श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २८                      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २८ "पुरंजन को स्त्रीयोनि की प्राप्ति और अविज्ञात के उपदेश से उसका मुक्त होना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २८

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टविंश: अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २८             

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः २८                

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध अट्ठाईसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

नारद उवाच -

(अनुष्टुप्)

सैनिका भयनाम्नो ये बर्हिष्मन् दिन्दिष्टकारिणः ।

प्रज्वारकालकन्याभ्यां विचेरुः अवनीमिमाम् ॥ १ ॥

ते एकदा तु रभसा पुरञ्जनपुरीं नृप ।

रुरुधुर्भौमभोगाढ्यां जरत्पन्नगपालिताम् ॥ २ ॥

कालकन्यापि बुभुजे पुरञ्जनपुरं बलात् ।

ययाभिभूतः पुरुषः सद्यो निःसारतामियात् ॥ ३ ॥

तयोपभुज्यमानां वै यवनाः सर्वतोदिशम् ।

द्वार्भिः प्रविश्य सुभृशं प्रार्दयन् सकलां पुरीम् ॥ ४ ॥

तस्यां प्रपीड्यमानायां अभिमानी पुरञ्जनः ।

अवापोरुविधान् तापान् कुटुम्बी ममताकुलः ॥ ५ ॥

कन्योपगूढो नष्टश्रीः कृपणो विषयात्मकः ।

नष्टप्रज्ञो हृतैश्वर्यो गन्धर्वयवनैर्बलात् ॥ ॥ ६ ॥

विशीर्णां स्वपुरीं वीक्ष्य प्रतिकूलाननादृतान् ।

पुत्रान् पौत्रानुगामात्यान् जायां च गतसौहृदाम् ॥ ७ ॥

आत्मानं कन्यया ग्रस्तं पञ्चालान् अरिदूषितान् ।

दुरन्तचिन्तामापन्नो न लेभे तत्प्रतिक्रियाम् ॥ ८ ॥

कामानभिलषन्दीनो यातयामांश्च कन्यया ।

विगतात्मगतिस्नेहः पुत्रदारांश्च लालयन् ॥ ९ ॥

गन्धर्वयवनाक्रान्तां कालकन्योपमर्दिताम् ।

हातुं प्रचक्रमे राजा तां पुरीमनिकामतः ॥ १० ॥

भयनाम्नोऽग्रजो भ्राता प्रज्वारः प्रत्युपस्थितः ।

ददाह तां पुरीं कृत्स्नां भ्रातुः प्रियचिकीर्षया ॥ ११ ॥

तस्यां सन्दह्यमानायां सपौरः सपरिच्छदः ।

कौटुम्बिकः कुटुम्बिन्या उपातप्यत सान्वयः ॥ १२ ॥

यवनोपरुद्धायतनो ग्रस्तायां कालकन्यया ।

पुर्यां प्रज्वारसंसृष्टः पुरपालोऽन्वतप्यत ॥ १३ ॥

न शेके सोऽवितुं तत्र पुरुकृच्छ्रोरुवेपथुः ।

गन्तुमैच्छत्ततो वृक्ष कोटरादिव सानलात् ॥ १४ ॥

शिथिलावयवो यर्हि गन्धर्वैर्हृतपौरुषः ।

यवनैररिभी राजन् उपरुद्धो रुरोद ह ॥ १५ ॥

श्रीनारद जी कहते हैं ;- राजन्! फिर भय नामक यवनराज के आज्ञाकारी सैनिक प्रज्वार और कालकन्या के साथ इस पृथ्वीतल पर सर्वत्र विचरने लगे। एक बार उन्होंने बड़े वेग से बूढ़े साँप से सुरक्षित और संसार की सब प्रकार की सुख-सामग्री से सम्पन्न पुरंजनपुरी को घेर लिया। तब, जिसके चंगुल में फँसकर पुरुष शीघ्र ही निःसार हो जाता है, वह कालकन्या बलात् उस पुरी की प्रजा को भोगने लगी। उस समय वे यवन भी कालकन्या के द्वारा भोगी जाती हुई उस पुरी में चारों ओर से भिन्न-भिन्न द्वारों से घुसकर उसका विध्वंस करने लगे। पुरी के इस प्रकार पीड़ित किये जाने पर उसके स्वामित्व का अभिमान रखने वाले तथा ममताग्रस्त, बहुकुटुम्बी राजा पुरंजन को भी नाना प्रकार के क्लेश सताने लगे।

कालकन्या के आलिंगन करने से उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी तथा अत्यन्त विषयासक्त होने के कारण वह बहुत दीन हो गया, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। गन्धर्व और यवनों ने बलात् उसका सारा ऐश्वर्य लूट लिया। उसने देखा कि सारा नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है; पुत्र, पौत्र, भृत्य, और अमात्य वर्ग प्रतिकूल होकर अनादर करने लगे हैं; स्त्री स्नेहशून्य हो गयी है, मेरी देह को कालकन्या ने वश में कर रखा है और पांचाल देश शत्रुओं के हाथ में पड़ कर भ्रष्ट हो गया है। यह सब देखकर राजा पुरंजन अपार चिन्ता में डूब गया और उसे उस विपत्ति से छुटकारा पाने का कोई उपाय न दिखायी दिया। कालकन्या ने जिन्हें निःसार कर दिया था, उन्हीं भोगों की लालसा से वह दीन था। अपनी पारलौकिकी गति और बन्धुजनों के स्नेह से वंचित रहकर उसका चित्त केवल स्त्री और पुत्र के लालन-पालन में ही लगा हुआ था।

ऐसी अवस्था में उनसे बिछुड़ने की इच्छा न होने पर भी उसे उस पुरी को छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा; क्योंकि उसे गन्धर्व और यवनों ने घेर रखा था तथा कालकन्या ने कुचल दिया था। इतने में ही यवनराज भय के बड़े भाई प्रज्वार ने अपने भाई का प्रिय करने के लिये उस सारी पुरी में आग लगा दी। जब वह नगरी जलने लगी, तब पुरवासी, सेवकवृन्द, सन्तान वर्ग और कुटुम्ब की स्वामिनी के सहित कुटुम्बवत्सल पुरंजन को बड़ा दुःख हुआ। नगर को कालकन्या के हाथ में पड़ा देख उसकी रक्षा करने वाले सर्प को भी बड़ी पीड़ा हुई, क्योंकि उसके निवासस्थान पर भी यवनों ने अधिकार कर लिया था और प्रज्वार उस पर भी आक्रमण कर रहा था। जब उस नगर की रक्षा करने में वह सर्वथा असमर्थ हो गया, तब जिस प्रकार जलते हुए वृक्ष के कोटर में रहने वाला सर्प उससे निकल जाना चाहता है, उसी प्रकार उसने भी महान् कष्ट से काँपते हुए वहाँ से भोगने की इच्छा की। उसके अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ गये थे तथा गन्धर्वों ने उसकी सारी शक्ति नष्ट कर दी थी; अतः जब यवन शत्रुओं ने उसे जाते देखकर रोक दिया, तब वह दुःखी होकर रोने लगा।

दुहितॄ पुत्रपौत्रांश्च जामिजामातृपार्षदान् ।

स्वत्वावशिष्टं यत्किञ्चिद् गृहकोशपरिच्छदम् ॥ १६ ॥

अहं ममेति स्वीकृत्य गृहेषु कुमतिर्गृही ।

दध्यौ प्रमदया दीनो विप्रयोग उपस्थिते ॥ १७ ॥

लोकान्तरं गतवति मय्यनाथा कुटुम्बिनी ।

वर्तिष्यते कथं त्वेषा बालकान् अनुशोचती ॥ १८ ॥

न मय्यनाशिते भुङ्‌क्ते नास्नाते स्नाति मत्परा ।

मयि रुष्टे सुसन्त्रस्ता भर्त्सिते यतवाग्भयात् ॥ १९ ॥

प्रबोधयति माविज्ञं व्युषिते शोककर्शिता ।

वर्त्मैतद् हृहमेधीयं वीरसूरपि नेष्यति ॥ २० ॥

कथं नु दारका दीना दारकीर्वापरायणाः ।

वर्तिष्यन्ते मयि गते भिन्ननाव इवोदधौ ॥ २१ ॥

एवं कृपणया बुद्ध्या शोचन्तमतदर्हणम् ।

ग्रहीतुं कृतधीरेनं भयनामाभ्यपद्यत ॥ २२ ॥

पशुवद्यवनैरेष नीयमानः स्वकं क्षयम् ।

अन्वद्रवन्ननुपथाः शोचन्तो भृशमातुराः ॥ २३ ॥

पुरीं विहायोपगत उपरुद्धो भुजङ्‌गमः ।

यदा तमेवानु पुरी विशीर्णा प्रकृतिं गता ॥ २४ ॥

विकृष्यमाणः प्रसभं यवनेन बलीयसा ।

नाविन्दत्तमसाऽऽविष्टः सखायं सुहृदं पुरः ॥ २५ ॥

तं यज्ञपशवोऽनेन संज्ञप्ता येऽदयालुना ।

कुठारैश्चिच्छिदुः क्रुद्धाः स्मरन्तोऽमीवमस्य तत् ॥ २६ ॥

अनन्तपारे तमसि मग्नो नष्टस्मृतिः समाः ।

शाश्वतीरनुभूयार्तिं प्रमदासङ्‌गदूषितः ॥ २७ ॥

तामेव मनसा गृह्णन् बभूव प्रमदोत्तमा ।

अनन्तरं विदर्भस्य राजसिंहस्य वेश्मनि ॥ २८ ॥

उपयेमे वीर्यपणां वैदर्भीं मलयध्वजः ।

युधि निर्जित्य राजन्यान् पाण्ड्यः परपुरञ्जयः ॥ २९ ॥

तस्यां स जनयां चक्र आत्मजामसितेक्षणाम् ।

यवीयसः सप्त सुतान् सप्त द्रविडभूभृतः ॥ ३० ॥

गृहासक्त पुरंजन देह-गेहादि में मैं-मेरेपन का भाव रखने से अत्यन्त बुद्धिहीन हो गया था। स्त्री के प्रेमपाश में फँसकर वह बहुत दीन हो गया था। अब जब इनसे बिछुड़ने का समय उपस्थित हुआ, तब वह अपने पुत्री, पुत्र, पौत्र, पुत्रवधू, दामाद, नौकर और घर, खजाना तथा अन्यान्य जिन पदार्थों में उसकी ममता भर शेष थी (उनका भोग तो कभी का छूट गया था), उन सबके लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगा। हाय! मेरी भार्या तो बहुत घर-गृहस्थी वाली है; जब मैं परलोक को चला जाऊँगा, तब यह असहाय होकर किस प्रकार अपना निर्वाह करेगी? इसे इन बाल-बच्चों की चिन्ता ही खा जायगी। यह मेरे भोजन किये बिना भोजन नहीं करती थी और स्नान किये बिना स्नान नहीं करती थी, सदा मेरी ही सेवा में तत्पर रहती थी। मैं कभी रूठ जाता था तो यह बड़ी भयभीत हो जाती थी और झिड़कने लगता तो डर के मारे चुप रह जाती थी। मुझसे कोई भूल हो जाती तो यह मुझे सचेत कर देती थी। मुझमें इतना अधिक स्नेह है कि यदि मैं कभी परदेश चला जाता था तो यह विरहव्यथा से सूखकर काँटा हो जाती थी। यों तो यह वीरमाता है, तो भी मेरे पीछे क्या यह गृहस्थाश्रम का व्यवहार चला सकेगी? मेरे चले जाने पर एकमात्र मेरे ही सहारे रहने वाले ये पुत्र और पुत्री भी कैसे जीवन धारण करेंगे? ये तो बीच समुद्र में नाव टूट जाने से व्याकुल हुए यात्रियों के समान बिलबिलाने लगेंगे

यद्यपि ज्ञान दृष्टि से उसे शोक करना उचित न था, फिर भी अज्ञानवश राजा पुरंजन इस प्रकार दीनबुद्धि से अपने स्त्री-पुत्रादि के लिये शोकाकुल हो रहा था। इसी समय उसे पकड़ने के लिये वहाँ भय नामक यवनराज आ धमका। जब यवन लोग उसे पशु के समान बाँधकर अपने स्थान को ले चले, तब उसके अनुचरगण अत्यन्त आतुर और शोकाकुल होकर उसके साथ हो लिये। यवनों द्वारा रोका हुआ सर्प भी उस पुरी को छोड़कर इन सबके साथ ही चल दिया। उसके जाते ही सारा नगर छिन्न-भिन्न होकर अपने कारण में लीन हो गया। इस प्रकार महाबली यवनराज के बलपूर्वक खींचने पर भी राजा पुरंजन ने अज्ञानवश अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञात का स्मरण नहीं किया। उस निर्दय राजा ने जिन यज्ञपशुओं की बलि दे थी, वे उसकी दी हुई पीड़ा को याद करके उसे क्रोधपूर्वक कुठारों से काटने लगे। वह वर्षों तक विवेकहीन अवस्था में अपार अन्धकार में पड़ा निरन्तर कष्ट भोगता रहा। स्त्री की आसक्ति से उसकी यह दुर्गति हुई थी।

अन्त समय में भी पुरंजन को उसी का चिन्तन बना हुआ था। इसलिये दूसरे जन्म में वह नृपश्रेष्ठ विदर्भराज के यहाँ सुन्दरी कन्या होकर उत्पन्न हुआ। जब यह विदर्भनन्दिनी विवाह योग्य हुई, तब विदर्भराज ने घोषित कर दिया कि इसे सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर ही ब्याह सकेगा। तब शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले पाण्ड्य नरेश महाराज मलयध्वज ने समरभूमि में समस्त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया। उससे महाराज मलयध्वज ने एक श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किये, जो आगे चलकर द्रविड़ देश के सात राजा हुए।

एकैकस्याभवत्तेषां राजन् अर्बुदमर्बुदम् ।

भोक्ष्यते यद्वंशधरैः मही मन्वन्तरं परम् ॥ ३१ ॥

अगस्त्यः प्राग्दुहितरं उपयेमे धृतव्रताम् ।

यस्यां दृढच्युतो जात इध्मवाहात्मजो मुनिः ॥ ३२ ॥

विभज्य तनयेभ्यः क्ष्मां राजर्षिर्मलयध्वजः ।

आरिराधयिषुः कृष्णं स जगाम कुलाचलम् ॥ ३३ ॥

हित्वा गृहान् सुतान् भोगान् वैदर्भी मदिरेक्षणा ।

अन्वधावत पाण्ड्येशं ज्योत्स्नेव रजनीकरम् ॥ ३४ ॥

तत्र चन्द्रवसा नाम ताम्रपर्णी वटोदका ।

तत्पुण्यसलिलैर्नित्यं उभयत्रात्मनो मृजन् ॥ ३५ ॥

कन्दाष्टिभिर्मूलफलैः पुष्पपर्णैस्तृणोदकैः ।

वर्तमानः शनैर्गात्र कर्शनं तप आस्थितः ॥ ३६ ॥

शीतोष्णवातवर्षाणि क्षुत्पिपासे प्रियाप्रिये ।

सुखदुःखे इति द्वन्द्वान् यजयत्समदर्शनः ॥ ३७ ॥

तपसा विद्यया पक्व कषायो नियमैर्यमैः ।

युयुजे ब्रह्मण्यात्मानं विजिताक्षानिलाशयः ॥ ३८ ॥

आस्ते स्थाणुरिवैकत्र दिव्यं वर्षशतं स्थिरः ।

वासुदेवे भगवति नान्यद् वेदोद्वहन् रतिम् ॥ ३९ ॥

स व्यापकतयाऽऽत्मानं व्यतिरिक्ततयाऽऽत्मनि ।

विद्वान्स्वप्न इवामर्श साक्षिणं विरराम ह ॥ ४० ॥

साक्षाद्‍भगवतोक्तेन गुरुणा हरिणा नृप ।

विशुद्धज्ञानदीपेन स्फुरता विश्वतोमुखम् ॥ ४१ ॥

परे ब्रह्मणि चात्मानं परं ब्रह्म तथात्मनि ।

वीक्षमाणो विहायेक्षां अस्माद् उपरराम ह ॥ ४२ ॥

पतिं परमधर्मज्ञं वैदर्भी मलयध्वजम् ।

प्रेम्णा पर्यचरद्धित्वा भोगान् सा पतिदेवता ॥ ४३ ॥

चीरवासा व्रतक्षामा वेणीभूतशिरोरुहा ।

बभावुपपतिं शान्ता शिखा शान्तमिवानलम् ॥ ४४ ॥

अजानती प्रियतमं यदोपरतमङ्‌गना ।

सुस्थिरासनमासाद्य यथापूर्वमुपाचरत् ॥ ४५ ॥

यदा नोपलभेता^‍घ्रौ ऊष्माणं पत्युरर्चती ।

आसीत् संविग्नहृदया यूथभ्रष्टा मृगी यथा ॥ ४६ ॥

आत्मानं शोचती दीनं अबन्धुं विक्लवाश्रुभिः ।

स्तनौ आसिच्य विपिने सुस्वरं प्ररुरोद सा ॥ ४७ ॥

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ राजर्षे इमां उदधिमेखलाम् ।

दस्युभ्यः क्षत्रबन्धुभ्यो बिभ्यतीं पातुमर्हसि ॥ ४८ ॥

फिर उनमें से प्रत्येक पुत्र के बहुत-बहुत पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके वंशधर इस पृथ्वी को मन्वन्तर के अन्त तक तथा उसके बाद भी भोगेंगे। राजा मलयध्वज की पहली पुत्री बड़ी व्रतशीला थी। उसके साथ अगस्त्य ऋषि का विवाह हुआ। उससे उनके दृढ़च्युत नाम का पुत्र हुआ और दृढ़च्युत के इक्ष्मवाह हुआ। अन्त में राजर्षि मलयध्वज पृथ्वी को पुत्रों में बाँटकर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने की इच्छा से मलय पर्वत पर चले गये। उस समय-चन्द्रिका जिस प्रकार चन्द्रदेव का अनुसरण करती है-उसी प्रकार मत्तलोचना वैदर्भी ने अपने घर, पुत्र और समस्त भोगों को तिलांजलि दे पाण्ड्य नरेश का अनुगमन किया। वहाँ चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी और वटोदका नाम की तीन नदियाँ थीं। उनके पवित्र जल में स्नान करके वे प्रतिदिन अपने शरीर और अन्तःकरण को निर्मल करते थे। वहाँ रहकर उन्होंने कन्द, बीज, मूल, फल, पुष्प, पत्ते, तृण और जल से ही निर्वाह करते हुए बड़ा कठोर तप किया। इससे धीरे-धीरे उनका शरीर बहुत सूख गया। महाराज मलयध्वज ने सर्वत्र समदृष्टि रखकर शीत-उष्ण, वर्षा-वायु, भूख-प्यास, प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःखादि सभी द्वन्दों को जीत लिया। तप और उपासना से वासनाओं को निर्मूल कर तथा यम-नियमादि के द्वारा इन्द्रिय, प्राण और मन को वश में करके वे आत्मा में ब्रह्म भावना करने लगे।

इस प्रकार सौ दिव्य वर्षों तक स्थाणु के समान निश्चल भाव से एक ही स्थान पर बैठे रहे। भगवान् वासुदेव में सुदृढ़ प्रेम हो जाने के कारण इतने समय तक उन्हें शरीरादि का भी भान न हुआ। राजन्! गुरुस्वरूप साक्षात् श्रीहरि के उपदेश किये हुए तथा अपने अन्तःकरण में सब ओर स्फुरित होने वाले विशुद्ध विज्ञान दीपक से उन्होंने देखा कि अन्तःकरण की वृत्तिका प्रकाशक आत्मा स्वप्नावस्था की भाँति देहादि समस्त उपाधियों में व्याप्त तथा उनसे पृथक् भी है। ऐसा अनुभव करके वे सब ओर से उदासीन हो गये। फिर अपनी आत्मा को परब्रह्म में और परब्रह्म को आत्मा में अभिन्नता रूप से देखा और अन्त में इस अभेद चिन्तन को भी त्यागकर सर्वथा शान्त हो गये।

राजन्! इस समय पतिपरायणा वैदर्भी सब प्रकार के भोगों को त्यागकर अपने परमधर्मज्ञ पति मलयध्वज की सेवा बड़े प्रेम से करती थी। वह चीर-वस्त्र धारण किये रहती, व्रत उपवासादि के कारण उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था और सिर के बाल आपस में उलझ जाने के कारण उनमें लटें पड़ गयी थीं। उस समय अपने पतिदेव के पास वह अंगारभाव को प्राप्त धूमरहित अग्नि के समीप अग्नि की शान्तशिखा के समान सुशोभित हो रही थी। उसके पति परलोकवासी हो चुके थे, परन्तु पूर्ववत् स्थिर आसन से विराजमान थे। इस रहस्य को न जानने के कारण वह उनके पास जाकर उनकी पूर्ववत् सेवा करने लगी। चरणसेवा करते समय जब उसे अपने पति के चरणों में गरमी बिलकुल नहीं मालूम हुई, तब तो वह झुंडी से बिछुड़ी हुई मृगी के समान चित्त में अत्यन्त व्याकुल हो गयी। उस बीहड़ वन में अपने को अकेली और दीन अवस्था में देखकर वह बड़ी शोककुल हुई और आँसुओं की धारा से स्तनों को भिगोती हुई बड़े जोर-जोर से रोने लगी। वह बोली, ‘राजेर्षे! उठिये, उठिये; समुद्र से घिरी हुई यह वसुन्धरा लुटेरों और अधर्मी राजाओं से भयभीत हो रही है, आप इसकी रक्षा कीजिये

एवं विलपन्ती बाला विपिनेऽनुगता पतिम् ।

पतिता पादयोर्भर्तू रुदत्यश्रूण्यवर्तयत् ॥ ४९ ॥

चितिं दारुमयीं चित्वा तस्यां पत्युः कलेवरम् ।

आदीप्य चानुमरणे विलपन्ती मनो दधे ॥ ५० ॥

तत्र पूर्वतरः कश्चित् सखा ब्राह्मण आत्मवान् ।

सान्त्वयन्वल्गुना साम्ना तामाह रुदतीं प्रभो ॥ ५१ ॥

ब्राह्मण उवाच -

का त्वं कस्यासि को वायं शयानो यस्य शोचसि ।

जानासि किं सखायं मां येनाग्रे विचचर्थ ह ॥ ५२ ॥

अपि स्मरसि चात्मानंअ अविज्ञातसखं सखे ।

हित्वा मां पदमन्विच्छन् भौमभोगरतो गतः ॥ ५३ ॥

हंसावहं च त्वं चार्य सखायौ मानसायनौ ।

अभूतामन्तरा वौकः सहस्रपरिवत्सरान् ॥ ५४ ॥

स त्वं विहाय मां बन्धो गतो ग्राम्यमतिर्महीम् ।

विचरन् पदमद्राक्षीः कयाचिन् निर्मितं स्त्रिया ॥ ५५ ॥

पञ्चारामं नवद्वारं एकपालं त्रिकोष्ठकम् ।

षट्कुलं पञ्चविपणं पञ्चप्रकृति स्त्रीधवम् ॥ ५६ ॥

पञ्चेन्द्रियार्था आरामा द्वारः प्राणा नव प्रभो ।

तेजोऽबन्नानि कोष्ठानि कुलमिन्द्रियसङ्‌ग्रहः ॥ ५७ ॥

विपणस्तु क्रियाशक्तिः भूतप्रकृतिरव्यया ।

शक्त्यधीशः पुमांस्त्वत्र प्रविष्टो नावबुध्यते ॥ ५८ ॥

तस्मिंस्त्वं रामया स्पृष्टो रममाणोऽश्रुतस्मृतिः ।

तत्सङ्‌गादीदृशीं प्राप्तो दशां पापीयसीं प्रभो ॥ ५९ ॥

न त्वं विदर्भदुहिता नायं वीरः सुहृत्तव ।

न पतिस्त्वं पुरञ्जन्या रुद्धो नवमुखे यया । ॥ ६० ॥

माया ह्येषा मया सृष्टा यत्पुमांसं स्त्रियं सतीम् ।

मन्यसे नोभयं यद्वै हंसौ पश्यावयोर्गतिम् । ॥ ६१ ॥

अहं भवान्न चान्यस्त्वं त्वमेवाहं विचक्ष्व भोः ।

न नौ पश्यन्ति कवयः छिद्रं जातु मनागपि । ॥ ६२ ॥

यथा पुरुष आत्मानं एकं आदर्शचक्षुषोः ।

द्विधाभूतमवेक्षेत तथैवान्तरमावयोः । ॥ ६३ ॥

एवं स मानसो हंसो हंसेन प्रतिबोधितः ।

स्वस्थस्तद्व्यभिचारेण नष्टामाप पुनः स्मृतिम् । ॥ ६४ ॥

बर्हिष्मन्नेतदध्यात्मं पारोक्ष्येण प्रदर्शितम् ।

यत्परोक्षप्रियो देवो भगवान्विश्वभावनः । ॥ ६५ ॥

पति के साथ वन में गयी हुई वह अबला इस प्रकार विलाप करती पति के चरणों में गिर गयी और रो-रोकर आँसू बहाने लगी। लकड़ियों की चिता बनाकर उसने उस पर पति का शव रखा और अग्नि जलाकर विलाप करते-करते स्वयं सती होने का निश्चय किया। राजन! इसी समय उसका पुराना मित्र एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहाँ आया। उसने उस रोती हुई अबला को मधुर वाणी से समझाते हुए कहा।

ब्राह्मण ने कहा ;- तू कौन है? किसकी पुत्री है? और जिसके लिये तू शोक कर रही है, वह यह सोया हुआ पुरुष कौन है? क्या तुम मुझे नहीं जानती? मैं वही तेरा मित्र हूँ, जिसके साथ तू पहले विचरा करती थी। सखे! क्या तुम्हें अपनी याद आती है, किसी समय मैं तुम्हारा अविज्ञात नाम का सखा था? तुम पृथ्वी के भोग भोगने के लिये निवास-स्थान की खोज में मुझे छोड़कर चले गये थे। आर्य! पहले मैं और तुम एक-दूसरे के मित्र एवं मानस निवासी हंस थे। हम दोनों सहस्रों वर्षों तक बिना किसी निवास-स्थान के ही रहे थे, किन्तु मित्र! तुम विषय भोगों की इच्छा से मुझे छोड़कर यहाँ पृथ्वी पर चले आये। यहाँ घूमते-घूमते तुमने एक स्त्री का रचा हुआ स्थान देखा। उसमें पाँच बगीचे, नौ दरवाजे, एक द्वारपाल, तीन परकोटे, छः वैश्यकुल और पाँच बाजार थे। वह पाँच उपादान-कारणों से बना हुआ था और उसकी स्वामिनी एक स्त्री थी।

महाराज! इन्द्रियों के पाँच विषय उसके बगीचे थे, नौ इन्द्रिय-छिद्र द्वार थे; तेज, जल और अन्न-तीन परकोटे थे; मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-छः वैश्यकुल थे; क्रियाशक्तिरूप कर्मेन्द्रियाँ ही बाजार थीं; पाँच भूत ही उसके कभी क्षीण न होने वाले उपादान कारण थे और बुद्धि शक्ति ही उसकी स्वामिनी थी। यह ऐसा नगर था, जिसमें प्रवेश करने पर पुरुष ज्ञानशून्य हो जाता है-अपने स्वरूप को भूल जाता है।

भाई! उस नगर में उसकी स्वामिनी के फंदे में पड़कर उसके साथ विहार करते-करते तुम भी अपने स्वरूप को भूल गये और उसी के संग से तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है। देखो, तुम न तो विदर्भराज की पुत्री ही हो और न यह वीर मलयध्वज तुम्हारा पति ही। जिसने तुम्हें नौ द्वारों के नगर में बंद किया था, उस पुरंजनी के पति भी तुम नहीं हो। तुम पहले जन्म में अपने को पुरुष समझते थे और अब सती स्त्री मानते हो-यह सब मेरी ही फैलायी हुई माया है। वास्तव में तुम न पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों तो हंस हैं; हमारा जो वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव करो मित्र! जो मैं (ईश्वर) हूँ, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भिन्न नहीं हो और तुम विचारपूर्वक देखो, मैं भी वही हूँ जो तुम हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनों में कभी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं देखते। जैसे एक पुरुष अपने शरीर की परछाई को शीशे में और किसी व्यक्ति के नेत्र में भिन्न-भिन्न रूप से देकता है, वैसे ही-एक ही आत्मा विद्या और अविद्या की उपाधि के भेद से अपने को ईश्वर और जीव के रूप में दो प्रकार से देख रहा है। इस प्रकार जब हंस (ईश्वर) ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवर का हंस (जीव) अपने स्वरूप में स्थित हो गया और उसे अपने मित्र के विछोह से भूला हुआ आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया।

प्राचीनबर्हि! मैंने तुम्हें परोक्ष रूप से यह आत्मज्ञान का दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वर को परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पुरंजनोपाख्याने अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २८ समाप्त हुआ ॥ २८ ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २९   

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