श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २१
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
२१ "भरत वंश का वर्णन, राजा रन्तिदेव की कथा"
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकविंश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
२१
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः २१
श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध इक्कीसवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २१ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
नवमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ एकविंशोऽध्यायः - २१ ॥
श्रीशुक उवाच
वितथस्य सुतो मन्युर्बृहत्क्षत्रो
जयस्ततः ।
महावीर्यो नरो गर्गः सङ्कृतिस्तु
नरात्मजः ॥ १॥
गुरुश्च रन्तिदेवश्च सङ्कृतेः
पाण्डुनन्दन ।
रन्तिदेवस्य हि यश इहामुत्र च गीयते
॥ २॥
वियद्वित्तस्य ददतो लब्धं लब्धं
बुभुक्षतः ।
निष्किञ्चनस्य धीरस्य सकुटुम्बस्य
सीदतः ॥ ३॥
व्यतीयुरष्टचत्वारिंशदहान्यपिबतः
किल ।
घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम्
॥ ४॥
कृच्छ्रप्राप्तकुटुम्बस्य
क्षुत्तृड्भ्यां जातवेपथोः ।
अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य
चागमत् ॥ ५॥
तस्मै संव्यभजत्सोऽन्नमादृत्य
श्रद्धयान्वितः ।
हरिं सर्वत्र सम्पश्यन् स भुक्त्वा
प्रययौ द्विजः ॥ ६॥
अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य
महीपते ।
विभक्तं व्यभजत्तस्मै वृषलाय हरिं
स्मरन् ॥ ७॥
याते शूद्रे तमन्योऽगादतिथिः
श्वभिरावृतः ।
राजन् मे दीयतामन्नं सगणाय
बुभुक्षते ॥ ८॥
स आदृत्यावशिष्टं
यद्बहुमानपुरस्कृतम् ।
तच्च दत्त्वा नमश्चक्रे श्वभ्यः
श्वपतये विभुः ॥ ९॥
पानीयमात्रमुच्छेषं
तच्चैकपरितर्पणम् ।
पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागादपो
देह्यशुभस्य मे ॥ १०॥
तस्य तां करुणां वाचं निशम्य
विपुलश्रमाम् ।
कृपया भृशसन्तप्त इदमाहामृतं वचः ॥
११॥
न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परा-
मष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा ।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजा-
मन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥
१२॥
क्षुत्तृट् श्रमो गात्रपरिश्रमश्च
दैन्यं क्लमः शोकविषादमोहाः ।
सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जन्तो-
र्जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे ॥ १३॥
इति प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणः
पिपासया ।
पुल्कसायाददाद्धीरो निसर्गकरुणो
नृपः ॥ १४॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! वितथ अथवा भरद्वाज का पुत्र था मन्यु। मन्यु के पाँच
पुत्र हुए- बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य,
नर और गर्ग। नर का पुत्र था संकृति। संकृति के दो पुत्र हुए- गुरु
और रन्तिदेव। परीक्षित! रन्तिदेव का निर्मल यश इस लोक और परलोक में सब जगह गाया
जाता है। रन्तिदेव आकाश के समान बिना उद्योग के ही दैववश प्राप्त वस्तु का उपभोग
करते और दिनोंदिन उनकी पूँजी घटती जाती। जो कुछ मिल जाता, उसे
भी दे डालते और स्वयं भूखे रहते। वे संग्रह-परिग्रह, ममता से
रहित और बड़े धैर्यशाली थे और अपने कुटुम्ब के साथ दुःख भोग रहे थे। एक बार तो
लगातार अड़तालीस दिन ऐसे बीत गये कि उन्हें पानी तक पीने को न मिला। उनचासवें दिन
प्रातःकाल ही उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा
और जल मिला। उनका परिवार बड़े संकट में था। भूख और प्यास के मारे वे लोग काँप रहे
थे। परन्तु ज्यों ही उन लोगों ने भोजन करना चाहा, त्यों ही
एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में आ गया। रन्तिदेव सबमें श्रीभगवान् के ही दर्शन करते
थे। अतएव उन्होंने बड़ी श्रद्धा से आदरपूर्वक उसी अन्न में से ब्राह्मण को भोजन
कराया। ब्राह्मण देवता भोजन करके चले गये।
परीक्षित! अब बचे हुए अन्न को
रन्तिदेव ने आपस में बाँट लिया और भोजन करना चाहा। उसी समय एक दूसरा शूद्र-अतिथि आ
गया। रन्तिदेव ने भगवान् का स्मरण करते हुए उस बचे हुए अन्न में से भी कुछ भाग
शूद्र के रूप में आये अतिथि को खिला दिया। जब शूद्र खा-पीकर चला गया,
तब कुत्तों को लिये हुए एक और अतिथि आया। उसने कहा- ‘राजन्! मैं और मेरे ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें कुछ खाने को दीजिये’। रन्तिदेव ने अत्यन्त आदरभाव से, जो कुछ बच रहा था,
सब-का-सब उसे दे दिया और भगवन्मय होकर उन्होंने कुत्ते और कुत्तों
के स्वामी के रूप में आये हुए भगवान् को नमस्कार किया।
अब केवल जल ही बच रहा था और वह भी
केवल एक मनुष्य के पीने भर का था। वे उसे आपस में बाँटकर पीना ही चाहते थे कि एक
चाण्डाल और आ पहुँचा। उसने कहा- ‘मैं अत्यन्त
नीच हूँ। मुझे जल पिला दीजिये। चाण्डाल की वह करुणापूर्ण वाणी जिसके उच्चारण में
भी वह अत्यन्त कष्ट पा रहा था, सुनकर रन्तिदेव दया से
अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और ये अमृतमय वचन कहते लगे- ‘मैं
भगवान् से आठों सिद्धियों से युक्त परमगति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्ष की भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं
सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दुःख मैं ही सहन करूँ,
जिससे और किसी भी प्राणी को दुःख न हो। यह दीन प्राणी जल पी करके
जीना चाहता था। जल दे देने से इसके जीवन की रक्षा हो गयी। अब मेरी भूख-प्यास की
पीड़ा, शरीर की शिथिलता, दीनता,
ग्लानि, शोक, विषाद और
मोह-ये सब-के-सब जाते रहे। मैं सुखी हो गया’।
इस प्रकार कहकर रन्तिदेव ने वह बचा
हुआ जल भी उस चाण्डाल को दे दिया। यद्यपि जल के बिना वे स्वयं मर रहे थे,
फिर भी स्वभाव से ही उनका हृदय इतना करुणापूर्ण था कि वे अपने को
रोक न सके। उनके धैर्य की भी कोई सीमा है?
तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदाः
फलमिच्छताम् ।
आत्मानं दर्शयाञ्चक्रुर्माया
विष्णुविनिर्मिताः ॥ १५॥
स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निःसङ्गो
विगतस्पृहः ।
वासुदेवे भगवति भक्त्या चक्रे मनः
परम् ॥ १६॥
ईश्वरालम्बनं चित्तं
कुर्वतोऽनन्यराधसः ।
माया गुणमयी राजन्
स्वप्नवत्प्रत्यलीयत ॥ १७॥
तत्प्रसङ्गानुभावेन
रन्तिदेवानुवर्तिनः ।
अभवन् योगिनः सर्वे नारायणपरायणाः ॥
१८॥
गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्यः
क्षत्राद्ब्रह्म ह्यवर्तत ।
दुरितक्षयो महावीर्यात्तस्य
त्रय्यारुणिः कविः ॥ १९॥
पुष्करारुणिरित्यत्र ये
ब्राह्मणगतिं गताः ।
बृहत्क्षत्रस्य पुत्रोऽभूद्धस्ती
यद्धस्तिनापुरम् ॥ २०॥
अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढश्च
हस्तिनः ।
अजमीढस्य वंश्याः स्युः
प्रियमेधादयो द्विजाः ॥ २१॥
अजमीढाद्बृहदिषुस्तस्य पुत्रो
बृहद्धनुः ।
बृहत्कायस्ततस्तस्य पुत्र
आसीज्जयद्रथः ॥ २२॥
तत्सुतो विशदस्तस्य सेनजित्समजायत ।
रुचिराश्वो दृढहनुः काश्यो वत्सश्च
तत्सुताः ॥ २३॥
रुचिराश्वसुतः पारः
पृथुसेनस्तदात्मजः ।
पारस्य तनयो नीपस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत्
॥ २४॥
स कृत्व्यां शुककन्यायां
ब्रह्मदत्तमजीजनत् ।
स योगी गवि भार्यायां
विष्वक्सेनमधात्सुतम् ॥ २५॥
जैगीषव्योपदेशेन योगतन्त्रं चकार ह
।
उदक्स्वनस्ततस्तस्माद्भल्लादो
बार्हदीषवाः ॥ २६॥
यवीनरो द्विमीढस्य कृतिमांस्तत्सुतः
स्मृतः ।
नाम्ना सत्यधृतिर्यस्य दृढनेमिः
सुपार्श्वकृत् ॥ २७॥
सुपार्श्वात्सुमतिस्तस्य पुत्रः
सन्नतिमांस्ततः ।
कृतिर्हिरण्यनाभाद्यो योगं प्राप्य
जगौ स्म षट् ॥ २८॥
संहिताः प्राच्यसाम्नां वै नीपो
ह्युग्रायुधस्ततः ।
तस्य क्षेम्यः सुवीरोऽथ सुवीरस्य
रिपुञ्जयः ॥ २९॥
ततो बहुरथो नाम पुरमीढोऽप्रजोऽभवत्
।
नलिन्यामजमीढस्य नीलः शान्तिः
सुतस्ततः ॥ ३०॥
शान्तेः सुशान्तिस्तत्पुत्रः
पुरुजोऽर्कस्ततोऽभवत् ।
भर्म्याश्वस्तनयस्तस्य पञ्चासन्
मुद्गलादयः ॥ ३१॥
यवीनरो बृहदिषुः काम्पिल्यः सञ्जयः
सुताः ।
भर्म्याश्वः प्राह पुत्रा मे
पञ्चानां रक्षणाय हि ॥ ३२॥
विषयाणामलमिमे इति पञ्चालसंज्ञिताः
।
मुद्गलाद्ब्रह्म निर्वृत्तं गोत्रं
मौद्गल्यसंज्ञितम् ॥ ३३॥
मिथुनं मुद्गलाद्भार्म्याद्दिवोदासः
पुमानभूत् ।
अहल्या कन्यका यस्यां शतानन्दस्तु
गौतमात् ॥ ३४॥
तस्य सत्यधृतिः पुत्रो
धनुर्वेदविशारदः ।
शरद्वांस्तत्सुतो यस्मादुर्वशीदर्शनात्किल
॥ ३५॥
शरस्तम्बेऽपतद्रेतो मिथुनं
तदभूच्छुभम् ।
तद्दृष्ट्वा
कृपयागृह्णाच्छन्तनुर्मृगयां चरन् ।
कृपः कुमारः कन्या च
द्रोणपत्न्यभवत्कृपी ॥ ३६॥
परीक्षित! ये अतिथि वास्तव में
भगवान् की रची हुई माया के ही विभिन्न रूप थे। परीक्षा पूरी हो जाने पर अपने
भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करने वाले त्रिभुवनस्वामी ब्रह्मा,
विष्णु और महेश-तीनों उनके सामने प्रकट हो गये। रन्तिदेव ने उनके
चरणों में नमस्कार किया। उन्हें कुछ लेना तो था नहीं। भगवान् की कृपा से वे आसक्ति
और स्पृहा से भी रहित हो गये तथा परम प्रेममय भक्तिभाव से अपने मन को भगवान्
वासुदेव में तन्मय कर दिया।
कुछ भी माँगा नहीं। परीक्षित!
उन्हें भगवान् के सिवा और किसी भी वस्तु की इच्छा तो थी नहीं,
उन्होंने अपने मन को पूर्ण रूप से भगवान् में लगा दिया। इसलिये
त्रिगुणमयी माया जागने पर स्वप्न-दृश्य के समान नष्ट हो गयी। रन्तिदेव के अनुयायी
भी उसके संग के प्रभाव के योगी हो गये और सब भगवान के ही आश्रित परमभक्त बन गये।
मन्युपुत्र गर्ग से शिनी और शिनी से
गार्ग्य का जन्म हुआ। यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, फिर भी उससे ब्राह्मण वंश चला। महावीर्य का पुत्र था दुरितक्षय। दुरितक्षय
के तीन पुत्र हुए- त्रय्यारुणि, कवि और पुष्पकारुणि। ये
तीनों ब्राह्मण हो गये। बृहत्क्षत्र का पुत्र हुआ हस्ती, उसी
ने हस्तिनापुर बसाया था। हस्ती के तीन पुत्र थे- अजमीढ, द्विमीढ
और पुरुमीढ। अजमीढ के पुत्रों में प्रियमेध आदि ब्राह्मण हुए। इन्हीं अजमीढ के एक
पुत्र का नाम था बृहदिषु। बृहदिषु का पुत्र हुआ बृहद्धनु, बृहद्धनु
का बृहत्काय और बृहत्काय का जयद्रथ हुआ। जयद्रथ का पुत्र हुआ विशद और विशद का
सेनजित्। सेनजित् के चार पुत्र हुई- रिचिराश्व, दृढ़हनु,
काश्य और वत्स। रिचिराश्व का पुत्र पार था और पार का पृथुसेन। पार
के दूसरे पुत्र का नाम नीप था। उसके सौ पुत्र थे। इसी नीप ने (छाया) शुक की कन्या
कृत्वी से विवाह किया था। उससे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र हुआ। ब्रह्मदत्त बड़ा योगी
था। उसने अपनी पत्नी सरस्वती के गर्भ से विष्वक्सेन नामक पुत्र उत्पन्न किया। इसी
विष्वक्सेन ने जैगीषव्य उपदेश के योगशास्त्र की रचना की। विष्वक्सेन का पुत्र था
उद्क्स्वन और उदक्स्वन का भल्लाद। ये सब बृहदिषु के वंशज हुए।
द्विमीढ का पुत्र था यवीनर,
यवीनर का कृतिमान, कृतिमान् का सत्यधृति,
सत्यधृति का दृढ़नेमि और दृढ़नेमि का पुत्र सुपार्श्व हुआ। सुपार्श्व
से सुमति, सुमति से सन्नतिमान् और सन्नतिमान् से कृति का
जन्म हुआ। उसने हिरण्यनाभ से योगविद्या प्राप्त की थी और ‘प्राच्यसाम’
नामक ऋचाओं की छः सहिंताएँ कही थीं। कृति का पुत्र नीप था, नीप का उग्रायुध, उग्रायुध का क्षेम्य, क्षेम्य का सुवीर और सुवीर का पुत्र था रिपुंजय। रिपुंजय का पुत्र था
बहुरथ। द्विमीढ के भाई पुरुमीढ को कोई सन्तान न हुई। अजमीढ की दूसरी पत्नी का नाम
था नलिनी। उसके गर्भ से नील का जन्म हुआ। नील का शान्ति, शान्ति
का सुशान्ति, सुशान्ति का पुरुज, पुरुज
का अर्क और अर्क का पुत्र भर्म्याश्व। भर्म्याश्व के पाँच पुत्र थे- मुद्गल,
यवीनर, बृहदिषु, काम्पिल्य
और संजय। भर्म्याश्व ने कहा- ‘ये मेरे पुत्र पाँच देशों का
शासन करने में समर्थ (पंच अलम्) हैं।' इसलिये ये ‘पंचाल’ नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें मुद्गल से ‘मौद्गल्य’ नामक ब्राह्मण गोत्र की प्रवृत्ति हुई।
भर्म्याश्व के पुत्र मद्गल से यमज
(जुड़वाँ) सन्तान हुईं। उनमें पुत्र का नाम था दिवोदास और कन्या का अहल्या। अहल्या
का विवाह महर्षि गौतम से हुआ। गौतम के पुत्र हुए शतानन्द। शतानन्द का पुत्र
सत्यधृति था, वह धनुर्विद्या में अत्यन्त
निपुण था। सत्यधृति के पुत्र का नाम था शरद्वान्। एक दिन उर्वशी को देखने से
शरद्वान् का वीर्य मूँज के झाड़ पर गिर पड़ा, उससे एक शुभ
लक्षण वाले पुत्र-पुत्री का जन्म हुआ। महाराज शान्तनु की उस पर दृष्टि पड़ गयी,
क्योंकि वे उधर शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। उन्होंने दयावश
दोनों को उठा लिया। उनमें जो पुत्र था, उसका नाम कृपाचार्य
हुआ और जो कन्या थी, उसका नाम हुआ कृपी। यही कृपी
द्रोणाचार्य की पत्नी हुई।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१॥
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