श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २७
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय २७ "पुरंजनपुरी पर चण्डवेग की चढ़ाई तथा कालकन्या का चरित्र"
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश: अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय २७
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४
अध्यायः २७
श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध सत्ताईसवाँ
अध्याय
चतुर्थ
स्कन्ध: श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
नारद उवाच -
(अनुष्टुप्)
इत्थं पुरञ्जनं सध्र्यग् वशमानीय
विभ्रमैः ।
पुरञ्जनी महाराज रेमे रमयती पतिम् ॥
१ ॥
स राजा महिषीं राजन् सुस्नातां
रुचिराननाम् ।
कृतस्वस्त्ययनां तृप्तां
अभ्यनन्ददुपागताम् ॥ २ ॥
तयोपगूढः परिरब्धकन्धरो
रहोऽनुमन्त्रैरपकृष्टचेतनः ।
न कालरंहो बुबुधे दुरत्ययं
दिवा निशेति प्रमदापरिग्रहः ॥ ३ ॥
शयान उन्नद्धमदो महामना
महार्हतल्पे महिषीभुजोपधिः ।
तामेव वीरो मनुते परं यतः
तमोऽभिभूतो न निजं परं च यत् ॥ ४ ॥
(अनुष्टुप्)
तयैवं रममाणस्य कामकश्मलचेतसः ।
क्षणार्धमिव राजेन्द्र
व्यतिक्रान्तं नवं वयः ॥ ५ ॥
तस्यां अजनयत् पुत्रान् पुरञ्जन्यां
पुरञ्जनः ।
शतान्येकादश विराड्
आयुषोऽर्धमथात्यगात् ॥ ॥ ६ ॥
दुहित्ईर्दशोत्तरशतं
पितृमातृयशस्करीः ।
शीलौदार्यगुणोपेताः पौरञ्जन्यः
प्रजापते ॥ ७ ॥
स पञ्चालपतिः पुत्रान्
पितृवंशविवर्धनान् ।
दारैः संयोजयामास दुहितॄ सदृशैर्वरैः
॥ ८ ॥
पुत्राणां चाभवन् पुत्रा एकैकस्य
शतं शतम् ।
यैर्वै पौरञ्जनो वंशः पञ्चालेषु
समेधितः ॥ ९ ॥
तेषु तद् रिक्थहारेषु
गृहकोशानुजीविषु ।
निरूढेन ममत्वेन विषयेष्वन्वबध्यत ॥
१० ॥
ईजे च क्रतुभिर्घोरैः दीक्षितः
पशुमारकैः ।
देवान् पितॄन् भूतपतीन् नानाकामो
यथा भवान् ॥ ११ ॥
युक्तेष्वेवं प्रमत्तस्य
कुटुम्बासक्तचेतसः ।
आससाद स वै कालो योऽप्रियः
प्रिययोषिताम् ॥ १२ ॥
चण्डवेग इति ख्यातो
गन्धर्वाधिपतिर्नृप ।
गन्धर्वास्तस्य बलिनः
षष्ट्युत्तरशतत्रयम् ॥ १३ ॥
गन्धर्व्यस्तादृशीरस्य मैथुन्यश्च
सितासिताः ।
परिवृत्त्या विलुम्पन्ति
सर्वकामविनिर्मिताम् ॥ १४ ॥
ते चण्डवेगानुचराः पुरञ्जनपुरं यदा
।
हर्तुमारेभिरे तत्र प्रत्यषेधत्
प्रजागरः ॥ १५ ॥
स सप्तभिः शतैरेको विंशत्या च शतं
समाः ।
पुरञ्जनपुराध्यक्षो
गन्धर्वैर्युयुधे बली ॥ १६ ॥
क्षीयमाणे स्वसंबन्धे एकस्मिन्
बहुभिर्युधा ।
चिन्तां परां जगामार्तः
सराष्ट्रपुरबान्धवः ॥ १७ ॥
श्रीनारद जी कहते हैं ;-
महाराज! इस प्रकार वह सुन्दरी अनेकों नखरों से पुरंजन को पूरी तरह
अपने वश में कर उसे आनन्दित करती हुई विहार करने लगी। उसने अच्छी तरह स्नान कर
अनेक प्रकार के मांगलिक श्रृंगार किये तथा भोजनादि से तृप्त होकर वह राजा के पास
आयी। राजा ने उस मनोहर मुख वाली राजमहिषी का सादर अभिनन्दन किया। पुरंजनी ने राजा
का आलिंगन किया और राजा ने उसे गले लगाया। फिर एकान्त में मन के अनुकूल रहस्य की
बातें करते हुए वह ऐसा मोहित हो गया कि उस कामिनी में ही चित्त लगा रहने के कारण
उसे दिन-रात के भेद से निरन्तर बीतते हुए काल की दुस्तर गति का भी कुछ पता न चला।
मद से छका हुआ मनस्वी पुरंजन अपनी प्रिया की भुजा पर सिर रखे महामूल्य शय्या पर
पड़ा रहता। उसे तो वह रमणी ही जीवन का परम फल जान पड़ती थी। आज्ञान से आवृत्त हो
जाने के कारण उसे आत्मा अथवा परमात्मा का कोई ज्ञान न रहा।
राजन्! इस प्रकार कामातुर चित्त से
उसके साथ विहार करते-करते राजा पुरंजन की जवानी आधे क्षण के समान बीत गयी।
प्रजापते! उस पुरंजनी से राजा पुरंजन के ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुईं,
जो सभी माता-पिता का सुयश बढ़ाने वाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न थीं। ये पौरंजनी नाम से विख्यात हुईं। इतने
में भी उस सम्राट् की लंबी आयु का आधा भाग निकल गया। फिर पांचालराज पुरंजन ने
पितृवंश की वृद्धि करने वाले पुत्रों का वधुओं के साथ और कन्याओं का उनके योग्य
वरों के साथ विवाह कर दिया। पुत्रों में से प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे
वृद्धि को प्राप्त होकर पुरंजन का वंश सारे पांचाल देश में फैल गया। इन पुत्र,
पौत्र गृह, कोश, सेवक और
मन्त्री आदि में दृढ़ ममता हो जाने से वह इन विषयों में ही बँधा गया। फिर तुम्हारी
तरह उसने भी अनेक प्रकार के भोगों की कामना से यज्ञ की दीक्षा ले तरह-तरह के
पशुहिंसामय घोर यज्ञों से देवता, पितर और भूपतियों की आराधना
की। इस प्रकार वह जीवन भर आत्मा का कल्याण करने वाले कर्मों की ओर से असावधान और
कुटुम्बपालन में व्यस्त रहा। अन्त में वृद्धावस्था का वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषों को बड़ा अप्रिय होता है।
राजन्! चण्डवेग नाम का एक
गन्धर्वराज है। उसके अधीन तीन सा साठ महाबलवान् गन्धर्व रहते हैं। इनके साथ
मिथुनभाव से स्थित कृष्ण और शुक्ल वर्ण की उतनी ही गंधार्वियाँ भी हैं। ये
बारी-बारी से चक्कर लगाकर भोग-विलास की सामग्रियों से भरी-पूरी नगरी को लूटती रहती
हैं। गन्धर्वराज चण्डवेग के उन अनुचरों ने जब राजा पुरंजन का नगर लूटना आरम्भ किया,
तब उन्हें पाँच फन के सर्प प्रजागर ने रोका। यह पुरंजनपुरी की चौकसी
कंरने वाला महाबलवान् सर्प सौ वर्ष तक अकेला ही उन सात सौ बीस गन्धर्व-गन्धर्वियों
से युद्ध करता रहा। बहुत-से वीरों के साथ अकेले ही युद्ध करने के कारण अपने
एकमात्र सम्बन्धी प्रजागर को बलहीन हुआ देख राजा पुरंजन को अपने राष्ट्र और नगर
में रहने वाले अन्य बान्धवों के सहित बड़ी चिन्ता हुई।
स एव पुर्यां मधुभुक् पञ्चालेषु
स्वपार्षदैः ।
उपनीतं बलिं गृह्णन् स्त्रीजितो
नाविदद्भयम् ॥ १८ ॥
कालस्य दुहिता काचित्त्रिलोकीं
वरमिच्छती ।
पर्यटन्ती न बर्हिष्मन् प्रत्यनन्दत
कश्चन ॥ १९ ॥
दौर्भाग्येनात्मनो लोके विश्रुता
दुर्भगेति सा ।
या तुष्टा राजर्षये तु
वृतादात्पूरवे वरम् ॥ २० ॥
कदाचिद् अटमाना सा ब्रह्मलोकान्
महीं गतम् ।
वव्रे बृहद्व्रतं मां तु जानती
काममोहिता ॥ २१ ॥
मयि संरभ्य विपुलं अदात् शापं
सुदुःसहम् ।
स्थातुमर्हसि नैकत्र मद्
याच्ञाविमुखो मुने ॥ २२ ॥
ततो विहतसङ्कल्पा कन्यका
यवनेश्वरम् ।
मयोपदिष्टमासाद्य वव्रे नाम्ना भयं
पतिम् ॥ २३ ॥
ऋषभं यवनानां त्वां वृणे वीरेप्सितं
पतिम् ।
सङ्कल्पस्त्वयि भूतानां कृतः किल न
रिष्यति ॥ २४ ॥
द्वौ इमौ अनुशोचन्ति बालौ असदवग्रहौ
।
यल्लोकशास्त्रोपनतं न राति न
तदिच्छति ॥ २५ ॥
अथो भजस्व मां भद्र भजन्तीं मे दयां
कुरु ।
एतावान् पौरुषो धर्मो यदार्तान्
अनुकम्पते ॥ २६ ॥
कालकन्योदितवचो निशम्य यवनेश्वरः ।
चिकीर्षुर्देवगुह्यं स सस्मितं
तामभाषत ॥ २७ ॥
मया निरूपितस्तुभ्यं
पतिरात्मसमाधिना ।
नाभिनन्दति लोकोऽयं त्वां अभद्रां
असम्मताम् ॥ २८ ॥
त्वं अव्यक्तगतिर्भुङ्क्ष्व लोकं
कर्मविनिर्मितम् ।
या हि मे पृतनायुक्ता प्रजानाशं
प्रणेष्यसि ॥ २९ ॥
प्रज्वारोऽयं मम भ्राता त्वं च मे
भगिनी भव ।
चराम्युभाभ्यां लोकेऽस्मिन्
अव्यक्तो भीमसैनिकः ॥ ३० ॥
वह इतने दिनों तक पांचाल देश के उस
नगर में अपने दूतों द्वारा लाये हुए कर को लेकर विषय-भोगों में मस्त रहता था।
स्त्री के वशीभूत रहने के कारण इस अवश्यम्भावी भय का उसे पता ही न चला।
बर्हिष्मन्! इन्हीं दिनों काल की एक
कन्या वर की खोज में त्रिलोकी में भटकती रही, फिर
भी उसे किसी ने स्वीकार नहीं किया। वह कालकन्या (जरा) बड़ी भाग्यहीना थी, इसलिये लोग उसे ‘दुर्भगा’ कहते
थे। एक बार राजर्षि पूरु ने पिता को अपना यौवन देने के लिये अपनी ही इच्छा से उसे
वर लिया था, इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें राज्यप्राप्ति का
वर दिया था।
एक दिन मैं ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर
आया,
तो वह घूमती-घूमती मुझे भी मिल गयी। तब मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी
जानकर भी कामातुरा होने के कारण उसने वरना चाहा। मैंने उसकी प्रार्थना स्वीकार
नहीं की। इस पर उसने अत्यन्त कुपित होकर मुझे यह दुःसह शाप दिया कि ‘तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, अतः तुम एक
स्थान पर अधिक देर न ठहर सकोगे’। तब मेरी ओर से निराश होकर
उस कन्या ने मेरी सम्मति से यवनराज भय के पास जाकर उसका पतिरूप से वरण किया और कहा,
‘वीरवर! आप यवनों में श्रेष्ठ हैं, मैं आपसे
प्रेम करती हूँ और पति बनाना चाहती हूँ। आपके प्रति किया हुआ जीवों का संकल्प कभी
विफल नहीं होता। जो मनुष्य लोक अथवा शास्त्र की दृष्टि से देने योग्य वस्तु का दान
नहीं करता और जो शास्त्रदृष्टि से अधिकारी होकर भी ऐसा दान नहीं लेता, वे दोनों ही दुराग्रही और मूढ़ हैं, अतएव शोचनीय
हैं। भद्र! इस समय मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ, आप
मुझे स्वीकार करके अनुगृहीत कीजिये। पुरुष का सबसे बड़ा धर्म दीनों पर दया करना ही
है’।
कालकन्या की बात सुनकर यवनराज ने
विधाता का एक गुप्त कार्य कराने की इच्छा से मुसकराते हुए उससे कहा- ‘मैंने योगदृष्टि से देखकर तेरे लिये एक पति निश्चय किया है। तू सबका
अनिष्ट करने वाली है, इसलिये किसी को भी अच्छी नहीं लगती और
इसी से लोग तुझे स्वीकार नहीं करते। अतः इस कर्मजनित लोक को तू अलक्षित होकर बलात्
भोग। तू मेरी सेना लेकर जा; इसकी सहायता से तू सारी प्रजा का
नाश करने में समर्थ होगी, कोई भी तेरा सामना न कर सकेगा। यह
प्रज्वार नाम का मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा। तुम दोनों के साथ मैं अव्यक्त
गति से भयंकर सेना लेकर सारे लोकों में विचरूँगा’।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पुरंजनोपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण का
परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २७ समाप्त हुआ ॥ २७ ॥
आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २८
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