श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
२ "पृषध्र आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश"
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
२
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः २
श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध
दूसरा अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
नवमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं गतेऽथ सुद्युम्ने मनुर्वैवस्वतः
सुते ।
पुत्रकामस्तपस्तेपे यमुनायां शतं
समाः ॥ १॥
ततोऽयजन्मनुर्देवमपत्यार्थं हरिं
प्रभुम् ।
इक्ष्वाकुपूर्वजान् पुत्रान् लेभे
स्वसदृशान् दश ॥ २॥
पृषध्रस्तु मनोः पुत्रो गोपालो
गुरुणा कृतः ।
पालयामास गा यत्तो रात्र्यां
वीरासनव्रतः ॥ ३॥
एकदा प्राविशद्गोष्ठं शार्दूलो निशि
वर्षति ।
शयाना गाव उत्थाय भीतास्ता
बभ्रमुर्व्रजे ॥ ४॥
एकां जग्राह बलवान् सा चुक्रोश
भयातुरा ।
तस्यास्तत्क्रन्दितं श्रुत्वा
पृषध्रोऽभिससार ह ॥ ५॥
खड्गमादाय तरसा प्रलीनोडुगणे निशि ।
अजानन्नहनद्बभ्रोः शिरः
शार्दूलशङ्कया ॥ ६॥
व्याघ्रोऽपि वृक्णश्रवणो
निस्त्रिंशाग्राहतस्ततः ।
निश्चक्राम भृशं भीतो रक्तं पथि
समुत्सृजन् ॥ ७॥
मन्यमानो हतं व्याघ्रं पृषध्रः परवीरहा
।
अद्राक्षीत्स्वहतां बभ्रुं
व्युष्टायां निशि दुःखितः ॥ ८॥
तं शशाप कुलाचार्यः कृतागसमकामतः ।
न क्षत्रबन्धुः शूद्रस्त्वं कर्मणा
भवितामुना ॥ ९॥
एवं शप्तस्तु गुरुणा
प्रत्यगृह्णात्कृताञ्जलिः ।
अधारयद्व्रतं वीर ऊर्ध्वरेता
मुनिप्रियम् ॥ १०॥
वासुदेवे भगवति सर्वात्मनि परेऽमले
।
एकान्तित्वं गतो भक्त्या
सर्वभूतसुहृत्समः ॥ ११॥
विमुक्तसङ्गः शान्तात्मा
संयताक्षोऽपरिग्रहः ।
यदृच्छयोपपन्नेन कल्पयन्
वृत्तिमात्मनः ॥ १२॥
आत्मन्यात्मानमाधाय ज्ञानतृप्तः
समाहितः ।
विचचार महीमेतां जडान्धबधिराकृतिः ॥
१३॥
एवंवृत्तो वनं गत्वा दृष्ट्वा
दावाग्निमुत्थितम् ।
तेनोपयुक्तकरणो ब्रह्म प्राप परं
मुनिः ॥ १४॥
कविः कनीयान् विषयेषु निःस्पृहो
विसृज्य राज्यं सह बन्धुभिर्वनम् ।
निवेश्य चित्ते पुरुषं स्वरोचिषं
विवेश कैशोरवयाः परं गतः ॥ १५॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! इस प्रकार जब सुद्युम्न तपस्या करने के लिये वन में चले
गये, तब वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से यमुना के तट पर सौ
वर्ष तक तपस्या की। इसके बाद उन्होंने सन्तान के लिये सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि
की आराधना की और अपने ही समान दस पुत्र प्राप्त किये, जिसमें
सबसे बड़े इक्ष्वाकु थे। उन मनुपुत्रों में से एक का नाम था पृषध्र। गुरु वसिष्ठ
जी ने उसे गायों की रक्षा में नियुक्त कर रखा था, अतः वह
रात्रि के समय बड़ी सावधानी से वीरासन से बैठा रहता और गायों की रक्षा करता।
एक दिन रात में वर्षा हो रही थी। उस
समय गायों के झुंड में एक बाघ घुस आया। उससे डरकर सोयी हुई गौएँ उठ खड़ी हुईं। वे
गोशाला में ही इधर-उधर भागने लगीं। बलवान् बाघ ने एक गाय को पकड़ लिया। वह अत्यन्त
भयभीत होकर चिल्लाने लगी। उसका वह क्रन्दन सुनकर पृषध्र गाय के पास दौड़ आया। एक
तो रात का समय और दूसरे घनघोर घटाओं से आच्छादित होने के कारण तारे भी नहीं दीखते
थे। उसने हाथ में तलवार उठाकर अनजान में ही बड़े वेग से गाय का सिर काट दिया। वह
समझ रहा था कि यही बाघ है। तलवार की नोक से बाघ का भी कान कट गया,
वह अत्यन्त भयभीत होकर रास्ते में खून गिराता हुआ वहाँ से निकल
भागा। शत्रुदमन पृषध्र ने यह समझा कि बाघ मर गया। परंतु रात बीतने पर उसने देखा कि
मैंने तो गाय को ही मार डाला है, इससे उसे बड़ा दुःख हुआ।
यद्यपि पृषध्र ने जान-बूझकर अपराध
नहीं किया था, फिर भी कुलपुरोहित वसिष्ठ जी ने
उसे शाप दिया कि ‘तुम इस कर्म से क्षत्रिय नहीं रहोगे;
जाओ, शूद्र हो जाओ’।
पृषध्र ने अपने गुरुदेव का यह शाप अंजलि बाँधकर स्वीकार किया और इसके बाद सदा के
लिये मुनियों को प्रिय लगने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत को धारण किया। वह समस्त
प्राणियों का अहैतुक हितैषी एवं सबके प्रति समान भाव से युक्त होकर भक्ति के
द्वारा परमविशुद्ध सर्वात्मा भगवान् वासुदेव का अनन्य प्रेमी हो गया। उसकी सारी
आसक्तियाँ मिट गयीं। वृत्तियाँ शान्त हो गयीं। इन्द्रियाँ वश में हो गयीं। वह कभी
किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह नहीं रखता था। जो कुछ दैववश प्राप्त हो जाता,
उसी से अपना जीवन-निर्वाह कर लेता। वह आत्मज्ञान से सन्तुष्ट एवं
अपने चित्त को परमात्मा में स्थित करके प्रायः समाधिस्थ रहता। कभी-कभी जड़,
अंधे और बहरे के समान पृथ्वी पर विचरण करता। इस प्रकार का जीवन
व्यतीत करता हुआ वह एक दिन वन में गया। वहाँ उसने देखा की दावानल धधक रहा है।
मननशील पृषध्र अपनी इन्द्रियों को उसी अग्नि में भस्म करके परब्रह्म परमात्मा को
प्राप्त हो गया।
मनु का सबसे छोटा पुत्र था कवि।
विषयों से वह अत्यन्त निःस्पृह था। वह राज्य छोड़कर अपने बन्धुओं के साथ वन में
चला गया और अपने हृदय में स्वयंप्रकाश परमात्मा को विराजमान पर किशोर अवस्था में
ही परमपद को प्राप्त हो गया।
करूषान्मानवादासन् कारूषाः
क्षत्रजातयः ।
उत्तरापथगोप्तारो ब्रह्मण्या
धर्मवत्सलाः ॥ १६॥
धृष्टाद्धार्ष्टमभूत्क्षत्रं
ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
नृगस्य वंशः सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो
वसुः ॥ १७॥
वसोः प्रतीकस्तत्पुत्र
ओघवानोघवत्पिता ।
कन्या चौघवती नाम सुदर्शन उवाह ताम्
॥ १८॥
चित्रसेनो नरिष्यन्ताद्दक्षस्तस्य
सुतोऽभवत् ।
तस्य मीढ्वांस्ततः कूर्च
इन्द्रसेनस्तु तत्सुतः ॥ १९॥
वीतिहोत्रस्त्विन्द्रसेनात्तस्य
सत्यश्रवा अभूत् ।
उरुश्रवाः सुतस्तस्य
देवदत्तस्ततोऽभवत् ॥ २०॥
ततोऽग्निवेश्यो भगवानग्निः स्वयमभूत्सुतः
।
कानीन इति विख्यातो जातूकर्ण्यो
महान् ऋषिः ॥ २१॥
ततो ब्रह्मकुलं जातमाग्निवेश्यायनं
नृप ।
नरिष्यन्तान्वयः प्रोक्तो
दिष्टवंशमतः शृणु ॥ २२॥
नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्यः कर्मणा
वैश्यतां गतः ।
भलन्दनः सुतस्तस्य
वत्सप्रीतिर्भलन्दनात् ॥ २३॥
वत्सप्रीतेः सुतः प्रांशुस्तत्सुतं
प्रमतिं विदुः ।
खनित्रः प्रमतेस्तस्माच्चाक्षुषोऽथ
विविंशतिः ॥ २४॥
विविंशतिसुतो रम्भः खनिनेत्रोऽस्य
धार्मिकः ।
करन्धमो महाराज तस्यासीदात्मजो नृप
॥ २५॥
तस्यावीक्षित्सुतो यस्य
मरुत्तश्चक्रवर्त्यभूत् ।
संवर्तोऽयाजयद्यं वै महायोग्यङ्गिरःसुतः
॥ २६॥
मरुत्तस्य यथा यज्ञो न तथान्न्यस्य
कश्चन ।
सर्वं हिरण्मयं
त्वासीद्यत्किञ्चिच्चास्य शोभनम् ॥ २७॥
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन
दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
मरुतः परिवेष्टारो विश्वेदेवाः
सभासदः ॥ २८॥
मरुत्तस्य दमः
पुत्रस्तस्यासीद्राज्यवर्धनः ।
सुधृतिस्तत्सुतो जज्ञे सौधृतेयो नरः
सुतः ॥ २९॥
तत्सुतः केवलस्तस्माद्बन्धुमान्
वेगवांस्ततः ।
बन्धुस्तस्याभवद्यस्य
तृणबिन्दुर्महीपतिः ॥ ३०॥
तं भेजेऽलम्बुषा देवी भजनीयगुणालयम्
।
वराप्सरा यतः पुत्राः कन्या
चेडविडाभवत् ॥ ३१॥
तस्यामुत्पादयामास विश्रवा धनदं
सुतम् ।
प्रादाय विद्यां
परमामृषिर्योगेश्वरात्पितुः ॥ ३२॥
विशालः शून्यबन्धुश्च धूम्रकेतुश्च
तत्सुताः ।
विशालो वंशकृद्राजा वैशालीं निर्ममे
पुरीम् ॥ ३३॥
हेमचन्द्रः सुतस्तस्य
धूम्राक्षस्तस्य चात्मजः ।
तत्पुत्रात्संयमादासीत्कृशाश्वः
सहदेवजः ॥ ३४॥
कृशाश्वात्सोमदत्तोऽभूद्योऽश्वमेधैरिडस्पतिम्
।
इष्ट्वा पुरुषमापाग्र्यां गतिं
योगेश्वराश्रितः ॥ ३५॥
सौमदत्तिस्तु सुमतिस्तत्सुतो
जनमेजयः ।
एते
वैशालभूपालास्तृणबिन्दोर्यशोधराः ॥ ३६॥
मनुपुत्र करूष से कारूष नामक
क्षत्रिय उत्पन्न हुए। वे बड़े ही ब्राह्मण भक्त, धर्मप्रेमी एवं उत्तरापथ के रक्षक थे। धृष्ट के धार्ष्ट नामक क्षत्रिय
हुए। अन्त में वे इस शरीर से ही ब्राह्मण बन गये। नृग का पुत्र हुआ सुमति, उसका पुत्र भूतज्योति और भूतज्योति का पुत्र वसु था। वसु का पुत्र प्रतीक
और प्रतीक का पुत्र ओघवान। ओघवान के पुत्र का नाम भी ओघवान ही था। उनके एक ओघवती
नाम की कन्या भी थी, जिसका विवाह सुदर्शन से हुआ। मनुपुत्र
नरिष्यन्त से चित्रसेन, उससे ऋक्ष, ऋक्ष
से मीढ्वान्, मीढ्वान् से कूर्च और उससे इन्द्रसेन की
उत्पत्ति हुई। इन्द्रसेन से वीतिहोत्र, उससे सत्यश्रवा,
सत्यश्रवा से ऊरूश्रवा और उससे देवदत्त की उत्पत्ति हुई। देवदत्त के
अग्निवेश्य नामक पुत्र हुए, जो स्वयं अग्नि देव ही थे। आगे
चलकर वे ही कानीन एवं महर्षि जातूकर्ण्य के नाम से विख्यात हुए।
परीक्षित! ब्राह्मणों का ‘आग्निवेश्यायन’ गोत्र उन्हीं से चला है। इस प्रकार
नरिष्यन्त के वंश का मैंने वर्णन किया, अब दिष्टि का वंश
सुनो। दिष्ट के पुत्र का नाम था नाभाग। यह उस नाभाग से अलग है, जिसका मैं आगे वर्णन करूँगा। वह अपने कर्म के कारण वैश्य हो गया। उसका
पुत्र हुआ भलन्दन और उसका वत्सप्रीति। वत्सप्रीति का प्रांशु और प्रांशु का पुत्र
हुआ प्रमति। प्रमति के खनित्र, खनित्र के चाक्षुष और उनके
विविंशति हुए। विविंशति के पुत्र रम्भ और रम्भ के पुत्र खनिनेत्र-दोनों ही परम
धार्मिक हुए। उनके पुत्र करन्धम और करन्धम के अवीक्षित्।
महाराज परीक्षित! अवीक्षित् के
पुत्र मरुत्त चक्रवर्ती राजा हुए। उनसे अंगिरा के पुत्र महायोगी संवर्त्त ऋषि ने
यज्ञ कराया था। मरुत्त का यज्ञ जैसा हुआ वैसा और किसी का नहीं हुआ। उस यज्ञ के
समस्त छोटे-बड़े पात्र अत्यन्त सुन्दर एवं सोने के बने हुए थे। उस यज्ञ में इन्द्र
सोमपान करके मतवाले हो गये थे और दक्षिणाओं से ब्राह्मण तृप्त हो गये थे। उसमें
परसने वाले थे मरुद्गण और विश्वेदेव सभासद् थे। मरुत्त के पुत्र का नाम था दम। दम
से राज्यवर्धन, उससे सुधृति और सुधृति से नर
नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई। नर से केवल, केवल से बन्धुमान्,
बन्धुमान् से वेगवान, वेगवान से बन्धु और
बन्धु से राजा तृणबिन्दु का जन्म हुआ।
तृणबिन्दु आदर्श गुणों के भण्डार
थे। अप्सराओं में श्रेष्ठ अलम्बुषा देवी ने उसको वरण किया,
जिससे उनके कई पुत्र और इडविडा नाम की कन्या उत्पन्न हुई। मुनिवर
विश्रवा ने अपने योगेश्वर पिता पुलस्त्य जी से उत्तम विद्या प्राप्त करके इडविडा
के गर्भ से लोकपाल कुबेर को पुत्ररूप में उत्पन्न किया। महाराज तृणबिन्दु के अपनी
धर्मपत्नी से तीन पुत्र हुए- विशाल, शून्यबिन्दु और
धूम्रकेतु। उनसे राजा विशाल वंशधर हुए और उन्होंने वैशाली नाम की नगरी बसायी।
विशाल से हेमचन्द्र, हेमचन्द्र से धूम्राक्ष, धूम्राक्ष से संयम और सयंम से दो पुत्र हुए-कृशाश्व और देवज। कृशाश्व के
पुत्र का नाम था सोमदत्त। उसने अश्वमेध यज्ञों के द्वारा यज्ञपति भगवान् की आराधना
की और योगेश्वर संतों का आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त की। सोमदत्त का पुत्र हुआ
सुमति और सुमति से जनमेजय। ये सब तृणबिन्दु की कीर्ति को बढ़ाने वाले विशालवंशी
राजा हुए।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
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