श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ४                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ४ "नाभाग और अम्बरीष की कथा"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ४                                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः ४                                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध चौथा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥

श्रीशुक उवाच

नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातरः कविम् ।

यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम् ॥ १॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मनुपुत्र नभग का पुत्र था नाभाग। जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयों ने अपने से छोटे किन्तु विद्वान् भाई को हिस्से में केवल पिता को ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपस में बाँट ली थी)।

भ्रातरोऽभाङ्क्त किं मह्यं भजाम पितरं तव ।

त्वां ममार्यास्तताभाङ्क्षुर्मा पुत्रक तदादृथाः ॥ २॥

उसने अपने भाइयों से पूछा- भाइयों! आप लोगों ने मुझे हिस्से में क्या दिया है?’ तब उन्होंने उत्तर दिया कि हम तुम्हारे हिस्से में पिताजी को ही तुम्हें देते हैं।उसने अपने पिता से जाकर कहा- पिताजी! मेरे बड़े भाइयों ने हिस्से में मेरे लिये आपको ही दिया है। पिता ने कहा ;- ‘बेटा! तुम उनकी बात न मानो।

इमे अङ्गिरसः सत्रमासतेऽद्य सुमेधसः ।

षष्ठं षष्ठमुपेत्याहः कवे मुह्यन्ति कर्मणि ॥ ३॥

तांस्त्वं शंसय सूक्ते द्वे वैश्वदेवे महात्मनः ।

ते स्वर्यन्तो धनं सत्रपरिशेषितमात्मनः ॥ ४॥

दास्यन्ति तेऽथ तान् गच्छ तथा स कृतवान् यथा ।

तस्मै दत्त्वा ययुः स्वर्गं ते सत्रपरिशेषितम् ॥ ५॥

तं कश्चित्स्वीकरिष्यन्तं पुरुषः कृष्णदर्शनः ।

उवाचोत्तरतोऽभ्येत्य ममेदं वास्तुकं वसु ॥ ६॥

देखो, ये बड़े बुद्धिमान् आंगिरस गोत्र के ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। परन्तु मेरे विद्वान् पुत्र! वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्म में भूल कर बैठते हैं। तुम उन महात्माओं के पास जाकर उन्हें वैश्वेदेव सम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञ से बचा हुआ अपना सारा धन तुमें दे देंगे। इसलिये अब तुम उन्हीं के पास चले जाओ।उसने अपने पिता के आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आंगिरस गोत्री ब्राह्मणों ने भी यज्ञ का बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्ग में चले गये।

जब नाभाग उस धन को लेने लगा, तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरुष आया। उसने कहा- इस यज्ञभूमि में जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है

ममेदमृषिभिर्दत्तमिति तर्हि स्म मानवः ।

स्यान्नौ ते पितरि प्रश्नः पृष्टवान् पितरं तथा ॥ ७॥

नाभाग ने कहा- ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है।इस पर उस पुरुष ने कहा- हमारे विवाद के विषय में तुम्हारे पिता से ही प्रश्न किया जाये।तब नाभाग ने जाकर पिता से पूछा।

यज्ञवास्तुगतं सर्वमुच्छिष्टमृषयः क्वचित् ।

चक्रुर्विभागं रुद्राय स देवः सर्वमर्हति ॥ ८॥

पिता ने कहा ;- ‘एक बार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में ऋषि लोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमि में जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्र देव का हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेव जी को ही मिलना चाहिये

नाभागस्तं प्रणम्याह तवेश किल वास्तुकम् ।

इत्याह मे पिता ब्रह्मञ्छिरसा त्वां प्रसादये ॥ ९॥

नाभाग ने जाकर उन काले रंग के पुरुष रुद्र-भगवान को प्रणाम किया और कहा कि प्रभो! यज्ञभूमि की सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है। भगवन्! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ

यत्ते पितावदद्धर्मं त्वं च सत्यं प्रभाषसे ।

ददामि ते मन्त्रदृशे ज्ञानं ब्रह्म सनातनम् ॥ १०॥

गृहाण द्रविणं दत्तं मत्सत्रे परिशेषितम् ।

इत्युक्त्वान्तर्हितो रुद्रो भगवान् सत्यवत्सलः ॥ ११॥

य एतत्संस्मरेत्प्रातः सायं च सुसमाहितः ।

कविर्भवति मन्त्रज्ञो गतिं चैव तथाऽऽत्मनः ॥ १२॥

नाभागादम्बरीषोऽभून्महाभागवतः कृती ।

नास्पृशद्ब्रह्मशापोऽपि यं न प्रतिहतः क्वचित् ॥ १३॥

तब भगवान रुद्र ने कहा- तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदों का अर्थ तो पहले से ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान देता हूँ। जहाँ यज्ञ में बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो।इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान शंकर अन्तर्धान हो गये।

जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्त से इस आख्यान का स्मरण करता है वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूप को भी जान लेता है। नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्म शाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीष का स्पर्श न कर सका।

राजोवाच

भगवन्छ्रोतुमिच्छामि राजर्षेस्तस्य धीमतः ।

न प्राभूद्यत्र निर्मुक्तो ब्रह्मदण्डो दुरत्ययः ॥ १४॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीष का चरित्र सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मण ने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया जो किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता; परन्तु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ सका।

श्रीशुक उवाच

अम्बरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम् ।

अव्ययां च श्रियं लब्ध्वा विभवं चातुलं भुवि ॥ १५॥

मेनेऽतिदुर्लभं पुंसां सर्वं तत्स्वप्नसंस्तुतम् ।

विद्वान् विभवनिर्वाणं तमो विशति यत्पुमान् ॥ १६॥

वासुदेवे भगवति तद्भक्तेषु च साधुषु ।

प्राप्तो भावं परं विश्वं येनेदं लोष्टवत्स्मृतम् ॥ १७॥

स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो-

र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।

करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु

श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥ १८॥

मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ

तद्भृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् ।

घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे

श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥ १९॥

पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे

शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने ।

कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया

यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥ २०॥

एवं सदा कर्मकलापमात्मनः

परेऽधियज्ञे भगवत्यधोक्षजे ।

सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां

तन्निष्ठविप्राभिहितः शशास ह ॥ २१॥

ईजेऽश्वमेधैरधियज्ञमीश्वरं

महाविभूत्योपचिताङ्गदक्षिणैः ।

ततैर्वसिष्ठासितगौतमादिभि-

र्धन्वन्यभिस्रोतमसौ सरस्वतीम् ॥ २२॥

यस्य क्रतुषु गीर्वाणैः सदस्या ऋत्विजो जनाः ।

तुल्यरूपाश्चानिमिषा व्यदृश्यन्त सुवाससः ॥ २३॥

स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैरमरप्रियः ।

शृण्वद्भिरुपगायद्भिरुत्तमश्लोकचेष्टितम् ॥ २४॥

समर्द्धयन्ति तान् कामाः स्वाराज्यपरिभाविताः ।

दुर्लभा नापि सिद्धानां मुकुन्दं हृदि पश्यतः ॥ २५॥

स इत्थं भक्तियोगेन तपोयुक्तेन पार्थिवः ।

स्वधर्मेण हरिं प्रीणन् सङ्गान् सर्वान् शनैर्जहौ ॥ २६॥

गृहेषु दारेषु सुतेषु बन्धुषु

द्विपोत्तमस्यन्दनवाजिवस्तुषु ।

अक्षय्यरत्नाभरणायुधादि-

ष्वनन्तकोशेष्वकरोदसन्मतिम् ॥ २७॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे। पृथ्वी के सातों द्वीपों, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उनको प्राप्त था। यद्यपि ये सब साधारण मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी वे इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर मनुष्य घोर नरक में जाता है, वह केवल चार दिन की चाँदनी है। उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है। भगवान् श्रीकृष्ण में और उनके प्रेमी साधुओं में उनका परम प्रेम था। उस प्रेम के प्राप्त हो जाने पर तो यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती हैं। उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द युगल में, वाणी को भगवद्गुणानुवर्णन में, हाथों को श्रीहरि-मन्दिर के मार्जन-सेचन में और अपने कानों को भगवान् अच्युत की मंगलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था। उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरों के दर्शनों में, अंग-संग भगवद्भक्तों के शरीर स्पर्श में, नासिका उनके चरणकमलों पर चढ़ी श्रीमती तुलसी के दिव्य गन्ध में और रसना (जिह्वा) को भगवान् के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसाद में संलग्न कर दिया था।

अम्बरीष के पैर भगवान् के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते। राजा अम्बरीष ने माला, चन्दन आदि भोग-सामग्री को भगवान् की सेवा में समर्पित कर दिया था। भोगने की इच्छा से नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्र कीर्ति भगवान् के निज-जनों में ही निवास करता है। इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान् के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे। उन्होंने धन्वनाम के निर्जल देश में सरस्वती नदी के प्रवाह के सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा महान् ऐश्वर्य के कारण सर्वांग परिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान् की आराधना की थी। उनके यज्ञों में देवताओं के साथ जब सदस्य और ऋत्विज बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूप के कारण देवताओं के समान दिखायी पड़ते थे। उनकी प्रजा महात्माओं के द्वारा गाये हुए भगवान् के उत्तम चरित्रों का किसी समय बड़े प्रेम से श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती।

इस प्रकार उनके राज्य के मनुष्य देवताओं के अत्यन्त प्यारे स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करते। वे अपने हृदय में अनन्त प्रेम का दान करने वाले श्रीहरि का नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगों को वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धों को भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके आत्मानन्द के सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं।

राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्या से युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्म के द्वारा भगवान् को प्रसन्न करने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग कर दिया। घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलों की चतुरंगिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होने वाले कोशों के सम्बन्ध में उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं।

तस्मा अदाद्धरिश्चक्रं प्रत्यनीकभयावहम् ।

एकान्तभक्तिभावेन प्रीतो भृत्याभिरक्षणम् ॥ २८॥

आरिराधयिषुः कृष्णं महिष्या तुल्यशीलया ।

युक्तः सांवत्सरं वीरो दधार द्वादशीव्रतम् ॥ २९॥

व्रतान्ते कार्तिके मासि त्रिरात्रं समुपोषितः ।

स्नातः कदाचित्कालिन्द्यां हरिं मधुवनेऽर्चयत् ॥ ३०॥

महाभिषेकविधिना सर्वोपस्करसम्पदा ।

अभिषिच्याम्बराकल्पैर्गन्धमाल्यार्हणादिभिः ॥ ३१॥

तद्गतान्तरभावेन पूजयामास केशवम् ।

ब्राह्मणांश्च महाभागान् सिद्धार्थानपि भक्तितः ॥ ३२॥

गवां रुक्मविषाणीनां रूप्याङ्घ्रीणां सुवाससाम् ।

पयःशीलवयोरूपवत्सोपस्करसम्पदाम् ॥ ३३॥

प्राहिणोत्साधुविप्रेभ्यो गृहेषु न्यर्बुदानि षट् ।

भोजयित्वा द्विजानग्रे स्वाद्वन्नं गुणवत्तमम् ॥ ३४॥

लब्धकामैरनुज्ञातः पारणायोपचक्रमे ।

तस्य तर्ह्यतिथिः साक्षाद्दुर्वासा भगवानभूत् ॥ ३५॥

तमानर्चातिथिं भूपः प्रत्युत्थानासनार्हणैः ।

ययाचेऽभ्यवहाराय पादमूलमुपागतः ॥ ३६॥

प्रतिनन्द्य स तद्याच्ञां कर्तुमावश्यकं गतः ।

निममज्ज बृहद्ध्यायन् कालिन्दीसलिले शुभे ॥ ३७॥

मुहूर्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति ।

चिन्तयामास धर्मज्ञो द्विजैस्तद्धर्मसङ्कटे ॥ ३८॥

ब्राह्मणातिक्रमे दोषो द्वादश्यां यदपारणे ।

यत्कृत्वा साधु मे भूयादधर्मो वा न मां स्पृशेत् ॥ ३९॥

अम्भसा केवलेनाथ करिष्ये व्रतपारणम् ।

प्राहुरब्भक्षणं विप्रा ह्यशितं नाशितं च तत् ॥ ४०॥

इत्यपः प्राश्य राजर्षिश्चिन्तयन् मनसाच्युतम् ।

प्रत्यचष्ट कुरुश्रेष्ठ द्विजागमनमेव सः ॥ ४१॥

दुर्वासा यमुनाकूलात्कृतावश्यक आगतः ।

राज्ञाभिनन्दितस्तस्य बुबुधे चेष्टितं धिया ॥ ४२॥

उनकी अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियों को भयभीत करने वाला एवं भगवद्भक्तों की रक्षा करने वाला है।

राजा अम्बरीष की पत्नी भी उन्हीं के समान धर्मशील, संसार से विरक्त एवं भक्ति परायण थीं। एक बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिये एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया। व्रत की समाप्ति होने पर कार्तिक महीने में उन्होंने तीन रात का उपवास किया और एक दिन यमुना जी में स्नान करके मधुवन में भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की। उन्होंने महाभिषेक की विधि से सब प्रकार की सामग्री और सम्पत्ति द्वारा भगवान् का अभिषेक किया और हृदय में तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला एवं अर्ध्य आदि के द्वारा उनकी पूजा की। यद्यपि महाभाग्यवान ब्राह्मणों को इस पूजा की कोई आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं-वे सिद्ध थे-तथापि राजा अम्बरीष ने भक्ति-भाव से उनका पूजन किया।

तत्पश्चात पहले ब्राह्मणों को स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लोगों के घर साठ करोड़ गौएँ सुसज्जित करके भेंज दीं। उन गौओं के सींग सुवर्ण से और खुर चाँदी से मढ़े हुए थे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिये गये थे। वे गौएँ बड़ी सुशील, छोटी अवस्था की, देखने में सुन्दर, बछड़े वाली और खूब दूध देने वाली थीं। उनके साथ दुहने की उपयुक्त सामग्री भी उन्होंने भेजवा दी थी।

जब ब्राह्मणों को सब कुछ मिल चुका, तब राजा ने उन लोगों से आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की। उसी समय शाप और वरदान देने में समर्थ स्वयं दुर्वासा जी भी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे। राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से अतिथि के रूप में आये हुए दुर्वासा जी की पूजा की। उनके चरणों में प्रणाम करके अम्बरीष ने भोजन के लिये प्रार्थना की। दुर्वासा जी ने अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे नदी तट पर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे।

इधर द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-संकट में पड़कर ब्राह्मणों के साथ परमार्थ किया। उन्होंने कहा- ब्राह्मण देवताओ! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना-दोनों ही दोष हैं। इसलिये इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये।'

तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा- ब्राह्मणो! श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिये इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ।' ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान् का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और परीक्षित! वे केवल दुर्वासा जी के आने की बाट देखने लगे। दुर्वासा जी आवश्यक कर्मों से निवृत्त होकर यमुना तट से लौट आये। जब राजा ने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया और तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है।

मन्युना प्रचलद्गात्रो भ्रुकुटीकुटिलाननः ।

बुभुक्षितश्च सुतरां कृताञ्जलिमभाषत ॥ ४३॥

अहो अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत ।

धर्मव्यतिक्रमं विष्णोरभक्तस्येशमानिनः ॥ ४४॥

यो मामतिथिमायातमातिथ्येन निमन्त्र्य च ।

अदत्त्वा भुक्तवांस्तस्य सद्यस्ते दर्शये फलम् ॥ ४५॥

एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोषविदीपितः ।

तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम् ॥ ४६॥

तामापतन्तीं ज्वलतीमसिहस्तां पदा भुवम् ।

वेपयन्तीं समुद्वीक्ष्य न चचाल पदान्नृपः ॥ ४७॥

प्राग्दिष्टं भृत्यरक्षायां पुरुषेण महात्मना ।

ददाह कृत्यां तां चक्रं क्रुद्धाहिमिव पावकः ॥ ४८॥

तदभिद्रवदुद्वीक्ष्य स्वप्रयासं च निष्फलम् ।

दुर्वासा दुद्रुवे भीतो दिक्षु प्राणपरीप्सया ॥ ४९॥

तमन्वधावद्भगवद्रथाङ्गं

दावाग्निरुद्धूतशिखो यथाहिम् ।

तथानुषक्तं मुनिरीक्षमाणो

गुहां विविक्षुः प्रससार मेरोः ॥ ५०॥

दिशो नभः क्ष्मां विवरान् समुद्रान्

लोकान् सपालांस्त्रिदिवं गतः सः ।

यतो यतो धावति तत्र तत्र

सुदर्शनं दुष्प्रसहं ददर्श ॥ ५१॥

अलब्धनाथः स यदा कुतश्चित्

सन्त्रस्तचित्तोऽरणमेषमाणः ।

देवं विरिञ्चं समगाद्विधात-

स्त्राह्यात्मयोनेऽजिततेजसो माम् ॥ ५२॥

उस समय दुर्वासा जी बहुत भूखे थे। इसलिये यह जानकर कि राजा ने पारण कर लिया है, वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे। भौंहों के चढ़ जाने से उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा- अहो! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है! यह धन के मद में मतवाला हो रहा है। भगवान् की भक्ति तो इसे छू तक नहीं गयी और यह अपने को बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्म का उल्लंघन करके बड़ा अन्याय किया है। देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इसने अतिथि-सत्कार करने के लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ

यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिये एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलयकाल की आग के समान दहक रही थी। वह आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरों की धमक से पृथ्वी काँप रही थी। परन्तु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे।

परमपुरुष परमात्मा ने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दुर्वासा जी की कृत्या को जलाकर राख का ढेर कर दिया। जब दुर्वासा जी ने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले। जैसे ऊँची-ऊँची लपटों वाला दावानल साँप के पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान का चक्र उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। जब दुर्वासा जी ने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वत की गुफा में प्रवेश करने के लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े।

दुर्वासा जी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्ग तक में गये; परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वही-वहीं उन्होंने असह्य तेज वाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा। जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला, तब तो वे और भी डर गये। अपने लिये त्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्मा जी के पास गये और बोले- ब्रह्मा जी! आप स्वयम्भू हैं। भगवान् के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये

ब्रह्मोवाच

स्थानं मदीयं सहविश्वमेत-

त्क्रीडावसाने द्विपरार्धसंज्ञे ।

भ्रूभङ्गमात्रेण हि सन्दिधक्षोः

कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति ॥ ५३॥

अहं भवो दक्षभृगुप्रधानाः

प्रजेशभूतेशसुरेशमुख्याः ।

सर्वे वयं यन्नियमं प्रपन्नाः

मूर्ध्न्यर्पितं लोकहितं वहामः ॥ ५४॥

प्रत्याख्यातो विरिञ्चेन विष्णुचक्रोपतापितः ।

दुर्वासाः शरणं यातः शर्वं कैलासवासिनम् ॥ ५५॥

ब्रह्मा जी ने कहा ;- ‘जब मेरी दो परार्ध की आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान् अपनी यह सृष्टि लीला समेटने लगेंगे और इस जगत् को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभंग मात्र से यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायेगा। मैं, शंकर जी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हम लोग संसार का हित करते हैं, (उनके भक्त के द्रोही को बचाने के लिये हम समर्थ नहीं हैं)

जब ब्रह्मा जी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान् के चक्र से संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान् शंकर की शरण में गये।

श्रीरुद्र उवाच

वयं न तात प्रभवाम भूम्नि

यस्मिन् परेऽन्येऽप्यजजीवकोशाः ।

भवन्ति काले न भवन्ति हीदृशाः

सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः ॥ ५६॥

अहं सनत्कुमारश्च नारदो भगवानजः ।

कपिलोऽपान्तरतमो देवलो धर्म आसुरिः ॥ ५७॥

मरीचिप्रमुखाश्चान्ये सिद्धेशाः पारदर्शनाः ।

विदाम न वयं सर्वे यन्मायां माययावृताः ॥ ५८॥

तस्य विश्वेश्वरस्येदं शस्त्रं दुर्विषहं हि नः ।

तमेवं शरणं याहि हरिस्ते शं विधास्यति ॥ ५९॥

ततो निराशो दुर्वासाः पदं भगवतो ययौ ।

वैकुण्ठाख्यं यदध्यास्ते श्रीनिवासः श्रिया सह ॥ ६०॥

सन्दह्यमानोऽजितशस्त्रवह्निना

तत्पादमूले पतितः सवेपथुः ।

आहाच्युतानन्त सदीप्सित प्रभो

कृतागसं माव हि विश्वभावन ॥ ६१॥

अजानता ते परमानुभावं

कृतं मयाघं भवतः प्रियाणाम् ।

विधेहि तस्यापचितिं विधात-

र्मुच्येत यन्नाम्न्युदिते नारकोऽपि ॥ ६२॥

श्रीमहादेव जी ने कहा ;- ‘दुर्वासा जी! जिन अनन्त परमेश्वर में ब्रह्मा-जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश, इस ब्रह्माण्ड के समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समय पर पैदा होते हैं और समय आने पर फिर उनका पता नहीं चलता, जिनमें हमारे-जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैं-उन प्रभु के सम्बन्ध में हम कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं रखते।

मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान ब्रह्मा, कपिल देव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दूसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वर-ये हम सभी भगवान की माया को नहीं जान सकते। क्योंकि हम उसी माया के घेरे में हैं। यह चक्र उन विश्वेश्वर का शस्त्र है। यह हम लोगों के लिये असह्य है। तुम उन्हीं की शरण में जाओ। वे भगवान ही तुम्हारा मंगल करेंगे

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा भगवान के परमधाम वैकुण्ठ में गये। लक्ष्मीपति भगवान लक्ष्मी के साथ वहीं निवास करते हैं। दुर्वासा जी भगवान के चक्र की आग से जल रहे थे। वे काँपते हुए भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा- हे अच्युत! हे अनन्त! आप संतों के एकमात्र वाञ्छनीय हैं। प्रभो! विश्व के जीवनदाता! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। आपका परमप्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है। प्रभो! आप मुझे उससे बचाइये। आपके तो नाम का ही उच्चारण करने से नारकी जीव भी मुक्त हो जाता है

श्रीभगवानुवाच

अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।

साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥ ६३॥

नाहमात्मानमाशासे मद्भक्तैः साधुभिर्विना ।

श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिरहं परा ॥ ६४॥

ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।

हित्वा मां शरणं याताः कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे ॥ ६५॥

मयि निर्बद्धहृदयाः साधवः समदर्शनाः ।

वशीकुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा ॥ ६६॥

मत्सेवया प्रतीतं च सालोक्यादिचतुष्टयम् ।

नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत्कालविद्रुतम् ॥ ६७॥

साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।

मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥ ६८॥

उपायं कथयिष्यामि तव विप्र शृणुष्व तत् ।

अयं ह्यात्माभिचारस्ते यतस्तं यातु वै भवान् ।

साधुषु प्रहितं तेजः प्रहर्तुः कुरुतेऽशिवम् ॥ ६९॥

तपो विद्या च विप्राणां निःश्रेयसकरे उभे ।

त एव दुर्विनीतस्य कल्पेते कर्तुरन्यथा ॥ ७०॥

ब्रह्मंस्तद्गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम् ।

क्षमापय महाभागं ततः शान्तिर्भविष्यति ॥ ७१॥

श्रीभगवान ने कहा ;- 'दुर्वासा जी! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे। ब्रह्मन्! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधु स्वभाव भक्तों को छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्द्धांगिनी विनाशरहित लक्ष्मी को। जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक-सब को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोड़ने का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ? जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्य से सदाचारी पति को वश में कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदय को प्रेम-बन्धन से बाँध रखने वाले समदर्शी साधु भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं। मेरे अनन्य प्रेमी भक्त सेवा से ही अपने को परिपूर्ण-कृतकृत्य मानते हैं। मेरी सेवा के फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समय के फेर से नष्ट हो जाने वाली वस्तुओं की तो बात ही क्या है।

दुर्वासा जी! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता।

दुर्वासा जी! सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में पड़ना पड़ा है, आप उसी के पास जाइये। निरपराध साधुओं के अनिष्ट की चेष्टा से अनिष्ट करने वाले का ही अमंगल होता है। इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परमकल्याण के साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाये तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं। दुर्वासा जी! आपका कल्याण हो। आप नाभागनन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीष के पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी।'

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे अम्बरीषचरिते चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः

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