श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १                         

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १ "प्रियव्रत-चरित्र"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: प्रथम: अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १                

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः १                   

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध पहला अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - पञ्चमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ पञ्चमस्कन्धः ॥

॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥

राजोवाच

प्रियव्रतो भागवत आत्मारामः कथं मुने ।

गृहेऽरमत यन्मूलः कर्मबन्धः पराभवः ॥ १॥

न नूनं मुक्तसङ्गानां तादृशानां द्विजर्षभ ।

गृहेष्वभिनिवेशोऽयं पुंसां भवितुमर्हति ॥ २॥

महतां खलु विप्रर्षे उत्तमश्लोकपादयोः ।

छायानिर्वृतचित्तानां न कुटुम्बे स्पृहा मतिः ॥ ३॥

संशयोऽयं महान् ब्रह्मन् दारागारसुतादिषु ।

सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ॥ ४॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- मुने! महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रम में कैसे रुचि हुई, जिसमें फँसने के कारण मनुष्य को अपने स्वरूप की विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धन में बँध जाता है? विप्रवर! निश्चय ही ऐसे निःसंग महापुरुषों का इस प्रकार गृहस्थाश्रम में अभिनिवेश होना उचित नहीं है। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरि के चरणों की शीतला छाया का आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषों की कुटुम्बादि में कभी आसक्ति नहीं हो सकती।

ब्रह्मन्! मुझे इस बात का बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रत ने स्त्री, घर और पुत्रादि में आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान् श्रीकृष्ण में अविचल भक्ति हुई।

श्रीशुक उवाच

बाढमुक्तं भगवत उत्तमश्लोकस्य श्रीमच्चरणारविन्द-

मकरन्दरस आवेशितचेतसो भागवत परमहंस-

दयितकथां किञ्चिदन्तरायविहतां स्वां शिवतमां

पदवीं न प्रायेण हिन्वन्ति ॥ ५॥

यर्हि वाव ह राजन् स राजपुत्रः प्रियव्रतः

परमभागवतो नारदस्य चरणोपसेवयाञ्जसावगत-

परमार्थसतत्त्वो ब्रह्मसत्रेण दीक्षिष्यमाणोऽवनितल-

परिपालनायाम्नातप्रवरगुणगणैकान्तभाजनतया

स्वपित्रोपामन्त्रितो भगवति वासुदेव एवाव्यवधान-

समाधियोगेन समावेशितसकलकारकक्रियाकलापो

नैवाभ्यनन्दद्यद्यपि तदप्रत्याम्नातव्यं तदधिकरण

आत्मनोऽन्यस्मादसतोऽपि पराभवमन्वीक्षमाणः ॥ ६॥

अथ ह भगवानादिदेव एतस्य गुणविसर्गस्य

परिबृंहणानुध्यानव्यवसितसकलजगदभिप्राय

आत्मयोनिरखिलनिगमनिजगणपरिवेष्टितः

स्वभवनादवततार ॥ ७॥

स तत्र तत्र गगनतल उडुपतिरिव विमानावलिभि-

रनुपथममरपरिवृढैरभिपूज्यमानः पथि पथि च

वरूथशः सिद्धगन्धर्वसाध्यचारणमुनिगणैरुपगीयमानो

गन्धमादनद्रोणीमवभासयन्नुपससर्प ॥ ८॥

तत्र ह वा एनं देवर्षिर्हंसयानेन पितरं भगवन्तं

हिरण्यगर्भमुपलभमानः सहसैवोत्थायार्हणेन सह

पितापुत्राभ्यामवहिताञ्जलिरुपतस्थे ॥ ९॥

भगवानपि भारत तदुपनीतार्हणः सूक्तवाकेनातितरा-

मुदितगुणगणावतारसुजयः प्रियव्रतमादिपुरुषस्तं

सदयहासावलोक इति होवाच ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरि के परम मधुर चरणकमल-मकरन्द के रस में सराबोर हो गया है, वे किसी विघ्न-बाधा के कारण रुकावट आ जाने पर भी भगवद्भक्त परमहंसों के प्रिय श्रीवासुदेव भगवान् के कथा श्रवणरूपी परमकल्याणमय मार्ग को प्रायः छोड़ते नहीं।

राजन्! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भवद्भक्त थे, श्रीनारद जी के चरणों की सेवा करने से उन्हें सहज में ही परमार्थतत्त्व का बोध हो गया था। वे ब्रह्मसत्र की दीक्षा- निरन्तर ब्रह्माभ्यास में जीवन बिताने का नियम लेने वाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनु ने उन्हें पृथ्वीपालन के लिये शास्त्र में बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणों से पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासन के लिये आज्ञा दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोग के द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओं को भगवान् वासुदेव के चरणों में ही समर्पण कर चुके थे। अतः पिता की आज्ञा किसी प्रकार उल्लंघन करने योग्य न होने पर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपंच से आच्छादित हो जायेगा- राज्य और कुटुम्ब की चिन्ता में फँसकर मैं परमार्थतत्त्व को प्रायः भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया।

आदिदेव स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा जी को निरन्तर इस गुणमय प्रपंच की वृद्धि का ही विचार रहता है। वे सारे संसार के जीवों का अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियव्रत की ऐसी प्रवृत्ति देखी, तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पार्षदों को साथ लिये अपने लोक से उतरे। आकाश में जहाँ-तहाँ विमानों पर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान-प्रधान देवताओं ने उनका पूजन किया तथा मार्ग में टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजन ने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चन्द्रमा के समान गन्धमादन की घाटी को प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के पास पहुँचे। प्रियव्रत को आत्मविद्या का उपदेश देने के लिये वहाँ नारद जी भी आये हुए थे। ब्रह्मा जी के वहाँ पहुँचने पर उनके वाहन हंस को देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान् ब्रह्मा जी पधारे हैं; अतः वे स्वयाम्भुव मनु और प्रियव्रत के सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

परीक्षित! नारद जी ने उनकी अनेक प्रकार से पूजा की और सुमधुर वचनों में उनके गुण और अवतार की उत्कृष्टता का वर्णन किया। तब आदिपुरुष भगवान् ब्रह्मा जी ने प्रियव्रत की ओर मन्द मुस्कान युक्त दयादृष्टि से देखते हुए इस प्रकार कहा।

श्रीभगवानुवाच

निबोध तातेदमृतं ब्रवीमि

मासूयितुं देवमर्हस्यप्रमेयम् ।

वयं भवस्ते तत एष महर्षि-

र्वहाम सर्वे विवशा यस्य दिष्टम् ॥ ११॥

न तस्य कश्चित्तपसा विद्यया वा

न योगवीर्येण मनीषया वा ।

नैवार्थधर्मैः परतः स्वतो वा

कृतं विहन्तुं तनुभृद्विभूयात् ॥ १२॥

भवाय नाशाय च कर्म कर्तुं

शोकाय मोहाय सदा भयाय ।

सुखाय दुःखाय च देहयोग-

मव्यक्तदिष्टं जनताङ्ग धत्ते ॥ १३॥

यद्वाचि तन्त्यां गुणकर्मदामभिः

सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिताः ।

सर्वे वहामो बलिमीश्वराय

प्रोता नसीव द्विपदे चतुष्पदः ॥ १४॥

ईशाभिसृष्टं ह्यवरुन्ध्महेऽङ्ग

दुःखं सुखं वा गुणकर्मसङ्गात् ।

आस्थाय तत्तद्यदयुङ्क्त नाथ-

श्चक्षुष्मतान्धा इव नीयमानाः ॥ १५॥

मुक्तोऽपि तावद्बिभृयात्स्वदेह-

मारब्धमश्नन्नभिमानशून्यः ।

यथानुभूतं प्रतियातनिद्रः

किं त्वन्यदेहाय गुणान्न वृङ्क्ते ॥ १६॥

भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्या-

द्यतः स आस्ते सह षट्सपत्नः ।

जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बुधस्य

गृहाश्रमः किं नु करोत्यवद्यम् ॥ १७॥

यः षट्सपत्नान् विजिगीषमाणो

गृहेषु निर्विश्य यतेत पूर्वम् ।

अत्येति दुर्गाश्रित ऊर्जितारीन्

क्षीणेषु कामं विचरेद्विपश्चित् ॥ १८॥

त्वं त्वब्जनाभाङ्घ्रिसरोजकोश-

दुर्गाश्रितो निर्जितषट्सपत्नः ।

भुङ्क्ष्वेह भोगान् पुरुषातिदिष्टान्

विमुक्तसङ्गः प्रकृतिं भजस्व ॥ १९॥

श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;- बेटा! मैं तुमसे सत्य सिद्धान्त की बात कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो। तुम्हें अप्रमेय श्रीहरि के प्रति किसी प्रकार की दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या-हम, महादेव जी, तुम्हारे पिता स्वयाम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हीं आज्ञा का पालन करते हैं। उनके विधान को कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल या बुद्धिबल से, न अर्थ या धर्म की शक्ति से और न स्वयं या किसी दूसरे की सहायता से ही टाल सकता है। प्रियवर! उसी अव्यक्त ईश्वर के दिये हुए शरीर को सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुःख का भोग करने तथा कर्म करने के लिये सदा धारण करते हैं।

वत्स! जिस प्रकार रस्सी से नथा हुआ पशु मनुष्यों का बोझ ढोता है, उसी प्रकार परमात्मा की वेदवाणीरूप बड़ी रस्सी में सत्त्वादि गुण, सात्त्विक आदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्यों की मजबूत डोरी से जकड़े हुए हम सब लोग उन्हीं के इच्छानुसार कर्म में लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं। हमारे गुण और कर्मों के अनुसार प्रभु ने हमें जिस योनि में डाल दिया है, उसी को स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं, उसी के अनुसार हम सुख या दुःख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छा का उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधे को आँख वाले पुरुष का।

मुक्त पुरुष भी प्रारब्ध का भोग करता हुआ भगवान् की इच्छा के अनुसार अपने शरीर को धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य की निद्रा टूट जाने पर भी स्वप्न में अनुभव किये हुए पदार्थों का स्मरण होता है। इस अवस्था में भी उसको अभिमान नहीं होता और विषयवासना के जिन संस्कारों के कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता। जो पुरुष इन्द्रियों के वशीभूत है, वह वन-वन में विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म-मरण का भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छः शत्रु कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते।

जो बुद्धिमान् पुरुष इन्द्रियों को जीतकर अपनी आत्मा में ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है? जिसे इन छः शत्रुओं को जीतने की इच्छा हो, वह पहले घर में रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वश में करने का प्रयत्न करे। किले में सुरक्षित रहकर लड़ने वाला राजा अपने प्रबल शत्रुओं को भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओं का बल अत्यन्त क्षीण हो जाये, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है। तुम यद्यपि श्रीकमलनाभ भगवान् के चरणकमल की कलीरूप किले के आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओं को जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुष के दिये हुए भोगों को भोगो; इसके बाद निःसंग होकर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना।

श्रीशुक उवाच

इति समभिहितो महाभागवतो भगवतस्त्रिभुवनगुरो-

रनुशासनमात्मनो लघुतयावनतशिरोधरो बाढमिति

सबहुमानमुवाह ॥ २०॥

भगवानपि मनुना यथावदुपकल्पितापचितिः

प्रियव्रतनारदयोरविषममभिसमीक्षमाणयोरात्म-

समवस्थानमवाङ्मनसं क्षयमव्यवहृतं प्रवर्तयन्नगमत् ॥ २१॥

मनुरपि परेणैवं प्रतिसन्धितमनोरथः सुरर्षिवरानुमतेना-

त्मजमखिलधरामण्डलस्थितिगुप्तय आस्थाप्य स्वयमति-

विषमविषयविषजलाशयाशाया उपरराम ॥ २२॥

इति ह वाव स जगतीपतिरीश्वरेच्छयाधिनिवेशित-

कर्माधिकारोऽखिलजगद्बन्धध्वंसनपरानुभावस्य

भगवत आदिपुरुषस्याङ्घ्रियुगलानवरतध्यानानुभावेन

परिरन्धितकषायाशयोऽवदातोऽपि मानवर्धनो

महतां महीतलमनुशशास ॥ २३॥

अथ च दुहितरं प्रजापतेर्विश्वकर्मण उपयेमे बर्हिष्मतीं

नाम तस्यामु ह वाव आत्मजानात्मसमानशीलगुणकर्म-

रूपवीर्योदारान् दश भावयाम्बभूव कन्यां च यवीयसी-

मूर्जस्वतीं नाम ॥ २४॥

आग्नीध्रेध्मजिह्वयज्ञबाहुमहावीरहिरण्यरेतोघृतपृष्ठ-

सवनमेधातिथिवीतिहोत्रकवय इति सर्व एवाग्निनामानः ॥ २५॥

एतेषां कविर्महावीरः सवन इति त्रय आसन्नूर्ध्वरेतसस्त

आत्मविद्यायामर्भभावादारभ्य कृतपरिचयाः पारमहंस्य-

मेवाश्रममभजन् ॥ २६॥

तस्मिन्नु ह वा उपशमशीलाः परमर्षयः सकलजीव-

निकायावासस्य भगवतो वासुदेवस्य भीतानां शरणभूतस्य

श्रीमच्चरणारविन्दाविरतस्मरणाविगलितपरमभक्तियोगा-

नुभावेन परिभावितान्तर्हृदयाधिगते भगवति सर्वेषां भूताना-

मात्मभूते प्रत्यगात्मन्येवात्मनस्तादात्म्यमविशेषेण समीयुः ॥ २७॥

अन्यस्यामपि जायायां त्रयः पुत्रा आसन्नुत्तमस्तामसो

रैवत इति मन्वन्तराधिपतयः ॥ २८॥

एवमुपशमायनेषु स्वतनयेष्वथ जगतीपतिर्जगती-

मर्बुदान्येकादशपरिवत्सराणामव्याहताखिलपुरुषकार-

सारसम्भृतदोर्दण्डयुगलापीडितमौर्वीगुणस्तनित-

विरमितधर्मप्रतिपक्षो बर्हिष्मत्याश्चानुदिनमेधमानप्रमोद-

प्रसरणयौषिण्यव्रीडाप्रमुषितहासावलोकरुचिरक्ष्वेल्यादिभिः

पराभूयमानविवेक इवानवबुध्यमान इव महामना बुभुजे ॥ २९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- जब त्रिलोकी के गुरु श्रीब्रह्मा जी ने इस प्रकार कहा, तो परमभागवत प्रियव्रत ने छोटे होने के कारण नम्रता से सिर झुका लिया और जो आज्ञाऐसा कहकर बड़े आदरपूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया। तब स्वयाम्भुव मनु ने प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्मा जी की विधिवत् पूजा की। इसके पश्चात् वे मन और वाणी के अविषय, अपने आश्रय तथा सर्वव्यवहारातीत परब्रह्म का चिन्तन करते हुए अपने लोक को चले गये। इस समय प्रियव्रत और नारद जी सरल भाव से उनकी ओर देख रहे थे।

मनु जी ने इस प्रकार ब्रह्मा जी की कृपा से अपना मनोरथ पूर्ण हो जाने पर देवर्षि नारद की आज्ञा से प्रियव्रत को सम्पूर्ण भूमण्डल की रक्षा का भार सौंप दिया और स्वयं विषयरूपी विषैले जल से भरे हुए गृहस्थाश्रमरूपी दुस्तर जलाशय की भोगेच्छा से निवृत्त हो गये। अब पृथ्वीपति महाराज प्रियव्रत भगवान् की इच्छा से राज्य शासन के कार्य में नियुक्त हुए। जो सम्पूर्ण जगत् को बन्धन से छुड़ाने में अत्यन्त समर्थ हैं, उन आदिपुरुष श्रीभगवान् के चरणयुगल का निरन्तर ध्यान करते रहने से यद्यपि उनके रागादि सभी मल नष्ट हो चुके थे और उनका हृदय भी अत्यन्त शुद्ध था, तथापि बड़ों का मान रखने के लिये वे पृथ्वी का शासन करने लगे।

तदनन्तर उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से विवाह किया। उससे उनके दस पुत्र हुए। वे सब उन्हीं के समान शीलवान्, गुणी, कर्मनिष्ठ, रूपवान् और पराक्रमी थे। उनसे छोटी ऊर्जस्वती नाम की एक कन्या भी हुई। पुत्रों के नाम आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि थे। ये सब नाम अग्नि के भी हैं। इनमें कवि, महावीर और सवन- ये तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए। इन्होंने बाल्यावस्था से आत्मविद्या का अभ्यास करते हुए अन्त में संन्यासाश्रम ही स्वीकार किया।

इन निवृत्तिपरायण महर्षियों ने संन्यासाश्रम में ही रहते हुए समस्त जीवों के अधिष्ठान और भवबन्धन से डरे हुए लोगों को आश्रय देने वाले भगवान् वासुदेव के परमसुन्दर चरणारविन्दों का निरन्तर चिन्तन किया। उससे प्राप्त हुए अखण्ड एवं प्रेष्ठ भक्तियोग से उनका अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध हो गया और उसमें श्रीभगवान् का आविर्भाव हुआ। तब देहादि उपाधि की निवृत्ति हो जाने से उनकी आत्मा की सम्पूर्ण जीवों के आत्मभूत प्रत्यगात्मा में एकीभाव से स्थित हो गयी।

महाराज प्रियव्रत की दूसरी भार्या से उत्तम, तामस और रैवत- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वन्तरों के अधिपति हुए। इस प्रकार कवि आदि तीन पुत्रों के निवृत्तिपरायण हो जाने पर राजा प्रियव्रत ने ग्यारह अर्बुद वर्षों तक पृथ्वी का शासन किया। जिस समय वे अपनी अखण्ड पुरुषार्थमयी आर वीर्यशालिनी भुजाओं से धनुष की डोरी खींचकर टंकार करते थे, उस समय डर के मारे सभी धर्मद्रोही न जाने कहाँ छिप जाते थे। प्राणप्रिया बर्हिष्मती के दिन-दिन बढ़ने वाले अमोह-प्रमोद और अभ्युत्थानादि क्रीड़ाओं के कारण तथा उसके स्त्री-जनोचित हाव-भाव, लज्जा से संकुचित मन्दाहास्य-युक्त चितवन और मन को भाने वाले विनोद आदि से महामना प्रियव्रत विवेकहीन व्यक्ति की भाँति आत्म-विस्मृत से होकर सब भोगों को भोगने लगे। किन्तु वास्तव में ये उनमें आसक्त नहीं थे।

यावदवभासयति सुरगिरिमनुपरिक्रामन् भगवानादित्यो

वसुधातलमर्धेनैव प्रतपत्यर्धेनावच्छादयति तदा हि

भगवदुपासनोपचितातिपुरुषप्रभावस्तदनभिनन्दन्

समजवेन रथेन ज्योतिर्मयेन रजनीमपि दिनं करिष्यामीति

सप्तकृत्वस्तरणिमनुपर्यक्रामद्द्वितीय इव पतङ्गः ॥ ३०॥

ये वा उ ह तद्रथचरणनेमिकृतपरिखातास्ते सप्तसिन्धव

आसन् यत एव कृताः सप्त भुवो द्वीपाः ॥ ३१॥

जम्बूप्लक्षशाल्मलिकुशक्रौञ्चशाकपुष्करसंज्ञास्तेषां परिमाणं

पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो यथासङ्ख्यं द्विगुणमानेन बहिः

समन्तत उपकॢप्ताः ॥ ३२॥

क्षारोदेक्षुरसोदसुरोदघृतोदक्षीरोददधिमण्डोदशुद्धोदाः

सप्तजलधयः सप्तद्वीपपरिखा इवाभ्यन्तरद्वीपसमाना

एकैकश्येन यथानुपूर्वं सप्तस्वपि बहिर्द्वीपेषु पृथक्परित

उपकल्पितास्तेषु जम्ब्वादिषु बर्हिष्मतीपतिरनुव्रता-

नात्मजानाग्नीध्रेध्मजिह्वयज्ञबाहुहिरण्यरेतोघृतपृष्ठ-

मेधातिथिवीतिहोत्रसंज्ञान् यथासङ्ख्येनैकैकस्मि-

न्नेकमेवाधिपतिं विदधे ॥ ३३॥

दुहितरं चोर्जस्वतीं नामोशनसे प्रायच्छद्यस्यामासी-

द्देवयानी नाम काव्यसुता ॥ ३४॥

नैवंविधः पुरुषकार उरुक्रमस्य

पुंसां तदङ्घ्रिरजसा जितषड्गुणानाम् ।

चित्रं विदूरविगतः सकृदाददीत

यन्नामधेयमधुना स जहाति बन्धम् ॥ ३५ ॥

स एवमपरिमितबलपराक्रम एकदा तु देवर्षिचरणा-

नुशयनानुपतितगुणविसर्गसंसर्गेणानिर्वृतमिवात्मानं

मन्यमान आत्मनिर्वेद इदमाह ॥ ३६ ॥

अहो असाध्वनुष्ठितं यदभिनिवेशितोऽहमिन्द्रियैरविद्या-

रचितविषमविषयान्धकूपे तदलमलममुष्या वनिताया

विनोदमृगं मां धिग्धिगिति गर्हयाञ्चकार ॥ ३७ ॥

परदेवताप्रसादाधिगतात्मप्रत्यवमर्शेनानुप्रवृत्तेभ्यः पुत्रेभ्य

इमां यथादायं विभज्य भुक्तभोगां च महिषीं मृतकमिव

सह महाविभूतिमपहाय स्वयं निहितनिर्वेदो हृदि गृहीत-

हरिविहारानुभावो भगवतो नारदस्य पदवीं पुनरेवानुससार ॥ ३८ ॥

तस्य ह वा एते श्लोकाः

प्रियव्रतकृतं कर्म को नु कुर्याद्विनेश्वरम् ।

यो नेमिनिम्नैरकरोच्छायां घ्नन् सप्तवारिधीन् ॥ ३९ ॥

भूसंस्थानं कृतं येन सरिद्गिरिवनादिभिः ।

सीमा च भूतनिर्वृत्यै द्वीपे द्वीपे विभागशः ॥ ४० ॥

भौमं दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम् ।

यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रियः ॥ ४१ ॥

एक बार इन्होंने जब यह देखा कि भगवान् सूर्य सुमेरु की परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वी के जितने भाग को आलोकित करते हैं, उसमें से आधा ही प्रकाश में रहता है और आधे में अन्धकार छाया रहता है, तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। तब उन्होंने यह संकल्प लेकर कि मैं रात को भी दिन बना दूँगा;’ सूर्य के समान ही वेगवान् एक ज्योतिर्मय रथ पर चढ़कर द्वितीय सूर्य की ही भाँति उनके पीछे-पीछे पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर डालीं। भगवान् की उपासना से इनका अलौकिक प्रभाव बहुत बढ़ गया था। उस समय इनके रथ के पहियों से जो लीकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए; उनसे पृथ्वी में सात द्वीप हो गये। उनके नाम क्रमशः जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर द्वीप हैं। इनमें से पहले-पहले की अपेक्षा आगे-आगे के द्वीप का परिमाण दूना है और ये समुद्र के बाहरी भाग में पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए हैं।

सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईख के रस, मदिरा, घी, दूध, मट्ठे और मीठे जल से भरे हुए हैं। ये सातों द्वीपों की खाइयों के समान हैं और परिमाण में अपने भीतर वाले द्वीप के बराबर हैं। इनमें से एक-एक क्रमशः अलग-अलग सातों द्वीपों को बाहर से घेरकर स्थित है। बर्हिष्मतीपति महाराज प्रियव्रत ने अपने अनुगत पुत्र आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, धृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्र में से क्रमशः एक-एक को उक्त जम्बू आदि द्वीपों में से एक-एक का राजा बनाया। उन्होंने अपनी कन्या ऊर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्य जी से किया; उसी से शुक्रकन्या देवयानी का जन्म हुआ।

राजन्! जिन्होंने भगवच्चरणारविन्दों की रज के प्रभाव से शरीर के भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु- इन छः गुणों को अथवा मन के सहित छः इन्द्रियों को जीत लिया है, उन भगवद्भक्तों का ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं; क्योंकि वर्णबहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनि का पुरुष भी भगवान् के नाम का केवल एक बार उच्चारण करने से तत्काल संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार अतुलनीय बल-पराक्रम से युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, अपने को देवर्षि नारद के चरणों की शरण में जाकर भी पुनः दैववश प्राप्त हुए प्रपंच में फँस जाने से आशान्त-सा देख, मन-ही-मन विरक्त होकर इस प्रकार कहने लगे। ओह! बड़ा बुरा हुआ! मेरी विषयलोलुप इन्द्रियों ने मुझे इस अविद्याजनित विषम विषयरूप अन्धकूप में गिरा दिया। बस! बस! बहुत हो लिया। हाय! मैं तो स्त्री का क्रीड़ामृग ही बन गया! उसने मुझे बन्दर की भाँति नचाया! मुझे धिक्कार है! धिक्कार है!इस प्रकार उन्होंने अपने को बहुत कुछ बुरा-भला कहा।

परमाराध्य श्रीहरि की कृपा से उनकी विवेकवृत्ति जाग्रत् हो गयी। उन्होंने यह सारी पृथ्वी यथायोग्य अपने अनुगत पुत्रों को बाँट दी और जिसके साथ उन्होंने तरह-तरह के भोग भोगे थे, उस अपनी राजरानी को साम्राज्य लक्ष्मी के सहित मृतदेह के समान छोड़ दिया तथा हृदय में वैराग्य धारणकर भगवान् की लीलाओं का चिन्तन करते हुए उसके प्रभाव से श्रीनारद जी के बतलाये हुए मार्ग का पुनः अनुसरण करने लगे। महाराज प्रियव्रत के विषय में निम्नलिखित लोकोक्ति प्रसिद्ध है-

राजा प्रियव्रत ने जो कर्म किये, उन्हें सर्वशक्तिमान् ईश्वर के सिवा और कौन कर सकता है? उन्होंने रात्रि के अन्धकार को मिटाने का प्रयत्न करते हुए अपने रथ के पहियों से बनी हुई लीकों से ही सात समुद्र बना दिये। प्राणियों के सुभीते के लिये (जिससे उनमें परस्पर झगड़ा न हो) द्वीपों के द्वारा पृथ्वी के विभाग किये और प्रत्येक द्वीप में अलग-अलग नदी, पर्वत और वन आदि से उसकी सीमा निश्चित कर दी। वे भगवद्भक्त नारददादि के प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताल लोक के, देवलोक के, मर्त्यलोक के तथा कर्म और योग शक्ति से प्राप्त हुए ऐश्वर्य को भी नरकतुल्य समझा था

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे प्रियव्रतविजये प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के 1 अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय-२ 

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 4  पूर्व पढ़ें-

अध्याय 1           अध्याय 2         अध्याय 3

अध्याय 4           अध्याय 5         अध्याय 6

अध्याय 7           अध्याय 8         अध्याय 9

अध्याय 10         अध्याय 11      अध्याय 12

अध्याय 13        अध्याय 14       अध्याय 15

अध्याय 16        अध्याय 17        अध्याय 18

अध्याय 19        अध्याय 20        अध्याय 21

अध्याय 22        अध्याय 23       अध्याय 24

अध्याय 25        अध्याय 26       अध्याय 27

अध्याय 28        अध्याय 29       अध्याय 30    अध्याय 31

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