श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २९                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २९ "पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २९

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश: अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २९              

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः २९                 

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध उनत्तीसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

प्राचीनबर्हिरुवाच -

(अनुष्टुप्)

भगवंस्ते वचोऽस्माभिः न सम्यक् अवगम्यते ।

कवयस्तद्विजानन्ति न वयं कर्ममोहिताः ॥ १ ॥

नारद उवाच -

पुरुषं पुरञ्जनं विद्याद् यद् व्यनक्त्यात्मनः पुरम् ।

एक द्वि त्रि चतुष्पादं बहुपादमपादकम् ॥ २ ॥

योऽविज्ञाताहृतस्तस्य पुरुषस्य सखेश्वरः ।

यन्न विज्ञायते पुम्भिः नामभिर्वा क्रियागुणैः ॥ ३ ॥

यदा जिघृक्षन् पुरुषः कार्त्स्न्येन प्रकृतेर्गुणान् ।

नवद्वारं द्विहस्ताङ्‌‌घ्रि तत्रामनुत साध्विति ॥ ४ ॥

बुद्धिं तु प्रमदां विद्यान् ममाहमिति यत्कृतम् ।

यामधिष्ठाय देहेऽस्मिन् पुमान् भुङ्‌क्तेऽक्षभिर्गुणान् ॥ ५ ॥

सखाय इन्द्रियगणा ज्ञानं कर्म च यत्कृतम् ।

सख्यस्तद्‌वृत्तयः प्राणः पञ्चवृत्तिर्यथोरगः ॥ ॥ ६ ॥

बृहद्‍बलं मनो विद्याद् उभयेन्द्रियनायकम् ।

पञ्चालाः पञ्च विषया यन्मध्ये नवखं पुरम् ॥ ७ ॥

अक्षिणी नासिके कर्णौ मुखं शिश्नगुदौ इति ।

द्वे द्वे द्वारौ बहिर्याति यस्तद् इन्द्रियसंयुतः ॥ ८ ॥

अक्षिणी नासिके आस्यं इति पञ्च पुरः कृताः ।

दक्षिणा दक्षिणः कर्ण उत्तरा चोत्तरः स्मृतः ॥ ९ ॥

पश्चिमे इत्यधो द्वारौ गुदं शिश्नमिहोच्यते ।

खद्योताऽऽविर्मुखी चात्र नेत्रे एकत्र निर्मिते ।

रूपं विभ्राजितं ताभ्यां विचष्टे चक्षुषेश्वरः ॥ १० ॥

नलिनी नालिनी नासे गन्धः सौरभ उच्यते ।

घ्राणोऽवधूतो मुख्यास्यं विपणो वाग् रसविद्‌रसः ॥ ११ ॥

आपणो व्यवहारोऽत्र चित्रमन्धो बहूदनम् ।

पितृहूर्दक्षिणः कर्ण उत्तरो देवहूः स्मृतः ॥ १२ ॥

प्रवृत्तं च निवृत्तं च शास्त्रं पञ्चालसंज्ञितम् ।

पितृयानं देवयानं श्रोत्रात् श्रुतधराद्व्रजेत् ॥ १३ ॥

राजा प्राचीनबर्हि ने कहा ;- भगवन्! मेरी समझ में आपके वचनों का अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है। विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं।

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजन्! पुरंजन (नगर का निर्माता) जीव है-जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरों वाला या बिना पैरों का शरीररूप पुर तैयार कर लेता है। उस जीव का सखा जो अविज्ञात नाम से कहा गया है, वह ईश्वर है; क्योंकि किसी भी प्रकार के नाम, गुण अथवा कर्मों से जीवों को उसका पता नहीं चलता। जीव ने जब सुख-दुःखरूप सभी प्राकृत विषयों को भोगने की इच्छा की, तब उसने दूसरे शरीरों की अपेक्षा नौ द्वार, दो हाथ और दो पैरों वाला मानव-देह ही पसंद किया। बुद्धि अथवा अविद्या को ही तुम पुरंजनी नाम की स्त्री जानो; इसी के कारण देह और इन्द्रिय आदि में मैं-मेरेपन का भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसी का आश्रय लेकर शरीर में इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता है।

दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकार के ज्ञान और कर्म होते हैं। इन्द्रियों की वृत्तियाँ ही उसकी सखियाँ और प्राण-अपान-व्यान-उदान-समानरूप पाँच वृत्तियों वाला प्राण वायु ही नगर की रक्षा करने वाला पाँच फन का सर्प है। दोनों प्रकार की इन्द्रियों के नायक मन को ही ग्यारहवाँ महाबली योद्धा जानना चाहिये। शब्दादि पाँच विषय ही पांचाल देश हैं, जिसके बीच में वह नौ द्वारों वाला नगर बसा हुआ है। उस नगर में जो एक-एक स्थान पर दो-दो द्वार बताये गये थे-वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं। इनके साथ मुख, लिंग और गुदा-ये तीन और मिलाकर कुल नौ द्वार हैं; इन्हीं में होकर वह जीव इन्द्रियों के साथ बाह्य विषयों में जाता है। इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुख-ये पाँच पूर्व के द्वार हैं; दाहिने कान को दक्षिण का और बायें कान को उत्तर का द्वार समझना चाहिये। गुदा और लिंग-ये नीचे के दो छिद्र पश्चिम के द्वार हैं। खाद्यौता और आविर्मुखी नाम के जो दो द्वार एक स्थान पर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभ्राजित नाम का देश है, जिसका इन द्वारों से जीव चक्षु-इन्द्रिय की सहायता से अनुभव करता है।

दोनों नासाछिद्र ही नलिनी और नालिनी नाम के द्वार हैं और नासिका का विषय गन्ध ही सौरभ देश है तथा घ्राणेन्द्रिय अवधूत नाम का मित्र है। मुख मुख्य नाम का द्वार है। उसमें रहने वाला वागिन्द्रिय विपण है और रसनेन्द्रिय रसविद् (रसज्ञ) नाम का मित्र है। वाणी का व्यापार आपण है और तरह-तरह का अन्न बहूदन है तथा दाहिना कान पितृहू और बायाँ कान देवहू कहा गया है। कर्मकाण्डरूप प्रवृत्तिमार्ग का शास्त्र और उपासना काण्डरूप निवृत्तिमार्ग का शास्त्र ही क्रमशः दक्षिण और उत्तर पांचाल देश हैं। इन्हें श्रवणेन्द्रियरूप श्रुतधर की सहायता से सुनकर जीव क्रमशः पितृयान और देवयान मार्गों में जाता है।

आसुरी मेढ्रमर्वाग्द्वाः व्यवायो ग्रामिणां रतिः ।

उपस्थो दुर्मदः प्रोक्तो निर्‌ऋतिर्गुद उच्यते ॥ १४ ॥

वैशसं नरकं पायुः लुब्धकोऽन्धौ तु मे शृणु ।

हस्तपादौ पुमांस्ताभ्यां युक्तो याति करोति च ॥ १५ ॥

अन्तःपुरं च हृदयं विषूचिर्मन उच्यते ।

तत्र मोहं प्रसादं वा हर्षं प्राप्नोति तद्‍गुणैः ॥ १६ ॥

यथा यथा विक्रियते गुणाक्तो विकरोति वा ।

तथा तथोपद्रष्टात्मा तद्‌वृत्तीरनुकार्यते ॥ १७ ॥

देहो रथस्त्विन्द्रियाश्वः संवत्सररयोऽगतिः ।

द्विकर्मचक्रस्त्रिगुण ध्वजः पञ्चासुबन्धुरः ॥ १८ ॥

मनोरश्मिर्बुद्धिसूतो हृन्नीडो द्वन्द्वकूबरः ।

पञ्चेन्द्रियार्थप्रक्षेपः सप्तधातुवरूथकः ॥ १९ ॥

आकूतिर्विक्रमो बाह्यो मृगतृष्णां प्रधावति ।

एकादशेन्द्रियचमूः पञ्चसूनाविनोदकृत् ॥ २० ॥

संवत्सरश्चण्डवेगः कालो येनोपलक्षितः ।

तस्याहानीह गन्धर्वा गन्धर्व्यो रात्रयः स्मृताः ।

हरन्त्यायुः परिक्रान्त्या षष्ट्युत्तरशतत्रयम् ॥ २१ ॥

कालकन्या जरा साक्षात् लोकस्तां नाभिनन्दति ।

स्वसारं जगृहे मृत्युः क्षयाय यवनेश्वरः ॥ २२ ॥

आधयो व्याधयस्तस्य सैनिका यवनाश्चराः ।

भूतोपसर्गाशुरयः प्रज्वारो द्विविधो ज्वरः ॥ २३ ॥

एवं बहुविधैर्दुःखैः दैवभूतात्मसम्भवैः ।

क्लिश्यमानः शतं वर्षं देहे देही तमोवृतः ॥ २४ ॥

प्राणेन्द्रियमनोधर्मान् आत्मन्यध्यस्य निर्गुणः ।

शेते कामलवान्ध्यायन् ममाहं इति कर्मकृत् ॥ २५ ॥

यद् आत्मानं अविज्ञाय भगवन्तं परं गुरुम् ।

पुरुषस्तु विषज्जेत गुणेषु प्रकृतेः स्वदृक् ॥ २६ ॥

गुणाभिमानी स तदा कर्माणि कुरुतेऽवशः ।

शुक्लं कृष्णं लोहितं वा यथाकर्माभिजायते ॥ २७ ॥

शुक्लात् प्रकाशभूयिष्ठान् लोकान् आप्नोति कर्हिचित् ।

दुःखोदर्कान् क्रियायासान् तमःशोकोत्कटान् क्वचित् ॥ २८ ॥

क्वचित् पुमान् क्वचिच्च स्त्री क्वचिद् नोभयमन्धधीः ।

देवो मनुष्यस्तिर्यग्वा यथाकर्मगुणं भवः ॥ २९ ॥

लिंग ही आसुरी नाम का पश्चिमी द्वार है, स्त्रीप्रसंग ग्रामक नाम का देश है और लिंग में रहने वाला उपस्थेन्द्रिय दुर्मद नाम का मित्र है। गुदा निर्ऋति नाम का पश्चिमी द्वार है। नरक वैशस नाम का देश है और गुदा में स्थित पायु-इन्द्रिय लुब्धक नाम का मित्र है। इनके सिवा दो पुरुष अंधे बताये गये थे, उनका रहस्य भी सुनो। वे हाथ और पाँव हैं; इन्हीं की सहायता से जीव क्रमशः सब काम करता और जहाँ-तहाँ जाता है। हृदय अन्तःपुर है, उसमें रहने वाला मन ही विषूची (विषूचीन) नाम का प्रधान सेवक है। जीव उस मन के सत्त्वादि गुणों के कारण ही प्रसन्नता, हर्षरूप विकार अथवा मोह को प्राप्त होता है।

बुद्धि (राजमहिषी पुरंजनी) जिस-जिस प्रकार स्वप्नावस्था में विकार को प्राप्त होती है और जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियादि को विकृत करती है, उसके गुणों से लिप्त होकर आत्मा (जीव) भी उसी-उसी रूप में उसकी वृत्तियों का अनुकरण करने को बाध्य होता है-यद्यपि वस्तुतः वह उनका निर्विकार साक्षीमात्र ही है। शरीर ही रथ है। उसमें ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच घोड़े जुते हुए हैं। देखने में संवत्सररूप काल के समान ही उसका अप्रतिहत वेग है, वास्तव में वह गतिहीन है। पुण्य और पाप-ये दो प्रकार के कर्म ही उसके पहिये हैं; तीन गण ध्वजा हैं, पाँच प्राण डोरियाँ हैं। मन बागडोर है, बुद्धि सारथि है, हृदय बैठने का स्थान है, सुख-दुःखादि द्वन्द जुए हैं, इन्द्रियों के पाँच विषय उसमें रखे हुए आयुध हैं और त्वचा आदि सात धातुएँ उसके आवरण हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसकी पाँच प्रकार की गति हैं। इस रथ पर चढ़कर रथीरूप यह जीव मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ता है। ग्यारह इन्द्रियाँ उसकी सेना हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा उन-उन इन्द्रियों के विषयों को अन्यायपूर्वक ग्रहण करना ही उसका शिकार खेलना है।

जिसके द्वारा काल का ज्ञान होता है, वह संवत्सर ही चण्डवेग नामक गन्धर्वराज है। उसके अधीन जो तीन सौ साठ गन्धर्व बताये गये थे, वे दिन हैं और तीन-तीन सौ साठ गन्धर्वियाँ रात्रि हैं। ये बारी-बारी से चक्कर लगाते हुए मनुष्य की आयु को हरते रहते हैं। वृद्धावस्था ही साक्षात् कालकन्या है, उसे कोई भी पुरुष पसंद नहीं करता। तब मृत्युरूप यवनराज ने लोक का संहार करने के लिये उसे बहिन मानकर स्वीकार कर लिया। आधि (मानसिक क्लेश) और व्याधि (रोगादि शारीरिक कष्ट) ही इस यवनराज के पैदल चलने वाले सैनिक हैं तथा प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर शीघ्र ही मृत्यु के मुख में ले जाने वाला शीत और उष्ण दो प्रकार का ज्वर ही प्रज्वार नाम का उसका भाई है।

इस प्रकार यह देहाभिमानी जीव अज्ञान से आच्छादित होकर अनेक प्रकार के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भोगता हुआ सौ वर्ष तक मनुष्य शरीर में पड़ा रहता है। वस्तुतः तो वह निर्गुण है, किन्तु प्राण, इन्द्रिय और मन के धर्मों को अपने में आरोपित कर मैं-मेरेपन के अभिमान से बँधकर क्षुद्र विषयों का चिन्तन करता हुआ, तरह-तरह के कर्म करता रहता है। यह यद्यपि स्वयंप्रकाश है, तथापि जब तक सबके परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवान् के स्वरूप को नहीं जानता, तब तक प्रकृति के गुणों में ही बँधा रहता है। उन गुणों का अभिमानी होने से वह विवश होकर सात्त्विक, राजस और तामस कर्म करता है तथा उन कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता है।

क्षुत्परीतो यथा दीनः सारमेयो गृहं गृहम् ।

चरन्विन्दति यद्दिष्टं दण्डमोदनमेव वा ॥ ३० ॥

तथा कामाशयो जीव उच्चावचपथा भ्रमन् ।

उपर्यधो वा मध्ये वा याति दिष्टं प्रियाप्रियम् ॥ ३१ ॥

दुःखेष्वेकतरेणापि दैवभूतात्महेतुषु ।

जीवस्य न व्यवच्छेदः स्यात् चेत् तत्तत् प्रतिक्रिया ॥ ३२ ॥

यथा हि पुरुषो भारं शिरसा गुरुमुद्वहन् ।

तं स्कन्धेन स आधत्ते तथा सर्वाः प्रतिक्रियाः ॥ ३३ ॥

नैकान्ततः प्रतीकारः कर्मणां कर्म केवलम् ।

द्वयं ह्यविद्योपसृतं स्वप्ने स्वप्न इवानघ ॥ ३४ ॥

अर्थे हि अविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।

मनसा लिङ्‌गरूपेण स्वप्ने विचरतो यथा ॥ ३५ ॥

अथात्मनोऽर्थभूतस्य यतोऽनर्थपरंपरा ।

संसृतिस्तद्व्यवच्छेदो भक्त्या परमया गुरौ ॥ ३६ ॥

वासुदेवे भगवति भक्तियोगः समाहितः ।

सध्रीचीनेन वैराग्यं ज्ञानं च जनयिष्यति ॥ ३७ ॥

सोऽचिराद् एव राजर्षे स्याद् अच्युतकथाश्रयः ।

श्रृण्वतः श्रद्दधानस्य नित्यदा स्यादधीयतः ॥ ३८ ॥

यत्र भागवता राजन्साधवो विशदाशयाः ।

भगवद्‍गुणानुकथन श्रवणव्यग्रचेतसः ॥ ३९ ॥

तस्मिन्महन्मुखरिता मधुभिच्चरित्र

     पीयूषशेषसरितः परितः स्रवन्ति ।

ता ये पिबन्त्यवितृषो नृप गाढकर्णैः

     तान्न स्पृशन्त्यशनतृड्भयशोकमोहाः ॥ ४० ॥

(अनुष्टुप्)

एतैरुपद्रुतो नित्यं जीवलोकः स्वभावजैः ।

न करोति हरेर्नूनं कथामृतनिधौ रतिम् ॥ ४१ ॥

प्रजापतिपतिः साक्षाद् भगवान् गिरिशो मनुः ।

दक्षादयः प्रजाध्यक्षा नैष्ठिकाः सनकादयः ॥ ४२ ॥

मरीचिः अत्रि अङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।

भृगुर्वसिष्ठ इत्येते मदन्ता ब्रह्मवादिनः ॥ ४३ ॥

अद्यापि वाचस्पतयः तपोविद्यासमाधिभिः ।

पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति पश्यन्तं परमेश्वरम् ॥ ४४ ॥

वह कभी तो सात्त्विक कर्मों के द्वारा प्रकाशबहुल स्वर्गादि लोक प्राप्त करता है, कभी राजसी कर्मों के द्वारा दुःखमय रजोगुणी लोकों में जाता है-और कभी तमोगुणी कर्मों के द्वारा शोकबहुल तमोमयी योनियों में जन्म लेता है। इस प्रकार अपने कर्म और गुणों के अनुसार देवयोनि, मनुष्ययोनि अथवा पशु-पक्षीयोनि में जन्म लेकर वह अज्ञानान्ध जीव कभी पुरुष, कभी स्त्री और कभी नपुंसक होता है। जिस प्रकार बेचारा भूख से व्याकुल कुत्ता दर-दर भटकता हुआ आपने प्रारब्धानुसार कहीं डंडा खाता है और कहीं भात खाता है, उसी प्रकार यह जीव चित्त में नाना प्रकार की वासनाओं को लेकर ऊँचे-नीचे मार्ग से ऊपर, नीचे अथवा मध्य के लोकों में भटकता हुआ अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता रहता है।

आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक- इन तीन प्रकार के दुःखों में से किसी भी एक से जीव का सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता। यदि कभी वैसा जान पड़ता है तो वह केवल तात्कालिक निवृत्ति ही है। वह ऐसी ही है, जैसे कोई सिर पर भारी बोझा ढोकर ले जाने वाला पुरुष उसे कंधे पर रख ले। इसी तरह सभी प्रतिक्रिया (दुःखनिवृत्ति) जाननी चाहिये-यदि किसी उपाय से मनुष्य एक प्रकार के दुःख से छुट्टी पाता है, तो दूसरा दुःख आकर उसके सिर पर सवार हो जाता है।

शुद्धहृदय नरेन्द्र! जिस प्रकार स्वप्न में होने वाला स्वप्नान्तर उस स्वप्न से सर्वथा छूटने का उपाय नहीं है, उसी प्रकार कर्मफल-भोग से सर्वथा छूटने का उपाय केवल कर्म नहीं हो सकता; क्योंकि कर्म और कर्मफल भोग दोनों ही अविद्यायुक्त होते हैं। जिस प्रकार स्वप्नावस्था में अपने मनोमय लिंग शरीर से विचरने वाले प्राणी को स्वप्न के पदार्थ न होने पर भी भासते हैं, उसी प्रकार ये दृश्य पदार्थ वस्तुतः न होने पर भी, जब तक अज्ञान-निद्रा नहीं टूटती, बने ही रहते हैं और जीव को जन्म-मरणरूप संसार से मुक्ति नहीं मिलती। (अतः इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय एकमात्र आत्मज्ञान ही है)

राजन्! जिस अविद्या के कारण परमार्थरूप आत्मा को यह जन्म-मरणरूप अनर्थ परम्परा प्राप्त हुई है, उसकी निवृत्ति गुरुस्वरूप श्रीहरि में सुदृढ़ भक्ति होने पर हो सकती है। भगवान् वासुदेव में एकाग्रतापूर्वक सम्यक् प्रकार से किया हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव कर देता है। राजर्षे! यह भक्तिभाव भगवान् की कथाओं के आश्रित रहता है। इसलिये जो श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, उसे बहुत शीघ्र इसकी प्राप्ति हो जाती है। राजन्! जहाँ भाग्वाद्गुणों को कहने और सुनने में तत्पर विशुद्धचित्त भक्तजन रहते हैं, उस साधु-समाज में सब ओर महापुरुषों के मुख से निकले हुए श्रीमधुसूदन भगवान् के चरित्र शुद्ध अमृत की अनेकों नदियाँ बहती रहती हैं। जो लोग अतृप्त-चित्त से श्रवण में तत्पर अपने कर्णकुहरों द्वारा उस अमृत का छककर पान करते हैं, उन्हें भूख-प्यास, भय, शोक और मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते।

हाय! स्वभावतः प्राप्त होने वाले इन क्षुधा-पिपसादि विघ्नों से सदा घिरा हुआ जीव-समुदाय श्रीहरि के कथामृत-सिन्धु से प्रेम नहीं करता। साक्षात् प्रजापतियों के पति ब्रह्मा जी, भगवान् शंकर, स्वयाम्भुव मनु, दक्षादि प्रजापतिगण, सनकादि नैष्ठिक ब्रह्मचारी, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ और मैं- ये जितने ब्रह्मवादी मुनिगण हैं, समस्त वाङ्मय एक अधिपति होने पर भी तप, उपासना और समाधि के द्वारा ढूँढ-ढूँढकर हार गये, फिर भी उस सर्वसाक्षी परमेश्वर को आज तक न देख सके।

शब्दब्रह्मणि दुष्पारे चरन्त उरुविस्तरे ।

मन्त्रलिङ्‌गैः व्यवच्छिन्नं भजन्तो न विदुः परम् ॥ ४५ ॥

यदा यस्य अनुगृह्णाति भगवान् आत्मभावितः ।

स जहाति मतिं लोके वेदे च परिनिष्ठिताम् ॥ ४६ ॥

तस्मात्कर्मसु बर्हिष्मन् अज्ञानात् अर्थकाशिषु ।

मार्थदृष्टिं कृथाः श्रोत्र स्पर्शिष्वस्पृष्टवस्तुषु ॥ ४७ ॥

स्वं लोकं न विदुस्ते वै यत्र देवो जनार्दनः ।

आहुर्धूम्रधियो वेदं सकर्मकमतद्विदः ॥ ४८ ॥

आस्तीर्य दर्भैः प्रागग्रैः कार्त्स्न्येन क्षितिमण्डलम् ।

स्तब्धो बृहद् वधात् मानी कर्म नावैषि यत्परम् ।

तत्कर्म हरितोषं यत् सा विद्या तन्मतिर्यया ॥ ४९ ॥

हरिर्देहभृतामात्मा स्वयं प्रकृतिरीश्वरः ।

तत्पादमूलं शरणं यतः क्षेमो नृणामिह ॥ ५० ॥

स वै प्रियतमश्चात्मा यतो न भयमण्वपि ।

इति वेद स वै विद्वान् यो विद्वान् स गुरुर्हरिः ॥ ५१ ॥

नारद उवाच -

प्रश्न एवं हि सञ्छिन्नो भवतः पुरुषर्षभ ।

अत्र मे वदतो गुह्यं निशामय सुनिश्चितम् ॥ ५२ ॥

क्षुद्रं चरं सुमनसां शरणे मिथित्वा

     रक्तं षडङ्‌घ्रिगणसामसु लुब्धकर्णम् ।

अग्रे वृकान् असुतृपोऽविगणय्य यान्तं

     पृष्ठे मृगं मृगय लुब्धकबाणभिन्नम् ॥ ५३ ॥

अस्यार्थः - सुमनःसमधर्मणां स्त्रीणां शरण आश्रमे

पुष्पमधु गन्धवत् क्षुद्रतमं । काम्यकर्मविपाकजं

कामसुखलवं जैह्व्यौपस्थ्यादि विचिन्वन्तं मिथुनीभूय

तद् अभिनिवेशित मनसं । षडङ्‌घ्रिगण सामगीतवत्

अतिमनोहर वनितादि जन आलापेषु अतितरां अति

प्रलोभित कर्णमग्रे । वृकयूथवदात्मन आयुर्हरतो

अहोरात्रान् तान् काल लव विशेषान् अविगणय्य

गृहेषु विहरन्तं पृष्ठत एव । परोक्षमनुप्रवृत्तो लुब्धकः

कृतान्तोऽन्तः शरेण यमिह पराविध्यति तं इमं

आत्मानमहो । राजन् भिन्नहृदयं द्रष्टुमर्हसीति ॥ ५४ ॥

वेद भी अत्यन्त विस्तृत हैं, उसका पार पाना हँसी-खेल नहीं है। अनेकों महानुभाव उसकी आलोचना करके मन्त्रों में बताये हुए वज्र-हस्तत्त्वादि गुणों से युक्त इन्द्रादि देवताओं के रूप में, भिन्न-भिन्न कर्मों के द्वरा, यद्यपि उस परमात्मा का ही यजन करते हैं तथापि उसके स्वरूप को वे भी नहीं जानते। हृदय में बार-बार चिन्तन किये जाने पर भगवान् जिस समय जीव पर कृपा करते हैं, उसी समय वह लौकिक व्यवहार एवं वैदिक कर्म-मार्ग की बद्धमूल आस्था से छुट्टी पा जाता है।

बर्हिष्मन्! तुम इन कर्मों में परमार्थबुद्धि मत करो। ये सुनने में ही प्रिय जान पड़ते हैं, परमार्थ का तो स्पर्श भी नहीं करते। ये जो परमार्थवत् दीख पड़ते हैं, इसमें केवल अज्ञान ही कारण है। जो मलिनमति कर्मवादी लोग वेद को कर्मपरक बताते हैं, वे वास्तव में उसका मर्म नहीं जानते। इसका कारण यही है कि वे अपने स्वरूपभूत लोक (आत्मतत्त्व) को नहीं जानते, जहाँ साक्षात् श्रीजनार्दन भगवान् विराजमान हैं, पूर्व की ओर अग्रभाग वाले कुशाओं से सम्पूर्ण भूमण्डल को आच्छादित करके अनेकों पशुओं का वध करने से तुम बड़े कर्माभिमानी और उद्धत हो गये हो; किन्तु वास्तव में तुम्हें कर्म या उपासना-किसी के भी रहस्य का पता नहीं है। वास्तव में कर्म तो वही है, जिससे श्रीहरि को प्रसन्न किया जा सके और विद्या भी वही है, जिससे भगवान् में चित्त लगे।

श्रीहरि सम्पूर्ण देहधारियों में आत्मा, नियामक और स्वतन्त्र कारण हैं; अतः उनके चरणतल ही मनुष्यों के एकमात्र आश्रय हैं और उन्हीं से संसार में सबका कल्याण हो सकता है। 'जिससे किसी को अणुमात्र भी भय नहीं होता, वही उसका प्रियतम आत्मा हैऐसा जो पुरुष जानता है, वही ज्ञानी है और जो ज्ञानी है, वही गुरु एवं साक्षात् श्रीहरि है।

श्रीनारद जी कहते हैं ;- पुरुषश्रेष्ठ! यहाँ तक जो कुछ कहा गया है, उससे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर हो गया। अब मैं एक भलीभाँति निश्चित किया हुआ गुप्त साधन बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो। पुष्पवाटिका में अपनी हरिनी के साथ विहार करता हुआ एक हरिन मस्त घूम रहा है, वह दूब आदि छोटे-छोटे अंकुरों को चर रहा है। उसके कान भौंरों के मधुर गुंजार में लग रहे हैं। उसके सामने ही दूसरे जीवों को मारकर अपना पेट पालने वाले भेड़िये ताक लगाये खड़े हैं और पीछे से शिकारी व्याध ने बींधने के लिये उस पर बाण छोड़ दिया है। परन्तु हरिन इतना बेसुध है कि उसे इसका कुछ पता नहीं है।एक बार इस हरिन की दशा पर विचार करो।

राजन्! इस रूपक का आशय सुनो। यह मृतप्राय हरिन तुम्हीं हो, तुम अपनी दशा पर विचार करो। पुष्पों की तरह ये स्त्रियाँ केवल देखने में सुन्दर हैं, इन स्त्रियों के रहने का घर ही पुष्पवाटिका है। इसमें रहकर तुम पुष्पों के मधु और गन्ध के समान क्षुद्र सकाम कर्मों के फलरूप, जीभ और जननेद्रिय को प्रिय लगने वाले भोजन तथा स्त्रीसंग आदि तुच्छ भोगो को ढूँढ रहे हो। स्त्रियों से घिरे रहते हो और अपने मन को तुमने उन्हीं में फँसा रखा है। स्त्री-पुत्रों का मधुर भाषण ही भौरों का मधुर गुंजार है, तुम्हारे कान उसी में अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं। सामने ही भेड़ियों के झुंड के समान काल के अंश दिन और रात तुम्हारी आयु को हर रहे हैं, परन्तु तुम उनकी कुछ भी परवा न कर गृहस्थी के सुखों में मस्त हो रहे हो। तुम्हारे पीछे गुप-चुप लगा हुआ शिकारी काल अपने छिपे हुए बाण से तुम्हारे हृदय को दूर से ही बींध डालना चाहता है।

स त्वं विचक्ष्य मृगचेष्टितमात्मनोऽन्तः

     चित्तं नियच्छ हृदि कर्णधुनीं च चित्ते ।

जह्यङ्‌गनाश्रममसत् तमयूथगाथं

     प्रीणीहि हंसशरणं विरम क्रमेण ॥ ५५ ॥

राजोवाच -

(अनुष्टुप्)

श्रुतमन्वीक्षितं ब्रह्मन् भगवान् यदभाषत ।

नैतज्जानन्ति उपाध्यायाः किं न ब्रूयुर्विदुर्यदि ॥ ५६ ॥

संशयोऽत्र तु मे विप्र सञ्छिन्नस्तत्कृतो महान् ।

ऋषयोऽपि हि मुह्यन्ति यत्र नेन्द्रियवृत्तयः ॥ ५७ ॥

कर्माण्यारभते येन पुमानिह विहाय तम् ।

अमुत्रान्येन देहेन जुष्टानि स यदश्नुते ॥ ५८ ॥

इति वेदविदां वादः श्रूयते तत्र तत्र ह ।

कर्म यत्क्रियते प्रोक्तं परोक्षं न प्रकाशते ॥ ५९ ॥

नारद उवाच -

येनैवारभते कर्म तेनैवामुत्र तत्पुमान् ।

भुङ्‌क्ते हि अव्यवधानेन लिङ्‌गेन मनसा स्वयम् ॥ ६० ॥

शयानं इमं उत्सृज्य श्वसन्तं पुरुषो यथा ।

कर्मात्मन्याहितं भुङ्‌क्ते तादृशेनेतरेण वा । ॥ ६१ ॥

ममैते मनसा यद्यद् असौ अहं इति ब्रुवन् ।

गृह्णीयात् तत्पुमान् राद्धं कर्म येन पुनर्भवः ॥ ६२ ॥

यथानुमीयते चित्तं उभयैरिन्द्रियेहितैः ।

एवं प्राग्देहजं कर्म लक्ष्यते चित्तवृत्तिभिः ॥ ६३ ॥

नानुभूतं क्व चानेन देहेनादृष्टमश्रुतम् ।

कदाचिद् उपलभ्येत यद् रूपं यादृगात्मनि ॥ ६४ ॥

तेनास्य तादृशं राजन् लिङ्‌गिनो देहसम्भवम् ।

श्रद्धत्स्वाननुभूतोऽर्थो न मनः स्प्रष्टुमर्हति ॥ ६५ ॥

इस प्रकार अपने को मृग की-सी स्थिति में देखकर तुम अपने चित्त को हृदय के भीतर निरुद्ध करो और नदी की भाँति प्रवाहित होने वाली श्रवणेन्द्रिय की बाह्य वृत्ति को चित्त में स्थापित करो। (अन्तर्मुखी करो) जहाँ कामी पुरुषों की चर्चा होती रहती है, उस गृहस्थाश्रम को छोड़कर परमहंसों के आश्रय श्रीहरि को प्रसन्न करो और क्रमशः सभी विषयों से विरत हो जाओ।

राजा प्राचीनबर्हि ने कहा ;- भगवन्! आपने कृपा करके मुझे जो उपदेश दिया, उसे मैंने सुना और उस पर विशेषरूप से विचार भी किया। मुझे कर्म का उपदेश देने वाले इन आचार्यों को निश्चय ही इसका ज्ञान नहीं है; यदि ये इस विषय को जानते तो मुझे इसका उपदेश क्यों न करते।

विप्रवर! मेरे उपाध्यायों ने आत्मतत्त्व के विषय में मेरे हृदय में जो महान् संशय खड़ा कर दिया था, उसे आपने पूरी तरह से काट दिया। इस विषय में इन्द्रियों की गति न होने के कारण मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को भी मोह हो जाता है। वेदवादियों का कथन जगह-जगह सुना जाता है कि पुरुष इस लोक में जिसके द्वारा कर्म करता है, उस स्थूल शरीर को यहीं छोड़कर परलोक में कर्मों से ही बने हुए दूसरी देह से उनका फल भोगता है। किन्तु यह बात कैसे हो सकती है?’ (क्योंकि उन कर्मों का कर्ता स्थूल शरीर तो यहीं नष्ट हो जाता है।) इसके सिवा जो-जो कर्म यहाँ किये जाते हैं, वे तो दूसरे ही क्षण में अदृश्य हो जाते हैं; वे परलोक में फल देने के लिये किस प्रकार पुनः प्रकट हो सकते हैं?

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजन्! (स्थूल शरीर तो लिंग शरीर के अधीन है, अतः कर्मों का उत्तरदायित्व उसी पर है) जिस मनःप्रधान लिंग की सहायता से मनुष्य कर्म करता है, वह तो मरने के बाद भी उसके साथ रहता ही है, अतः वह परलोक में अपरोक्ष रूप से स्वयं उसी के द्वारा उनका फल भोगता है। स्वप्नावस्था में मनुष्य इस जीवित शरीर का अभिमान तो छोड़ देता है, किन्तु इसी के समान अथवा इससे भिन्न प्रकार के पशु-पक्षी आदि शरीर से वह मन में संस्काररूप से स्थित कर्मों का फल भोगता रहता है। इस मन के द्वारा जीव जिन स्त्री-पुत्रादि को ये मेरे हैंऔर देहादि को यह मैं हूँऐसा कहकर मानता है, उनके किये हुए पाप-पुण्यादिरूप कर्मों को भी यह अपने ऊपर ले लेता है और उनके कारण इसे व्यर्थ ही फिर जन्म लेना पड़ता है। जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों की चेष्टाओं से उनके प्रेरक चित्त का अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार चित्त की भिन्न-भिन्न प्रकार की वृत्तियों से पूर्वजन्म के कर्मो का भी अनुमान होता है। (अतः कर्म अदृष्टरूप से फल देने के लिये कालान्तर में मौजूद रहते हैं) कभी-कभी देखा जाता है कि जिस वस्तु का इस शरीर से कभी अनुभव नहीं किया-जिसे न कभी देखा, न सुना ही-उसका स्वप्न में, वह जैसी होती है, वैसा ही अनुभव हो जाता है।

राजन्! तुम निश्चय मानो कि लिंग देह के अभिमानी जीव को उसका अनुभव पूर्वजन्म में हो चुका है; उसकी मन में वासना भी नहीं हो सकती।

मन एव मनुष्यस्य पूर्वरूपाणि शंसति ।

भविष्यतश्च भद्रं ते तथैव न भविष्यतः ॥ ६६ ॥

अदृष्टमश्रुतं चात्र क्वचित् मनसि दृश्यते ।

यथा तथानुमन्तव्यं देशकालक्रियाश्रयम् ॥ ६७ ॥

सर्वे क्रमानुरोधेन मनसीन्द्रियगोचराः ।

आयान्ति बहुशो यान्ति सर्वे समनसो जनाः ॥ ६८ ॥

सत्त्वैकनिष्ठे मनसि भगवत्पार्श्ववर्तिनि ।

तमश्चन्द्रमसीवेदं उपरज्यावभासते ॥ ६९ ॥

नाहं ममेति भावोऽयं पुरुषे व्यवधीयते ।

यावद्‍बुद्धिमनोऽक्षार्थ गुणव्यूहो ह्यनादिमान् ॥ ७० ॥

सुप्तिमूर्च्छोपतापेषु प्राणायनविघाततः ।

नेहतेऽहमिति ज्ञानं मृत्युप्रज्वारयोरपि ॥ ७१ ॥

गर्भे बाल्येऽप्यपौष्कल्याद् एकादशविधं तदा ।

लिङ्‌गं न दृश्यते यूनः कुह्वां चन्द्रमसो यथा ॥ ७२ ॥

अर्थे हि अविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।

ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥ ७३ ॥

एवं पञ्चविधं लिङ्‌गं त्रिवृत्षोडश विस्तृतम् ।

एष चेतनया युक्तो जीव इत्यभिधीयते ॥ ७४ ॥

अनेन पुरुषो देहान् उपादत्ते विमुञ्चति ।

हर्षं शोकं भयं दुःखं सुखं चानेन विन्दति ॥ ७५ ॥

यथा तृणजलूकेयं नापयात्यपयाति च ।

न त्यजेन्म्रियमाणोऽपि प्राग्देहाभिमतिं जनः ॥ ७६ ॥

अदृष्टं दृष्टवन्नङ्‌क्षेद्‍भूतं स्वप्नवदन्यथा ।

भूतं भवद्‍भविष्यच्च सुप्तं सर्वरहोरहः ॥ ७७ ॥

राजन्! तुम्हारा कल्याण हो। मन ही मनुष्य के पूर्वरूपों को तथा भावी शरीरादि को भी बता देता है और जिनका भावी जन्म होने वाला नहीं होता, उन तत्त्व-वेत्ताओं की विदेहमुक्ति का पता भी उनके मन से ही लग जाता है। कभी-कभी स्वप्न में देश, काल अथवा क्रिया सम्बन्धी ऐसी बातें भी देखी जाती हैं, जो पहले कभी देखी या सुनी नहीं गयीं। (जैसे पर्वत की चोटी पर समुद्र, दिन में तारे अथवा अपना सिर कटा दिखायी देना, इत्यादि) इनके दीखने में निद्रादोष को ही कारण मानना चाहिये। मन के सामने इन्द्रियों से अनुभव होने योग्य पदार्थ ही भोगरूप में बार-बार आते हैं और भोग समाप्त होने पर चले जाते हैं; ऐसा कोई पदार्थ नहीं आता, जिसका इन्द्रियों से अनुभव ही न हो सके। इसका कारण यही है कि सब जीव मन सहित हैं।

साधारणत: तो सब पदार्थों का क्रमशः ही भान होता है; किन्तु यदि किसी समय भगवच्चिन्तन में लगा हुआ मन विशुद्ध सत्त्व में स्थित हो जाये, तो उसमें भगवान् का संसर्ग होने से एक साथ समस्त विश्व का ही भान हो सकता है-जैसे राहु दृष्टि का विषय न होने पर भी प्रकाशात्मक चन्द्रमा के संसर्ग से दीखने लगता है। राजन्! जब तक गुणों का परिणाम एवं बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शब्दादि विषयों का संघात यह अनादि लिंग देह बना हुआ है, तब तक जीव के अंदर स्थूल देह के प्रति मैं-मेराइस भाव का अभाव नहीं हो सकता। सुषुप्ति, मूर्च्छा, अत्यन्त दुःख तथा मृत्यु और तीव्र ज्वरादि के समय भी इन्द्रियों की व्याकुलता के कारण मैंऔर मेरेपनकी स्पष्ट प्रतीति नहीं होती; किन्तु उस समय भी उनका अभिमान तो बना ही रहता है। जिस प्रकार अमावास्या की रात्रि में चन्द्रमा रहते हुए भी दिखायी नहीं देता, उसी प्रकार युवावस्था में स्पष्ट प्रतीत होने वाला यह एकादश इन्द्रिय विशिष्ट लिंग शरीर गर्भावस्था और बाल्यकाल में रहते हुए भी इन्द्रियों का पूर्ण विकास न होने के कारण प्रतीत नहीं होता।

जिस प्रकार स्वप्न में किसी वस्तु का अस्तित्व न होने पर भी जागे बिना स्वप्नजनित अनर्थ की निवृत्ति नहीं होती-उसी प्रकार सांसारिक वस्तुएँ यद्यपि असत् हैं, तो भी अविद्यावश जीव उनका चिन्तन करता रहता है; इसलिये उसका जन्म-मरणरूप संसार से छुटकारा नहीं हो पाता। इस प्रकार पंचतन्मात्राओं से बना हुआ तथा सोलह तत्त्वों के रूप में विकसित यह त्रिगुणमय संघात ही लिंग शरीर है। यही चेतना शक्ति से युक्त होकर जीव कहा जाता है। इसी के द्वारा पुरुष भिन्न-भिन्न देहों को ग्रहण करता और त्यागता है तथा इसी से उसे हर्ष, शोक, भय, दुःख और सुख आदि का अनुभव होता है, जिस प्रकार जोंक, जब तक दूसरे तृण को नहीं पकड़ लेती, तब तक पहले को नहीं छोड़ती-उसी प्रकार जीव मरणकाल उपस्थित होने पर भी जब तक देहारम्भक कर्मों की समाप्ति होने पर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक पहले शरीर के अभिमान को नहीं छोड़ता।

राजन्! यह मनःप्रधान लिंग शरीर ही जीव के जन्मादि का कारण है।

यावदन्यं न विन्देत व्यवधानेन कर्मणाम् ।

मन एव मनुष्येन्द्र भूतानां भवभावनम् ॥ ७७ ॥

यदाक्षैश्चरितान् ध्यायन् कर्माण्याचिनुतेऽसकृत् ।

सति कर्मण्यविद्यायां बन्धः कर्मण्यनात्मनः ॥ ७८ ॥

अतस्तद् अपवादार्थं भज सर्वात्मना हरिम् ।

पश्यन् तदात्मकं विश्वं स्थित्युत्पत्त्यप्यया यतः ॥ ७९ ॥

मैत्रेय उवाच -

भागवतमुख्यो भगवान् नारदो हंसयोर्गतिम् ।

प्रदर्श्य ह्यमुमामन्त्र्य सिद्धलोकं ततोऽगमत् ॥ ८० ॥

प्राचीनबर्ही राजर्षिः प्रजासर्गाभिरक्षणे ।

आदिश्य पुत्रानगमत् तपसे कपिलाश्रमम् ॥ ८१ ॥

तत्रैकाग्रमना धीरो गोविन्द चरणाम्बुजम् ।

विमुक्तसङ्‌गोऽनुभजन् भक्त्या तत्साम्यतामगात् ॥ ८२ ॥

एतदध्यात्मपारोक्ष्यं गीतं देवर्षिणानघ ।

यः श्रावयेत् यः श्रृणुयात् स लिङ्‌गेन विमुच्यते ॥ ८३ ॥

एतन्मुकुन्दयशसा भुवनं पुनानं

     देवर्षिवर्यमुखनिःसृतमात्मशौचम् ।

यः कीर्त्यमानमधिगच्छति पारमेष्ठ्यं

     नास्मिन् भवे भ्रमति मुक्तसमस्तबन्धः ॥ ८४ ॥

(अनुष्टुप्)

अध्यात्मपारोक्ष्यमिदं मयाधिगतमद्‍भुतम् ।

एवं स्त्रियाऽऽश्रमः पुंसश्छिन्नोऽमुत्र च संशयः ॥ ८५ ॥

जीव जब इन्द्रियजनित भोगों का चिन्तन करते हुए बार-बार उन्हीं के लिये कर्म करता है, तब उन कर्मों के होते रहने से अविद्यावश वह देहादि के कर्मों में बँध जाता है। अतएव उस कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिये सम्पूर्ण विश्व को भगवद्रूप देखते हुए सब प्रकार श्रीहरि का भजन करो। उन्हीं से इस विश्व की उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा उन्हीं में लय होता है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! भक्त श्रेष्ठ श्रीनारद जी ने राजा प्राचीनबर्हि को जीव और ईश्वर के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया। फिर वे उनसे विदा लेकर सिद्धलोक को चले गये। तब राजर्षि प्राचीनबर्हि ही प्रजापालन का भार अपने पुत्रों को सौंपकर तपस्या करने के लिये कपिलाश्रम को चले गये। वहाँ उन वीरवर ने समस्त विषयों की आसक्ति छोड़ एकाग्र मन से भक्तिपूर्वक श्रीहरि के चरणकमलों का चिन्तन करते हुए सारूप्यपद प्राप्त किया।

निष्पाप विदुर जी! देवर्षि नारद के परोक्ष रूप से कहे हुए इस आत्मज्ञान को जो पुरुष सुनेगा या सुनायेगा, वह शीघ्र ही लिंगदेह के बन्धन से छूट जायेगा। देवर्षि नारद के मुख के निकला हुआ यह आत्मज्ञान भगवान् मुकुन्द के यश से सम्बन्ध होने के कारण त्रिलोकी को पवित्र करने वाला, अन्तःकरण का शोधक तथा परमात्मपद को प्रकाशित करने वाला है। जो पुरुष इसकी कथा सुनेगा, वह समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेगा और फिर उसे इस संसार-चक्र में नहीं भटकना पड़ेगा।

विदुर जी! गृहस्थाश्रमी पुरंजन के रूपक से परोक्ष रूप में कहा हुआ यह अद्भुत आत्मज्ञान मैंने गुरु जी की कृपा से प्राप्त किया था। इसका तात्पर्य समझ लेने से बुद्धियुक्त जीव का देहाभिमान निवृत्त हो जाता है तथा उसका परलोक में जीव किस प्रकार कर्मों का फल भोगता हैयह संशय भी मिट जाता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे प्राचीनबर्हिर्नारदसंवादो मान एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २९ समाप्त हुआ ॥ २९ ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय ३०

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box