श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १३                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १३ "राजा निमि के वंश का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १३                                                               

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः १३

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध तेरहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ त्रयोदशोऽध्यायः - १३ ॥

श्रीशुक उवाच

निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठमवृतर्त्विजम् ।

आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः ॥ १॥

तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय ।

तूष्णीमासीद्गृहपतिः सोऽपीन्द्रस्याकरोन्मखम् ॥ २॥

निमिश्चलमिदं विद्वान् सत्रमारभतात्मवान् ।

ऋत्विग्भिरपरैस्तावन्नागमद्यावता गुरुः ॥ ३॥

शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य निर्वर्त्य गुरुरागतः ।

अशपत्पतताद्देहो निमेः पण्डितमानिनः ॥ ४॥

निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने ।

तवापि पतताद्देहो लोभाद्धर्ममजानतः ॥ ५॥

इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः ।

मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः ॥ ६॥

गन्धवस्तुषु तद्देहं निधाय मुनिसत्तमाः ।

समाप्ते सत्रयागेऽथ देवानूचुः समागतान् ॥ ७॥

राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि ।

तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबन्धनम् ॥ ८॥

यस्य योगं न वाञ्छन्ति वियोगभयकातराः ।

भजन्ति चरणाम्भोजं मुनयो हरिमेधसः ॥ ९॥

देहं नावरुरुत्सेऽहं दुःखशोकभयावहम् ।

सर्वत्रास्य यतो मृत्युर्मत्स्यानामुदके यथा ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठ को ऋत्विज के रूप में वरण किया। वसिष्ठ जी ने कहा कि राजन! इन्द्र अपने यज्ञ के लिये मुझे पहले ही वरण कर चुके हैं। उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तब तक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।यह बात सुनकर राजा निमि चुप ही रहे और वसिष्ठ जी इन्द्र का यज्ञ कराने चले गये।

विचारवान निमि ने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभंगुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जब तक गुरु वसिष्ठ जी न लौटें, तब तक के लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजों को वरण कर लिया। गुरु वसिष्ठ जी जब इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करके लौटे तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमि ने उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि निमि को अपनी विचारशीलता और पांडित्य का बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाये

निमि की दृष्टि में गुरु वसिष्ठ का यह शाप धर्म के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था। इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि आपने लोभवश अपने धर्म का आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाये। यह कहकर आत्मविद्या में निपुण निमि ने अपने शरीर का त्याग कर दिया।

परीक्षित! इधर हमारे वृद्ध पितामह वसिष्ठ जी ने भी अपना शरीर त्यागकर मित्रावरुण के द्वारा उर्वशी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया। राजा निमि के यज्ञ में आये हुए श्रेष्ठ मुनियों ने राजा के शरीर को सुगन्धित वस्तुओं में रख दिया। जब सत्रयाग की समाप्ति हुई और देवता लोग आये, तब उन लोगों ने उनसे प्रार्थना की- महानुभावों! आप लोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमि का यह शरीर पुनः जीवित हो उठे।देवताओं ने कहा- ऐसा ही हो।उस समय निमि ने कहा- मुझे देह का बन्धन नहीं चाहिये। विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धि को पूर्ण रूप से श्रीभगवान् में ही लगा देते हैं और उन्हीं के चरणकमलों का भजन करते हैं। एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा-इस भय से भीत होने के कारण वे इस शरीर का कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं। अतः मैं अब दुःख, शोक और भय के मूल कारण इस शरीर को धारण करना नहीं चाहता। जैसे जल में मछली के लिये सर्वत्र ही मृत्यु के अवसर हैं, वैसे ही इस शरीर के लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है

देवा ऊचुः

विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम् ।

उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः ॥ ११॥

अराजकभयं नॄणां मन्यमाना महर्षयः ।

देहं ममन्थुः स्म निमेः कुमारः समजायत ॥ १२॥

जन्मना जनकः सोऽभूद्वैदेहस्तु विदेहजः ।

मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता ॥ १३॥

तस्मादुदावसुस्तस्य पुत्रोऽभून्नन्दिवर्धनः ।

ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते ॥ १४॥

तस्माद्बृहद्रथस्तस्य महावीर्यः सुधृत्पिता ।

सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वै हर्यश्वोऽथ मरुस्ततः ॥ १५॥

मरोः प्रतीपकस्तस्माज्जातः कृतरथो यतः ।

देवमीढस्तस्य पुत्रो विश्रुतोऽथ महाधृतिः ॥ १६॥

कृतिरातस्ततस्तस्मान्महारोमाथ तत्सुतः ।

स्वर्णरोमा सुतस्तस्य ह्रस्वरोमा व्यजायत ॥ १७॥

ततः सीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थं कर्षतो महीम् ।

सीता सीराग्रतो जाता तस्मात्सीरध्वजः स्मृतः ॥ १८॥

कुशध्वजस्तस्य पुत्रस्ततो धर्मध्वजो नृपः ।

धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौ कृतध्वजमितध्वजौ ॥ १९॥

कृतध्वजात्केशिध्वजः खाण्डिक्यस्तु मितध्वजात् ।

कृतध्वजसुतो राजन्नात्मविद्याविशारदः ॥ २०॥

खाण्डिक्यः कर्मतत्त्वज्ञो भीतः केशिध्वजाद्द्रुतः ।

भानुमांस्तस्य पुत्रोऽभूच्छतद्युम्नस्तु तत्सुतः ॥ २१॥

शुचिस्तत्तनयस्तस्मात्सनद्वाजस्ततोऽभवत् ।

ऊर्ध्वकेतुः सनद्वाजादजोऽथ पुरुजित्सुतः ॥ २२॥

अरिष्टनेमिस्तस्यापि श्रुतायुस्तत्सुपार्श्वकः ।

ततश्चित्ररथो यस्य क्षेमधिर्मिथिलाधिपः ॥ २३॥

तस्मात्समरथस्तस्य सुतः सत्यरथस्ततः ।

आसीदुपगुरुस्तस्मादुपगुप्तोऽग्निसम्भवः ॥ २४॥

वस्वनन्तोऽथ तत्पुत्रो युयुधो यत्सुभाषणः ।

श्रुतस्ततो जयस्तस्माद्विजयोऽस्मादृतः सुतः ॥ २५॥

शुनकस्तत्सुतो जज्ञे वीतहव्यो धृतिस्ततः ।

बहुलाश्वो धृतेस्तस्य कृतिरस्य महावशी ॥ २६॥

एते वै मैथिला राजन्नात्मविद्याविशारदाः ।

योगेश्वरप्रसादेन द्वन्द्वैर्मुक्ता गृहेष्वपि ॥ २७॥

देवताओं ने कहा ;- ‘मुनियों! राजा निमि बिना शरीर के ही प्राणियों के नेत्रों में अपनी इच्छा के अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्म शरीर से भगवान का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरने पर उनके अस्तित्व का पता चलता रहेगा। इसके बाद महर्षियों ने यह सोचकर कि राजा के न रहने पर लोगों में अराजकता फैल जायेगीनिमि के शरीर का मन्थन किया। उस मन्थन से एक कुमार उत्पन्न हुआ। जन्म लेने के कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेह से उत्पन्न होने के कारण विदेहऔर मन्थन से उत्पन्न होने के कारण उसी बालक का नाम मिथिलहुआ। उसी ने मिथिलापुरी बसायी।

परीक्षित! जनक का उदावसु, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धन का सुकेतु, उसका देवरात, देवरात का बृहद्रथ, बृहद्रथ का महावीर्य, महावीर्य का सुधृति, सुधृति का धृष्टकेतु, धृष्टकेतु का हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ। मरु से प्रतीपक, प्रतीपक से कृतिरथ, कृतिरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत और विश्रुत से महाधृति का जन्म हुआ। महाधृति का कृतिराज, कृतिराज का महारोमा, महारोमा का स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा का पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा। इसी ह्रस्वरोमा के पुत्र महाराज सीरध्वज थे। वे जब यज्ञ के लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाव (फाल) से सीता जी की उत्पत्ति हुई। इसी से उनका नाम सीरध्वजपड़ा।

सीरध्वज के कुशध्वज, कुशध्वज के धर्मध्वज और धर्मध्वज के दो पुत्र हुए-कृतध्वज और मितध्वज। कृतध्वज के केशिध्वज और मितध्वज के खाण्डिक्य हुए। परीक्षित! केशिध्व्ज आत्मविद्या में बड़ा प्रवीण था। खाण्डिक्य था कर्मकाण्ड का मर्मज्ञ। वह केशिध्वज से भयभीत होकर भाग गया। केशिध्वज का पुत्र भानुमान और भानुमान का शतद्युम्न था। शतद्युम्न से शुचि, शुचि से सनद्वाज, सनद्वाज से ऊर्ध्वकेतु, ऊर्ध्वकेतु से अज, अज से पुरुजित, पुरुजित् से अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमि से श्रुतायु, श्रुतायु से सुपार्श्वक, सुपार्श्वक से चित्ररथ और चित्ररथ से मिथिलापति क्षेमधि का जन्म हुआ। क्षेमधि से समरथ, समरथ से सत्यरथ, सत्यरथ से उपगुरु और उपगुरु से उपगुप्त नामक पुत्र हुआ। यह अग्नि का अंश था। उपगुप्त का वस्वनन्त, वस्वनन्त का युयुध, युयुध का सुभाषण, सुभाषण का श्रुत, श्रुत का जय, जय का विजय और विजय का ऋत नामक पुत्र हुआ। ऋत का शुनक, शुनक का वीतहव्य, वीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाश्व, बहुलाश्व का कृति और कृति का पुत्र हुआ महावशी।

परीक्षित! ये मिथिल के वंश में उत्पन्न सभी नरपति मैथिलकहलाते हैं। ये सब-के-सब आत्मज्ञान से सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से मुक्त थे। क्यों न हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरों की इन पर महान कृपा जो थी।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे निमिवंशानुवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box