श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १७                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १७ "चित्रकेतु को पार्वती जी का शाप"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १७                                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः १७                                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध सत्रहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥  सप्तदशोऽध्यायः - १७ ॥

श्रीशुक उवाच

यतश्चान्तर्हितोऽनन्तस्तस्यै कृत्वा दिशे नमः ।

विद्याधरश्चित्रकेतुश्चचार गगनेचरः ॥ १॥

स लक्षं वर्षलक्षाणामव्याहतबलेन्द्रियः ।

स्तूयमानो महायोगी मुनिभिः सिद्धचारणैः ॥ २॥

कुलाचलेन्द्रद्रोणीषु नानासङ्कल्पसिद्धिषु ।

रेमे विद्याधरस्त्रीभिर्गापयन् हरिमीश्वरम् ॥ ३॥

एकदा स विमानेन विष्णुदत्तेन भास्वता ।

गिरिशं ददृशे गच्छन् परीतं सिद्धचारणैः ॥ ४॥

आलिङ्ग्याङ्कीकृतां देवीं बाहुना मुनिसंसदि ।

उवाच देव्याः श्रृण्वत्या जहासोच्चैस्तदन्तिके ॥ ५॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विद्याधर चित्रकेतु, जिस दिशा में भगवान् संकर्षण अन्तर्धान हुए थे, उसे नमस्कार करके आकाश मार्ग से स्वच्छन्द विचरने लगे। महायोगी चित्रकेतु करोड़ों वर्षों तक सब प्रकार के संकल्पों को पूर्ण करने वाली सुमेरु पर्वत की घाटियों में विहार करते रहे। उनके शरीर का बल और इन्द्रियों की शक्ति अक्षुण्ण रही। बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध, चारण उनकी स्तुति करते रहते। उनकी प्रेरणा से विद्याधरों की स्त्रियाँ उनके पास सर्वशक्तिमान् भगवान् के गुण और लीलाओं का गान करती रहतीं।

एक दिन चित्रकेतु भगवान् के दिये हुए तेजोमय विमान पर सवार होकर कहीं जा रहे थे। इसी समय उन्होंने देखा कि भगवान् शंकर बड़े-बड़े मुनियों की सभा में सिद्ध-चारणों के बीच बैठे हुए हैं और साथ ही भगवती पार्वती को अपनी गोद में बैठाकर एक हाथ से उन्हें आलिंगन किये हुए हैं, यह देखकर चित्रकेतु विमान पर चढ़े हुए ही उनके पास चले गये और भगवती पार्वती को सुना-सुनाकर जोर से हँसने और कहने लगे।

चित्रकेतुरुवाच

एष लोकगुरुः साक्षाद्धर्मं वक्ता शरीरिणाम् ।

आस्ते मुख्यः सभायां वै मिथुनीभूय भार्यया ॥ ६॥

जटाधरस्तीव्रतपा ब्रह्मवादिसभापतिः ।

अङ्कीकृत्य स्त्रियं चास्ते गतह्रीः प्राकृतो यथा ॥ ७॥

प्रायशः प्राकृताश्चापि स्त्रियं रहसि बिभ्रति ।

अयं महाव्रतधरो बिभर्ति सदसि स्त्रियम् ॥ ८॥

चित्रकेतु ने कहा ;- अहो! ये सारे जगत् के धर्म शिक्षक और गुरुदेव हैं। ये समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ हैं। इनकी यह दशा है कि भरी सभा में अपनी पत्नी को शरीर से चिपकाकर बैठे हुए हैं। जटाधारी, बहुत बड़े तपस्वी एवं ब्रह्मवादियों के सभापति होकर भी साधारण पुरुष के समान निर्लज्जता से गोद में स्त्री लेकर बैठे हैं। प्रायः साधारण पुरुष भी एकान्त में ही स्त्रियों के साथ उठते-बैठते हैं, परन्तु ये इतने बड़े व्रतधारी होकर भी उसे भरी सभा में लिये बैठे हैं।

श्रीशुक उवाच

भगवानपि तच्छ्रुत्वा प्रहस्यागाधधीर्नृप ।

तूष्णीं बभूव सदसि सभ्याश्च तदनुव्रताः ॥ ९॥

इत्यतद्वीर्यविदुषि ब्रुवाणे बह्वशोभनम् ।

रुषाऽऽह देवी धृष्टाय निर्जितात्माभिमानिने ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् शंकर की बुद्धि अगाध है। चित्रकेतु का यह कटाक्ष सुनकर वे हँसने लगे, कुछ भी बोले नहीं। उस सभा में बैठे हुए उनके अनुयायी सदस्य भी चुप रहे। चित्रकेतु को भगवान् शंकर का प्रभाव नहीं मालूम था। इसी से वे उनके लिये बहुत कुछ बुरा-भला बक रहे थे। उन्हें इस बात का घमण्ड हो गया था कि मैं जितेन्द्रिय हूँ।

पार्वती जी ने उनकी यह धृष्टता देखकर क्रोध से कहा।

पार्वत्युवाच

अयं किमधुना लोके शास्ता दण्डधरः प्रभुः ।

अस्मद्विधानां दुष्टानां निर्लज्जानां च विप्रकृत् ॥ ११॥

न वेद धर्मं किल पद्मयोनि-

र्न ब्रह्मपुत्रा भृगुनारदाद्याः ।

न वै कुमारः कपिलो मनुश्च

ये नो निषेधन्त्यतिवर्तिनं हरम् ॥ १२॥

एषामनुध्येयपदाब्जयुग्मं

जगद्गुरुं मङ्गलमङ्गलं स्वयम् ।

यः क्षत्रबन्धुः परिभूय सूरीन्

प्रशास्ति धृष्टस्तदयं हि दण्ड्यः ॥ १३॥

नायमर्हति वैकुण्ठपादमूलोपसर्पणम् ।

सम्भावितमतिः स्तब्धः साधुभिः पर्युपासितम् ॥ १४॥

अतः पापीयसीं योनिमासुरीं याहि दुर्मते ।

यथेह भूयो महतां न कर्ता पुत्र किल्बिषम् ॥ १५॥

पार्वती जी बोलीं ;- अहो! हम-जैसे दुष्ट और निर्लज्जों का दण्ड के बल पर शासन एवं तिरस्कार करने वाला प्रभु इस संसार में यही है क्या? जान पड़ता है कि ब्रह्मा जी, भृगु, नारद आदि उनके पुत्र, सनकादि परमर्षि, कपिलदेव और मनु आदि बड़े-बड़े महापुरुष धर्म का रहस्य नहीं जानते। तभी तो वे धर्म मर्यादा का उल्लंघन करने वाले भगवान् शिव को इस काम से नहीं रोकते। ब्रह्मा आदि समस्त महापुरुष जिनके चरणकमलों का ध्यान करते रहते हैं, उन्हीं मंगलों को मंगल बनाने वाले साक्षात् जगद्गुरु भगवान् का और उनके अनुयायी महात्माओं का इस अधम क्षत्रिय ने तिरस्कार किया है और शासन करने की चेष्टा की है। इसलिये यह ढीठ सर्वथा दण्ड का पात्र है। इसे अपने बड़प्पन का घमण्ड है। यह मूर्ख भगवान् श्रीहरि के उन चरणकमलों में रहने योग्य नहीं है, जिनकी उपासना बड़े-बड़े सत्पुरुष किया करते हैं।

[चित्रकेतु को सम्बोधन कर] अतः दुर्मते! तुम पापमय असुर योनि में जाओ। ऐसा होने से बेटा! तुम फिर कभी किसी महापुरुष का अपराध नहीं कर सकोगे।

श्रीशुक उवाच

एवं शप्तश्चित्रकेतुर्विमानादवरुह्य सः ।

प्रसादयामास सतीं मूर्ध्ना नम्रेण भारत ॥ १६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब पार्वती जी ने इस प्रकार चित्रकेतु को शाप दिया, तब वे विमान से उतर पड़े और सिर झुकाकर उन्हें प्रसन्न करने लगे।

चित्रकेतुरुवाच

प्रतिगृह्णामि ते शापमात्मनोऽञ्जलिनाम्बिके ।

देवैर्मर्त्याय यत्प्रोक्तं पूर्वदिष्टं हि तस्य तत् ॥ १७॥

संसारचक्र एतस्मिञ्जन्तुरज्ञानमोहितः ।

भ्राम्यन् सुखं च दुःखं च भुङ्क्ते सर्वत्र सर्वदा ॥ १८॥

नैवात्मा न परश्चापि कर्ता स्यात्सुखदुःखयोः ।

कर्तारं मन्यतेऽत्राज्ञ आत्मानं परमेव च ॥ १९॥

गुणप्रवाह एतस्मिन् कः शापः को न्वनुग्रहः ।

कः स्वर्गो नरकः को वा किं सुखं दुःखमेव वा ॥ २०॥

एकः सृजति भूतानि भगवानात्ममायया ।

एषां बन्धं च मोक्षं च सुखं दुःखं च निष्कलः ॥ २१॥

न तस्य कश्चिद्दयितः प्रतीपो

न ज्ञातिबन्धुर्न परो न च स्वः ।

समस्य सर्वत्र निरञ्जनस्य

सुखे न रागः कुत एव रोषः ॥ २२॥

तथापि तच्छक्तिविसर्ग एषां

सुखाय दुःखाय हिताहिताय ।

बन्धाय मोक्षाय च मृत्युजन्मनोः

शरीरिणां संसृतयेव कल्पते ॥ २३॥

अथ प्रसादये न त्वां शापमोक्षाय भामिनि ।

यन्मन्यसे असाधूक्तं मम तत्क्षम्यतां सति ॥ २४॥

चित्रकेतु ने कहा ;- माता पार्वती जी! मैं बड़ी प्रसन्नता से अपने दोनों हाथ जोड़कर आप का शाप स्वीकार करता हूँ। क्योंकि देवता लोग मनुष्यों के लिये जो कुछ कह देते हैं, वह उनके प्रारब्धानुसार मिलने वाले फल की पूर्व सूचना मात्र होती है।

देवि! यह जीव अज्ञान से मोहित हो रहा है और इसी कारण इस संसारचक्र में भटकता रहता है तथा सदा-सर्वदा सर्वत्र सुख और दुःख भोगता रहता है। माताजी! सुख और दुःख को देने वाला न तो अपना आत्मा है और न कोई दूसरा। जो अज्ञानी हैं, वे ही अपने को अथवा दूसरे को सुख-दुःख का कर्ता माना करते हैं। यह जगत् सत्त्व, रज आदि गुणों का स्वाभाविक प्रवाह है। इसमें क्या शाप, क्या अनुग्रह, क्या स्वर्ग, क्या नरक और क्या सुख, क्या दुःख। एकमात्र परिपूर्णतम भगवान् ही बिना किसी की सहायता के अपनी आत्मस्वरूपिणी माया के द्वारा समस्त प्राणियों की तथा उनके बन्धन, मोक्ष और सुख-दुःख की रचना करते हैं।

माताजी! भगवान् श्रीहरि सबमें सम और माया आदि मल से रहित हैं। उनका कोई प्रिय-अप्रिय, जाति-बन्धु, अपना-पराया नहीं है। जब उनका सुख में राग ही नहीं है, तब उनमें रागजन्य क्रोध तो हो ही कैसे सकता है। तथापि उनकी मायाशक्ति के कार्य पाप और पुण्य ही प्राणियों के सुख-दुःख, हित-अनहित, बन्ध-मोक्ष मृत्यु-जन्म और आवागमन के कारण बनते हैं। पतिप्राणा देवि! मैं शाप से मुक्त होने के लिए आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि आपको मेरी जो बात अनुचित प्रतीत हुई हो, उसके लिये क्षमा करें।

श्रीशुक उवाच

इति प्रसाद्य गिरिशौ चित्रकेतुररिन्दम ।

जगाम स्वविमानेन पश्यतोः स्मयतोस्तयोः ॥ २५॥

ततस्तु भगवान् रुद्रो रुद्राणीमिदमब्रवीत् ।

देवर्षिदैत्यसिद्धानां पार्षदानां च श्रृण्वताम् ॥ २६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विद्याधर चित्रकेतु भगवान् शंकर और पार्वती जी को इस प्रकार प्रसन्न करके उनके सामने ही विमान पर सवार होकर वहाँ से चले गये। इससे उन लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। तब भगवान् शंकर ने देवता, ऋषि, दैत्य, सिद्ध और पार्षदों के सामने ही भगवती पार्वती जी से यह बात कही।

श्रीरुद्र उवाच

दृष्टवत्यसि सुश्रोणि हरेरद्भुतकर्मणः ।

माहात्म्यं भृत्यभृत्यानां निःस्पृहाणां महात्मनाम् ॥ २७॥

नारायणपराः सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति ।

स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिनः ॥ २८॥

देहिनां देहसंयोगाद्द्वन्द्वानीश्वरलीलया ।

सुखं दुःखं मृतिर्जन्म शापोऽनुग्रह एव च ॥ २९॥

अविवेककृतः पुंसो ह्यर्थभेद इवात्मनि ।

गुणदोषविकल्पश्च भिदेव स्रजिवत्कृतः ॥ ३०॥

वासुदेवे भगवति भक्तिमुद्वहतां नृणाम् ।

ज्ञानवैराग्यवीर्याणां नेह कश्चिद्व्यपाश्रयः ॥ ३१॥

नाहं विरिञ्चो न कुमारनारदौ

न ब्रह्मपुत्रा मुनयः सुरेशाः ।

विदाम यस्येहितमंशकांशका

न तत्स्वरूपं पृथगीशमानिनः ॥ ३२॥

न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियः स्वः परोऽपि वा ।

आत्मत्वात्सर्वभूतानां सर्वभूतप्रियो हरिः ॥ ३३॥

तस्य चायं महाभागश्चित्रकेतुः प्रियोऽनुगः ।

सर्वत्र समदृक् शान्तो ह्यहं चैवाच्युतप्रियः ॥ ३४॥

तस्मान्न विस्मयः कार्यः पुरुषेषु महात्मसु ।

महापुरुषभक्तेषु शान्तेषु समदर्शिषु ॥ ३५॥

भगवान् शंकर ने कहा ;- सुन्दरि! दिव्यलीला-विहारी भगवान् के निःस्पृह और उदारहृदय दासानुदासों की महिमा तुमने अपनी आँखों देख ली। जो लोग भगवान् के शरणागत होते हैं, वे किसी से नहीं डरते। क्योंकि उन्हें स्वर्ग, मोक्ष और नरकों में भी एक ही वस्तु के-केवल भगवान् के ही समान भाव से दर्शन होते हैं। जीवों को भगवान् की लीला से ही देह का संयोग होने के कारण सुख-दुःख, जन्म-मरण और शाप-अनुग्रह आदि द्वन्द प्राप्त होते हैं। जैसे स्वप्न में भेद-भ्रम से सुख-दुःख आदि की प्रतीति होती है और जाग्रत्-अवस्था में भ्रमवश माला में ही सर्प बुद्धि हो जाती है- वैसे ही मनुष्य अज्ञानवश आत्मा में देवता, मनुष्य आदि का भेद तथा गुण-दोष आदि की कल्पना कर लेता है।

जिनके पास ज्ञान और वैराग्य का बल है और जो भगवान् वासुदेव के चरणों में भक्तिभाव रखते हैं, उनके लिये इस जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वे हेय या उपादेय समझकर राग-द्वेष करें। मैं, ब्रह्मा जी, सनकादि, नारद, ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु आदि मुनि और बड़े-बड़े देवता- कोई भी भगवान् की लीला का रहस्य नहीं जान पाते। ऐसी अवस्था में जो उनके नन्हे-से-नन्हे अंश हैं और अपने को उनसे अलग ईश्वर मान बैठे हैं, वे उनके स्वरूप जान ही कैसे सकते हैं?

भगवान् को न कोई प्रिय है और न अप्रिय। उनका न कोई अपना है न पराया। वे सभी प्राणियों के आत्मा हैं, इसलिये सभी प्राणियों के प्रियतम हैं। प्रिये! यह परम भाग्यवान् चित्रकेतु उन्हीं का प्रिय अनुचर, शान्त और समदर्शी है और मैं भी भगवान् श्रीहरि का ही प्रिय हूँ। इसलिये तुम्हें भगवान् के प्यारे भक्त, शान्त, समदर्शी, महात्मा पुरुषों के सम्बन्ध में किसी प्रकार आश्चर्य नहीं करना चाहिये।

श्रीशुक उवाच

इति श्रुत्वा भगवतः शिवस्योमाभिभाषितम् ।

बभूव शान्तधी राजन् देवी विगतविस्मया ॥ ३६॥

इति भागवतो देव्याः प्रतिशप्तुमलन्तमः ।

मूर्ध्ना सञ्जगृहे शापमेतावत्साधुलक्षणम् ॥ ३७॥

जज्ञे त्वष्टुर्दक्षिणाग्नौ दानवीं योनिमाश्रितः ।

वृत्र इत्यभिविख्यातो ज्ञानविज्ञानसंयुतः ॥ ३८॥

एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।

वृत्रस्यासुरजातेश्च कारणं भगवन्मतेः ॥ ३९॥

इतिहासमिमं पुण्यं चित्रकेतोर्महात्मनः ।

माहात्म्यं विष्णुभक्तानां श्रुत्वा बन्धाद्विमुच्यते ॥ ४०॥

य एतत्प्रातरुत्थाय श्रद्धया वाग्यतः पठेत् ।

इतिहासं हरिं स्मृत्वा स याति परमां गतिम् ॥ ४१॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् शंकर का यह भाषण सुनकर भगवती पार्वती की चित्तवृत्ति शान्त हो गयी और उनका विस्मय जाता रहा। भगवान् के परम प्रेमी भक्त चित्रकेतु भी भगवती पार्वती को बदले में शाप दे सकते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें शाप न देकर उनका शाप सिर चढ़ा लिया। यही साधु पुरुष का लक्षण है।

यही विद्याधर चित्रकेतु दानव योनि का आश्रय लेकर त्वष्टा के दक्षिणाग्नि से पैदा हुए। वहाँ इनका नाम वृत्रासुर हुआ और वहाँ भी ये भगवत्स्वरूप के ज्ञान एवं भक्ति से परिपूर्ण ही रहे। तुमने मुझसे पूछा था कि वृत्रासुर का दैत्ययोनि में जन्म क्यों हुआ और उसे भगवान् की ऐसी भक्ति कैसे प्राप्त हुई। उसका पूरा-पूरा विवरण मैंने तुम्हें सुना दिया।

महात्मा चित्रकेतु का यह पवित्र इतिहास केवल उनका ही नहीं, वह समस्त विष्णुभक्तों का माहात्म्य है; इसे जो सुनता है, वह समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर मौन रहकर श्रद्धा के साथ भगवान् का स्मरण करते हुए इस इतिहास का पाठ करता है, उसे परमगति की प्राप्ति होती है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चित्रकेतुशापो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: अष्टादशोऽध्यायः

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