श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २                          

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २"आग्नीध्र-चरित्र"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २                 

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः २                    

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध दूसरा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय २ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ द्वितीयोऽध्ययः ॥

श्रीशुक उवाच

एवं पितरि सम्प्रवृत्ते तदनुशासने वर्तमान आग्नीध्रो

जम्बूद्वीपौकसः प्रजा औरसवद्धर्मावेक्षमाणः

पर्यगोपायत् ॥ १॥

स च कदाचित्पितृलोककामः सुरवरवनिताक्रीडाचलद्रोण्यां

भगवन्तं विश्वसृजां पतिमाभृतपरिचर्योपकरण आत्मैकाग्र्येण

तपस्व्याराधयाम्बभूव ॥ २॥

तदुपलभ्य भगवानादिपुरुषः सदसि गायन्तीं पूर्वचित्तिं

नामाप्सरसमभियापयामास ॥ ३॥

सा च तदाश्रमोपवनमतिरमणीयं विविधनिबिडविटपि-

विटपनिकरसंश्लिष्टपुरटलतारूढस्थलविहङ्गममिथुनैः

प्रोच्यमानश्रुतिभिः प्रतिबोध्यमानसलिलकुक्कुटकारण्डव-

कलहंसादिभिर्विचित्रमुपकूजितामलजलाशयकमलाकर-

मुपबभ्राम ॥ ४॥

तस्याः सुललितगमनपदविन्यासगतिविलासायाश्चानुपदं

खणखणायमानरुचिरचरणाभरणस्वनमुपाकर्ण्य

नरदेवकुमारः समाधियोगेनामीलितनयननलिनमुकुल-

युगलमीषद्विकचय्य व्यचष्ट ॥ ५॥

तामेवाविदूरे मधुकरीमिव सुमनस उपजिघ्रन्तीं

दिविजमनुजमनोनयनाह्लाददुघैर्गतिविहारव्रीडा-

विनयावलोकसुस्वराक्षरावयवैर्मनसि नृणां कुसुमायुधस्य

विदधतीं विवरं निजमुखविगलितामृतासवसहास-

भाषणामोदमदान्धमधुकरनिकरोपरोधेन द्रुतपदविन्यासेन

वल्गुस्पन्दनस्तनकलशकबरभाररशनां देवीं तदवलोकनेन

विवृतावसरस्य भगवतो मकरध्वजस्य वशमुपनीतो

जडवदिति होवाच ॥ ६॥

का त्वं चिकीर्षसि च किं मुनिवर्य शैले

मायासि कापि भगवत्परदेवतायाः ।

विज्ये बिभर्षि धनुषी सुहृदात्मनोऽर्थे

किं वा मृगान् मृगयसे विपिने प्रमत्तान् ॥ ७॥

बाणाविमौ भगवतः शतपत्रपत्रौ

शान्तावपुङ्खरुचिरावतितिग्मदन्तौ ।

कस्मै युयुङ्क्षसि वने विचरन् न विद्मः

क्षेमाय नो जडधियां तव विक्रमोऽस्तु ॥ ८॥

शिष्या इमे भगवतः परितः पठन्ति

गायन्ति साम सरहस्यमजस्रमीशम् ।

युष्मच्छिखाविलुलिताः सुमनोऽभिवृष्टीः

सर्वे भजन्त्यृषिगणा इव वेदशाखाः ॥ ९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- पिता प्रियव्रत के इस प्रकार तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीध्र उनकी आज्ञा का अनुसरण करते हुए जम्बू द्वीप की प्रजा का धर्मानुसार पुत्रवत् पालन करने लगे। एक बार वे पितृलोक की कामना से सत्पुत्र प्राप्ति के लिये पूजा की सब सामग्री जुटाकर सुरसुन्दरियों के क्रीड़ास्थल मन्दराचल की एक घाटी में गये और तपस्या में तत्पर होकर एकाग्रचित्त से प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्मा जी की आराधना करने लगे। आदिदेव भगवान् श्रीब्रह्मा जी ने उनकी अभिलाषा जान ली। अतः अपनी सभा की गायिका पूर्वचित्ति नाम की अप्सरा को उनके पास भेज दिया। आग्नीध्र जी के आश्रम के पास एक अति रमणीय उपवन था। वह अप्सरा उसी में विचरने लगी। उस उपवन में तरह-तरह के सघन तरुवरों की शाखाओं पर स्वर्ण लताएँ फैली हुई थीं। उन पर बैठे हुए मयूरादि कई प्रकार के स्थलचारी पक्षियों के जोड़े सुमधुर बोली बोल रहे थे। उनकी षड्जादि स्वरयुक्त ध्वनि सुनकर सचेत हुए जलकुक्कुट, कारण्डव एवं कलहंस आदि जलपक्षी भाँति-भाँति से कूजने लगते थे। इससे वहाँ के कमलवन से सुशोभित निर्मल सरोवर गूँजने लगते थे।

पूर्वचित्ति की विलासपूर्ण सुललित गतिविधि और पादविन्यास की शैली से पद-पद पर उसके चरणनूपुरों की झनकार हो उठती थी। उसकी मनोहर ध्वनि सुनकर राजकुमार आग्नीध्र ने समाधियोग द्वारा मूँदे हुए अपने कमल-कली के समान सुन्दर नेत्रों को कुछ-कुछ खोलकर देखा तो पास ही उन्हें वह अप्सरा दिखायी दी। वह भ्रमरी के समान एक-एक फूल के पास जाकर उसे सूँघती थी तथा देवता और मनुष्यों के मन और नयनों को आह्लादित करने वाली अपनी विलासपूर्ण गति, क्रीड़ा-चापल्य, लज्जा एवं विनययुक्त चितवन, सुमधुर वाणी तथा मनोहर अंगावयवों से पुरुषों के हृदय में कामदेव के प्रवेश के लिये द्वार-सा बना देती थी। जब वह हँस-हँसकर बोलने लगती, तब ऐसा प्रतीत होता मानो उसके मुख से अमृतमय मादक मधु झर रहा है। उसके निःश्वास के गन्ध से मदान्ध होकर भौरे उसके मुखकमल को घेर लेते, तब वह उनसे बचने के लिये जल्दी-जल्दी पैर उठाकर चलती तो उसके कुचकलश, वेणी और करधनी हिलने से बड़े ही सुहावने लगते।

यह सब देखने से भगवान् कामदेव को आग्नीध्र के हृदय में प्रवेश करने का अवसर मिल गया और वे उनके अधीन होकर उसे प्रसन्न करने के लिये पागल की भाँति इस प्रकार कहने लगे- मुनिवर्य! तुम कौन हो, इस पर्वत पर तुम क्या करना चाहते हो? तुम परमपुरुष श्रीनारायण की कोई माया तो नहीं हो? [भौंहों की ओर सनते करके-] सखे! तुमने ये बिना डोरी के दो धनुष क्यों धारण कर रखे हैं? क्या इनसे तुम्हारा कोई अपना प्रयोजन है अथवा इस संसारारण्य में मुझ-जैसे मतवाले मृगों का शिकार करना चाहते हो।

[कटाक्षों को लक्ष्य करके-] तुम्हारे ये दो बाण तो बड़े सुन्दर और पैने हैं। अहो! इनके कमलदल के पंख हैं, देखने में शान्त हैं और हैं भी पंखहीन। यहाँ वन में विचरते हुए तुम इन्हें किस पर छोड़ना चाहते हो? यहाँ तुम्हारा कोई सामना करने वाला नहीं दिखायी देता। तुम्हारा यह पराक्रम हम-जैसे जड़-बुद्धियों के लिये कल्याणकारी हो।

[भौंरों की ओर देखकर-] भगवन्! तुम्हारे चारों ओर जो ये शिष्यगण अध्ययन कर रहे हैं, वे तो निरन्तर रहस्ययुक्त सामगाम करते हुए मानो भगवान् की स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण जैसे वेद की शाखाओं का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार ये सब तुम्हारी चोटी से झड़े हुए पुष्पों का सेवन कर रहे हैं।

वाचं परं चरणपञ्जरतित्तिरीणां

ब्रह्मन्नरूपमुखरां शृणवाम तुभ्यम् ।

लब्धा कदम्बरुचिरङ्कविटङ्कबिम्बे

यस्यामलातपरिधिः क्व च वल्कलं ते ॥ १०॥

किं सम्भृतं रुचिरयोर्द्विज शृङ्गयोस्ते

मध्ये कृशो वहसि यत्र दृशिः श्रिता मे ।

पङ्कोऽरुणः सुरभिरात्मविषाण ईदृग्

येनाश्रमं सुभग मे सुरभीकरोषि ॥ ११॥

लोकं प्रदर्शय सुहृत्तम तावकं मे

यत्रत्य इत्थमुरसावयवावपूर्वौ ।

अस्मद्विधस्य मन उन्नयनौ बिभर्ति

बह्वद्भुतं सरसराससुधादिवक्त्रे ॥ १२॥

का वाऽऽत्मवृत्तिरदनाद्धविरङ्ग वाति

विष्णोः कलास्यनिमिषोन्मकरौ च कर्णौ ।

उद्विग्नमीनयुगलं द्विजपङ्क्तिशोचि-

रासन्नभृङ्गनिकरं सर उन्मुखं ते ॥ १३॥

योऽसौ त्वया करसरोजहतः पतङ्गो

दिक्षु भ्रमन् भ्रमत एजयतेऽक्षिणी मे

मुक्तं न ते स्मरसि वक्रजटावरूथं

कष्टोऽनिलो हरति लम्पट एष नीवीम् ॥ १४॥

रूपं तपोधन तपश्चरतां तपोघ्नं

ह्येतत्तु केन तपसा भवतोपलब्धम् ।

चर्तुं तपोऽर्हसि मया सह मित्र मह्यं

किं वा प्रसीदति स वै भवभावनो मे ॥ १५॥

न त्वां त्यजामि दयितं द्विजदेवदत्तं

यस्मिन् मनो दृगपि नो न वियाति लग्नम् ।

मां चारुश‍ृङ्ग्यर्हसि नेतुमनुव्रतं ते

चित्तं यतः प्रतिसरन्तु शिवाः सचिव्यः ॥ १६॥

श्रीशुक उवाच

इति ललनानुनयातिविशारदो ग्राम्यवैदग्ध्यया

परिभाषया तां विबुधवधूं विबुधमतिरधिसभा-

जयामास ॥ १७॥

सा च ततस्तस्य वीरयूथपतेर्बुद्धिशीलरूपवयः-

श्रियौदार्येण पराक्षिप्तमनास्तेन सहायुतायुत-

परिवत्सरोपलक्षणं कालं जम्बूद्वीपपतिना

भौमस्वर्गभोगान् बुभुजे ॥ १८॥

तस्यामु ह वा आत्मजान् स राजवर आग्नीध्रो

नाभिकिम्पुरुषहरिवर्षेलावृतरम्यकहिरण्मयकुरुभद्राश्व-

केतुमालसंज्ञान् नव पुत्रानजनयत् ॥ १९॥

[नूपुरों के शब्द की ओर संकेत करके-] ब्रह्मन्! तुम्हारे चरणरूप पिंजड़ों में तो तीतर बन्द हैं, उनका शब्द तो सुनायी देता है; परन्तु रूप देखने में नहीं आता।

[करधनी सहित पीली साड़ी में अंग की कान्ति की उत्प्रेक्षा कर-] तुम्हारे नितम्बों पर यह कदम्ब-कुसुमों की-सी आभा कहाँ से आ गयी? इनके ऊपर तो अंगारों का मण्डल-सा भी दिखायी देता है। किन्तु तुम्हारा वल्कल-वस्त्र कहाँ है?

[कुकुममण्डित कुचों की ओर लक्ष्य करके-] द्विजवर! तुम्हारे इन दोनों सुन्दर सींगों में क्या भरा हुआ है? अवश्य ही इनमें बड़े अमूल्य रत्न भरे हैं, इसी से तो तुम्हारा मध्य भाग इतना कृश होने पर भी तुम इनका बोझ ढो रहे हो। यहाँ जाकर मेरी दृष्टि भी मानो अटक गयी है। और सुभग! इन सींगों पर तुमने यह लाल-लाल लेप-सा क्या लगा रखा है? इसकी गन्ध से तो मेरा सारा आश्रम महक उठा है।

मित्रवर! मुझे तो तुम अपना देश दिखा दो, जहाँ के निवासी अपने वक्षःस्थल पर ऐसे अद्भुत अवयव धारण करते हैं, जिन्होंने हमारे-जैसे प्राणियों के चिट्टों को क्षुब्ध कर दिया है तथा मुख में विचित्र हाव-भाव, सरसभाषण और अधरामृत-जैसी अनूठी वस्तुएँ रखते हैं।

प्रियवर! तुम्हारा भोजन क्या है, जिसके खाने से तुम्हारे मुख से हवन सामग्री की-सी सुगन्ध फैल रही है? मालूम होता है, तुम कोई विष्णु भगवान् की कला ही हो; इसीलिये तुम्हारे कानों में कभी पलक न मारने वाले मकर के आकर के दो कुण्डल हैं। तुम्हारा मुख एक सुन्दर सरोवर के समान है। उसमें तुम्हारे चंचल नेत्र भय से काँपती हुई दो मछलियों के समान, दन्तपंक्ति हंसों के समान और घुँघराली अलकावली भौरों के समान शोभायमान है। तुम सब अपने करकमलों से थपकी मारकर इस गेंद को उछालते हो, तब यह दिशा-विदिशाओं में जाती हुई मेरे नेत्रों को तो चंचल कर ही देती है, साथ-साथ मेरे मन में भी खलबली पैदा कर देती है। तुम्हारा बाँका जटाजूट खुल गया है, तुम इसे सँभालते क्यों नहीं? अरे, यह धूर्त वायु कैसा दुष्ट है जो बार-बार तुम्हारे नीवी-वस्त्र को उड़ा देता है।

तपोधन! तपस्वियों के तप को भ्रष्ट करने वाला यह अनूपरूप तुमने किस तप के प्रभाव से पाया है? मित्र! आओ, कुछ दिन मेरे साथ रहकर तपस्या करो। अथवा, कहीं विश्वविस्तार की इच्छा से ब्रह्मा जी ने ही तो मुझ पर कृपा नहीं की है। सचमुच, तुम ब्रह्मा जी की ही प्यारी देन हो; अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। तुम में तो मेरे मन और नयन ऐसे उलझ गये हैं कि अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते। सुन्दर सींगों वाली! तुम्हारा जहाँ मन हो, मुझे भी वहीं ले चलो; मैं तुम्हारा अनुचर हूँ और तुम्हारी ये मंगलमयी सखियाँ भी हमारे ही साथ रहें

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! आग्नीध्र देवताओं के समान बुद्धिमान् और स्त्रियों को प्रसन्न करने में बड़े कुशल थे। उन्होंने इसी प्रकार की रतिचातुर्यमयी मीठी-मीठी बातों से उस अप्सरा को प्रसन्न कर लिया। वीर-समान में अग्रगण्य आग्नीध्र की बुद्धि, शील, रूप, अवस्था, लक्ष्मी और उदारता से आकर्षित होकर वह उन जम्बूद्वीपाधिपति के साथ कई हर्जर वर्षों तक पृथ्वी और स्वर्ग के भोग भोगती रही। तदनन्तर नृपवर आग्नीध्र ने उसके गर्भ से नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल नाम के नौ पुत्र उत्पन्न किये।

सा सूत्वाथ सुतान् नवानुवत्सरं गृह एवापहाय

पूर्वचित्तिर्भूय एवाजं देवमुपतस्थे ॥ २०॥

आग्नीध्रसुतास्ते मातुरनुग्रहादौत्पत्तिकेनैव

संहननबलोपेताः पित्रा विभक्ता आत्मतुल्यनामानि

यथाभागं जम्बूद्वीपवर्षाणि बुभुजुः ॥ २१॥

आग्नीध्रो राजातृप्तः कामानामप्सरसमेवानुदिन-

मधिमन्यमानस्तस्याः सलोकतां श्रुतिभिरवारुन्ध

यत्र पितरो मादयन्ते ॥ २२॥

सम्परेते पितरि नव भ्रातरो मेरुदुहितॄर्मेरुदेवीं प्रतिरूपा-

मुग्रदंष्ट्रीं लतां रम्यां श्यामां नारीं भद्रां देववीतिमिति संज्ञा

नवोदवहन् ॥ २३॥

इस प्रकार नौ वर्ष में प्रतिवर्ष एक के क्रम से नौ पुत्र उत्पन्न कर पूर्वचित्ति उन्हें राजभवन में ही छोड़कर फिर ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित हो गयी। ये आग्नीध्र के पुत्र माता के अनुग्रह से स्वभाव से ही सुडौल और सबल शरीर वाले थे।

आग्नीध्र ने जम्बू द्वीप के विभाग करके उन्हीं के समान नाम वाले नौ वर्ष (भूखण्ड) बनाये और उन्हें एक-एक पुत्र को सौंप दिया। तब वे सब अपने-अपने वर्ष का राज्य भोगने लगे।

महाराज आग्नीध्र दिन-दिन भोगों को भोगते रहने पर भी उनसे अतृप्त ही रहे। वे उस अप्सरा को ही परम पुरुषार्थ समझते थे। इसलिये उन्होंने वैदिक कर्मों के द्वारा उसी लोक को प्राप्त किया, जहाँ पितृगण अपन सुकृतों के अनुसार तरह-तरह के भोगों में मस्त रहते हैं। पिता के परलोक सिधारने पर नाभि आदि नौ भाइयों ने मेरु की मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा आदि देववीति नाम की नौ कन्याओं से विवाह किया।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे आग्नीध्रवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के 2 अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय ३ 

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