श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ११                                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ११ "गोकुल से वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार"

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं एकादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ११                                                                           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः ११                                                                              

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ११ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ एकादशोध्यायः - ११ ॥

श्रीशुक उवाच

गोपा नन्दादयः श्रुत्वा द्रुमयोः पततो रवम् ।

तत्राजग्मुः कुरुश्रेष्ठ निर्घातभयशङ्किताः ॥ १॥

भूम्यां निपतितौ तत्र ददृशुर्यमलार्जुनौ ।

बभ्रमुस्तदविज्ञाय लक्ष्यं पतनकारणम् ॥ २॥

उलूखलं विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं च बालकम् ।

कस्येदं कुत आश्चर्यमुत्पात इति कातराः ॥ ३॥

बाला ऊचुरनेनेति तिर्यग्गतमुलूखलम् ।

विकर्षता मध्यगेन पुरुषावप्यचक्ष्महि ॥ ४॥

न ते तदुक्तं जगृहुर्न घटेतेति तस्य तत् ।

बालस्योत्पाटनं तर्वोः केचित्सन्दिग्धचेतसः ॥ ५॥

उलूखलं विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं स्वमात्मजम् ।

विलोक्य नन्दः प्रहसद्वदनो विमुमोच ह ॥ ६॥

गोपीभिः स्तोभितोऽनृत्यद्भगवान् बालवत्क्वचित् ।

उद्गायति क्वचिन्मुग्धस्तद्वशो दारुयन्त्रवत् ॥ ७॥

बिभर्ति क्वचिदाज्ञप्तः पीठकोन्मानपादुकम् ।

बाहुक्षेपं च कुरुते स्वानां च प्रीतिमावहन् ॥ ८॥

दर्शयंस्तद्विदां लोक आत्मनो भृत्यवश्यताम् ।

व्रजस्योवाह वै हर्षं भगवान् बालचेष्टितैः ॥ ९॥

क्रीणीहि भोः फलानीति श्रुत्वा सत्वरमच्युतः ।

फलार्थी धान्यमादाय ययौ सर्वफलप्रदः ॥ १०॥

फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यं करद्वयम् ।

फलैरपूरयद्रत्नैः फलभाण्डमपूरि च ॥ ११॥

सरित्तीरगतं कृष्णं भग्नार्जुनमथाह्वयत् ।

रामं च रोहिणीदेवी क्रीडन्तं बालकैर्भृशम् ॥ १२॥

नोपेयातां यदाऽऽहूतौ क्रीडासङ्गेन पुत्रकौ ।

यशोदां प्रेषयामास रोहिणी पुत्रवत्सलाम् ॥ १३॥

क्रीडन्तं सा सुतं बालैरतिवेलं सहाग्रजम् ।

यशोदाजोहवीत्कृष्णं पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी ॥ १४॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वृक्षों के गिरने से जो भयंकर शब्द हुआ था, उसे नन्दबाबा आदि गोपों ने भी सुना। उनके मन में यह शंका हुई कहीं बिजली तो नहीं गिरी! सब-के-सब भयभीत होकर वृक्षों के पास आ गये। वहाँ पहुँचने पर उन लोगों ने देखा कि दोनों अर्जुन के वृक्ष गिरे हुए हैं। यद्यपि वृक्ष गिरने का कारण स्पष्ट था - वहीं उनके सामने ही रस्सी से बँधा बालक ऊखल खींच रहा था, परन्तु वे समझ न सके।'

यह किसका काम है, ऐसी आश्चर्यजनक दुर्घटना कैसे घट गयी?’ - यह सोचकर वे कातर हो गये, उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी ।

वहाँ कुछ बालक खेल रहे थे।

उन्होंने कहा ;- ‘अरे, इसी कन्हैया का तो काम है। यह दोनों वृक्षों के बीच में से होकर निकल रहा था। ऊखल तिरछा हो जाने पर दूसरी ओर से इसने उसे खींचा और वृक्ष गिर पड़े। हमने तो इसमें से निकलते हुए दो पुरुष भी देखे हैं। परन्तु गोपों ने बालकों की बात नहीं मानी।

वे कहने लगे ;- ‘एक नन्हा-सा बच्चा इतने बड़े वृक्षों को उखाड़ डाले, यह कभी सम्भव नहीं है।किसी-किसी के चित्त में श्रीकृष्ण की पहले की लीलाओं का स्मरण करके सन्देह भी हो आया। नन्दबाबा ने देखा, उनका प्राणों से प्यारा बच्चा रस्सी से बँधा हुआ ऊखल घसीटता जा रहा है। वे हँसने लगे और जल्दी से जाकर उन्होंने रस्सी की गाँठ खोल दी।

सर्वशक्तिमान भगवान कभी-कभी गोपियों के फुसलाने से साधारण बालकों समान नाचने लगते। कभी भोले-भाले अनजान बालक की तरह गाने लगते। वे उनके हाथ की कठपुतली - उनके सर्वथा अधीन हो गये। वे कभी उनकी आज्ञा से पीढ़ा ले आते, तो कभी दुसेरी आदि तौलने के बटखरे उठा लाते। कभी खडाऊं ले आते, तो कभी अपने प्रेमी भक्तों को आनन्दित करने के लिए पहलवानों की भाँति ताल ठोंकने लगते। इस प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान अपनी बाल-लीलाओं से ब्रजवासियों को आन्दनित करते और संसार में जो लोग उनके रहस्य को जानने-वाले हैं, उनको यह दिखलाते कि मैं अपने सेवकों के वश में हूँ।

एक दिन कोई फल बेचने वाली आकर पुकार उठी - फल लो फल! यह सुनते ही समस्त कर्म और उपासनाओं के फल देने वाले भगवान अच्युत फल खरीदने के लिए अपनी छोटी-सी अँजुली में अनाज लेकर दौड़ पड़े। उनकी अँजुली में अनाज तो रास्ते में ही बिखर गया, पर फल बेचने वाली ने उनके दोनों हाथ फल से भर दिये। इधर भगवान ने भी उसकी फल रखने वाली टोकरी रत्नों से भर दी।

तदन्तर एक दिन यमलार्जुन वृक्ष को तोड़ने वाले श्रीकृष्ण और बलराम बालकों के साथ खेलते-खेलते यमुना तट पर चले गये और खेल में ही रम गये, तब रोहिणी देवी ने उन्हें पुकारा ओ कृष्ण! ओ बलराम! जल्दी आओ। परन्तु रोहिणी के पुकारने पर भी वे आये नहीं; क्योंकि उनका मन खेल में लग गया था। जब बुलाने पर भी वे दोनों बालक नहीं आये, तब रोहिणी जी ने वात्सल्य स्नेहमयी यशोदा जी को भेजा। श्रीकृष्ण और बलराम ग्वाल बालकों के साथ बहुत देर से खेल रहे थे, यशोदा जी ने जाकर उन्हें पुकारा। उस समय पुत्र के प्रति वात्सल्य स्नेह के कारण उनके स्तनों में से दूध चुचुआ रहा था ।

कृष्ण कृष्णारविन्दाक्ष तात एहि स्तनं पिब ।

अलं विहारैः क्षुत्क्षान्तः क्रीडाश्रान्तोऽसि पुत्रक ॥ १५॥

हे रामागच्छ ताताशु सानुजः कुलनन्दन ।

प्रातरेव कृताहारस्तद्भवान् भोक्तुमर्हति ॥ १६॥

प्रतीक्षते त्वां दाशार्ह भोक्ष्यमाणो व्रजाधिपः ।

एह्यावयोः प्रियं धेहि स्वगृहान् यात बालकाः ॥ १७॥

धूलिधूसरिताङ्गस्त्वं पुत्र मज्जनमावह ।

जन्मर्क्षमद्य भवतो विप्रेभ्यो देहि गाः शुचिः ॥ १८॥

पश्य पश्य वयस्यांस्ते मातृमृष्टान् स्वलङ्कृतान् ।

त्वं च स्नातः कृताहारो विहरस्व स्वलङ्कृतः ॥ १९॥

इत्थं यशोदा तमशेषशेखरं

मत्वा सुतं स्नेहनिबद्धधीर्नृप ।

हस्ते गृहीत्वा सह राममच्युतं

नीत्वा स्ववाटं कृतवत्यथोदयम् ॥ २०॥

गोपवृद्धा महोत्पाताननुभूय बृहद्वने ।

नन्दादयः समागम्य व्रजकार्यममन्त्रयन् ॥ २१॥

तत्रोपनन्दनामाऽऽह गोपो ज्ञानवयोऽधिकः ।

देशकालार्थतत्त्वज्ञः प्रियकृद्रामकृष्णयोः ॥ २२॥

उत्थातव्यमितोऽस्माभिर्गोकुलस्य हितैषिभिः ।

आयान्त्यत्र महोत्पाता बालानां नाशहेतवः ॥ २३॥

मुक्तः कथञ्चिद्राक्षस्या बालघ्न्या बालको ह्यसौ ।

हरेरनुग्रहान्नूनमनश्चोपरि नापतत् ॥ २४॥

चक्रवातेन नीतोऽयं दैत्येन विपदं वियत् ।

शिलायां पतितस्तत्र परित्रातः सुरेश्वरैः ॥ २५॥

यन्न म्रियेत द्रुमयोरन्तरं प्राप्य बालकः ।

असावन्यतमो वापि तदप्यच्युतरक्षणम् ॥ २६॥

यावदौत्पातिकोऽरिष्टो व्रजं नाभिभवेदितः ।

तावद्बालानुपादाय यास्यामोऽन्यत्र सानुगाः ॥ २७॥

यशोदा ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगीं ;- ‘मेरे प्यारे कन्हैया! ओ कृष्ण! कमलनयन! श्यामसुन्दर! बेटा! आओ, अपनी माँ का दूध पी लो। खेलते-खेलते थक गये हो बेटा! अब बस करो। देखो तो सही, तुम भूख से दुबले हो रहे हो। मेरे प्यारे बेटा राम! तुम तो समूचे कुल को आनन्द देने वाले हो। अपने छोटे भाई को लेकर जल्दी आ जाओ तो! देखो भाई! आज तुमने बहुत सबेरे कलेऊ किया था। अब तो तुम्हें कुछ खाना चाहिये। बेटा बलराम! ब्रजराज भोजन करने के लिए बैठ गये है; परन्तु अभी तक तुम्हारी बाट देख रहे हैं। आओ, अब हमें आनन्दित करो। बालकों! अब तुम लोग भी अपने-अपने घर जाओ। बेटा! देखो तो सही, तुम्हारा एक-एक अंग धूल से लथपथ हो रहा है। आओ, जल्दी से स्नान कर लो। आज तुम्हारा जन्म नक्षत्र है। पवित्र होकर ब्राह्मणों को गोदान करो। देखो-देखो! तुम्हारे साथियों को उनकी माताओं ने नहला-धुलाकर, मींज-पोंछकर कैसे सुन्दर-सुन्दर गहने पहना दिये हैं। अब तुम भी नहा-धोकर, खा-पीकर, पहन-ओढ़कर तब खेलना।'

परीक्षित! माता यशोदा का सम्पूर्ण मन-प्राण प्रेम-बन्धन से बँधा हुआ था। वे चराचर जगत के शिरोमणि भगवान को अपना पुत्र समझतीं और इस प्रकार कहकर एक हाथ से बलराम तथा दूसरे हाथ से श्रीकृष्ण को पकड़कर अपने घर ले आयीं। इसके बाद उन्होंने पुत्र के मंगल के लिए जो कुछ करना था, वह बड़े प्रेम से किया।

जब नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने देखा कि महावन में तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, तब वे लोग इकट्ठे होकर अब ब्रजवासियों को क्या करना चाहिए’ - इस विषय पर विचार करने लगे। उनमें से एक गोप का नाम था उपनन्द। वे अवस्था में तो बड़े थे ही, ज्ञान में भी बड़े थे। उन्हें इस बात का पता था कि किस समय किस स्थान पर किस वस्तु से कैसा व्यवहार करना चाहिए। साथ ही वे यह भी चाहते थे कि राम और श्याम सुखी रहें, उन पर कोई विपत्ति न आवे।

उन्होंने कहा ;- ‘भाइयों! अब यहाँ ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, जो बच्चों के लिए तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं। इसलिए यदि हम लोग गोकुल और गोकुलवासियों का भला चाहते हैं, तो हमें यहाँ से अपना डेरा-डंडा उठाकर कूच कर देना चाहिये। देखो, यह सामने बैठा हुआ नन्दराय का लाड़ला सबसे पहले तो बच्चों के लिए कालस्वरूपिणी हत्यारी पूतना के चंगुल से किसी प्रकार छूटा। इसके बाद भगवान की दूसरी कृपा यह हुई कि इसके ऊपर इतना बड़ा छकड़ा गिरते-गिरते बचा। बवंडररूपधारी दैत्य ने तो इसे आकाश में ले जाकर बड़ी भारी विपत्ति (मृत्यु के मुख) में ही डाल दिया था, परन्तु वहाँ से जब वह चट्टान पर गिरा, तब भी हमारे कुल के देवेश्वरों ने ही इस बालक की रक्षा की। यमलार्जुन वृक्षों के गिरने के समय उसके बीच में आकर भी यह या और कोई बालक न मरा। इससे भी यही समझना चाहिये कि भगवान ने हमारी रक्षा की। इसलिए जब तक कोई बहुत बड़ा अनिष्टकारी अरिष्ट हमें और हमारे ब्रज को नष्ट न कर दे, तब तक ही हम लोग अपने बच्चों को लेकर अनुचरों के साथ यहाँ से अन्यत्र चले चलें।

वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम् ।

गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरुधम् ॥ २८॥

तत्तत्राद्यैव यास्यामः शकटान् युङ्क्त मा चिरम् ।

गोधनान्यग्रतो यान्तु भवतां यदि रोचते ॥ २९॥

तच्छ्रुत्वैकधियो गोपाः साधु साध्विति वादिनः ।

व्रजान् स्वान् स्वान् समायुज्य ययू रूढपरिच्छदाः ॥ ३०॥

वृद्धान् बालान् स्त्रियो राजन् सर्वोपकरणानि च ।

अनस्स्वारोप्य गोपाला यत्ता आत्तशरासनाः ॥ ३१॥

गोधनानि पुरस्कृत्य श‍ृङ्गाण्यापूर्य सर्वतः ।

तूर्यघोषेण महता ययुः सह पुरोहिताः ॥ ३२॥

गोप्यो रूढरथा नूत्नकुचकुङ्कुमकान्तयः ।

कृष्णलीला जगुः प्रीता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ॥ ३३॥

तथा यशोदारोहिण्यावेकं शकटमास्थिते ।

रेजतुः कृष्णरामाभ्यां तत्कथाश्रवणोत्सुके ॥ ३४॥

वृन्दावनं सम्प्रविश्य सर्वकालसुखावहम् ।

तत्र चक्रुर्व्रजावासं शकटैरर्धचन्द्रवत् ॥ ३५॥

वृन्दावनं गोवर्धनं यमुनापुलिनानि च ।

वीक्ष्यासीदुत्तमा प्रीती राममाधवयोर्नृप ॥ ३६॥

एवं व्रजौकसां प्रीतिं यच्छन्तौ बालचेष्टितैः ।

कलवाक्यैः स्वकालेन वत्सपालौ बभूवतुः ॥ ३७॥

अविदूरे व्रजभुवः सह गोपालदारकैः ।

चारयामासतुर्वत्सान् नानाक्रीडापरिच्छदौ ॥ ३८॥

क्वचिद्वादयतो वेणुं क्षेपणैः क्षिपतः क्वचित् ।

क्वचित्पादैः किङ्किणीभिः क्वचित्कृत्रिमगोवृषैः ॥ ३९॥

वृषायमाणौ नर्दन्तौ युयुधाते परस्परम् ।

अनुकृत्य रुतैर्जन्तूंश्चेरतुः प्राकृतौ यथा ॥ ४०॥

वृन्दावननाम का एक वन है। उसमें छोटे-छोटे और भी बहुत-से नये-नये हरे-भरे वन हैं। वहाँ बड़ा ही पवित्र पर्वत, घास और हरी भरी लता वनस्पतियाँ हैं। हमारे पशुओं के लिये तो वह बहुत ही हितकारी है। गोप, गोपी और गायों के लिये वह केवल सुविधा का ही नहीं, सवाल करने योग्य स्थान है। सो यदि तुम सब लोगों को यह बात जँचती हो तो आज ही हम लोग वहाँ के लिए कूच कर दें। देर न करें, गाड़ी-छकड़े जोतें और पहले गायों को, जो हमारी एकमात्र सम्पत्ति हैं, वहाँ भेज दें।'

उपनन्द की बात सुनकर सभी गोपों ने एक स्वर से कहा - बहुत ठीक, बहुत ठीक।इस विषय में किसी का भी मतभेद न था। सब लोगों ने अपनी झुंड की झुंड गायें इकट्ठी कीं और छकड़ों पर घर की सब सामग्री लादकर वृन्दावन की यात्रा की। परीक्षित! ग्वालों ने बूढ़ों, बच्चों, स्त्रियों और सब सामग्रियों को छकड़ों पर चढ़ा दिया और स्वयं उनके पीछे-पीछे धनुष-बाण लेकर बड़ी सावधानी से चलने लगे। उन्होंने गौ और बछड़ों को तो सबसे आगे कर लिया और उनके पीछे-पीछे सिगी और तुरही ज़ोर-ज़ोर से बजाते हुए चले।

उनके साथ ही-साथ पुरोहित लोग भी चल रहे थे। गोपियाँ अपने-अपने वक्षःस्थल पर नयी केसर लगाकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर, गले में सोने के हार धारण किये हुए रथों पर सवार थीं और बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के गीत गाती जाती थीं। यशोदा रानी और रोहिणी जी भी वैसे ही सज-धजकर अपने-अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण तथा बलराम के साथ एक छकड़े पर शोभायमान हो रही थीं। वे अपने दोनों बालकों की तोतली बोली सुन-सुनकर भी अघाती न थीं, और-और सुनना चाहतीं थीं।

वृन्दावन बड़ा ही सुन्दर वन है। चाहे कोई भी ऋतु हो, वहाँ सुख-ही-सुख है। उसमें प्रवेश करके ग्वालों ने अपने छकड़ों को अर्द्धचन्द्राकर मण्डल बाँधकर खड़ा कर दिया और अपने गोधन के रहने योग्य स्थान बना लिया। परीक्षित! वृन्दावन का हरा-भरा वन, अत्यन्त मनोहर गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी के सुन्दर-सुन्दर पुलियों को देखकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी के हृदय में उत्तम प्रीति का उदय हुआ।

राम और श्याम दोनों ही अपनी तोतली बोली और अत्यन्त मधुर बालोचित लीलाओं से गोकुल की ही तरह वृन्दावन में भी ब्रजवासियों को आनन्द देते रहे। थोड़े ही दिनों में समय आने पर वे बछड़े चराने लगे। दूसरे ग्वालबालों के साथ खेलने के लिये बहुत-सी सामग्री लेकर वे घर से निकल पड़ते और गोष्ठ के पास ही अपने बछड़ों को चराते। श्याम और राम कहीं बाँसुरी बजा रहे हैं, तो कहीं गुलेल या ढेलवाँस से ढेले या गोलियाँ फेंक रहे हैं। किसी समय अपने पैरों के घुँघरु पर तान छेड़ रहे हैं तो कहीं बनावटी गाय और बैल बनकर खेल रहे हैं। एक ओर देखिये तो साँड़ बन-बनकर हँकड़ते हुए आपस में लड़ रहे हैं तो दूसरी ओर मोर, कोयल, बन्दर आदि पशु-पक्षियों की बोलियाँ निकाल रहे हैं। परीक्षित! इस प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान साधारण बालकों के समान खेलते रहते।

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ११

कदाचिद्यमुनातीरे वत्सांश्चारयतोः स्वकैः ।

वयस्यैः कृष्णबलयोर्जिघांसुर्दैत्य आगमत् ॥ ४१॥

तं वत्सरूपिणं वीक्ष्य वत्सयूथगतं हरिः ।

दर्शयन् बलदेवाय शनैर्मुग्ध इवासदत् ॥ ४२॥

गृहीत्वापरपादाभ्यां सहलाङ्गूलमच्युतः ।

भ्रामयित्वा कपित्थाग्रे प्राहिणोद्गतजीवितम् ।

स कपित्थैर्महाकायः पात्यमानैः पपात ह ॥ ४३॥

तं वीक्ष्य विस्मिता बालाः शशंसुः साधु साध्विति ।

देवाश्च परिसन्तुष्टा बभूवुः पुष्पवर्षिणः ॥ ४४॥

तौ वत्सपालकौ भूत्वा सर्वलोकैकपालकौ ।

सप्रातराशौ गोवत्सांश्चारयन्तौ विचेरतुः ॥ ४५॥

स्वं स्वं वत्सकुलं सर्वे पाययिष्यन्त एकदा ।

गत्वा जलाशयाभ्याशं पाययित्वा पपुर्जलम् ॥ ४६॥

ते तत्र ददृशुर्बाला महासत्त्वमवस्थितम् ।

तत्रसुर्वज्रनिर्भिन्नं गिरेः शृङ्गमिव च्युतम् ॥ ४७॥

स वै बको नाम महानसुरो बकरूपधृक् ।

आगत्य सहसा कृष्णं तीक्ष्णतुण्डोऽग्रसद्बली ॥ ४८॥

कृष्णं महाबकग्रस्तं दृष्ट्वा रामादयोऽर्भकाः ।

बभूवुरिन्द्रियाणीव विना प्राणं विचेतसः ॥ ४९॥

तं तालुमूलं प्रदहन्तमग्निव-

द्गोपालसूनुं पितरं जगद्गुरोः ।

चच्छर्द सद्योऽतिरुषाक्षतं बक-

स्तुण्डेन हन्तुं पुनरभ्यपद्यत ॥ ५०॥

तमापतन्तं स निगृह्य तुण्डयो-

र्दोर्भ्यां बकं कंससखं सतां पतिः ।

पश्यत्सु बालेषु ददार लीलया

मुदावहो वीरणवद्दिवौकसाम् ॥ ५१॥

तदा बकारिं सुरलोकवासिनः

समाकिरन् नन्दनमल्लिकादिभिः ।

समीडिरे चानकशङ्खसंस्तवै-

स्तद्वीक्ष्य गोपालसुता विसिस्मिरे ॥ ५२॥

एक दिन की बात है, श्याम और बलराम अपने प्रेमी सखा ग्वालबालों के साथ यमुना तट पर बछड़े चरा रहे थे। उसी समय उन्हें मारने की नीयत से एक दैत्य आया। भगवान ने देखा कि वह बनावटी बछड़े का रूप धारण कर बछड़ों के झुंड में मिल गया है। वे आँखों के इशारे से बलराम जी को दिखाते हुए धीरे-धीरे उसके पास पहुँच गये। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानों वे दैत्य को तो पहचानते नहीं और उस हट्टे-कट्टे सुन्दर बछड़े पर मुग्ध हो गये हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने पूँछ के साथ उसके दोनों पिछले पैर पकड़कर आकाश में घुमाया और मर जाने पर कैथ के वृक्ष पर पटक दिया। उसका लम्बा-तगड़ा दैत्य शरीर बहुत-से कैथ के वृक्षों को गिराकर स्वयं भी गिर पड़ा। यह देखकर ग्वालबालों के आश्चर्य की सीमा न रही। वे वाह-वाहकरके प्यारे कन्हैया की प्रशंसा करने लगे। देवता भी बड़े आनन्द से फूलों की वर्षा करने लगे।

परीक्षित! जो सारे लोकों के एकमात्र रक्षक हैं, वे ही श्याम और बलराम अब वत्स्पाल बने हुए हैं। वे तड़के ही उठकर कलेवे की सामग्री ले लेते और बछड़ों को चराते हुए एक वन से दूसरे वन में घूमा करते। एक दिन की बात है, सब ग्वालबाल अपने झुंड-के-झुंड बछड़ों को पानी पिलाने के लिए जलाशय के तट पर ले गये। उन्होंने पहले बछड़ों को जल पिलाया और फिर स्वयं भी पिया।

ग्वालबालों ने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है। वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानों इन्द्र के वज्र से कटकर कोई पहाड़ का टुकड़ा गिरा हुआ है। ग्वालबाल उसे देखकर डर गये। वह बकनाम का एक बड़ा भारी असुर था, जो बगुले का रूप धर के वहाँ आया था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं बड़ा बलवान था। उसने झपटकर कृष्ण को निगल लिया।

जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि वह बड़ा भारी बगुला श्रीकृष्ण को निगल गया, तब उनकी वही गति हुई जो प्राण निकल जान पर इन्द्रियों की होती हैं। वे अचेत हो गये।

परीक्षित! श्रीकृष्ण लोकपितामह ब्रह्मा के भी पिता हैं। वे लीला से ही गोपाल-बालक बने हुए हैं। जब वे बगुले के तालु के नीचे पहुँचे, तब वे आग के समान उसका तालु जलाने लगे। अतः उस दैत्य ने श्रीकृष्ण के शरीर पर बिना किसी प्रकार का घाव किये ही झटपट उन्हें उगल दिया और फिर बड़े क्रोध से अपनी कठोर चोंच से उन पर चोट करने के लिए टूट पड़ा।

कंस का सखा बकासुर अभी भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण पर झपट ही रहा था कि उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों ठोर पकड़ लिये और ग्वालबालों के देखते-देखते खेल-ही-खेले में उसे वैसे ही चीर डाला, जैसे कोई वीरान को चीर डाले। इससे देवताओं को बड़ा आनन्द हुआ। सभी देवता भगवान श्रीकृष्ण पर नंदनवन के बेला, चमेली आदि के फूल बरसाने लगे तथा नगारे, शंख आदि बजाकर एवं स्त्रोतों के द्वारा उनको प्रसन्न करने लगे। यह सब देखकर सब-के-सब ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गये।

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ११

मुक्तं बकास्यादुपलभ्य बालका

रामादयः प्राणमिवेन्द्रियो गणः ।

स्थानागतं तं परिरभ्य निर्वृताः

प्रणीय वत्सान् व्रजमेत्य तज्जगुः ॥ ५३॥

श्रुत्वा तद्विस्मिता गोपा गोप्यश्चातिप्रियादृताः ।

प्रेत्यागतमिवौत्सुक्यादैक्षन्त तृषितेक्षणाः ॥ ५४॥

अहो बतास्य बालस्य बहवो मृत्यवोऽभवन् ।

अप्यासीद्विप्रियं तेषां कृतं पूर्वं यतो भयम् ॥ ५५॥

अथाप्यभिभवन्त्येनं नैव ते घोरदर्शनाः ।

जिघांसयैनमासाद्य नश्यन्त्यग्नौ पतङ्गवत् ॥ ५६॥

अहो ब्रह्मविदां वाचो नासत्याः सन्ति कर्हिचित् ।

गर्गो यदाह भगवानन्वभावि तथैव तत् ॥ ५७॥

इति नन्दादयो गोपाः कृष्णरामकथां मुदा ।

कुर्वन्तो रममाणाश्च नाविन्दन् भववेदनाम् ॥ ५८॥

एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्व्रजे ।

निलायनैः सेतुबन्धैर्मर्कटोत्प्लवनादिभिः ॥ ५९॥

जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि श्रीकृष्ण बगुले के मुँह से निकलकर हमारे पास आ गये हैं, तब उन्हें ऐसा आनन्द हुआ, मानो प्राणों के संचार से इन्द्रियाँ सचेत और आनन्दित हो गयीं हों। सब ने भगवान को अलग-अलग गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हाँककर सब ब्रज में आये और वहाँ उन्होंने उन्होंने घर के लोगों से सारी घटना कह सुनायी।

परीक्षित! बकासुर के वध की घटना सुनकर अब-के-सब गोपी-गोप आश्चर्यचकित हो गये। उन्हें ऐसा जान पड़ा, जैसे कन्हैया साक्षात मृत्यु के मुख से ही लौटे हों। वे बड़ी उत्सुकता, प्रेम और आदर से श्रीकृष्ण को निहारने लगे। उनके नेत्रों की प्यास बढ़ती ही जाती थी, किसी प्रकार उन्हें तृप्ति न होती थी।

वे आपस में कहने लगे ;- ‘हाय! हाय!! यह कितने आशचर्य की बात है। इस बालक को कई बार मृत्यु के मुँह में जाना पड़ा। परन्तु जिन्होंने इसका अनिष्ट करना चाहा, उन्हीं का अनिष्ट हुआ। क्योंकि उन्होंने पहले से दूसरों का अनिष्ट किया था। यह सब होने पर भी वे भयंकर असुर इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाते। आते हैं इसे मार डालने की नीयत से, किन्तु आग पर गिरकर पतंगों की तरह उल्टे स्वयं स्वाहा हो जाते हैं।

सच है, ब्रह्मवेत्ता महात्माओं के वचन कभी झूठे नहीं होते। देखो न, महात्मा गर्गाचार्य ने जितनी बातें कही थीं, सब-की-सब सोलहों आने ठीक उतर रहीं हैं।' नन्दबाबा आदि गोपगण इसी प्रकार बड़े आनन्द से अपने श्याम और राम की बातें किया करते। वे उनमें इतने तन्मय रहते कि उन्हें संसार के दुःख-संकटों का कुछ पता ही न चलता।

इसी प्रकार श्याम और बलराम ग्वालबालों के साथ कभी आँखमिचौनी खेलते, तो कभी पुल बाँधते। कभी बंदरों की भाँति उछलते-कूदते, तो कभी और कोई विचित्र खेल करते। इस प्रकार के बालोचित खेलों से उन दोनों ने ब्रज में अपनी बाल्यावस्था व्यतीत की।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे वत्सबकवधो नमैकादशोऽध्यायः ॥ ११॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 12  

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