कश्यप जी की बड़ी सेवा की। इससे वे उस पर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने दिति का अभिनन्दन करते हुए उससे मुसकराकर कहा।

कश्यप उवाच

वरं वरय वामोरु प्रीतस्तेऽहमनिन्दिते ।

स्त्रिया भर्तरि सुप्रीते कः काम इह चागमः ॥ ३२॥

पतिरेव हि नारीणां दैवतं परमं स्मृतम् ।

मानसः सर्वभूतानां वासुदेवः श्रियः पतिः ॥ ३३॥

स एव देवतालिङ्गैर्नामरूपविकल्पितैः ।

इज्यते भगवान् पुम्भिः स्त्रीभिश्च पतिरूपधृक् ॥ ३४॥

तस्मात्पतिव्रतानार्यः श्रेयस्कामाः सुमध्यमे ।

यजन्तेऽनन्यभावेन पतिमात्मानमीश्वरम् ॥ ३५॥

सोऽहं त्वयार्चितो भद्रे ईदृग्भावेन भक्तितः ।

तत्ते सम्पादये काममसतीनां सुदुर्लभम् ॥ ३६॥

कश्यप जी ने कहा ;- अनिन्द्यसुन्दरी प्रिये! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। पति के प्रसन्न हो जाने पर पत्नी के लिये लोक या परलोक में कौन-सी अभीष्ट वस्तु दुर्लभ है। शास्त्रों में यह बात स्पष्ट कही गयी है कि पति ही स्त्रियों का परमाराध्य इष्टदेव है। प्रिये! लक्ष्मीपति भगवान् वासुदेव ही समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं।

विभिन्न देवताओं के रूप में नाम और रूप के भेद से उन्हीं की कल्पना हुई है। सभी पुरुष-चाहे किसी भी देवता की उपासना करें-उन्हीं की उपासना करते हैं। ठीक वैसे ही स्त्रियों के लिये भगवान् ने पति का रूप धारण किया है। वे उनकी उसी रूप में पूजा करती हैं। इसलिये प्रिये! अपना कल्याण चाहने वाली पतिव्रता स्त्रियाँ अनन्य प्रेमाभाव से अपने पतिदेव की ही पूजा करती हैं; क्योंकि पतिदेव ही उनके परम प्रियतम आत्मा और ईश्वर हैं।

कल्याणी! तुमने बड़े प्रेमाभाव से, भक्ति से मेरी वैसी ही पूजा की है। अब मैं तुम्हारी सब अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। असतियों के जीवन में ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ है।

दितिरुवाच

वरदो यदि मे ब्रह्मन् पुत्रमिन्द्रहणं वृणे ।

अमृत्युं मृतपुत्राहं येन मे घातितौ सुतौ ॥ ३७॥

निशम्य तद्वचो विप्रो विमनाः पर्यतप्यत ।

अहो अधर्मः सुमहानद्य मे समुपस्थितः ॥ ३८॥

अहो अद्येन्द्रियारामो योषिन्मय्येह मायया ।

गृहीतचेताः कृपणः पतिष्ये नरके ध्रुवम् ॥ ३९॥

कोऽतिक्रमोऽनुवर्तन्त्याः स्वभावमिह योषितः ।

धिङ् मां बताबुधं स्वार्थे यदहं त्वजितेन्द्रियः ॥ ४०॥

शरत्पद्मोत्सवं वक्त्रं वचश्च श्रवणामृतम् ।

हृदयं क्षुरधाराभं स्त्रीणां को वेद चेष्टितम् ॥ ४१॥

न हि कश्चित्प्रियः स्त्रीणामञ्जसा स्वाशिषात्मनाम् ।

पतिं पुत्रं भ्रातरं वा घ्नन्त्यर्थे घातयन्ति च ॥ ४२॥

प्रतिश्रुतं ददामीति वचस्तन्न मृषा भवेत् ।

वधं नार्हति चेन्द्रोऽपि तत्रेदमुपकल्पते ॥ ४३॥

इति सञ्चिन्त्य भगवान् मारीचः कुरुनन्दन ।

उवाच किञ्चित्कुपित आत्मानं च विगर्हयन् ॥ ४४॥

दिति ने कहा ;- ब्रह्न्! इन्द्र ने विष्णु के हाथों मेरे दो पुत्र मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है। इसलिये यदि आप मुझे मुँह माँगा वर देना चाहते हैं तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिये, जो इन्द्र को मार डाले।

परीक्षित! दिति की बात सुनकर कश्यप जी खिन्न होकर पछताने लगे। वे मन-ही-मन कहने लगे- हाय! हाय! आज मेरे जीवन में बहुत बड़े अधर्म का अवसर आ पहुँचा। देखो तो सही, अब मैं इन्द्रियों के विषयों में सुख मानने लगा हूँ। स्त्रीरूपिणी माया ने मेरे चित्त को अपने वश में कर लिया है। हाय! हाय! आज मैं कितनी दीन-हीन अवस्था में हूँ। अवश्य ही अब मुझे नरक में गिरना पड़ेगा। इस स्त्री का कोई दोष नहीं है; क्योंकि इसने अपने जन्मजात स्वभाव का ही अनुसरण किया है। दोष मेरा है-जो मैं अपनी इन्द्रियों को अपने वश में न रख सका, अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ को न समझ सका। मुझ मूढ़ को बार-बार धिक्कार है। सच है, स्त्रियों के चरित्र को कौन जानता है। इनका मुँह तो ऐसा होता है जैसे शरद् ऋतु का खिला हुआ कमल। बातें सुनने में ऐसी मीठी होती हैं, मानो अमृत घोल रखा हो। परन्तु हृदय, वह तो इतना तीखा होता है कि मानो छुरे की पैनी धार हो। इसमें सन्देह नहीं कि स्त्रियाँ अपनी लालसाओं की कठपुतली होती हैं। सच पूछो तो वे किसी से प्यार नहीं करतीं। स्वार्थवश वे अपने पति, पुत्र और भाई तक को मार डालती हैं या मरवा डालती हैं। अब तो मैं कह चुका हूँ कि जो तुम माँगोगी, दूँगा। मेरी बात झूठी नहीं होनी चाहिये। परन्तु इन्द्र भी वध करने योग्य नहीं है। अच्छा, अब इस विषय में मैं यह युक्ति करता हूँ

प्रिय परीक्षित! सर्वसमर्थ कश्यप जी ने इस प्रकार मन-ही-मन अपनी भर्त्सना करके दोनों बात बनाने का उपाय सोचा और फिर तनिक रुष्ट होकर दिति से कहा।

कश्यप उवाच

पुत्रस्ते भविता भद्रे इन्द्रहा देवबान्धवः ।

संवत्सरं व्रतमिदं यद्यञ्जो धारयिष्यसि ॥ ४५॥

कश्यप जी बोले ;- कल्याणी! यदि तुम मेरे बतलाये हुए व्रत का एक वर्ष तक विधिपूर्वक पालन करोगी तो तुम्हें इन्द्र को मारने वाला पुत्र प्राप्त होगा। परन्तु यदि किसी प्रकार नियमों में त्रुटि हो गयी तो वह देवताओं का मित्र बन जायेगा।

दितिरुवाच

धारयिष्ये व्रतं ब्रह्मन् ब्रूहि कार्याणि यानि मे ।

यानि चेह निषिद्धानि न व्रतं घ्नन्ति यानि तु ॥ ४६॥

दिति ने कहा ;- ब्रह्मन्! मैं उस व्रत का पालन करुँगी। आप बतलाइये कि मुझे क्या-क्या करना चाहिये, कौन-कौन से काम छोड़ देने चाहिये और कौन-से काम ऐसे हैं, जिनसे व्रत भंग नहीं होता।

कश्यप उवाच

न हिंस्याद्भूतजातानि न शपेन्नानृतं वदेत् ।

न छिन्द्यान्नखरोमाणि न स्पृशेद्यदमङ्गलम् ॥ ४७॥

नाप्सु स्नायान्न कुप्येत न सम्भाषेत दुर्जनैः ।

न वसीताधौतवासः स्रजं च विधृतां क्वचित् ॥ ४८॥

नोच्छिष्टं चण्डिकान्नं च सामिषं वृषलाहृतम् ।

भुञ्जीतोदक्यया दृष्टं पिबेदञ्जलिना त्वपः ॥ ४९॥

नोच्छिष्टास्पृष्टसलिला सन्ध्यायां मुक्तमूर्धजा ।

अनर्चितासंयतवाक् नासंवीता बहिश्चरेत् ॥ ५०॥

नाधौतपादाप्रयता नार्द्रपादा उदक्शिराः ।

शयीत नापराङ्नान्यैर्न नग्ना न च सन्ध्ययोः ॥ ५१॥

धौतवासा शुचिर्नित्यं सर्वमङ्गलसंयुता ।

पूजयेत्प्रातराशात्प्राग्गोविप्राञ्श्रियमच्युतम् ॥ ५२॥

स्त्रियो वीरवतीश्चार्चेत्स्रग्गन्धबलिमण्डनैः ।

पतिं चार्च्योपतिष्ठेत ध्यायेत्कोष्ठगतं च तम् ॥ ५३॥

सांवत्सरं पुंसवनं व्रतमेतदविप्लुतम् ।

धारयिष्यसि चेत्तुभ्यं शक्रहा भविता सुतः ॥ ५४॥

बाढमित्यभिप्रेत्याथ दिती राजन् महामनाः ।

कश्यपाद्गर्भमाधत्त व्रतं चाञ्जो दधार सा ॥ ५५॥

मातृष्वसुरभिप्रायमिन्द्र आज्ञाय मानद ।

शुश्रूषणेनाश्रमस्थां दितिं पर्यचरत्कविः ॥ ५६॥

नित्यं वनात्सुमनसः फलमूलसमित्कुशान् ।

पत्राङ्कुरमृदोऽपश्च काले काल उपाहरत् ॥ ५७॥

एवं तस्या व्रतस्थाया व्रतच्छिद्रं हरिर्नृप ।

प्रेप्सुः पर्यचरज्जिह्मो मृगहेव मृगाकृतिः ॥ ५८॥

नाध्यगच्छद्व्रतच्छिद्रं तत्परोऽथ महीपते ।

चिन्तां तीव्रां गतः शक्रः केन मे स्याच्छिवं त्विह ॥ ५९॥

एकदा सा तु सन्ध्यायामुच्छिष्टा व्रतकर्शिता ।

अस्पृष्टवार्यधौताङ्घ्रिः सुष्वाप विधिमोहिता ॥ ६०॥

लब्ध्वा तदन्तरं शक्रो निद्रापहृतचेतसः ।

दितेः प्रविष्ट उदरं योगेशो योगमायया ॥ ६१॥

चकर्त सप्तधा गर्भं वज्रेण कनकप्रभम् ।

रुदन्तं सप्तधैकैकं मा रोदीरिति तान् पुनः ॥ ६२॥

ते तमूचुः पाट्यमानास्ते सर्वे प्राञ्जलयो नृप ।

नो जिघांससि किमिन्द्र भ्रातरो मरुतस्तव ॥ ६३॥

कश्यप जी ने उत्तर दिया ;- प्रिये! इस व्रत में किसी भी प्राणी को मन, वाणी या क्रिया के द्वारा सताये नहीं, किसी को शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीर के नख और रोएँ न काटे और किसी भी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे।

जल में घुसकर स्नान न करे, क्रोध न करे, दुर्जनों से बातचीत न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसी की पहनी हुई माला न पहने। जूठा न खाये, भद्रकाली का प्रसाद या मांसयुक्त अन्न का भोजन न करे। शूद्र का लाया हुआ और रजस्वला का देखा हुआ अन्न भी न खाये और अंजलि से जलपान न करे। जूठे मुँह, बिना आचमन किये, सन्ध्या के समय, बाल खोले हुए, बिना श्रृंगार के, वाणी का संयम किये बिना और बिना चद्दर ओढ़े घर से बाहर न निकले। बिना पैर धोये, अपवित्र अवस्था में गीले पाँवों से, उत्तर या पश्चिम सिर करके, दूसरे के साथ, नग्नावस्था में तथा सुबह-शाम सोना नहीं चाहिये। इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मों का त्याग करके सर्वदा पवित्र रहे, धुला वस्त्र धारण करे और सभी सौभाग्य के चिह्नों से सुसज्जित रहे। प्रातःकाल कलेवा करने के पहले ही गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मी जी और भगवान् नारायण की पूजा करे। इसके बाद पुष्पमाला, चन्दनादि सुगन्धद्रव्य, नैवेद्य और आभूषणादि से सुहागिनी स्त्रियों की पूजा करे तथा पति की पूजा करके उसकी सेवा में संलग्न रहे और यह भावना करती रहे कि पति का तेज मेरी कोख में स्थित है।

प्रिये! इस व्रत का नाम पुंसवनहै। यदि एक वर्ष तक तुम इसे बिना किसी त्रुटि के पालन कर सकोगी तो तुम्हारी कोख से इन्द्रघाती पुत्र उत्पन्न होगा।

परीक्षित! दिति बड़ी मनस्वी और दृढ़ निश्चय वाली थी। उसने बहुत ठीककहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब दिति अपनी कोख में भगवान् कश्यप का वीर्य और जीवन में उनका बतलाया हुआ व्रत धारण करके अनायास ही नियमों का पालन करने लगी। प्रिय परीक्षित! देवराज इन्द्र अपनी मौसी दिति का अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानी से अपना वेष बदलकर दिति के आश्रम पर आये और उसकी सेवा करने लगे। वे दिति के लिये प्रतिदिन समय-समय पर वन से फूल-फल, कन्द-मूल, समिधा, कुश, पत्ते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवा में समर्पित करते।

राजन्! जिस प्रकार बहेलिया हरिन को मारने के लिये हरिन की-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति के व्रत पालन की त्रुटि पकड़ने के लिये उसकी सेवा करने लगे। सर्वदा पैनी दृष्टि रखने पर भी उन्हें उसके व्रत में किसी प्रकार की त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा-टहल में लगे रहे। अब तो इन्द्र को बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे- "मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो?"

दिति व्रत के नियमों का पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी थी। विधाता ने भी उसे मोह में डाल दिया। इसलिये एक दिन सन्ध्या के समय जूठे मुँह, बिना आचमन किये और बिना पैर धोये ही वह सो गयी। योगेश्वर इन्द्र ने देखा कि यह अच्छा अवसर हाथ लगा। वे योग बल से झटपट सोयी हुई दिति के गर्भ में प्रवेश कर गये। उन्होंने वहाँ जाकर सोने के समान चमकते हुए गर्भ के वज्र के द्वारा सात टुकड़े कर दिये। जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने मत रो, मत रोयह कहकर सातों टुकड़ों में से एक-एक के और भी सात टुकड़े कर दिये।

मा भैष्ट भ्रातरो मह्यं यूयमित्याह कौशिकः ।

अनन्यभावान् पार्षदानात्मनो मरुतां गणान् ॥ ६४॥

न ममार दितेर्गर्भः श्रीनिवासानुकम्पया ।

बहुधा कुलिशक्षुण्णो द्रौण्यस्त्रेण यथा भवान् ॥ ६५॥

सकृदिष्ट्वाऽऽदिपुरुषं पुरुषो याति साम्यताम् ।

संवत्सरं किञ्चिदूनं दित्या यद्धरिरर्चितः ॥ ६६॥

सजूरिन्द्रेण पञ्चाशद्देवास्ते मरुतोऽभवन् ।

व्यपोह्य मातृदोषं ते हरिणा सोमपाः कृताः ॥ ६७॥

दितिरुत्थाय ददृशे कुमाराननलप्रभान् ।

इन्द्रेण सहितान् देवी पर्यतुष्यदनिन्दिता ॥ ६८॥

अथेन्द्रमाह ताताहमादित्यानां भयावहम् ।

अपत्यमिच्छन्त्यचरं व्रतमेतत्सुदुष्करम् ॥ ६९॥

एकः सङ्कल्पितः पुत्रः सप्त सप्ताभवन् कथम् ।

यदि ते विदितं पुत्र सत्यं कथय मा मृषा ॥ ७०॥

राजन्! जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबों ने हाथ जोड़कर इन्द्र से कहा- देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं। तब इन्द्र ने अपने भावी अनन्य प्रेमी पार्षद मरुद्गणों से कहा- अच्छी बात है, तुम लोग मेरे भाई हो। अब मत डरो!

परीक्षित! जैसे अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरि की कृपा से दिति का वह गर्भ वज्र के द्वारा टुकड़े-टुकड़े होने पर भी मरा नहीं। इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदिपुरुष भगवान् नारायण की आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दिति ने तो कुछ ही दिन कम एक वर्ष तक भगवान् की आराधना की थी। अब वे मरुद्गण इन्द्र के साथ मिलकर पचास हो गये। इन्द्र ने भी सौतेली माता के पुत्रों के साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया।

जब दिति की आँख खुली, तब उसने देखा कि उसके अग्नि समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्र के साथ हैं। इससे सुन्दर स्वभाव वाली दिति को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने इन्द्र को सम्बोधन करके कहा- बेटा! मैं इस इच्छा से इस अत्यन्त कठिन व्रत का पालन कर रही थी कि तुम अदिति के पुत्रों को भयभीत करने वाला पुत्र उत्पन्न हो। मैंने केवल एक ही पुत्र के लिये संकल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये? बेटा इन्द्र! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच-सच मुझे बतला दो। झूठ न बोलना

इन्द्र उवाच

अम्ब तेऽहं व्यवसितमुपधार्यागतोऽन्तिकम् ।

लब्धान्तरोऽच्छिदं गर्भमर्थबुद्धिर्न धर्मदृक् ॥ ७१॥

कृत्तो मे सप्तधा गर्भ आसन् सप्त कुमारकाः ।

तेऽपि चैकैकशो वृक्णाः सप्तधा नापि मम्रिरे ॥ ७२॥

ततस्तत्परमाश्चर्यं वीक्ष्याध्यवसितं मया ।

महापुरुषपूजायाः सिद्धिः काप्यनुषङ्गिणी ॥ ७३॥

आराधनं भगवत ईहमाना निराशिषः ।

ये तु नेच्छन्त्यपि परं ते स्वार्थकुशलाः स्मृताः ॥ ७४॥

आराध्यात्मप्रदं देवं स्वात्मानं जगदीश्वरम् ।

को वृणीते गुणस्पर्शं बुधः स्यान्नरकेऽपि यत् ॥ ७५॥

तदिदं मम दौर्जन्यं बालिशस्य महीयसि ।

क्षन्तुमर्हसि मातस्त्वं दिष्ट्या गर्भो मृतोत्थितः ॥ ७६॥

इन्द्र ने कहा- माता! मुझे इस बात का पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्य से व्रत कर रही हो। इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से मैं स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया। मेरे मन में तनिक भी धर्म भावना नहीं थी। इसी से तुम्हारे व्रत में त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे। तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये। इसके बाद मैंने फिर एक-एक के सात-सात टुकड़े कर दिये। तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये। यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान् की उपासना की यह कोई स्वाभाविक सिद्धि है। जो लोग निष्काम भाव से भगवान् की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या, मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं। भगवान् जदीश्वर सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं। वे प्रसन्न होकर अपने-आप तक का दान कर देते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उसकी आराधना करके विषय भोगों का वरदान माँगे।

माताजी! ये विषय भोग तो नरक में भी मिल सकते हैं। मेरी स्नेहमयी जननी! तुम सब प्रकार मेरी पूज्या हो। मैने मूर्खतावश बड़ी दुष्टता का काम किया है। तुम मेरे अपराध को क्षमा कर दो। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा गर्भ खण्ड-खण्ड हो जाने से एक प्रकार मर जाने पर भी फिर से जीवित हो गया।

श्रीशुक उवाच

इन्द्रस्तयाभ्यनुज्ञातः शुद्धभावेन तुष्टया ।

मरुद्भिः सह तां नत्वा जगाम त्रिदिवं प्रभुः ॥ ७७॥

एवं ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।

मङ्गलं मरुतां जन्म किं भूयः कथयामि ते ॥ ७८॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! दिति देवराज इन्द्र के शुद्धभाव से सन्तुष्ट हो गयी। उससे आज्ञा लेकर देवराज इन्द्र ने मरुद्गणों के साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्ग में चले गये।

राजन! यह मरुद्गण का जन्म बड़ा ही मंगलमय है। इसके विषय में तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर समग्र रूप से मैंने तुम्हें दे दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे मरुदुत्पत्तिकथनं नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: एकोनविंशोऽध्यायः

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