श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १८                                               

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १८ "ययाति-चरित्र"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १८                                                                   

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः १८ 

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टादशोऽध्यायः - १८ ॥

श्रीशुक उवाच

यतिर्ययातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः ।

षडिमे नहुषस्यासन्निन्द्रियाणीव देहिनः ॥ १॥

राज्यं नैच्छद्यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित् ।

यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥ २॥

पितरि भ्रंशिते स्थानादिन्द्राण्या धर्षणाद्द्विजैः ।

प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः ॥ ३॥

चतसृष्वादिशद्दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः ।

कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः ॥ ४॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जैसे शरीरधारियों के छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति। नहुष अपने बड़े पुत्र यति को राज्य देना चाहते थे। परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पाने का परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदि में भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूप को नहीं समझ सकता। जब इन्द्र पत्नी शची से सहवास करने की चेष्टा करने के कारण नहुष को ब्राह्मणों ने इन्द्रपद से गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजा के पद पर ययाति बैठे। ययाति ने अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगा।

राजोवाच

ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः ।

राजन्यविप्रयोः कस्माद्विवाहः प्रतिलोमकः ॥ ५॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- 'भगवन्! भगवान् शुक्राचार्य जी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वर का प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ?'

श्रीशुक उवाच

एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका ।

सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी ॥ ६॥

देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसङ्कुले ।

व्यचरत्कलगीतालिनलिनीपुलिनेऽबला ॥ ७॥

ता जलाशयमासाद्य कन्याः कमललोचनाः ।

तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुः सिञ्चतीर्मिथः ॥ ८॥

वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम् ।

सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः ॥ ९॥

शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत् ।

स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानीदमब्रवीत् ॥ १०॥

अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसाम्प्रतम् ।

अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे ॥ ११॥

यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये ।

धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाश्च दर्शितः ॥ १२॥

यान् वन्दन्त्युपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः ।

भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः ॥ १३॥

वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरः ।

अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती ॥ १४॥

एवं शपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीमभाषत ।

रुषा श्वसन्त्युरङ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा ॥ १५॥

आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि ।

किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा ॥ १६॥

एवंविधैः सुपरुषैः क्षिप्त्वाचार्यसुतां सतीम् ।

शर्मिष्ठा प्राक्षिपत्कूपे वास आदाय मन्युना ॥ १७॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन! दानवराज वृषपर्वा की एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ अपनी राजधानी के श्रेष्ठ उद्यान में टहल रही थी। उस उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवर में कमल खिले हुए थे और उन पर बड़े ही मधुर स्वर से भौंरे गुंजार कर रहे थे। उसकी ध्वनि से सरोवर का तट गूँज रहा था। जलाशय के पास पहुँचने पर उन सुन्दरी कन्याओं ने अपने-अपने वस्त्र तो घाट पर रख दिये और उस तालाब में प्रवेश करके वे एक-दूसरे पर जल उलीच-उलीचकर क्रीड़ा करने लगीं।

उसी समय उधर से पार्वती जी के साथ बैल पर चढ़े हुए भगवान् शंकर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवर से निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। शीघ्रता के कारण शर्मिष्ठा ने अनजान में देवयानी के वस्त्र को अपना समझकर पहन लिया। इस पर देवयानी क्रोध के मारे आग-बबूला हो गयी।

उसने कहा ;- ‘अरे, देखो तो सही, इस दासी ने कितना अनुचित काम कर डाला! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञ का हविष्य उठा ले जाये, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं। जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है, जो परमपुरुष परमात्मा के मुखरूप हैं, जो अपने हृदय में निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्मा को धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिये वैदिक मार्ग का निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र-ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना और सेवा करते हैं-और तो क्या, लक्ष्मी जी के एकमात्र आश्रय परापावन विश्वात्मा भगवान् भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं-उन्हीं ब्राह्मणों में हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इस पर भी इस दुष्टा ने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ों को पहन लिया है

जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिन के समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतों से होठ दबाकर कहा- 'भिखारिन! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बात का भी पता है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ों के लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरों की ओर नहीं ताकती रहतीं। शर्मिष्ठा ने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानी का तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कुएँ में ढकेल दिया।

तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन् ।

प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह ॥ १८॥

दत्त्वा स्वमुत्तरं वासस्तस्यै राजा विवाससे ।

गृहीत्वा पाणिना पाणिमुज्जहार दयापरः ॥ १९॥

तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा ।

राजंस्त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय ॥ २०॥

हस्तग्राहोऽपरो माभूद्गृहीतायास्त्वया हि मे ।

एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः ।

यदिदं कूपलग्नाया भवतो दर्शनं मम ॥ २१॥

न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज ।

कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद्यमशपं पुरा ॥ २२॥

ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः ।

मनस्तु तद्गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः ॥ २३॥

गते राजनि सा वीरे तत्र स्म रुदती पितुः ।

न्यवेदयत्ततः सर्वमुक्तं शर्मिष्ठया कृतम् ॥ २४॥

दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन् ।

स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात् ॥ २५॥

वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम् ।

गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि ॥ २६॥

क्षणार्धमन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः ।

कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥ २७॥

तथेत्यवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम् ।

पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु ॥ २८॥

(पित्रा दत्ता देवयान्यै शर्मिष्ठा सानुगा तदा ।)

स्वानां तत्सङ्कटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम् ।

देवयानीं पर्यचरत्स्त्रीसहस्रेण दासवत् ॥ २९॥

नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना ।

तमाह राजन् शर्मिष्ठामाधास्तल्पे न कर्हिचित् ॥ ३०॥

शर्मिष्ठा के चले जाने के बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जल की आवश्यकता थी, इसलिये कुएँ में पड़ी हुई देवयानी को उन्होंने देख लिया। उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया।

देवयानी ने प्रेम भरी वाणी से वीर ययाति से कहा- वीरशिरोमणे राजन्! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीरश्रेष्ठ! कूएँ में गिर जाने पर मुझे जो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान् का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हम लोगों की या और किसी मनुष्य की कोई चेष्टा नहीं है। वीरश्रेष्ठ! पहले मैंने बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दे दिया था, इस पर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता

ययाति को शास्त्र प्रतिकूल होने के कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परन्तु उन्होंने देखा कि प्रारब्ध ने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है और मेरा मन भी इसकी ओर खिंच रहा है। इसलिये ययाति ने उसकी बात मान ली। वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोटी-पीटती अपने पिता शुक्राचार्य के पास पहुँची और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया। शर्मिष्ठा के व्यवहार से भगवान् शुक्राचार्य जी का भी मन उचट गया। वे पुरोहिताई की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजार में से कबूतर की तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अतः अपनी कन्या देवयानी को साथ लेकर वे नगर से निकल पड़े।

जब वृषपर्वा को यह मालूम हुआ तो उनके मन में यह शंका हुई कि गुरु जी कहीं शत्रुओं की जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करने के लिये पीछे-पीछे गये और रास्ते में उनके चरणों पर सिर के बल गिर गये। भगवान शुक्राचार्य जी का क्रोध तो आधे ही क्षण का था। उन्होंने वृषपर्वा से कहा- राजन्! मैं अपनी पुत्री देवयानी को नहीं छोड़ सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलने में कोई आपत्ति न होगी। जब वृषपर्वा ने ठीक हैकहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानी ने अपने मन की बात कही। उसने कहा- पिताजी मुझे जिस किसी को दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों के साथ मेरी सेवा के लिये वहीं चले। शर्मिष्ठा ने अपने परिवार वालों का संकट और उनके कार्य का गौरव देखकर देवयानी की बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियों के साथ दासी के समान उसकी सेवा करने लगी। शुक्राचार्य जी ने देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया और शर्मिष्ठा को दासी के रूप में देकर उनसे कह दिया- राजन! इसको अपनी सेज पर कभी न आने देना

विलोक्यौशनसीं राजञ्छर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित् ।

तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती ॥ ३१॥

राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित् ।

स्मरञ्छुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत ॥ ३२॥

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।

द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥ ३३॥

गर्भसम्भवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी ।

देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्छिता ॥ ३४॥

प्रियामनुगतः कामी वचोभिरुपमन्त्रयन् ।

न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः ॥ ३५॥

शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष ।

त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम् ॥ ३६॥

परीक्षित! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठा ने भी अपने ऋतुकाल में देवयानी के पति ययाति से एकान्त में सहवास की याचना की। शर्मिष्ठा की पुत्र के लिये प्रार्थना धर्म संगत है- यह देखकर धर्मज्ञ राजा ययाति ने शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी यही निश्चय किया कि समय पर प्रारब्ध के अनुसार जो होना होगा, हो जायेगा।

देवयानी के दो पुत्र हुए- यदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए- द्रुह्यु, अनु और पूरु। जब मानिनी देवयानी को यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठा को भी मेरे पति के द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोध से बेसुध होकर अपने पिता के घर चली गयी। कामी ययाति ने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदि के द्वारा देवयानी को मनाने की चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँ तक गये भी; परन्तु मना न सके। शुक्राचार्य जी ने भी क्रोध में भरकर ययाति से कहा- तू अत्यन्त स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीर में वह बुढ़ापा आ जाये, जो मनुष्यों को कुरूप कर देता है

ययातिरुवाच

अतृप्तोस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते ।

व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति ॥ ३७॥

इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत ।

यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः ॥ ३८॥

मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम् ।

वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः ॥ ३९॥

ययाति ने कहा ;- ‘ब्रह्मन्! आपकी पुत्री के साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप से तो आपकी पुत्री का भी अनिष्ट ही है।इस पर शुक्राचार्य जी ने कहा- अच्छा जाओ; जो प्रसन्नता से तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो। शुक्राचार्य जी ने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानी में आकर ययाति ने अपने बड़े पुत्र यदु से कहा- बेटा! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नाना का दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र! मैं अभी विषयों से तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षों तक और आनन्द भोगूँगा

यदुरुवाच

नोत्सहे जरसा स्थातुमन्तरा प्राप्तया तव ।

अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः ॥ ४०॥

तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत ।

प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः ॥ ४१॥

अपृच्छत्तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम् ।

न त्वमग्रजवद्वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि ॥ ४२॥

यदु ने कहा ;- ‘पिताजी! बिना समय के ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जब तक विषय-सुख का अनुभव नहीं कर लेता, तब तक उसे उससे वैराग्य नहीं होता

परीक्षित! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु ने भी पिता की आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रों को धर्म का तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीर को ही नित्य मान बैठे थे। अब ययाति ने अवस्था में सबसे छोटे किन्तु गुणों में बड़े अपने पुत्र पूरु को बुलाकर पूछा और कहा- बेटा! अपने बड़े भाइयों के समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये

पूरुरुवाच

को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान् ।

प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद्विन्दते परम् ॥ ४३॥

उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात्प्रोक्तकारी तु मध्यमः ।

अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकर्तोच्चरितं पितुः ॥ ४४॥

इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः ।

सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप ॥ ४५॥

सप्तद्वीपपतिः संयक् पितृवत्पालयन् प्रजाः ।

यथोपजोषं विषयाञ्जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः ॥ ४६॥

देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग्देहवस्तुभिः ।

प्रेयसः परमां प्रीतिमुवाह प्रेयसी रहः ॥ ४७॥

अयजद्यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।

सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम् ॥ ४८॥

यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः ।

नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः ॥ ४९॥

तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम् ।

नारायणमणीयांसं निराशीरयजत्प्रभुम् ॥ ५०॥

एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम् ।

विदधानोऽपि नातृप्यत्सार्वभौमः कदिन्द्रियैः ॥ ५१॥

पूरु ने कहा ;- ‘पिताजी! पिता की कृपा से मनुष्य को परम पद की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में पुत्र का शरीर पिता का ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्था में ऐसा कौन है, जो इस संसार में पिता के उपकारों का बदला चुका सके? उत्तम पुत्र तो वह है जो पिता के मन की बात बिना कहे ही कर दे। कहने पर श्रद्धा के साथ आज्ञा पालन करने वाले पुत्र को मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होने पर भी अश्रद्धा से उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है और जो किसी प्रकार भी पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिता का मल-मूत्र ही है।

परीक्षित! इस प्रकार कहकर पूरु ने बड़े आनन्द से अपने पिता का बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयों का सेवन करने लगे। वे सातों द्वीपों के एकच्छत्र सम्राट् थे। पिता के समान भलीभाँति प्रजा का पालन करते थे। उनकी इन्द्रियों में पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयों का यथेच्छ उपभोग करते थे।

देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययाति को अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओं के द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्त में सुख देने लगी। राजा ययाति ने समस्त वेदों के प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान श्रीहरि का बहुत-से बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से यजन किया। जैसे आकाश में दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्मा के स्वरूप में यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्य के समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपों के रूप में प्रतीत होता है और कभी नहीं भी।

वे परमात्मा सबके हृदय में विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान् श्रीनारायण को अपने हृदय में स्थापित करके राजा ययाति ने निष्काम भाव से उनका यजन किया। इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उन्होंने अपनी उच्छ्रंखल इन्द्रियों के साथ मन को जोड़कर उसके प्रिय विषयों को भोगा। परन्तु इतने पर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययाति की भोगों की तृप्ति न हो सकी।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: एकोनविंशोऽध्यायः

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