श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १७                                              

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १७ "क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओं के वंश का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: सप्तदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १७                                                                  

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः १७  

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध सत्रहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तदशोऽध्यायः - १७ ॥

श्रीशुक उवाच

यः पुरूरवसः पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुताः ।

नहुषः क्षत्रवृद्धश्च रजी रम्भश्च वीर्यवान् ॥ १॥

अनेना इति राजेन्द्र शृणु क्षत्रवृधोऽन्वयम् ।

क्षत्रवृद्धसुतस्यासन् सुहोत्रस्यात्मजास्त्रयः ॥ २॥

काश्यः कुशो गृत्समद इति गृत्समदादभूत् ।

शुनकः शौनको यस्य बह्वृचप्रवरो मुनिः ॥ ३॥

काश्यस्य काशिस्तत्पुत्रो राष्ट्रो दीर्घतमःपिता ।

धन्वन्तरिर्दैर्घतम आयुर्वेदप्रवर्तकः ॥ ४॥

यज्ञभुग्वासुदेवांशः स्मृतमात्रार्तिनाशनः ।

तत्पुत्रः केतुमानस्य जज्ञे भीमरथस्ततः ॥ ५॥

दिवोदासो द्युमांस्तस्मात्प्रतर्दन इति स्मृतः ।

स एव शत्रुजिद्वत्स ऋतध्वज इतीरितः ।

तथा कुवलयाश्वेति प्रोक्तोऽलर्कादयस्ततः ॥ ६॥

षष्टिवर्षसहस्राणि षष्टिवर्षशतानि च ।

नालर्कादपरो राजन् मेदिनीं बुभुजे युवा ॥ ७॥

अलर्कात्सन्ततिस्तस्मात्सुनीथोऽथ सुकेतनः ।

धर्मकेतुः सुतस्तस्मात्सत्यकेतुरजायत ॥ ८॥

धृष्टकेतुः सुतस्तस्मात्सुकुमारः क्षितीश्वरः ।

वीतिहोत्रस्य भर्गोऽतो भार्गभूमिरभून्नृपः ॥ ९॥

इतीमे काशयो भूपाः क्षत्रवृद्धान्वयायिनः ।

राभस्य रभसः पुत्रो गम्भीरश्चाक्रियस्ततः ॥ १०॥

तस्य क्षेत्रे ब्रह्म जज्ञे शृणु वंशमनेनसः ।

शुद्धस्ततः शुचिस्तस्मात्त्रिककुद्धर्मसारथिः ॥ ११॥

ततः शान्तरयो जज्ञे कृतकृत्यः स आत्मवान् ।

रजेः पञ्चशतान्यासन् पुत्राणाममितौजसाम् ॥ १२॥

देवैरभ्यर्थितो दैत्यान् हत्वेन्द्रायाददाद्दिवम् ।

इन्द्रस्तस्मै पुनर्दत्त्वा गृहीत्वा चरणौ रजेः ॥ १३॥

आत्मानमर्पयामास प्रह्लादाद्यरिशङ्कितः ।

पितर्युपरते पुत्रा याचमानाय नो ददुः ॥ १४॥

त्रिविष्टपं महेन्द्राय यज्ञभागान् समाददुः ।

गुरुणा हूयमानेऽग्नौ बलभित्तनयान् रजेः ॥ १५॥

अवधीद्भ्रंशितान् मार्गान्न कश्चिदवशेषितः ।

कुशात्प्रतिः क्षात्रवृद्धात्सञ्जयस्तत्सुतो जयः ॥ १६॥

ततः कृतः कृतस्यापि जज्ञे हर्यवनो नृपः ।

सहदेवस्ततो हीनो जयसेनस्तु तत्सुतः ॥ १७॥

सङ्कृतिस्तस्य च जयः क्षत्रधर्मा महारथः ।

क्षत्रवृद्धान्वया भूपा शृणु वंशं च नाहुषात् ॥ १८॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजेन्द्र पुरूरवा का एक पुत्र था आयु। उसके पाँच लड़के हुए- नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, शक्तिशाली रम्भ और अनेना। अब क्षत्रवृद्ध का वंश सुनो।

क्षत्रवृद्ध के पुत्र थे सुहोत्र। सुहोत्र के तीन पुत्र हुए- काश्य, कुश और गृत्समद। गृत्समद का पुत्र हुआ शुनक। इसी शुनक के पुत्र ऋग्वेदियों में श्रेष्ठ मुनिवर शौनक जी हुए। काश्य का पुत्र काशि, काशि का राष्ट्र, राष्ट्र का दीर्घतमा और दीर्घतमा के धन्वन्तरि। यही आयुर्वेदों के प्रवर्तक हैं। ये यज्ञभाग के भोक्ता और भगवान् वासुदेव के अंश हैं। इनके स्मरण मात्र से ही सब प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। धन्वन्तरि का पुत्र हुआ केतुमान् और केतुमान् का भीमरथ। भीमरथ का दिवोदास और दिवोदास का द्युमान-जिसका एक नाम प्रतर्दन भी है। यही द्युमान् शत्रुजित्, वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्व के नाम से भी प्रसिद्ध है। द्युमान् के ही पुत्र अलर्क आदि हुए।

परीक्षित! अलर्क के सिवा और किसी राजा ने छाछठ हजार (66,000) वर्ष तक युवा रहकर पृथ्वी का राज्य नहीं भोग। अलर्क का पुत्र हुआ सन्तति, सन्तति का सुनीथ, सुनीथ का सुकेतन, सुकेतन का धर्मकेतु और धर्मकेतु का सत्यकेतु। सत्यकेतु से धृष्टकेतु, धृष्टकेतु से राजा सुकुमार, सुकुमार से वीतिहोत्र, वीतिहोत्र से भर्ग और भर्ग से राजा भार्गभूमि का जन्म हुआ। ये सब-के-सब क्षत्रवृद्ध के वंश में काशिउत्पन्न नरपति हुए। रम्भ के पुत्र का नाम था रभस, उससे गम्भीर और गम्भीर से अक्रिय का जन्म हुआ। अक्रिय की पत्नी से ब्राह्मण वंश चला। अब अनेना का वंश सुनो।

अनेना का पुत्र था शुद्ध, शुद्ध का शुचि, शुचि का त्रिककुद और त्रिककुद का धर्मसारथि। धर्मसारथि के पुत्र थे शान्तरय। शान्तरय आत्मज्ञानी होने के कारण कृतकृत्य थे, उन्हें सन्तान की आवश्यकता न थी। परीक्षित! आयु के पुत्र रजि के अत्यन्त तेजस्वी पाँच सौ पुत्र थे।

देवताओं की प्रार्थना से रजि ने दैत्यों का वध करके इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दिया। परन्तु वे अपने प्रह्लाद आदि शत्रुओं से भयभीत रहते थे, इसलिये उन्होंने वह स्वर्ग फिर रजि को लौटा दिया और उनके चरण पकड़कर उन्हीं को अपनी रक्षा का भार भी सौंप दिया। जब रजि की मृत्यु हो गयी, तब इन्द्र के माँगने पर भी रजि के पुत्रों ने स्वर्ग नहीं लौटाया। वे स्वयं ही यज्ञों का भाग भी ग्रहण करने लगे। तब गुरु बृहस्पति जी ने इन्द्र की प्रार्थना से अभिचार विधि से हवन किया। इससे वे धर्म के मार्ग से भ्रष्ट हो गये। इन्द्र ने अनायास ही उन सब रजि के पुत्रों को मार डाला। उनमें से कोई ही न बचा।

क्षत्रवृद्ध के पौत्र कुश से प्रति, प्रति से संजय और संजय से जय का जन्म हुआ। जय से कृत, कृत से राजा हर्यवन, हर्यवन से सहदेव, सहदेव से हीन और हीन से जयसेन नामक पुत्र हुआ। जयसेन का संकृति, संकृति का पुत्र हुआ महारथी वीरशिरोमणि जय। क्षत्रवृद्ध की वंश-परम्परा में इतने ही नरपति हुए। अब नहुष वंश का वर्णन सुनो।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे चन्द्रवंशानुवर्णने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: अष्टादशोऽध्यायः

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