श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ३
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
३ "महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का
वंश"
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: तृतीय अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
३
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः ३
श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध
तीसरा अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
नवमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
श्रीशुक उवाच
शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठः स
बभूव ह ।
यो वा अङ्गिरसां सत्रे द्वितीयमह
ऊचिवान् ॥ १॥
सुकन्या नाम तस्यासीत्कन्या
कमललोचना ।
तया सार्धं वनगतो
ह्यगमच्च्यवनाश्रमम् ॥ २॥
सा सखीभिः परिवृता
विचिन्वन्त्यङ्घ्रिपान् वने ।
वल्मीकरन्ध्रे ददृशे खद्योते इव
ज्योतिषी ॥ ३॥
ते दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन
वै ।
अविध्यन्मुग्धभावेन सुस्रावासृक्
ततो बहु ॥ ४॥
शकृन्मूत्रनिरोधोऽभूत्सैनिकानां च
तत्क्षणात् ।
राजर्षिस्तमुपालक्ष्य पुरुषान्
विस्मितोऽब्रवीत् ॥ ५॥
अप्यभद्रं न युष्माभिर्भार्गवस्य
विचेष्टितम् ।
व्यक्तं केनापि नस्तस्य
कृतमाश्रमदूषणम् ॥ ६॥
सुकन्या प्राह पितरं भीता
किञ्चित्कृतं मया ।
द्वे ज्योतिषी अजानन्त्या
निर्भिन्ने कण्टकेन वै ॥ ७॥
दुहितुस्तद्वचः श्रुत्वा
शर्यातिर्जातसाध्वसः ।
मुनिं प्रसादयामास वल्मीकान्तर्हितं
शनैः ॥ ८॥
तदभिप्रायमाज्ञाय प्रादाद्दुहितरं
मुनेः ।
कृच्छ्रान्मुक्तस्तमामन्त्र्य पुरं
प्रायात्समाहितः ॥ ९॥
सुकन्या च्यवनं प्राप्य पतिं
परमकोपनम् ।
प्रीणयामास चित्तज्ञा
अप्रमत्तानुवृत्तिभिः ॥ १०॥
कस्यचित्त्वथ कालस्य
नासत्यावाश्रमागतौ ।
तौ पूजयित्वा प्रोवाच वयो मे
दत्तमीश्वरौ ॥ ११॥
ग्रहं ग्रहीष्ये सोमस्य यज्ञे
वामप्यसोमपोः ।
क्रियतां मे वयोरूपं प्रमदानां
यदीप्सितम् ॥ १२॥
बाढमित्यूचतुर्विप्रमभिनन्द्य
भिषक्तमौ ।
निमज्जतां भवानस्मिन् ह्रदे सिद्धविनिर्मिते
॥ १३॥
इत्युक्त्वा जरया ग्रस्तदेहो
धमनिसन्ततः ।
ह्रदं प्रवेशितोऽश्विभ्यां
वलीपलितविप्रियः ॥ १४॥
पुरुषास्त्रय उत्तस्थुरपीच्या
वनिताप्रियाः ।
पद्मस्रजः कुण्डलिनस्तुल्यरूपाः
सुवाससः ॥ १५॥
तान्निरीक्ष्य वरारोहा सरूपान्
सूर्यवर्चसः ।
अजानती पतिं साध्वी अश्विनौ शरणं
ययौ ॥ १६॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदों का निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अंगिरा गोत्र के ऋषियों के यज्ञ में दूसरे दिन का कर्म बतलाया था। उसकी एक कमललोचना कन्या थी। उसका नाम था सुकन्या।
एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्या के
साथ वन में घूमते-घूमते च्यवन ऋषि के आश्रम पर जा पहुँचे। सुकन्या अपनी सखियों के
साथ वन में घूम-घूमकर वृक्षों का सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थान पर देखा कि
बाँबी (दीमकों की एकत्रित की हुई मिट्टी) के छेद में से जुगनू की तरह दो ज्योतियाँ
दीख रहीं हैं। दैव की कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्या
ने बाल सुलभ चपलता से एक काँटे के द्वारा उन ज्योतियों को बेध दिया। इससे उनमें से
बहुत-सा खून बह चला। उसी समय राजा शर्याति के सैनिकों का मल-मूत्र रुक गया।
राजर्षि शर्याति को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने
सैनिकों से कहा- ‘अरे, तुम लोगों ने
कहीं महर्षि च्यवन जी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हम लोगों में से किसी-न-किसी ने उनके
आश्रम में कोई अनर्थ किया है।'
तब सुकन्या ने अपने पिता से
डरते-डरते कहा कि ‘पिता जी! मैंने कुछ
अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजान में दो ज्योतियों को काँटे से छेद दिया है’। अपनी कन्या की यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे
स्तुति करके बाँबी में छिपे हुए च्यवन मुनि को प्रसन्न किया। तदनन्तर च्यवन मुनि
का अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकट से छूटकर
बड़ी सावधानी से उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानी में चले आये। इधर सुकन्या
परमक्रोधी च्यवन मुनि को अपने पति के रूप में प्राप्त करके बड़ी सावधानी से उनकी
सेवा करती हुई उन्हें प्रसन्न करने लगी। वह उनकी मनोवृत्ति को जानकर उसके अनुसार
ही बर्ताव करती थी।
कुछ समय बीत जाने पर उनके आश्रम पर
दोनों अश्विनीकुमार आये। च्यवन मुनि ने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि ‘आप दोनों समर्थ हैं, इसलिये मुझे युवा-अवस्था प्रदान
कीजिये। मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती
स्त्रियाँ चाहती हैं। मैं जानता हूँ कि आप लोग सोमपान के अधिकारी नहीं हैं,
फिर भी मैं आपको यज्ञ में सोमरस का भाग दूँगा’।
वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारों ने
महर्षि च्यवन का अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक
है।’ और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह
सिद्धों के द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान
कीजिये’। च्यवन मुनि के शरीर को बुढ़ापे ने घेर रखा था। सब
ओर नसें दीख रही थीं, झुर्रियाँ पड़ जाने एवं बाल पक जाने के
कारण वे देखने में बहुत भद्दे लगते थे। अश्विनीकुमारों ने उन्हें अपने साथ लेकर
कुण्ड में प्रवेश किया। उसी समय कुण्ड से तीन पुरुष बाहर निकले। वे तीनों ही कमलों
की माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पहने एक-से मालूम होते थे।
वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियों को प्रिय लगने वाले थे। परमसाध्वी सुन्दरी
सुकन्या ने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृति के तथा सूर्य के समान तेजस्वी हैं,
तब अपने पति को न पहचानकर उसने अश्विनीकुमारों की शरण ली।
दर्शयित्वा पतिं तस्यै पातिव्रत्येन
तोषितौ ।
ऋषिमामन्त्र्य ययतुर्विमानेन
त्रिविष्टपम् ॥ १७॥
यक्ष्यमाणोऽथ
शर्यातिश्च्यवनस्याश्रमं गतः ।
ददर्श दुहितुः पार्श्वे पुरुषं
सूर्यवर्चसम् ॥ १८॥
राजा दुहितरं प्राह कृतपादाभिवन्दनाम्
।
आशिषश्चाप्रयुञ्जानो नातिप्रीतमना
इव ॥ १९॥
चिकीर्षितं ते किमिदं पतिस्त्वया
प्रलम्भितो लोकनमस्कृतो मुनिः ।
यत्त्वं जराग्रस्तमसत्यसम्मतं
विहाय जारं भजसेऽमुमध्वगम् ॥ २०॥
कथं मतिस्तेऽवगतान्यथा सतां
कुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम् ।
बिभर्षि जारं यदपत्रपा कुलं
पितुश्च भर्तुश्च नयस्यधस्तमः ॥ २१॥
एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना
शुचिस्मिता ।
उवाच तात जामाता तवैष भृगुनन्दनः ॥
२२॥
शशंस पित्रे तत्सर्वं
वयोरूपाभिलम्भनम् ।
विस्मितः परमप्रीतस्तनयां परिषस्वजे
॥ २३॥
सोमेन याजयन् वीरं ग्रहं सोमस्य
चाग्रहीत् ।
असोमपोरप्यश्विनोश्च्यवनः स्वेन
तेजसा ॥ २४॥
हन्तुं तमाददे वज्रं
सद्योमन्युरमर्षितः ।
सवज्रं स्तम्भयामास भुजमिन्द्रस्य
भार्गवः ॥ २५॥
अन्वजानंस्ततः सर्वे ग्रहं सोमस्य
चाश्विनोः ।
भिषजाविति यत्पूर्वं सोमाहुत्या
बहिष्कृतौ ॥ २६॥
उत्तानबर्हिरानर्तो भूरिषेण इति
त्रयः ।
शर्यातेरभवन् पुत्रा
आनर्ताद्रेवतोभवत् ॥ २७॥
सोऽन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय
कुशस्थलीम् ।
आस्थितोऽभुङ्क्त
विषयानानर्तादीनरिन्दम ॥ २८॥
तस्य पुत्रशतं जज्ञे
ककुद्मिज्येष्ठमुत्तमम् ।
ककुद्मी रेवतीं कन्यां स्वामादाय
विभुं गतः ॥ २९॥
कन्यावरं परिप्रष्टुं ब्रह्मलोकमपावृतम्
।
आवर्तमाने गान्धर्वे
स्थितोऽलब्धक्षणः क्षणम् ॥ ३०॥
तदन्त आद्यमानम्य स्वाभिप्रायं
न्यवेदयत् ।
तच्छ्रुत्वा भगवान् ब्रह्मा प्रहस्य
तमुवाच ह ॥ ३१॥
अहो राजन् निरुद्धास्ते कालेन हृदि
ये कृताः ।
तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां गोत्राणि च न
शृण्महे ॥ ३२॥
कालोऽभियातस्त्रिणवचतुर्युगविकल्पितः
।
तद्गच्छ देवदेवांशो बलदेवो महाबलः ॥
३३॥
कन्यारत्नमिदं राजन् नररत्नाय देहि
भोः ।
भुवो भारावताराय भगवान् भूतभावनः ॥
३४॥
अवतीर्णो निजांशेन
पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
इत्यादिष्टोऽभिवन्द्याजं नृपः
स्वपुरमागतः ।
त्यक्तं पुण्यजनत्रासाद्भ्रातृभिर्दिक्ष्ववस्थितैः
॥ ३५॥
सुतां दत्त्वानवद्याङ्गीं बलाय
बलशालिने ।
बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं
नारायणाश्रमम् ॥ ३६॥
उसके पातिव्रत्य से अश्विनीकुमार
बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पति को बतला दिया और फिर च्यवन मुनि से आज्ञा
लेकर विमान के द्वारा वे स्वर्ग को चले गये।
कुछ समय के बाद यज्ञ करने की इच्छा
से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रम पर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या
सुकन्या के पास एक सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है। सुकन्या ने उनके
चरणों की वन्दना की। शर्याति ने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न-से होकर
बोले- ‘दुष्टे! यह तूने क्या किया? क्या तूने सबके वन्दनीय
च्यवन मुनि को धोखा दे दिया? अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और
अपने काम का न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुष की सेवा कर रही है।
तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुल में हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई?
तेरा यह व्यवहार तो कुल में कलंक लगाने वाला है। अरे राम-राम! तू
निर्लज्ज होकर जार पुरुष की सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनों
के वंश को घोर नरक में ले जा रही है’।
राजा शर्याति के इस प्रकार कहने पर
पवित्र मुस्कान वाली सुकन्या ने मुसकराकर कहा- ‘पिताजी! ये आपके जमाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’। इसके बाद उसने अपने पिता से महर्षि च्यवन के यौवन और सौन्दर्य की
प्राप्ति का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित
हुए। उन्होंने बड़े प्रेम से अपनी पुत्री को गले से लगा लिया।
महर्षि च्यवन ने वीर शर्याति से
सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से
अश्विनीकुमारों को सोमपान कराया। इन्द्र बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये
उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढ़कर शर्याति को मारने के लिये वज्र उठाया। महर्षि
च्यवन ने वज्र के साथ उनके हाथ को वहीं स्तम्भित कर दिया। तब सब देवताओं ने
अश्विनीकुमारों को सोम का भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगों ने वैद्य होने के
कारण पहले अश्विनीकुमारों का सोमपान से बहिष्कार कर रखा था।
परीक्षित! शर्याति के तीन पुत्र थे-
उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्त से
रेवत हुए। महाराज! रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नाम की एक नगरी बसायी थी। उसी
में रहकर वे आनर्त आदि देशों का राज्य करते थे। उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे कुकुद्मी। कुकुद्मी अपनी कन्या रेवती को लेकर उसके
लिये वर पूछने के उद्देश्य से ब्रह्मा जी के पास गये। उस समय ब्रह्मलोक का रास्ता
ऐसे लोगों के लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोक में गाने-बजाने की धूम मची हुई थी।
बातचीत के लिये अवसर न मिलने के कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये। उत्सव के अन्त में
ब्रह्मा जी को नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर
भगवान् ब्रह्मा जी ने हँसकर उनसे कहा- ‘महाराज! तुमने अपने
मन में जिन लोगों के विषय में सोच रखा था, वे सब तो काल के
गाल में चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियों की तो
बात ही क्या है, गोत्रों के नाम भी नहीं सुनायी पड़ते। इस
बीच में सत्ताईस चतुर्युगी का समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान्
नारायण के अंशावतार महाबली बलदेव जी पृथ्वी पर विद्यमान हैं। राजन्! उन्हीं नररत्न
को यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदि का
श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है-वे ही प्राणियों के जीवन सर्वस्व भगवान् पृथ्वी का
भार उतारने के लिये अपने अंश से अवतीर्ण हुए हैं।’
राजा कुकुद्मी ने ब्रह्मा जी का यह
आदेश प्राप्त करके उनके चरणों की वन्दना की और अपने नगर में चले आये। उनके वंशजों
ने यक्षों के भय से वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे। राजा
कुकुद्मी ने अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री परमबलशाली बलराम जी को सौंप दी और स्वयं
तपस्या करने के लिये भगवान् नर-नारायण के आश्रम बदरीवन की ओर चल दिये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः
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