श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १६
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
१६ "परशुराम जी के द्वारा क्षत्रिय संहार और विश्वामित्र जी के वंश की
कथा"
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षोडश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
१६
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः १६
श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
नवमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ षोडशोऽध्यायः - १६ ॥
श्रीशुक उवाच
पित्रोपशिक्षितो रामस्तथेति
कुरुनन्दन ।
संवत्सरं तीर्थयात्रां
चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत् ॥ १॥
कदाचिद्रेणुका याता गङ्गायां
पद्ममालिनम् ।
गन्धर्वराजं क्रीडन्तमप्सरोभिरपश्यत
॥ २॥
विलोकयन्ती क्रीडन्तमुदकार्थं नदीं
गता ।
होमवेलां न सस्मार
किञ्चिच्चित्ररथस्पृहा ॥ ३॥
कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः
शापविशङ्किता ।
आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय
कृताञ्जलिः ॥ ४॥
व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्न्याः
प्रकुपितोऽब्रवीत् ।
घ्नतैनां पुत्रकाः
पापामित्युक्तास्ते न चक्रिरे ॥ ५॥
रामः सञ्चोदितः पित्रा भ्रातॄन्
मात्रा सहावधीत् ।
प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक्
समाधेस्तपसश्च सः ॥ ६॥
वरेण छन्दयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः
।
वव्रे हतानां रामोऽपि जीवितं
चास्मृतिं वधे ॥ ७॥
उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय
इवाञ्जसा ।
पितुर्विद्वांस्तपोवीर्यं
रामश्चक्रे सुहृद्वधम् ॥ ८॥
येऽर्जुनस्य सुता राजन् स्मरन्तः
स्वपितुर्वधम् ।
रामवीर्यपराभूता लेभिरे शर्म न
क्वचित् ॥ ९॥
एकदाऽऽश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते
।
वैरं सिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा
उपागमन् ॥ १०॥
दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनमावेशितधियं
मुनिम् ।
भगवत्युत्तमश्लोके जघ्नुस्ते
पापनिश्चयाः ॥ ११॥
याच्यमानाः कृपणया
राममात्रातिदारुणाः ।
प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते
क्षत्रबन्धवः ॥ १२॥
रेणुका दुःखशोकार्ता
निघ्नन्त्यात्मानमात्मना ।
राम रामेति तातेति विचुक्रोशोच्चकैः
सती ॥ १३॥
तदुपश्रुत्य दूरस्थो हा
रामेत्यार्तवत्स्वनम् ।
त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशे पितरं
हतम् ॥ १४॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! अपने पिता की यह शिक्षा भगवान परशुराम ने ‘जो आज्ञा’ कहकर स्वीकार की। इसके बाद वे एक वर्ष तक
तीर्थ यात्रा करके अपने आश्रम पर लौट आये।
एक दिन की बात है,
परशुराम जी की माता रेणुका गंगा तट पर गयी हुई थीं। वहाँ उन्होंने
देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओं के साथ विहार कर रहा है।
वे जल लाने के लिये नदी तट पर गयी थीं, परन्तु वहाँ
जलक्रीड़ा करते हुए गन्धर्व को देखने लगीं और पतिदेव के हवन का समय हो गया है-इस
बात को भूल गयीं। उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथ की ओर खिंच भी गया था। हवन का समय बीत
गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्नि के शाप से भयभीत हो गयीं और
तुरंत वहाँ से आश्रम पर चली आयीं। वहाँ जल का कलश महर्षि के सामने रखकर हाथ जोड़
खड़ी हो गयीं। जमदग्नि मुनि ने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और
क्रोध करके कहा ;-
‘मेरे पुत्रों! इस पापिनी को मार डालो।’ परन्तु
उनके किसी भी पुत्र ने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की। इसके बाद पिता की आज्ञा से
परशुराम जी ने माता के साथ सब भाइयों को मार डाला। इसका कारण था। वे अपने पिताजी
के योग और तपस्या का प्रभाव भलीभाँति जानते थे।
परशुराम जी के इस काम से
सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा ;-
‘बेटा! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’
परशुराम जी ने कहा ;-
‘पिताजी! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायें तथा उन्हें इस बात की
याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था’। परशुराम जी के इस
प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल
उठ बैठे। परशुराम जी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदों का वध किया
था।
परीक्षित! सहस्रबाहु अर्जुन के जो
लड़के परशुराम जी से हारकर भाग गये थे, उन्हें
अपने पिता के वध की याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षण के लिये भी उन्हें चैन
नहीं मिलता था।
एक दिन की बात है,
परशुराम जी अपने भाइयों के साथ आश्रम से बाहर वन की ओर गये हुए थे।
यह अवसर पाकर वैर साधने के लिये सहस्रबाहु के लड़के वहाँ आ पहुँचे। उस समय महर्षि
जमदग्नि अग्निशाला में बीते हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियों से पवित्रकीर्ति
भगवान् के ही चिन्तन में मग्न हो रहे थे। उन्हें बाहर की कोई सुध न थी। उसी समय उन
पापियों ने जमदग्नि ऋषि को मार डाला। उन्होंने पहले से ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर
रखा था। परशुराम की माता रेणुका बड़ी दीनता से उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परन्तु उन सबों ने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्नि का सिर
काटकर ले गये। परीक्षित! वास्तव में वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे। सती रेणुका
दुःख और शोक से आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोर
से रोने लगीं- ‘परशुराम! बेटा परशुराम! शीघ्र आओ’। परशुराम जी ने बहुत दूर से माता का ‘हा राम!’
यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रता से आश्रम पर आये और वहाँ
आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं।
तद्दुःखरोषामर्षार्तिशोकवेगविमोहितः
।
हा तात साधो धर्मिष्ठ
त्यक्त्वास्मान् स्वर्गतो भवान् ॥ १५॥
विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय
भ्रातृषु स्वयम् ।
प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्रान्ताय
मनो दधे ॥ १६॥
गत्वा माहिष्मतीं रामो
ब्रह्मघ्नविहतश्रियम् ।
तेषां स शीर्षभी राजन् मध्ये चक्रे
महागिरिम् ॥ १७॥
तद्रक्तेन नदीं
घोरामब्रह्मण्यभयावहाम् ।
हेतुं कृत्वा पितृवधं
क्षत्रेऽमङ्गलकारिणि ॥ १८॥
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा
निःक्षत्रियां प्रभुः ।
समन्तपञ्चके चक्रे शोणितोदान्
ह्रदान् नृप ॥ १९॥
पितुः कायेन सन्धाय शिर आदाय
बर्हिषि ।
सर्वदेवमयं देवमात्मानमयजन्मखैः ॥
२०॥
ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे
दक्षिणां दिशम् ।
अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्गात्रे
उत्तरां दिशम् ॥ २१॥
अन्येभ्योऽवान्तरदिशः कश्यपाय च
मध्यतः ।
आर्यावर्तमुपद्रष्ट्रे
सदस्येभ्यस्ततः परम् ॥ २२॥
ततश्चावभृथस्नानविधूताशेषकिल्बिषः ।
सरस्वत्यां ब्रह्मनद्यां रेजे
व्यब्भ्र इवांशुमान् ॥ २३॥
स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा
संज्ञानलक्षणम् ।
ऋषीणां मण्डले सोऽभूत्सप्तमो
रामपूजितः ॥ २४॥
जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः
।
आगामिन्यन्तरे राजन् वर्तयिष्यति वै
बृहत् ॥ २५॥
आस्तेऽद्यापि महेन्द्राद्रौ
न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः ।
उपगीयमानचरितः सिद्धगन्धर्वचारणैः ॥
२६॥
एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान्
हरिरीश्वरः ।
अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन् बहुशो
नृपान् ॥ २७॥
गाधेरभून्महातेजाः समिद्ध इव पावकः
।
तपसा क्षात्रमुत्सृज्य यो लेभे
ब्रह्मवर्चसम् ॥ २८॥
विश्वामित्रस्य चैवासन् पुत्रा
एकशतं नृप ।
मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छन्दस एव
ते ॥ २९॥
पुत्रं कृत्वा शुनःशेपं देवरातं च
भार्गवम् ।
आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष
प्रकल्प्यताम् ॥ ३०॥
परीक्षित! उस समय परशुराम जी को
बड़ा दुःख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता,
मानसिक पीड़ा और शोक के वेग से वे अत्यन्त मोहित हो गये। ‘हाय पिता जी! आप तो बड़े महात्मा थे। पिता जी! आप तो धर्म के सच्चे पुजारी
थे। आप हम लोगों को छोड़कर स्वर्ग चले गये’। इस प्रकार विलाप
कर उन्होंने पिता का शरीर तो भाइयों को सौंप दिया और स्वयं हाथ से फरसा उठाकर
क्षत्रियों को संहार कर डालने का निश्चय किया।
परीक्षित! परशुराम जी ने माहिष्मती
नगरी में जाकर सहस्रबाहु अर्जुन के पुत्रों के सिरों से नगर के बीचों-बीच एक बड़ा
भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस नगर की शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियों के कारण
ही नष्ट हो चुकी थी। उनके रक्त से एक बड़ी भयंकर नदी बह निकली,
जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियों का हृदय भय से काँप उठता था। भगवान्
ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन! उन्होंने अपने
पिता के वध को निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया और
कुरुक्षेत्र के समन्तपंचक में ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो
रक्त के जल से भरे हुए थे। परशुराम जी ने अपने पिता जी का सिर लाकर उनके धड़ से
जोड़ दिया और यज्ञों द्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान् का यजन किया। यज्ञों में
उन्होंने पूर्व दिशा होता को, दक्षिण दिशा ब्रह्मा को,
पश्चिम दिशा अध्वर्यु को और उत्तर दिशा सामगान करने वाले उद्गाता को
दे दी।
इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ
ऋत्विजों को दीं, कश्यप जी को
मध्यभूमि दी, उपद्रष्टा को आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्यों
को अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं। इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापों
से मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वती के तट पर मेघरहित सूर्य के समान शोभायमान
हुए। महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर की प्राप्ति हो गयी। परशुराम जी
से सम्मानित होकर वे सप्तर्षियों के मण्डल में सातवें ऋषि हो गये।
परीक्षित! कमललोचन जमदग्निनन्दन
भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तर में सप्तर्षियों के मण्डल में रहकर वेदों का
विस्तार करेंगे। वे आज भी किसी को किसी प्रकार का दण्ड न देते हुए शान्त चित्त से
महेन्द्र पर्वत पर निवास करते हैं। वहाँ सिद्ध, गन्धर्व
और चारण उनके चरित्र का मधुर स्वर से गान करते रहते हैं। सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा
भगवान् श्रीहरि ने इस प्रकार भृगुवंशियों में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के भारभूत
राजाओं का बहुत बार वध किया।
महाराज गाधि के पुत्र हुए प्रज्वलित
अग्नि के समान परमतेजस्वी विश्वामित्र। उन्होंने अपने तपोबल से क्षत्रियत्व का भी
त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया। परीक्षित! विश्वामित्र जी के सौ पुत्र थे।
उनमें बिचले पुत्र का नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र ‘मधुच्छन्दा’ के ही नाम से विख्यात हुए। विश्वामित्र
जी ने भृगुवंशी अजीगर्त के पुत्र अपने भानजे शुनःशेप को, जिसका
एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया और अपने
पुत्रों से कहा कि ‘तुम लोग इसे अपना बड़ा भाई मानो’।
यो वै हरिश्चन्द्रमखे विक्रीतः
पुरुषः पशुः ।
स्तुत्वा देवान् प्रजेशादीन् मुमुचे
पाशबन्धनात् ॥ ३१॥
यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः
।
देवरात इति ख्यातः शुनःशेपः स
भार्गवः ॥ ३२॥
ये मधुच्छन्दसो ज्येष्ठाः कुशलं
मेनिरे न तत् ।
अशपत्तान् मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा
भवत दुर्जनाः ॥ ३३॥
स होवाच मधुच्छन्दाः सार्धं
पञ्चाशता ततः ।
यन्नो भवान् सञ्जानीते
तस्मिंस्तिष्ठामहे वयम् ॥ ३४॥
ज्येष्ठं मन्त्रदृशं
चक्रुस्त्वामन्वञ्चो वयं स्म हि ।
विश्वामित्रः सुतानाह वीरवन्तो
भविष्यथ ।
ये मानं मेऽनुगृह्णन्तो
वीरवन्तमकर्त माम् ॥ ३५॥
एष वः कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित
।
अन्ये चाष्टकहारीतजयक्रतुमदादयः ॥ ३६॥
एवं कौशिकगोत्रं तु विश्वामित्रैः
पृथग्विधम् ।
प्रवरान्तरमापन्नं तद्धि चैवं
प्रकल्पितम् ॥ ३७॥
यह वही प्रसिद्ध भृगुवंशी शुनःशेप
था,
जो हरिश्चंद्र के यज्ञ में यज्ञपशु के रूप में मोल लेकर लाया गया
था। विश्वामित्र जी ने प्रजापति वरुण आदि देवताओं की स्तुति करके उसे पाशबन्धन से
छुड़ा लिया था। देवताओं के यज्ञ में यही शुनःशेप देवताओं द्वारा विश्वामित्र जी को
दिया गया था; अतः ‘देवैः रातः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार गाधिवंश में यह तपस्वी देवरात के नाम से विख्यात
हुआ।
विश्वामित्र जी के पुत्रों में जो
बड़े थे,
उन्हें शुनःशेप को बड़ा भाई मानने की बात अच्छी न लगी। इस पर
विश्वामित्र जी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया कि ‘दुष्टों!
तुम सब म्लेच्छ हो जाओ’।
इस प्रकार जब उनचास भाई म्लेच्छ हो
गये,
तब विश्वामित्र जी के बिचले पुत्र मधुच्छन्दा ने अपने से छोटे
पचासों भाइयों के साथ कहा- ‘पिताजी! आप हम लोगों को जो आज्ञा
करते हैं, हम उसका पालन करने के लिये तैयार हैं’।
यह कहकर मधुच्छन्दा ने
मन्त्रद्रष्टा शुनःशेप को बड़ा भाई स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘हम सब तुम्हारे अनुयायी-छोटे भाई हैं।’ तब
विश्वामित्र जी ने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रों से कहा- ‘तुम
लोगों ने मेरी बात मानकर मेरे सम्मान की रक्षा की है, इसलिये
तुम लोगों-जैसे सुपुत्र प्राप्त करके मैं धन्य हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ
कि तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त होंगे। मेरे प्यारे पुत्रों! यह देवरात शुनःशेप भी
तुम्हारे ही गोत्र का है। तुम लोग इसकी आज्ञा में रहना।’
परीक्षित! विश्वामित्र जी के अष्टक,
हारीत, जय और क्रतुमान आदि और भी पुत्र थे। इस
प्रकार विश्वामित्र जी की सन्तानों से कौशिक गोत्र में कई भेद हो गये और देवरात को
बड़ा भाई मानने के कारण उसका प्रवर ही दूसरा हो गया।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥
जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: सप्तदशोऽध्यायः
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