श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २०                                                  

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २० "पूरु के वंश, राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २०

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: विंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २०                                                                      

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः २०  

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध बीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ विंशोऽध्यायः - २० ॥

श्रीशुक उवाच

पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत ।

यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे ॥ १॥

जनमेजयो ह्यभूत्पूरोः प्रचिन्वांस्तत्सुतस्ततः ।

प्रवीरोऽथ नमस्युर्वै तस्माच्चारुपदोऽभवत् ॥ २॥

तस्य सुद्युरभूत्पुत्रस्तस्माद्बहुगवस्ततः ।

संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः ॥ ३॥

ऋतेयुस्तस्य कक्षेयुः स्थण्डिलेयुः कृतेयुकः ।

जलेयुः सन्ततेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः ॥ ४॥

दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः ।

घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः ॥ ५॥

ऋतेयो रन्तिभारोऽभूत्त्रयस्तस्यात्मजा नृप ।

सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः ॥ ६॥

तस्य मेधातिथिस्तस्मात्प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः ।

पुत्रोऽभूत्सुमते रैभ्यो दुष्यन्तस्तत्सुतो मतः ॥ ७॥

दुष्यन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः ।

तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव ॥ ८॥

विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम् ।

बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः ॥ ९॥

तद्दर्शनप्रमुदितः सन्निवृत्तपरिश्रमः ।

पप्रच्छ कामसन्तप्तः प्रहसञ्श्लक्ष्णया गिरा ॥ १०॥

का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयङ्गमे ।

किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने ॥ ११॥

व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्म्यहं त्वां सुमध्यमे ।

न हि चेतः पौरवाणामधर्मे रमते क्वचित् ॥ १२॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब मैं राजा पूरु के वंश का वर्णन करूँगा। इसी वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। इसी वंश के वंशधर बहुत-से राजर्षि और ब्रह्मर्षि भी हुए हैं। पूरु का पुत्र हुआ जनमेजय। जनमेजय का प्रचिन्वान, प्रचिन्वान का प्रवीर, प्रवीर का नमस्यु और नमस्यु का पुत्र हुआ चारुपद। चारुपद से सुद्यु, सुद्यु से बहुगव, बहुगव से संयाति, संयाति से अहंयाति और अहंयाति से रौद्राश्व हुआ।

परीक्षित! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राण से दस इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही घृताची अप्सरा के गर्भ से रौद्राश्व के दस पुत्र हुए- ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु। परीक्षित! उनमें से ऋतेयु का पुत्र रन्तिभार हुआ और रन्तिभार के तीन पुत्र हुए- सुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ। अप्रतिरथ के पुत्र का नाम था कण्व। कण्व का पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथि से प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमति का पुत्र रैभ्य हुआ, इसी रैभ्य का पुत्र दुष्यन्त था।

एक बार दुष्यन्त वन में अपने कुछ सैनिकों के साथ शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। उधर ही वे कण्व मुनि के आश्रम पर जा पहुँचे। उस आश्रम पर देवमाया के समान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मी के समान अंगकान्ति से वह आश्रम जगमगा रहा था। उस सुन्दरी को देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उससे बातचीत करने लगे। उसको देखने से उनको बड़ा आनन्द मिला। उनके मन में काम वासना जाग्रत् हो गयी। थकावट दूर करने के बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणी से मुसकराते हुए उससे पूछा- कमलदल के समान सुन्दर नेत्रों वाली देवि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने वाली सुन्दरी! तुम इस निर्जन वन में रहकर क्या करना चाहती हो? सुन्दरी! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रिय की कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियों का चित्त कभी अधर्म की ओर नहीं झुकता

शकुन्तलोवाच

विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने ।

वेदैतद्भगवान् कण्वो वीर किं करवाम ते ॥ १३॥

आस्यतां ह्यरविन्दाक्ष गृह्यतामर्हणं च नः ।

भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते ॥ १४॥

शकुन्तला ने कहा ;- ‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्र जी की पुत्री हूँ। मेनका अप्सरा ने मुझे वन में छोड़ दिया था। इस बात के साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करने वाले महर्षि कण्व। वीरशिरोमणे! मैं आपकी क्या सेवा करूँ? कमलनयन! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत-सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रम में कुछ नीवार (तिन्नी का भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहीं ठहरिये

दुष्यन्त उवाच

उपपन्नमिदं सुभ्रु जातायाः कुशिकान्वये ।

स्वयं हि वृणुते राज्ञां कन्यकाः सदृशं वरम् ॥ १५॥

ओमित्युक्ते यथाधर्ममुपयेमे शकुन्तलाम् ।

गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित् ॥ १६॥

अमोघवीर्यो राजर्षिर्महिष्यां वीर्यमादधे ।

श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम् ॥ १७॥

कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुचिताः क्रियाः ।

बद्ध्वा मृगेन्द्रांस्तरसा क्रीडति स्म स बालकः ॥ १८॥

दुष्यन्त ने कहा ;- ‘सुन्दरी! तुम कुशिक वंश में उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकार का आतिथ्य सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पति को वरण कर लिया करती हैं। शकुन्तला की स्वीकृति मिल जाने पर देश, काल और शास्त्र की आज्ञा को जानने वाले राजा दुष्यन्त ने गान्धर्व-विधि से धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया। राजर्षि दुष्यन्त का वीर्य अमोघ था। रात्रि में वहाँ रहकर दुष्यन्त ने शकुन्तला का सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानी में चले गये। समय आने पर शकुन्तला को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। महर्षि कण्व ने वन में ही राजकुमार के जातकर्म आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपन में ही इतना बलवान था कि बड़े-बड़े सिंहों को बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता।

तं दुरत्ययविक्रान्तमादाय प्रमदोत्तमा ।

हरेरंशांशसम्भूतं भर्तुरन्तिकमागमत् ॥ १९॥

यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितौ ।

शृण्वतां सर्वभूतानां खे वागाहाशरीरिणी ॥ २०॥

माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।

भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ॥ २१॥

रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात् ।

त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ॥ २२॥

पितर्युपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः ।

महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि ॥ २३॥

चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः ।

ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराड्विभुः ॥ २४॥

पञ्चपञ्चाशता मेध्यैर्गङ्गायामनु वाजिभिः ।

मामतेयं पुरोधाय यमुनायामनु प्रभुः ॥ २५॥

अष्टसप्ततिमेध्याश्वान् बबन्ध प्रददद्वसु ।

भरतस्य हि दौष्यन्तेरग्निः साचीगुणे चितः ।

सहस्रं बद्वशो यस्मिन् ब्राह्मणा गा विभेजिरे ॥ २६॥

त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान् बद्ध्वा विस्मापयन् नृपान् ।

दौष्यन्तिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ ॥ २७॥

मृगान् शुक्लदतः कृष्णान् हिरण्येन परीवृतान् ।

अदात्कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश ॥ २८॥

भरतस्य महत्कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः ।

नैवापुर्नैव प्राप्स्यन्ति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा ॥ २९॥

किरातहूणान् यवनानन्ध्रान् कङ्कान् खशान् छकान् ।

अब्रह्मण्यान् नृपांश्चाहन् म्लेच्छान् दिग्विजयेऽखिलान् ॥ ३०॥

जित्वा पुरासुरा देवान् ये रसौकांसि भेजिरे ।

देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत् ॥ ३१॥

सर्वान् कामान् दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी ।

समास्त्रिणवसाहस्रीर्दिक्षु चक्रमवर्तयत् ॥ ३२॥

स सम्राड् लोकपालाख्यमैश्वर्यमधिराट् श्रियम् ।

चक्रं चास्खलितं प्राणान् मृषेत्युपरराम ह ॥ ३३॥

वह बालक भगवान का अंशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पति के पास गयी। जब राजा दुष्यन्त ने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्र को स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगों ने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई- पुत्र उत्पन्न करने में माता तो केवल धौंकनी के समान है। वास्तव में पुत्र पिता का ही है। क्योंकि पिता ही पुत्ररूप में उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त! तुम शकुन्तला का तिरस्कार न करो, अपने पुत्र का भरण-पोषण करो। राजन्! वंश की वृद्धि करने वाला पुत्र अपने पिता को नरक से उबार लेता है। शकुन्तला का कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भ को धारण कराने वाले तुम्हीं हो

परीक्षित! पिता दुष्यन्त की मृत्यु हो जाने के बाद वह परमयशस्वी बालक चक्रवर्ती सम्राट हुआ। उसका जन्म भगवान् के अंश से हुआ था। आज भी पृथ्वी पर उसकी महिमा का गान किया जाता है। उसके दाहिने हाथ में चक्र का चिह्न था और पैरों में कमलकोष का। महाभिषेक की विधि से राजाधिराज के पद पर उसका अभिषेक हुआ। भरत बड़ा शक्तिशाली राजा था। भरत ने ममता के पुत्र दीर्घतमा मुनि को पुरोहित बनाकर गंगा तट पर गंगासागर से लेकर गंगोत्री-पर्यन्त पचपन पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये और इसी प्रकार यमुना तट पर भी प्रयाग से लेकर यमुनोत्री तक उन्होंने अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। इन सभी यज्ञों में उन्होंने धनराशि का दान किया था। दुष्यन्तकुमार भरत का यज्ञीय अग्निस्थापन बड़े ही उत्तम गुण वाले स्थान में किया गया था। उस स्थान में भरत ने इतनी गौएँ दान दी थीं कि एक हजार ब्राह्मणों में प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक बद्व (13084) गौएँ मिली थीं।

इस प्रकार राजा भरत ने उन यज्ञों में एक सौ तैतीस (55+78) घोड़े बाँधकर (133 यज्ञ करके) समस्त नरपतियों को असीम आश्चर्य में डाल दिया। इन यज्ञों के द्वारा इस लोक में तो राजा भरत को परम यश मिला ही, अन्त में उन्होंने माया पर भी विजय प्राप्त की और देवताओं के परमगुरु भगवान् श्रीहरि को प्राप्त कर लिया। यज्ञ में एक कर्म होता है मष्णार। उसमें भरत ने सुवर्ण से विभूषित, श्वेत दाँतों वाले तथा काले रंग के चौदह लाख हाथी दान किये। भरत ने जो महान कर्म किया, वह न तो पहले कोई राजा कर सका था और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। क्या कभी कोई हाथ से स्वर्ग को छू सकता है? भरत ने दिग्विजय के समय किरात, हूण, यवन, अन्ध्र, कंक, खश, शक और म्लेच्छ आदि समस्त ब्राह्मणद्रोही राजाओं को मार डाला।

पहले युग में बलवान् असुरों ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और वे रसातल में रहने लगे थे। उस समय वे बहुत-सी देवांगनाओं को रसातल में ले गये थे। राजा भरत ने फिर से उन्हें छुड़ा दिया। उसके राज्य में पृथ्वी और आकाश प्रजा की सारी आवश्यकताएँ पूर्ण कर देते थे। भरत ने सत्ताईस हजार वर्ष तक समस्त दिशाओं का एकछत्र शासन किया। अन्त में सार्वभौम सम्राट् भरत ने यही निश्चय किया कि लोकपालों को भी चकित कर देने वाला ऐश्वर्य, सार्वभौम सम्पत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या ही है। यह निश्चय करके वे संसार से उदासीन हो गये।

तस्यासन् नृप वैदर्भ्यः पत्न्यस्तिस्रः सुसम्मताः ।

जघ्नुस्त्यागभयात्पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते ॥ ३४॥

तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम् ।

मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः ॥ ३५॥

अन्तर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः ।

प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमवासृजत् ॥ ३६॥

तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तृत्यागविशङ्किताम् ।

नामनिर्वाचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः ॥ ३७॥

मूढे भर द्वाजमिमं भर द्वाजं बृहस्पते ।

यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् ॥ ३८॥

चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम् ।

व्यसृजन्मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेऽन्वये ॥ ३९॥

 परीक्षित! विदर्भराज की तीन कन्याएँ सम्राट् भरत की पत्नियाँ थीं। वे उनका बड़ा आदर भी करते थे, परन्तु जब भरत ने उनसे कह दिया कि तुम्हारे पुत्र मेरे अनुरूप नहीं हैं, तब वे डर गयीं कि कहीं सम्राट् हमें त्याग न दें। इसलिये उन्होंने अपने बच्चों को मार डाला। इस प्रकार सम्राट भरत का वंश वितथ अर्थात् विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तान के लिये मरुत्स्तोमनाम का यज्ञ किया। इससे मरुद्गणों ने प्रसन्न होकर भरत को भरद्वाज नाम का पुत्र दिया।

भरद्वाज की उत्पत्ति का प्रसंग यह है कि एक बार बृहस्पति जी ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी से मैथुन करना चाहा। उस समय गर्भ में जो बालक (दीर्घतमा) था, उसने मना किया। किन्तु बृहस्पति जी ने उसकी बात पर ध्यान न दिया और उसे तू अंधा हो जायह शाप देकर बलपूर्वक गर्भाधान कर दिया। उतथ्य की पत्नी ममता इस बात से डर गयी कि कहीं मेरे पति मेरा त्याग न कर दें। इसलिये उसने बृहस्पति जी के द्वारा होने वाले लड़के को त्याग देना चाहा।

उस समय देवताओं ने गर्भस्थ शिशु के नाम का निर्वचन करते हुए यह कहा। बृहस्पति जी कहते हैं कि अरी मूढ़े! यह मेरा औरस और मेरे भाई का क्षेत्रज-इस प्रकार दोनों का पुत्र (द्वाज) है; इसलिये तू डर मत, इसका भरण-पोषण कर (भर)।

इस पर ममता ने कहा ;- ‘बृहस्पते! यह मेरे पति का नहीं, हम दोनों का ही पुत्र है; इसलिये तुम्हीं इसका भरण-पोषण करो।

इस प्रकार आपस में विवाद करते हुए माता-पिता दोनों ही इसको छोड़कर चले गये। इसलिये इस लड़के नाम भरद्वाजहुआ। देवताओं के द्वारा नाम का ऐसा निर्वचन होने पर भी ममता ने यही समझा कि मेरा यह पुत्र वितथ अर्थात् अन्याय से पैदा हुआ है। अतः उसने उस बच्चे को छोड़ दिया। अब मरुद्गणों ने उसका पालन किया और जब राजा भरत का वंश नष्ट होने लगा, तब उसे लाकर उनको दे दिया। यही वितथ (भरद्वाज) भरत का दत्तक पुत्र हुआ।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २०॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: एकविंशोऽध्यायः

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