श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १२
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध
अध्याय १२ "अघासुर का उद्धार"
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं द्वादश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध
अध्याय १२
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१० पूर्वार्ध अध्यायः१२
श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध
बारहवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः
पूर्वार्धं
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥
॥ द्वादशोऽध्यायः - १२ ॥
श्रीशुक उवाच
क्वचिद्वनाशाय मनो दधद्व्रजा-
त्प्रातःसमुत्थाय वयस्यवत्सपान् ।
प्रबोधयञ्छृङ्गरवेण चारुणा
विनिर्गतो वत्सपुरःसरो हरिः ॥ १॥
तेनैव साकं पृथुकाः सहस्रशः
स्निग्धाः सुशिग्वेत्रविषाणवेणवः ।
स्वान्स्वान्सहस्रोपरि
सङ्ख्ययान्वितान्
वत्सान् पुरस्कृत्य विनिर्ययुर्मुदा
॥ २॥
कृष्णवत्सैरसङ्ख्यातैर्यूथीकृत्य
स्ववत्सकान् ।
चारयन्तोऽर्भलीलाभिर्विजह्रुस्तत्र
तत्र ह ॥ ३॥
फलप्रवालस्तबकसुमनःपिच्छधातुभिः ।
काचगुञ्जामणिस्वर्णभूषिता
अप्यभूषयन् ॥ ४॥
मुष्णन्तोऽन्योन्यशिक्यादीन्
ज्ञातानाराच्च चिक्षिपुः ।
तत्रत्याश्च पुनर्दूराद्धसन्तश्च
पुनर्ददुः ॥ ५॥
यदि दूरं गतः कृष्णो वनशोभेक्षणाय
तम् ।
अहं पूर्वमहं पूर्वमिति संस्पृश्य
रेमिरे ॥ ६॥
केचिद्वेणून् वादयन्तो ध्मान्तः शृङ्गाणि
केचन ।
केचिद्भृङ्गैः प्रगायन्तः कूजन्तः
कोकिलैः परे ॥ ७॥
विच्छायाभिः प्रधावन्तो गच्छन्तः
साधु हंसकैः ।
बकैरुपविशन्तश्च नृत्यन्तश्च
कलापिभिः ॥ ८॥
विकर्षन्तः कीशबालानारोहन्तश्च
तैर्द्रुमान् ।
विकुर्वन्तश्च तैः साकं प्लवन्तश्च
पलाशिषु ॥ ९॥
साकं भेकैर्विलङ्घन्तः
सरित्प्रस्रवसम्प्लुताः ।
विहसन्तः प्रतिच्छायाः शपन्तश्च
प्रतिस्वनान् ॥ १०॥
इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या
दास्यं गतानां परदैवतेन ।
मायाश्रितानां नरदारकेण
साकं विजह्रुः कृतपुण्यपुञ्जाः ॥
११॥
यत्पादपांसुर्बहुजन्मकृच्छ्रतो
धृतात्मभिर्योगिभिरप्यलभ्यः ।
स एव यद्दृग्विषयः स्वयं स्थितः
किं वर्ण्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम् ॥
१२॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वन में ही कलेवा करने के
विचार से बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजे की मधुर मनोहर ध्वनि से अपने साथी
ग्वालबालों को मन की बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ों को आगे करके वे ब्रज
मण्डल से निकल पड़े। श्रीकृष्ण के साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर
छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा
अपने सहत्रों बछड़ों को आगे करके बड़ी प्रसन्नता से अपने-अपने घरों से चल पड़े।
उन्होंने श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों में अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थान
पर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे। यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्ण के गहने-पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावन के लाल-पीले-हरे फलों से, नयी-नयी
कोंपलों से, गुच्छों से, रंग-बिरंगे
फूलों और मोरपंखों से तथा गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को सजा लिया। कोई किसी का
छीका चुरा लेता, तो कोई किसी की बेंत या बाँसुरी। जब उन
वस्तुओं के स्वामी को पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी
दूसरे के पास दूर फ़ेंक देता, दूसरा तीसरे के और तीसरा और भी
दूर फ़ेंक देता। फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते।
यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वन की
शोभा देखने के लिए कुछ आगे बढ़ जाते, तो
‘’पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’
- इस प्रकार आपस में होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और
उन्हें छू-छूकर आनन्दमग्न हो जाते। कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो
कोई सिंगी ही फूँक रहा है। कोई-कोई भौरों के साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलों के स्वर में स्वर मिलाकर ‘कुहू-कुहू’
कर रहे हैं। एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की
छाया के साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसों की चाल
की नक़ल करते हुए उनके साथ सुन्दर गति से चल रहे हैं। कोई बगुले के पास उसी के
समान आँख मूँदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरों को नाचते देख
उन्हीं की तरह नाच रहे हैं। कोई-कोई बंदरों की पूँछ पकड़कर खींच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़ से इस पेड़ पर चढ़ रहे हैं। कोई-कोई उनके साथ
मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डाल से दूसरी डाल पर
छलांग लगा रहे हैं।
बहुत-से ग्वालबाल तो नदी के कछार
में छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेंढ़कों के साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं।
कोई पानी में अपनी परछाईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं,
तो दूसरे शब्द की प्रतिध्वनि को ही बुरा-भला कह रहे हैं। भगवान
श्रीकृष्ण ज्ञानी संतों के लिए स्वयं ब्रह्मानंद के मूर्तिमान अनुभव हैं। दास्य
भाव से युक्त भक्तों के लिए वे उनके आराध्य देव, परम
ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं और माया-मोहित विषयान्धों के लिए वे केवल एक मनुष्य-बालक
हैं।
उन्हीं भगवान के साथ वे महान
पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरह के खेल-खेल रहें हैं। बहुत जन्मों तक श्रम और कष्ट
उठाकर उन्होंने अपनी इन्द्रियों और अंतःकरण को वश में कर लिया है,
उन योगियों के लिए भी भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य
है। वही भगवान स्वयं जिन ब्रजवासी ग्वालबालों की आँखों के सामने रहकर सदा खेल
खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा इससे अधिक क्या कही जाय।
अथाघनामाभ्यपतन्महासुर-
स्तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षमः ।
नित्यं यदन्तर्निजजीवितेप्सुभिः
पीतामृतैरप्यमरैः प्रतीक्ष्यते ॥
१३॥
दृष्ट्वार्भकान् कृष्णमुखानघासुरः
कंसानुशिष्टः स बकीबकानुजः ।
अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयो-
र्द्वयोर्ममैनं सबलं हनिष्ये ॥ १४॥
एते यदा मत्सुहृदोस्तिलापाः
कृतास्तदा नष्टसमा व्रजौकसः ।
प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिन्ता
प्रजासवः प्राणभृतो हि ये ते ॥ १५॥
इति व्यवस्याजगरं बृहद्वपुः
स योजनायाममहाद्रिपीवरम् ।
धृत्वाद्भुतं व्यात्तगुहाननं तदा
पथि व्यशेत ग्रसनाशया खलः ॥ १६॥
धराधरोष्ठो जलदोत्तरोष्ठो
दर्याननान्तो गिरिशृङ्गदंष्ट्रः ।
ध्वान्तान्तरास्यो वितताध्वजिह्वः
परुषानिलश्वासदवेक्षणोष्णः ॥ १७॥
दृष्ट्वा तं तादृशं सर्वे मत्वा
वृन्दावनश्रियम् ।
व्यात्ताजगरतुण्डेन
ह्युत्प्रेक्षन्ते स्म लीलया ॥ १८॥
अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं
पुरःस्थितम् ।
अस्मत्सङ्ग्रसनव्यात्तव्यालतुण्डायते
न वा ॥ १९॥
सत्यमर्ककरारक्तमुत्तराहनुवद्घनम् ।
अधराहनुवद्रोधस्तत्प्रतिच्छाययारुणम्
॥ २०॥
प्रतिस्पर्धेते सृक्किभ्यां
सव्यासव्ये नगोदरे ।
तुङ्गशृङ्गालयोऽप्येतास्तद्दंष्ट्राभिश्च
पश्यत ॥ २१॥
आस्तृतायाममार्गोऽयं रसनां
प्रतिगर्जति ।
एषामन्तर्गतं
ध्वान्तमेतदप्यन्तराननम् ॥ २२॥
दावोष्णखरवातोऽयं श्वासवद्भाति
पश्यत ।
तद्दग्धसत्त्वदुर्गन्धोऽप्यन्तरामिषगन्धवत्
॥ २३॥
परीक्षित! इसी समय अघासुर नाम का
महान दैत्य आ धमका। उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीडा देखी न गयी।
उसके हृदय में जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी
उससे अपने जीवन की रक्षा करने के लिए चिन्तित रहा करते थे और इस बात की बाट देखते
रहते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाय। अघासुर पूतना और बकासुर का
छोटा भाई तथा कंस का भेजा था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा
आदि ग्वालबालों को देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे
सगे भाई और बहिन को मारने वाला है। इसलिए आज मैं इन ग्वालबालों के साथ इसे मार
डालूँगा। जब से सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनों के मृत तर्पण की तिलांजलि बन
जायँगे, तब ब्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। सन्तान ही
प्राणियों के प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे
रहेगा? इसकी मृत्यु से ब्रजवासी अपने-आप मर जायँगे।'
ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य
अजगर का रूप धारण कर मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े
पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था। वह बहुत ही अद्भुत था। उसकी नीयत सब बालकों को
निगल जाने की थी, इसलिए उसने गुफा से
समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था। उसका नीचे का होंठ पृथ्वी से और ऊपर का
होंठ बादलों से लग रहा था। उस के जबड़े कन्दराओं के समान थे और दाढ़े पर्वत के
शिखर-सी जान पड़ती थीं। मुँह के भीतर घोर-अन्धकार था। जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी
दीखती थी। सांस आँधी के सामान थी और आँखें दावानल के समान दहक रही थीं।
अघासुर का ऐसा रूप देखकर बालकों ने
समझा कि यह भी वृन्दावन की कोई शोभा है। वे कौतुहलवश खेल-ही-खेल में उत्प्रेक्षा
करने लगे कि यह मानो अजगर का खुला हुआ मुँह है।
कोई कहता ;-
'मित्रो! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई
जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलने के लिए खुले हुए किसी अजगर
के मुँह-जैसा नहीं है?’
दूसरे ने कहा ;-
‘सचमुच सूर्य की किरणें पड़ने से ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं,
वे ऐसे मालूम होते हैं मानों ठीक-ठीक उसका ऊपरी होंठ ही हो। और
इन्हीं बादलों की परछाईं से यह जो नीचे की भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचे का होंठ जान पड़ता है।'
तीसरे ग्वाल बालक ने कहा ;-
‘हाँ, सच तो है। देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओर की गिरी-कन्दराएँ अजगर के जबड़ों की होड़ नहीं
करतीं? और ये ऊँची-ऊँची शिखर पंक्तियाँ तो साफ़-साफ़ इसकी
दाढ़े मालूम पड़ती हैं।'
चौथे ने कहा ;-
‘अरे भाई! यह लम्बी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगर की जीभ-सरीखी मालूम
पड़ती है और इन गिरीश्रृंगों के बीच का अन्धकार तो उसके मुँह के भीतरी भाग को भी
मात करता है।'
किसी दूसरे ग्वालबाल ने कहा ;-
‘देखो, देखो! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर
जंगल में आग लगी है। इसी से यह गरम और तीखी हवा आ रही है। परन्तु अजगर की सांस के
साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है और उसी आग में जले हुए प्राणियों की दुर्गन्ध ऐसी
जान पड़ती है मानो अजगर के पेट में मरे हुए जीवों के मांस की ही दुर्गन्ध हो।'
अस्मान् किमत्र ग्रसिता निविष्टा-
नयं तथा चेद्बकवद्विनङ्क्ष्यति ।
क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखं
वीक्ष्योद्धसन्तः करताडनैर्ययुः ॥
२४॥
त्थं मिथोऽतथ्यमतज्ज्ञभाषितं
श्रुत्वा विचिन्त्येत्यमृषा मृषायते
।
रक्षो विदित्वाखिलभूतहृत्स्थितः
स्वानां निरोद्धुं भगवान् मनो दधे ॥
२५॥
तावत्प्रविष्टास्त्वसुरोदरान्तरं
परं न गीर्णाः शिशवः सवत्साः ।
प्रतीक्षमाणेन बकारिवेशनं
हतस्वकान्तस्मरणेन रक्षसा ॥ २६॥
तान् वीक्ष्य कृष्णः सकलाभयप्रदो
ह्यनन्यनाथान् स्वकरादवच्युतान् ।
दीनांश्च मृत्योर्जठराग्निघासान्
घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मितः ॥
२७॥
कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनं
न वा अमीषां च सतां विहिंसनम् ।
द्वयं कथं स्यादिति संविचिन्त्य तत्
ज्ञात्वाविशत्तुण्डमशेषदृग्घरिः ॥
२८॥
तदा घनच्छदा देवा भयाद्धा हेति
चुक्रुशुः ।
जहृषुर्ये च कंसाद्याः
कौणपास्त्वघबान्धवाः ॥ २९॥
तच्छ्रुत्वा भगवान् कृष्णस्त्वव्ययः
सार्भवत्सकम् ।
चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे
गले ॥ ३०॥
ततोऽतिकायस्य निरुद्धमार्गिणो
ह्युद्गीर्णदृष्टेर्भ्रमतस्त्वितस्ततः
।
पूर्णोऽन्तरङ्गे पवनो निरुद्धो
मूर्धन् विनिष्पाट्य विनिर्गतो बहिः
॥ ३१॥
तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषु
प्राणेषु वत्सान् सुहृदः परेतान् ।
दृष्ट्या स्वयोत्थाप्य तदन्वितः
पुन-
र्वक्त्रान्मुकुन्दो भगवान्
विनिर्ययौ ॥ ३२॥
तब उन्हीं में से एक ने कहा ;-
‘यदि हम लोग इसके मुँह में घुस जायँ, तो क्या
हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा। कहीं ऐसा करने की
ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी बकासुर के समान नष्ट हो जायगा। हमारा कन्हैया इसको
छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुर
को मारने वाले श्रीकृष्ण का सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुर
के मुँह में घुस गये। उन अनजान बच्चों की आपस में हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान
श्रीकृष्ण ने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो
सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है!’
परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण जान गये
कि यह राक्षस है। भला, उनसे क्या छिपा
रहता? वे तो समस्त प्राणियों के हृदय में ही निवास करते हैं।
अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अब अपने सखा ग्वालबालों को उसके मुँह में जाने से
बचा लें। भगवान इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ों के साथ उस
असुर के पेट में चले गये। परन्तु अघासुर ने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण था कि अघासुर अपने बकासुर और बहिन पूतना के वध की याद करके इस
बात की बाट देख रहा था कि उनको मारने वाले श्रीकृष्ण भी मुँह में आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ।
भगवान श्रीकृष्ण सबको अभय देने वाले
हैं। जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल - जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ -
मेरे हाथ से निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आग में गिर पड़े,
वैसे ही अपने-आप मृत्यु रूप अघासुर की जठराग्नि के ग्रास बन गये,
तब दैव की इस विचित्र लीला पर भगवान को बड़ा विस्मय हुआ उनका हृदय
दया से द्रवित हो गया।
वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है,
जिससे इस दुष्ट की मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले
बालकों की हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?’
परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण भूत, भविष्य,
वर्तमान - सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। उसके लिये उह उपाय जानना
कोई कठिन न था।
वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं
उसके मुँह में घुस गये। उस समय बादलों में छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुर के हितैषी कंस आदि
राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे। अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण
को अपनी दाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय अविनाशी
श्रीकृष्ण ने देवताओं की ‘हाय-हाय’ सुनकर
उसके गले में अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया। इसके बाद भगवान ने अपने शरीर
को इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला रूँध गया। आँखें उलट गयीं। वह व्याकुल होकर बहुत
ही छटपटाने लगा। सांस रुककर सारे शरीर में भर गयी और अन्त में उसके प्राण
ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये। उसी मार्ग से प्राणों के साथ उसकी इन्द्रियाँ भी
शरीर से बाहर हो गयीं। उसी समय भगवान मुकुन्द ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से मरे हुए
बछड़ों और ग्वालबालों को जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुर के मुँह के बाहर
निकल आये।
पीनाहिभोगोत्थितमद्भुतं मह-
ज्ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयद्दिशो दश
।
प्रतीक्ष्य खेऽवस्थितमीश निर्गमं
विवेश तस्मिन् मिषतां दिवौकसाम् ॥
३३॥
ततोऽतिहृष्टाः स्वकृतोऽकृतार्हणं
पुष्पैः सुरा अप्सरसश्च नर्तनैः ।
गीतैः सुगा वाद्यधराश्च वाद्यकैः
स्तवैश्च विप्रा जयनिःस्वनैर्गणाः ॥
३४॥
तदद्भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिका-
जयादिनैकोत्सवमङ्गलस्वनान् ।
श्रुत्वा स्वधाम्नोऽन्त्यज आगतोऽचिरात्
दृष्ट्वा महीशस्य जगाम विस्मयम् ॥
३५॥
राजन्नाजगरं चर्म शुष्कं
वृन्दावनेऽद्भुतम् ।
व्रजौकसां बहुतिथं
बभूवाक्रीडगह्वरम् ॥ ३६॥
एतत्कौमारजं कर्म
हरेरात्माहिमोक्षणम् ।
मृत्योः पौगण्डके बाला
दृष्ट्वोचुर्विस्मिता व्रजे ॥ ३७॥
नैतद्विचित्रं मनुजार्भमायिनः
परावराणां परमस्य वेधसः ।
अघोऽपि यत्स्पर्शनधौतपातकः
प्रापात्मसाम्यं त्वसतां सुदुर्लभम्
॥ ३८॥
सकृद्यदङ्गप्रतिमान्तराहिता
मनोमयी भागवतीं ददौ गतिम् ।
स एव नित्यात्मसुखानुभूत्यभि-
व्युदस्तमायोऽन्तर्गतो हि किं पुनः
॥ ३९॥
उस अजगर के स्थूल शरीर के एक
अत्यन्त अद्भुत और महान ज्योति निकली, उस
समय उस ज्योति के प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं। वह थोड़ी देर तक तो
आकाश में स्थित होकर भगवान के निकलने की प्रतीक्षा करती रही। जब वे बाहर निकल आये,
तब वह सब देवताओं के देखते-देखते उन्हीं में समा गयीं। उस समय
देवताओं ने फूल बरसाकर, अप्सराओं ने नाचकर, गन्धर्वों ने गाकर, विद्याधरों ने बाजे बजाकर,
ब्राह्मणों ने स्तुति-पाठकर और पार्षदों ने जय-जयकार के नारे लगाकर
बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन किया। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने
अघासुर को मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था।
उन अद्भुत स्तुतियों,
सुन्दर बाजों, मंगलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवों की मंगलध्वनि ब्रह्मा-लोक के पास पहुँच गयी। जब
ब्रह्मा जी ने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहन
पर चढ़कर वहाँ आये और भगवान श्रीकृष्ण की यह महिमा देखकर आश्चर्यचकित हो गये।
परीक्षित! जब वृन्दावन में अजगर वह
चाम सूख गया, तब वह ब्रजवासियों के लिए बहुत
दिनों तक खेलने की एक अद्भुत गुफ़ा-सी बना रहा। यह जो भगवान ने अपने ग्वालबालों को
मृत्यु के मुख से बचाया था और अघासुर को मोक्ष-दान किया था, वह
लीला भगवान ने अपने कुमार अवस्था में अर्थात पाँचवें वर्ष में ही की थी।
ग्वालबालों ने उसे उसी समय देखा भी था, परन्तु गौगण्ड अवस्था
अर्थात छठे वर्ष में अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर ब्रज में उसका वर्णन किया।
अघासुर मूर्तिमान अघ (पाप) ही था।
भगवान के स्पर्शमात्र उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारुप्य-मुक्ति की प्राप्ति
हुई,
जो पापियों को कभी मिल नहीं सकती। परन्तु यह कोई आश्चर्य की बात
नहीं है। क्योंकि मनुष्य-बालक की-सी लीला रचने वाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा
हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य-कारण रूप समस्त जगत के
एकमात्र विधाता हैं। भगवान श्रीकृष्ण के किसी एक अंग की भावनिर्मित प्रतिमा यदि
ध्यान के द्वारा एक बार भी हृदय में बैठा ली जाय तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गतिका दान करती हैं, जो भगवान के
बड़े-बड़े भक्तों को मिलती है। भगवान आत्मानन्द के नित्य साक्षातस्वरूप हैं। माया
उनके पास तक नहीं फटक पाती। वे ही स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गये। क्या
अब भी उसकी सद्गति के विषय में कोई संदेह है?
सूत उवाच
इत्थं द्विजा यादवदेवदत्तः
श्रुत्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम्
।
पप्रच्छ भूयोऽपि तदेव पुण्यं
वैयासकिं यन्निगृहीतचेताः ॥ ४०॥
सूत जी कहते हैं ;-
शौनकादि ऋषियों! यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने ही राजा
परीक्षित को जीवन दान दिया था। उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवन सर्वस्व का यह
विचित्र चरित्र सुना, तब उन्होंने फिर श्री शुकदेव जी महाराज
से उन्हीं की पवित्र लीला के सम्बन्ध में प्रश्न किया। इसका कारण यह था कि भगवान
की अमृतमयी लीला ने परीक्षित के चित्त को अपने वश में कर रखा था ।
राजोवाच
ब्रह्मन् कालान्तरकृतं तत्कालीनं
कथं भवेत् ।
यत्कौमारे हरिकृतं जगुः
पौगण्डकेऽर्भकाः ॥ ४१॥
तद्ब्रूहि मे महायोगिन् परं कौतूहलं
गुरो ।
नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा ॥
४२॥
वयं धन्यतमा लोके गुरोऽपि
क्षत्रबन्धवः ।
यत्पिबामो मुहुस्त्वत्तः पुण्यं
कृष्णकथामृतम् ॥ ४३॥
राजा परीक्षित ने पूछा ;-
भगवन! आपने कहा था कि ग्वालबालों ने भगवान की दी हुई पाँचवें वर्ष
की लीला ब्रज में छठे वर्ष में जाकर कही। अब इस विषय में आप कृपा करके यह बतलाइये
कि एक समय की लीला दूसरे समय में वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है?
महायोगी गुरुदेव! मुझे इस
आश्चर्यपूर्ण रहस्य को जानने के लिए बड़ा कौतूहल हो रहा है। आप कृपा करके बतलाइये।
अवश्य ही इसमें भगवान श्रीकृष्ण की विचित्र घटनाओं को घटित करने वाली माया का
कुछ-न-कुछ काम होगा। क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता। गुरुदेव! यद्यपि
क्षत्रियोचित धर्म ब्राह्मण सेवा से विमुख होने के कारण मैं अपराधी नाममात्र का
क्षत्रिय हूँ, तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम
आपके मुखारविन्द से निरन्तर झरते हुए परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्ण लीलामृत का
बार-बार पान कर रहे हैं।
सूत उवाच
इत्थं स्म पृष्टः स तु बादरायणि-
स्तत्स्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रियः
।
कृच्छ्रात्पुनर्लब्धबहिर्दृशिः शनैः
प्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तम ॥ ४४॥
सूतजी कहते हैं ;-
भगवान के परम प्रेमी भक्तों में श्रेष्ठ शौनक जी! जब राजा परीक्षित
ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्री शुकदेव जी को भगवान की वह
लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अंतःकरण विवश होकर भगवान की
नित्यलीला में खिंच गये। कुछ समय के बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्ट से उन्हें
बाह्यज्ञान हुआ। तब वे परीक्षित से भगवान की लीला का वर्णन करने लगे।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 13
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