श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ८                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ८ "सगर-चरित्र"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ८                                                           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः ८                                                              

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध आठवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टमोऽध्यायः - ८ ॥

श्रीशुक उवाच

हरितो रोहितसुतश्चम्पस्तस्माद्विनिर्मिता ।

चम्पापुरी सुदेवोऽतो विजयो यस्य चात्मजः ॥ १॥

भरुकस्तत्सुतस्तस्माद्वृकस्तस्यापि बाहुकः ।

सोऽरिभिर्हृतभू राजा सभार्यो वनमाविशत् ॥ २॥

वृद्धं तं पञ्चतां प्राप्तं महिष्यनुमरिष्यती ।

और्वेण जानताऽऽत्मानं प्रजावन्तं निवारिता ॥ ३॥

आज्ञायास्यै सपत्नीभिर्गरो दत्तोऽन्धसा सह ।

सह तेनैव सञ्जातः सगराख्यो महायशाः ॥ ४॥

सगरश्चक्रवर्त्यासीत्सागरो यत्सुतैः कृतः ।

यस्तालजङ्घान् यवनाञ्छकान् हैहयबर्बरान् ॥ ५॥

नावधीद्गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः ।

मुण्डान् श्मश्रुधरान् कांश्चिन्मुक्तकेशार्धमुण्डितान् ॥ ६॥

अनन्तर्वाससः कांश्चिदबहिर्वाससोऽपरान् ।

सोऽश्वमेधैरयजत सर्ववेदसुरात्मकम् ॥ ७॥

और्वोपदिष्टयोगेन हरिमात्मानमीश्वरम् ।

तस्योत्सृष्टं पशुं यज्ञे जहाराश्वं पुरन्दरः ॥ ८॥

सुमत्यास्तनया दृप्ताः पितुरादेशकारिणः ।

हयमन्वेषमाणास्ते समन्तान्न्यखनन् महीम् ॥ ९॥

प्रागुदीच्यां दिशि हयं ददृशुः कपिलान्तिके ।

एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलितलोचनः ॥ १०॥

हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टिसहस्रिणः ।

उदायुधा अभिययुरुन्मिमेष तदा मुनिः ॥ ११॥

स्वशरीराग्निना तावन्महेन्द्रहृतचेतसः ।

महद्व्यतिक्रमहता भस्मसादभवन् क्षणात् ॥ १२॥

न साधुवादो मुनिकोपभर्जिता

नृपेन्द्रपुत्रा इति सत्त्वधामनि ।

कथं तमो रोषमयं विभाव्यते

जगत्पवित्रात्मनि खे रजो भुवः ॥ १३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- रोहित का पुत्र था हरित। हरित से चम्प हुआ। उसी ने चम्पापुरी बसायी। चम्प से सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ। विजय का भरुक, भरुक का वृक और वृक का पुत्र हुआ बाहुक। शत्रुओं ने बाहुक से राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया। वन में जाने पर बुढ़ापे के कारण जब बाहुक की मृत्यु हो गयी, तब उसकी पत्नी भी उसके साथ सती होने को उद्यत हुई। परन्तु महर्षि और्व को यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होने से रोक दिया। जब उसकी सौतों को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उसे भोजन के साथ गर (विष) दे दिया। परन्तु गर्भ पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विष को लिये हुए ही एक बालक का जन्म हुआ, जो गर के साथ पैदा होने के कारण सगरकहलाया। सगर बड़े यशस्वी राजा हुए।

सगर चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्हीं के पुत्रों ने पृथ्वी खोदकर समुद्र बना दिया था। सगर ने अपने गुरुदेव और्व की आज्ञा मानकर तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जाति के लोगों का वध नहीं किया, बल्कि उन्हें विरूप बना दिया। उनमें से कुछ के सिर मुड़वा दिये, कुछ के मूँछ-दाढ़ी रखवा दी, कुछ को खुले बालों वाला बना दिया और कुछ को आधा मुँड़वा दिया। कुछ लोगों को सगर ने केवल वस्त्र ओढ़ने की ही आज्ञा दी, पहनने की नहीं। और कुछ को केवल लँगोटी पहनने को ही कहा, ओढ़ने को नहीं। इसके बाद राजा सगर ने और्व ऋषि के उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञ के द्वारा सपूर्ण वेद एवं देवतामय, आत्मस्वरूप, सर्वशक्तिमान भगवान की आराधना की। उसके यज्ञ में जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इन्द्र ने चुरा लिया। उस समय महारानी सुमति के गर्भ से उत्पन्न सगर के पुत्रों ने अपने पिता के आज्ञानुसार घोड़े के लिये सारी पृथ्वी छान डाली। जब उन्हें कहीं घोड़ा न मिला, तब उन्होंने बड़े घमण्ड से सब ओर से पृथ्वी को खोद डाला। खोदते-खोदते उन्हें पूर्व और उत्तर के कोने पर कपिल मुनि के पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़े को देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि यही हमारे घोड़े को चुराने वाला चोर है। देखो तो सही, इसने इस समय कैसे आँखें मूँद रखी हैं! यह पापी है। इसको मार डालो, मार डालो!

उसी समय कपिल मुनि ने अपनी पलकें खोलीं। इन्द्र ने राजकुमारों की बुद्धि हर ली थी, इसी से उन्होंने कपिल मुनि जैसे महापुरुष का तिरस्कार किया। इस तिरस्कार के फलस्वरूप उनके शरीर में ही आग जल उठी, जिससे क्षण भर में ही वे सब-के-सब जलकर खाक हो गये।

परीक्षित! सगर के लड़के कपिल मुनि के क्रोध से जल गये, ऐसा कहना उचित नहीं है। वे तो शुद्ध सत्त्वगुण के परम आश्रय हैं। उनका शरीर तो जगत् को पवित्र करता रहता है। उनमें भला क्रोधरूप तमोगुण की सम्भावना कैसे की जा सकती है। भला, कहीं पृथ्वी की धूल का भी आकाश से सम्बन्ध होता है?

यस्येरिता साङ्ख्यमयी दृढेह नौ-

र्यया मुमुक्षुस्तरते दुरत्ययम् ।

भवार्णवं मृत्युपथं विपश्चितः

परात्मभूतस्य कथं पृथङ्मतिः ॥ १४॥

योऽसमञ्जस इत्युक्तः स केशिन्या नृपात्मजः ।

तस्य पुत्रोंऽशुमान् नाम पितामहहिते रतः ॥ १५॥

असमञ्जस आत्मानं दर्शयन्नसमञ्जसम् ।

जातिस्मरः पुरा सङ्गाद्योगी योगाद्विचालितः ॥ १६॥

आचरन् गर्हितं लोके ज्ञातीनां कर्म विप्रियम् ।

सरय्वां क्रीडतो बालान् प्रास्यदुद्वेजयन् जनम् ॥ १७॥

एवंवृत्तः परित्यक्तः पित्रा स्नेहमपोह्य वै ।

योगैश्वर्येण बालांस्तान् दर्शयित्वा ततो ययौ ॥ १८॥

अयोध्यावासिनः सर्वे बालकान् पुनरागतान् ।

दृष्ट्वा विसिस्मिरे राजन् राजा चाप्यन्वतप्यत ॥ १९॥

अंशुमांश्चोदितो राज्ञा तुरङ्गान्वेषणे ययौ ।

पितृव्यखातानुपथं भस्मान्ति ददृशे हयम् ॥ २०॥

तत्रासीनं मुनिं वीक्ष्य कपिलाख्यमधोक्षजम् ।

अस्तौत्समाहितमनाः प्राञ्जलिः प्रणतो महान् ॥ २१॥

यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। परन्तु कपिल मुनि ने इस जगत् में सांख्यशास्त्र की एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है, जिससे मुक्ति की इच्छा रखने वाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्र के पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला, यह शत्रु है और यह मित्र-इस प्रकार की भेदबुद्धि कैसे हो सकती है?

सगर की दूसरी पत्नी का नाम था केशिनी। उसके गर्भ से उन्हें असमंजस नाम का पुत्र हुआ था। असमंजस के पुत्र का नामा था अंशुमान्। वह अपने दादा सगर की आज्ञाओं का पालन तथा उन्हीं की सेवा में लगा रहता। असमंजस पहले जन्म में योगी थे। संग के कारण वे योग से विचलित हो गये थे, परतु अब भी उन्हें अपने पूर्वजन्म का स्मरण बना हुआ था। इसलिये वे ऐसे काम किया करते थे, जिनसे भाई-बन्धु उन्हें प्रिय न समझें। वे कभी-कभी तो अत्यत्न निन्दित कर्म कर बैठते और अपने को पागल-सा दिखलाते-यहाँ तक कि खेलते हुए बच्चों को सरयू में डाल देते। इस प्रकार उन्होंने लोगों को उद्विग्न कर दिया था। अन्त में उनकी ऐसी करतूत देखकर पिता ने पुत्र-स्नेह को तिलांजलि दे दी और उन्हें त्याग दिया।

तदनन्तर असमंजस ने अपने योगबल से उन सब बालकों को जीवित कर दिया और अपने को पिता को दिखाकर वे वन में चले गये। अयोध्या के नागरिकों ने जब देखा कि हमारे बालक तो फिर लौट आये, तब उन्हें असीम आश्चर्य हुआ और राजा सगर को भी बड़ा पश्चाताप हुआ। इसके बाद राजा सगर की आज्ञा से अंशुमान् घोड़े को ढूँढने के लिये निकले। उन्होंने अपने चाचाओं के द्वारा खोदे हुए समुद्र के किनारे-किनारे चलकर उनके शरीर के भस्म के पास ही घोड़े को देखा। वहीं भगवान के अवतार कपिल मुनि बैठे हुए थे। उनको देखकर उदारहृदय अंशुमान ने उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर एकाग्र मन से उनकी स्तुति की।

अंशुमानुवाच

न पश्यति त्वां परमात्मनोऽजनो

न बुध्यतेऽद्यापि समाधियुक्तिभिः ।

कुतोऽपरे तस्य मनःशरीरधी-

विसर्गसृष्टा वयमप्रकाशाः ॥ २२॥

ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधाना

गुणान् विपश्यन्त्युत वा तमश्च ।

यन्मायया मोहितचेतसस्ते

विदुः स्वसंस्थं न बहिःप्रकाशाः ॥ २३॥

तं त्वामहं ज्ञानघनं स्वभाव-

प्रध्वस्तमायागुणभेदमोहैः ।

सनन्दनाद्यैर्मुनिभिर्विभाव्यं

कथं हि मूढः परिभावयामि ॥ २४॥

प्रशान्तमायागुणकर्मलिङ्ग-

मनामरूपं सदसद्विमुक्तम् ।

ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहं

नमामहे त्वां पुरुषं पुराणम् ॥ २५॥

त्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्ध्या गृहादिषु ।

भ्रमन्ति कामलोभेर्ष्यामोहविभ्रान्तचेतसः ॥ २६॥

अद्य नः सर्वभूतात्मन् कामकर्मेन्द्रियाशयः ।

मोहपाशो दृढश्छिन्नो भगवंस्तव दर्शनात् ॥ २७॥

अंशुमान ने कहा ;- भगवन! आप अजन्मा ब्रह्मा जी से भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखने की बात तो अलग रही-वे समाधि करते-करते एवं युक्ति लड़ाते-लड़ाते हार गये, किन्तु आज तक आपको समझ नहीं पाये। हम लोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धि से होने वाली सृष्टि के द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आपको कैसे समझ सकते हैं। संसार के शरीरधारी सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण-प्रधान हैं। वे जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में केवल गुणमय पदार्थों, विषयों को और सुषुप्ति-अवस्था में केवल अज्ञान-ही-अज्ञान देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होने के कारण बाहर की वस्तुओं को तो देखते हैं, पर अपने ही हृदय में स्थित आपको नहीं देख पाते। आप एकरस, ज्ञानघन हैं। सनन्दन आदि मुनि, जो आत्मस्वरूप के अनुभव से माया के गुणों के द्वारा होने वाले भेदभाव को और उसके कारण अज्ञान को नष्ट कर चुके हैं, आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। माया के गुणों में ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ?

माया, उसके गुण और गुणों के कारण होने वाले कर्म एवं कर्मों के संस्कार से बना हुआ लिंग शरीर आप में है ही नहीं। न तो आपका नाम है और न तो रूप। आप में न कार्य है और न तो कारण। आप सनातन आत्मा हैं। ज्ञान का उपदेश करने के लिये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको नमस्कार करते हैं।

प्रभो! यह संसार आपकी माया की करामात है। इसको सत्य समझकर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह से लोगों का चित्त, शरीर तथा घर आदि में भटकने लगता है। लोग इसी के चक्कर में फँसे जाते हैं। समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभो! आज आपके दर्शन से मेरे मोह की वह दृढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कर्म और इन्द्रियों को जीवनदान देती है।

श्रीशुक उवाच

इत्थं गीतानुभावस्तं भगवान् कपिलो मुनिः ।

अंशुमन्तमुवाचेदमनुगृह्य धिया नृप ॥ २८॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब अंशुमान् ने भगवान् कपिल मुनि के प्रभाव का इस प्रकार गान किया, तब उन्होंने मन-ही-मन अंशुमान् पर बड़ा अनुग्रह किया और कहा।

श्रीभगवानुवाच

अश्वोऽयं नीयतां वत्स पितामहपशुस्तव ।

इमे च पितरो दग्धा गङ्गाम्भोऽर्हन्ति नेतरत् ॥ २९॥

तं परिक्रम्य शिरसा प्रसाद्य हयमानयत् ।

सगरस्तेन पशुना क्रतुशेषं समापयत् ॥ ३०॥

राज्यमंशुमते न्यस्य निःस्पृहो मुक्तबन्धनः ।

और्वोपदिष्टमार्गेण लेभे गतिमनुत्तमाम् ॥ ३१॥

श्रीभगवान ने कहा ;- ‘बेटा! यह घोड़ा तुम्हारे पितामह का यज्ञ पशु है। इसे तुम ले जाओ। तुम्हारे जले हुए चाचाओं का उद्धार केवल गंगाजल से होगा, और कोई उपाय नहीं है

अंशुमान ने बड़ी नम्रता से उन्हें प्रसन्न करके उनकी परिक्रमा की और वे घोड़े को ले आये। सगर ने उस यज्ञ पशु के द्वारा यज्ञ की शेष क्रिया समाप्त की। तब राजा सगर ने अंशुमान को राज्य का भार सौंप दिया और वे स्वयं विषयों से निःस्पृह एवं बन्धन मुक्त हो गये। उन्होंने महर्षि और्व के बतलाये हुए मार्ग से परमपद की प्राप्ति की।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे सगरोपाख्याने अष्ठमोऽध्यायः ॥ ८॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: नवमोऽध्यायः

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