श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १४                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १४ "चन्द्र वंश का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १४                                                               

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः १४

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध चौदहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ चतुर्दशोऽध्यायः - १४ ॥

श्रीशुक उवाच

अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः ।

यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः ॥ १॥

सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रदसरोरुहात् ।

जातस्यासीत्सुतो धातुरत्रिः पितृसमो गुणैः ॥ २॥

तस्य दृग्भ्योऽभवत्पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।

विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥ ३॥

सोऽयजद्राजसूयेन विजित्य भुवनत्रयम् ।

पत्नीं बृहस्पतेर्दर्पात्तारां नामाहरद्बलात् ॥ ४॥

यदा स देवगुरुणा याचितोऽभीक्ष्णशो मदात् ।

नात्यजत्तत्कृते जज्ञे सुरदानवविग्रहः ॥ ५॥

शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषादग्रहीत्सासुरोडुपम् ।

हरो गुरुसुतं स्नेहात्सर्वभूतगणावृतः ॥ ६॥

सर्वदेवगणोपेतो महेन्द्रो गुरुमन्वयात् ।

सुरासुरविनाशोऽभूत्समरस्तारकामयः ॥ ७॥

निवेदितोऽथाङ्गिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत् ।

तारां स्वभर्त्रे प्रायच्छदन्तर्वत्नीमवैत्पतिः ॥ ८॥

त्यज त्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रादाहितं परैः ।

नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सान्तानिकः सति ॥ ९॥

तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम् ।

स्पृहामाङ्गिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च ॥ १०॥

ममायं न तवेत्युच्चैस्तस्मिन् विवदमानयोः ।

पप्रच्छुरृषयो देवा नैवोचे व्रीडिता तु सा ॥ ११॥

कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया ।

किं न वोचस्यसद्वृत्ते आत्मावद्यं वदाशु मे ॥ १२॥

ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सान्त्वयन् ।

सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत् ॥ १३॥

तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप ।

बुद्ध्या गम्भीरया येन पुत्रेणापोडुराण्मुदम् ॥ १४॥

ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः ।

तस्य रूपगुणौदार्यशीलद्रविणविक्रमान् ॥ १५॥

श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान् सुरर्षिणा ।

तदन्तिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता ॥ १६॥

मित्रावरुणयोः शापादापन्ना नरलोकताम् ।

निशम्य पुरुषश्रेष्ठं कन्दर्पमिव रूपिणम् ।

धृतिं विष्टभ्य ललना उपतस्थे तदन्तिके ॥ १७॥

स तां विलोक्य नृपतिर्हर्षेणोत्फुल्ललोचनः ।

उवाच श्लक्ष्णया वाचा देवीं हृष्टतनूरुहः ॥ १८॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब मैं तुम्हें चन्द्रमा के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंश में पुरुरवा आदि बड़े-बड़े पवित्र कीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है।

सहस्रों सिर वाले विराट् पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानवों में घोर संग्राम छिड़ गया।

शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।

तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही। अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाये। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि यह किसका लड़का है।परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा- दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि चन्द्रमा का।इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया।

परीक्षित! ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रखा बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।

एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरुरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरुरवा के पास चली आयी।

यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्यु लोक में आना पड़ा था, फिर भी पुरुष शिरोमणि पुरुरवा मूर्तिमान् कामदेव के समान सुन्दर हैं-यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी। देवांगना उर्वशी को देखकर राजा पुरुरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। उनके शरीर में रोमांच हो आया। उन्होंने बड़ी मीठी वाणी से कहा-

राजोवाच

स्वागतं ते वरारोहे आस्यतां करवाम किम् ।

संरमस्व मया साकं रतिर्नौ शाश्वतीः समाः ॥ १९॥

राजा पुरुरवा ने कहा ;- 'सुन्दरी! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार, अनन्त काल तक चलता रहे।'

उर्वश्युवाच

कस्यास्त्वयि न सज्जेत मनो दृष्टिश्च सुन्दर ।

यदङ्गान्तरमासाद्य च्यवते ह रिरंसया ॥ २०॥

एतावुरणकौ राजन् न्यासौ रक्षस्व मानद ।

संरंस्ये भवता साकं श्लाघ्यः स्त्रीणां वरः स्मृतः ॥ २१॥

घृतं मे वीर भक्ष्यं स्यान्नेक्षे त्वान्यत्र मैथुनात् ।

विवाससं तत्तथेति प्रतिपेदे महामनाः ॥ २२॥

अहो रूपमहो भावो नरलोकविमोहनम् ।

को न सेवेत मनुजो देवीं त्वां स्वयमागताम् ॥ २३॥

तया स पुरुषश्रेष्ठो रमयन्त्या यथार्हतः ।

रेमे सुरविहारेषु कामं चैत्ररथादिषु ॥ २४॥

रममाणस्तया देव्या पद्मकिञ्जल्कगन्धया ।

तन्मुखामोदमुषितो मुमुदेऽहर्गणान् बहून् ॥ २५॥

अपश्यन्नुर्वशीमिन्द्रो गन्धर्वान् समचोदयत् ।

उर्वशीरहितं मह्यमास्थानं नातिशोभते ॥ २६॥

ते उपेत्य महारात्रे तमसि प्रत्युपस्थिते ।

उर्वश्या उरणौ जह्रुर्न्यस्तौ राजनि जायया ॥ २७॥

निशम्याक्रन्दितं देवी पुत्रयोर्नीयमानयोः ।

हतास्म्यहं कुनाथेन नपुंसा वीरमानिना ॥ २८॥

यद्विश्रम्भादहं नष्टा हृतापत्या च दस्युभिः ।

यः शेते निशि सन्त्रस्तो यथा नारी दिवा पुमान् ॥ २९॥

इति वाक्सायकैर्विद्धः प्रतोत्त्रैरिव कुञ्जरः ।

निशि निस्त्रिंशमादाय विवस्त्रोऽभ्यद्रवद्रुषा ॥ ३०॥

उर्वशी ने कहा ;- ‘राजन्! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान् स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आप में आसक्त न हो जाये? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है। राजन! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अतः मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहर के रूप में भेंड़ के दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना। वीरशिरोमणे! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।

परममनस्वी पुरुरवा ने ठीक है’-ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली और फिर उर्वशी से कहा- तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्य सृष्टि को मोहित करने वाला है। और देवि! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा?'

परीक्षित! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुषश्रेष्ठ पुरुरवा के साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे। देवी उर्वशी के शरीर से कमल-केसर की-सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरुरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे।

इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे लाने के लिये भेजा और कहा- उर्वशी के बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है। वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने। उर्वशी ने जब गन्धर्वों द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र समान प्यारे भेड़ों की बें-बेंसुनी, तब वह कह उठी कि अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नपुंसक अपने को बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ों को भी न बचा सका। इसी पर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता है, और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है

परीक्षित! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया। राजा पुरुरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े।

ते विसृज्योरणौ तत्र व्यद्योतन्त स्म विद्युतः ।

आदाय मेषावायान्तं नग्नमैक्षत सा पतिम् ॥ ३१॥

ऐलोऽपि शयने जायामपश्यन् विमना इव ।

तच्चित्तो विह्वलः शोचन् बभ्रामोन्मत्तवन्महीम् ॥ ३२॥

स तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखीः ।

पञ्च प्रहृष्टवदनाः प्राह सूक्तं पुरूरवाः ॥ ३३॥

अहो जाये तिष्ठ तिष्ठ घोरे न त्यक्तुमर्हसि ।

मां त्वमद्याप्यनिर्वृत्य वचांसि कृणवावहै ॥ ३४॥

सुदेहोऽयं पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया ।

खादन्त्येनं वृका गृध्रास्त्वत्प्रसादस्य नास्पदम् ॥ ३५॥

गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमकने लगे। जब राजा पुरुरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी)।

परीक्षित! राजा पुरुरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे।

एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा ;- ‘प्रिये! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें। देवि! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसी से तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अतः मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा जायेंगे

उर्वश्युवाच

मा मृथाः पुरुषोऽसि त्वं मा स्म त्वाद्युर्वृका इमे ।

क्वापि सख्यं न वै स्त्रीणां वृकाणां हृदयं यथा ॥ ३६॥

स्त्रियो ह्यकरुणाः क्रूरा दुर्मर्षाः प्रियसाहसाः ।

घ्नन्त्यल्पार्थेऽपि विश्रब्धं पतिं भ्रातरमप्युत ॥ ३७॥

विधायालीकविश्रम्भमज्ञेषु त्यक्तसौहृदाः ।

नवं नवमभीप्सन्त्यः पुंश्चल्यः स्वैरवृत्तयः ॥ ३८॥

संवत्सरान्ते हि भवानेकरात्रं मयेश्वर ।

वत्स्यत्यपत्यानि च ते भविष्यन्त्यपराणि भोः ॥ ३९॥

अन्तर्वत्नीमुपालक्ष्य देवीं स प्रययौ पुरम् ।

पुनस्तत्र गतोऽब्दान्ते उर्वशीं वीरमातरम् ॥ ४०॥

उपलभ्य मुदा युक्तः समुवास तया निशाम् ।

अथैनमुर्वशी प्राह कृपणं विरहातुरम् ॥ ४१॥

गन्धर्वानुपधावेमांस्तुभ्यं दास्यन्ति मामिति ।

तस्य संस्तुवतस्तुष्टा अग्निस्थालीं ददुर्नृप ।

उर्वशीं मन्यमानस्तां सोऽबुध्यत चरन् वने ॥ ४२॥

स्थालीं न्यस्य वने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि ।

त्रेतायां सम्प्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत ॥ ४३॥

उर्वशी ने कहा ;- राजन! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायें। स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियों का हृदय और भेड़ियों का हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है। स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहस के काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं। इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाट से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्ष के बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी।

राजा पुरुरवा ने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी लौट आये। एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये। तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी। उर्वशी के मिलने से पुरुरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसी के साथ रहे। प्रातःकाल जब वे विदा होने लगे, तब विरह के दुःख से वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशी ने उनसे कहा- तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं।' तब राजा पुरुरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की।

परीक्षित! राजा पुरुरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करने का पात्र) दी। राजा ने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदय से लगाकर वे एक वन से दूसरे वन में घूमते रहे। जब उन्हें होश आया, तब वे स्थाली को वन में छोड़कर अपने महल लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेता युग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए।

स्थालीस्थानं गतोऽश्वत्थं शमीगर्भं विलक्ष्य सः ।

तेन द्वे अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया ॥ ४४॥

उर्वशीं मन्त्रतो ध्यायन्नधरारणिमुत्तराम् ।

आत्मानमुभयोर्मध्ये यत्तत्प्रव्रजनं प्रभुः ॥ ४५॥

तस्य निर्मन्थनाज्जातो जातवेदा विभावसुः ।

त्रय्या स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितस्त्रिवृत् ॥ ४६॥

तेनायजत यज्ञेशं भगवन्तमधोक्षजम् ।

उर्वशीलोकमन्विच्छन् सर्वदेवमयं हरिम् ॥ ४७॥

एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्ववाङ्मयः ।

देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८॥

पुरूरवस एवासीत्त्रयी त्रेतामुखे नृप ।

अग्निना प्रजया राजा लोकं गान्धर्वमेयिवान् ॥ ४९॥

फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थन काष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशी लोक की कामना से नीचे की अरणि को उर्वशी, ऊपर की अरणि को पुरुरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करने वाले मन्त्रों से मन्थन किया।

उनके मन्थन से जातवेदानाम की अग्नि प्रकट हुई। राजा पुरुरवा ने अग्नि देवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि-इन तीनों भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया। फिर उर्वशी लोक की इच्छा से पुरुरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया।

परीक्षित! त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक हंसही था।

परीक्षित! त्रेता के प्रारम्भ में पुरुरवा से ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरुरवा ने अग्नि को सन्तान रूप से स्वीकार करके गन्धर्व लोक की प्राप्ति की।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे ऐलोपाख्याने चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्यायः

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