श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ३०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ३०                        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ३० "प्रचेताओं को श्रीविष्णु भगवान् का वरदान"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ३०

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश: अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ३०               

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः ३०                  

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध तीसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ३० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

विदुर उवाच -

(अनुष्टुप्)

ये त्वयाभिहिता ब्रह्मन् सुताः प्राचीनबर्हिषः ।

ते रुद्रगीतेन हरिं सिद्धिमापुः प्रतोष्य काम् ॥ १ ॥

किं बार्हस्पत्येह परत्र वाथ

     कैवल्यनाथप्रियपार्श्ववर्तिनः ।

आसाद्य देवं गिरिशं यदृच्छया

     प्रापुः परं नूनमथ प्रचेतसः ॥ २ ॥

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

प्रचेतसोऽन्तरुदधौ पितुरादेशकारिणः ।

अपयज्ञेन तपसा पुरञ्जनण् अतोषयन् ॥ ३ ॥

दशवर्षसहस्रान्ते पुरुषस्तु सनातनः ।

तेषां आविरभूत् कृच्छ्रं शान्तेन शमयन् रुचा ॥ ४ ॥

सुपर्णस्कन्धमारूढो मेरुश्रूङ्‌गमिवाम्बुदः ।

पीतवासा मणिग्रीवः कुर्वन् वितिमिरा दिशः ॥ ५ ॥

काशिष्णुना कनकवर्णविभूषणेन

     भ्राजत्कपोलवदनो विलसत्किरीटः ।

अष्टायुधैरनुचरैर्मुनिभिः सुरेन्द्रैः

     आसेवितो गरुडकिन्नरगीतकीर्तिः ॥ ६ ॥

पीनायताष्टभुजमण्डल मध्यलक्ष्म्या

     स्पर्धच्छ्रिया परिवृतो वनमालयाऽऽद्यः ।

बर्हिष्मतः पुरुष आह सुतान् प्रपन्नान्

     पर्जन्यनादरुतया सघृणावलोकः ॥ ७ ॥

श्रीभगवानुवाच -

(अनुष्टुप्)

वरं वृणीध्वं भद्रं वो यूयं मे नृपनन्दनाः ।

सौहार्देनापृथग्धर्माः तुष्टोऽहं सौहृदेन वः ॥ ८ ॥

योऽनुस्मरति सन्ध्यायां युष्मान् अनुदिनं नरः ।

तस्य भ्रातृष्वात्मसाम्यं तथा भूतेषु सौहृदम् ॥ ९ ॥

ये तु मां रुद्रगीतेन सायं प्रातः समाहिताः ।

स्तुवन्त्यहं कामवरान् दास्ये प्रज्ञां च शोभनाम् ॥ १० ॥

यद्यूयं पितुरादेशं अग्रहीष्ट मुदान्विताः ।

अथो व उशती कीर्तिः लोकाननु भविष्यति ॥ ११ ॥

भविता विश्रुतः पुत्रो ऽनवमो ब्रह्मणो गुणैः ।

य एतां आत्मवीर्येण त्रिलोकीं पूरयिष्यति ॥ १२ ॥

कण्डोः प्रम्लोचया लब्धा कन्या कमललोचना ।

तां चापविद्धां जगृहुः भूरुहा नृपनन्दनाः ॥ १३ ॥

क्षुत्क्षामाया मुखे राजा सोमः पीयूषवर्षिणीम् ।

देशिनीं रोदमानाया निदधे स दयान्वितः ॥ १४ ॥

प्रजाविसर्ग आदिष्टाः पित्रा मां अनुवर्तता ।

तत्र कन्यां वरारोहां तां उद्वहत मा चिरम् ॥ १५ ॥

विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! आपने राजा प्राचीनबर्हि के जिन पुत्रों का वर्णन किया था, उन्होंने रुद्रगीत के द्वारा श्रीहरि की स्तुति करके क्या सिद्धि प्राप्त की? बार्हस्पत्य! मोक्षाधिपति श्रीनारायण के अत्यन्त प्रिय भगवान् शंकर का अकस्मात् सान्निध्य प्राप्त करके प्रचेताओं ने मुक्ति तो प्राप्त की ही होगी; इससे पहले इस लोक में अथवा परलोक में भी उन्होंने क्या पाया-वह बतलाने की कृपा करें।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! पिता के आज्ञाकारी प्रचेताओं ने समुद्र के अंदर खड़े रहकर रुद्रगीत के जपरूपी यज्ञ और तपस्या के द्वारा समस्त शरीरों के उत्पादक भगवान् श्रीहरि को प्रसन्न कर लिया। तपस्या करते-करते दस हजार वर्ष बीत जाने पर पुराणपुरुष श्रीनारायण अपनी मनोहर कान्ति द्वारा उनके तपस्याजनित क्लेश को शान्त करते हुए सौम्य विग्रह से उनके सामने प्रकट हुए। गरुड़ जी के कंधे पर बैठे हुए श्रीभगवान् ऐसे जान पड़ते थे, मानो सुमेरु के शिखर पर कोई श्याम घटा छायी हो। उनके श्रीअंग में मनोहर पीताम्बर और कण्ठ में कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। अपनी दिव्य प्रभा से वे सब दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे थे।

चमकीले सुवर्णमय आभूषणों से युक्त उनके कमनीय कपोल और मनोहर मुखमण्डल की अपूर्व शोभा हो रही थी। उनके मस्तक पर झिलमिलाता हुआ मुकुट शोभायमान था। प्रभु की आठ भुजाओं में आठ आयुध थे; देवता, मुनि और पार्षदगण सेवा में उपस्थित थे तथा गरुड़ जी किन्नरों की भाँति साममय पंखों की ध्वनि से कीर्तिगान कर रहे थे। उनकी आठ लंबी-लंबी स्थूल भुजाओं के बीच में लक्ष्मी जी से स्पर्धा करने वाली वनमाला विराजमान थी। आदिपुरुष श्रीनारायण ने इस प्रकार पधारकर अपने शरणागत प्रचेताओं की ओर दयादृष्टि से निहारते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- राजपुत्रों! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सब में परस्पर बड़ा प्रेम है और स्नेहवश तुम एक ही धर्म का पालन कर रहे हो। तुम्हारे इस आदर्श सौहार्द से मैं बड़ा प्रसन्न हूँ। मुझसे वर मांगो। जो पुरुष सायंकाल के समय प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका अपने भाइयों में अपने ही समान प्रेम होगा तथा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव हो जायेगा। जो लोग सायंकाल और प्रातःकाल एकाग्रचित्त से रुद्रगीता द्वारा मेरी स्तुति करेंगे, उनको मैं अभीष्ट वर और शुद्ध बुद्धि प्रदान करूँगा। तम लोगों ने बड़ी प्रसन्नता से अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की है, इससे तुम्हारी कमनीय कीर्ति समस्त लोकों में फैल जायेगी। तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा। वह गुणों में किसी भी प्रकार ब्रह्मा जी से कम नहीं होगा तथा अपनी सन्तान से तीनों लोकों को पूर्ण कर देगा।

राजकुमारों! कण्डु ऋषि के तपोनाश के लिये इन्द्र की भेजी हुई प्रम्लोचा अप्सरा से एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई थी। उसे छोड़कर वह स्वर्गलोक को चली गयी। तब वृक्षों ने उस कन्या को लेकर पाला-पोसा। जब वह भूख से व्याकुल होकर रोने लगी, तब ओषधियों के राजा चन्द्रमा ने दयावश उसके मुँह में अपनी अमृतवर्षिणी तर्जनी अँगुली दे दी। तुम्हारे पिता आजकल मेरी सेवा (भक्ति) में लगे हुए हैं; उन्होंने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी है। अतः तुम शीघ्र ही उस देवोपम सुन्दरी कन्या से विवाह कर लो।

अपृथग्धर्मशीलानां सर्वेषां वः सुमध्यमा ।

अपृथग्धर्मशीलेयं भूयात् पत्‍न्यर्पिताशया ॥ १६ ॥

दिव्यवर्षसहस्राणां सहस्रमहतौजसः ।

भौमान् भोक्ष्यथ भोगान् वै दिव्यान् चानुग्रहान्मम ॥ १७ ॥

अथ मय्यनपायिन्या भक्त्या पक्वगुणाशयाः ।

उपयास्यथ मद्धाम निर्विद्य निरयादतः ॥ १८ ॥

गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मणाम् ।

मद् वार्तायातयामानां न बन्धाय गृहा मताः ॥ १९ ॥

नव्यवद्‌ हृदये यज्ज्ञो ब्रह्मैतद्‍ब्रह्मवादिभिः ।

न मुह्यन्ति न शोचन्ति न हृष्यन्ति यतो गताः ॥ २० ॥

मैत्रेय उवाच -

एवं ब्रुवाणं पुरुषार्थभाजनं

     जनार्दनं प्राञ्जलयः प्रचेतसः ।

तद्दर्शनध्वस्ततमोरजोमला

     गिरागृणन् गद्‍गदया सुहृत्तमम् ॥ २१ ॥

प्रचेतस ऊचुः -

नमो नमः क्लेशविनाशनाय

     निरूपितोदारगुणाह्वयाय ।

मनोवचोवेगपुरोजवाय

     सर्वाक्षमार्गैरगताध्वने नमः ॥ २२ ॥

शुद्धाय शान्ताय नमः स्वनिष्ठया

     मनस्यपार्थं विलसद्द्वयाय ।

नमो जगत्स्थानलयोदयेषु

     गृहीतमायागुणविग्रहाय ॥ २३ ॥

(अनुष्टुप्)

नमो विशुद्धसत्त्वाय हरये हरिमेधसे ।

वासुदेवाय कृष्णाय प्रभवे सर्वसात्वताम् ॥ २४ ॥

नमः कमलनाभाय नमः कमलमालिने ।

नमः कमलपादाय नमस्ते कमलेक्षण ॥ २५ ॥

नमः कमलकिञ्जल्क पिशङ्‌गामलवाससे ।

सर्वभूतनिवासाय नमोऽयुङ्‌क्ष्महि साक्षिणे ॥ २६ ॥

रूपं भगवता त्वेतद् अशेषक्लेशसङ्‌क्षयम् ।

आविष्कृतं नः क्लिष्टानां किं अन्यद् अनुकंपितम् ॥ २७ ॥

एतावत्त्वं हि विभुभिः भाव्यं दीनेषु वत्सलैः ।

यदनुस्मर्यते काले स्वबुद्ध्याभद्ररन्धन ॥ २८ ॥

येनोपशान्तिर्भूतानां क्षुल्लकानामपीहताम् ।

अन्तर्हितोऽन्तर्हृदये कस्मान्नो वेद नाशिषः ॥ २९ ॥

असौ एव वरोऽस्माकं ईप्सितो जगतः पते ।

प्रसन्नो भगवान्येषां अपवर्गः गुरुर्गतिः ॥ ३० ॥

वरं वृणीमहेऽथापि नाथ त्वत्परतः परात् ।

न ह्यन्तस्त्वद् विभूतीनां सोऽनन्त इति गीयसे ॥ ३१ ॥

तुम सब एक ही धर्म में तत्पर हो और तुम्हारा स्वभाव भी एक-सा ही है; इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म और स्वभाव वाली वह सुन्दरी कन्या तुम सभी की पत्नी होगी तथा तुम सभी में उसका समान अनुराग होगा। तुम लोग मेरी कृपा से दस लाख दिव्य वर्षों तक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकार के पार्थिव और दिव्य भोग भोगोगे। अन्त में मेरी अविचल भक्ति से हृदय का समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जाने पर तुम इस लोक तथा परलोक के नरकतुल्य भोगों से उपरत होकर मेरे परमधाम को जाओगे। जिन लोगों के कर्म भगवदर्पण बुद्धि से होते हैं और जिनका सारा समय मेरी कथा वार्ताओं में ही बीतता है, वे गृहस्थाश्रम में रहें तो भी घर उनके बन्धन का कारण नहीं होते। वे नित्यप्रति मेरी लीलाएँ सुनते रहते हैं, इसलिये ब्रह्मवादी वक्ताओं के द्वारा मैं ज्ञान-स्वरूप परब्रह्म उनके हृदय में नित्य नया-नया-सा भासता रहता हूँ और मुझे प्राप्त कर लेने पर जीवों को न मोह हो सकता है, न शोक और न हर्ष ही।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भगवान् के दर्शनों से प्रचेताओं का रजोगुण-तमोगुण मल नष्ट हो चुका था। जब उनसे सकल पुरुषार्थों के आश्रय और सबके परम सुहृद् श्रीहरि ने इस प्रका कहा, तब वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से कहने लगे।

प्रचेताओं ने कहा ;- प्रभो! आप भक्तों के क्लेश दूर करने वाले हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं। वेद आपके उदार गुण और नामों का निरूपण करते हैं। आपके वेग मन और वाणी के वेग से भी बढ़कर हैं तथा आपका स्वरूप सभी इन्द्रियों की गति से परे हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। आप अपने स्वरूप में स्थित रहने के कारण नित्य शुद्ध और शान्त हैं, मनरूप निमित्त के कारण हमें आपमें यह मिथ्या द्वैत भास रहा है। वास्तव में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये आप माया के गुणों को स्वीकार करके ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेव रूप धारण करते हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। आप विशुद्ध सत्त्वरूप हैं, आपका ज्ञान संसार बन्धन को दूर कर देता है। आप ही समस्त भागवतों के प्रभु वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण हैं, आपको नमस्कार है। आपकी ही नाभि से ब्रह्माण्डरूप कमल प्रकट हुआ था, आपके कण्ठ में कमलकुसुमों की माला सुशोभित है तथा आपके चरण कमल के समान कोमल हैं; कमलनयन! आपको नमस्कार है। आप कमलकुसुम की केसर के समान स्वच्छ पीताम्बर धारण किये हुए हैं, समस्त भूतों के आश्रयस्थान हैं तथा सबके साक्षी हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं।

भगवन्! आपका यह स्वरूप सम्पूर्ण क्लेशों की निवृत्ति करने वाला है; हम अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेषादि क्लेशों से पीड़ितों के सामने आपने इसे प्रकट किया है। इससे बढ़कर हम पर और क्या कृपा होगी। अमंगलहारी प्रभो! दीनों पर कृपा करने वाले समर्थ पुरुषों को इतनी ही कृपा करनी चाहिये कि समय-समय पर उन दीनजनों को ये हमारे हैंइस प्रकार स्मरण कर लिया करें। इसी से उनके आश्रितों का चित्त शान्त हो जाता है। आप तो क्षुद्र-से-क्षुद्र प्राणियों के भी अन्तःकरणों में अन्तर्यामी रूप से विराजमान रहते हैं। फिर आपके उपासक हम लोग जो-जो कामनाएँ करते हैं, हमारी उन कामनाओं को आप क्यों न जान लेंगे। जगदीश्वर! आप मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले और स्वयं पुरुषार्थस्वरूप हैं। आप हम पर प्रसन्न हैं, इससे बढ़कर हमें और क्या चाहिये। बस, हमारा अभीष्ट वर तो आपकी प्रसन्नता ही है। तथापि, नाथ! हम एक वर आप से अवश्य माँगते हैं। प्रभो! आप प्रकृति आदि से परे हैं और आपकी विभूतियों का भी कोई अन्त नहीं हैं; इसलिये आप अनन्तकहे जाते हैं।

पारिजातेऽञ्जसा लब्धे सारङ्‌गोऽन्यन्न सेवते ।

त्वदङ्‌घ्रिमूलमासाद्य साक्षात्किं किं वृणीमहि ॥ ३२ ॥

यावत्ते मायया स्पृष्टा भ्रमाम इह कर्मभिः ।

तावद्‍भवत् प्रसङ्‌गानां सङ्‌गः स्यान्नो भवे भवे ॥ ३३ ॥

तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं न अपुनर्भवम् ।

भगवत् सङ्‌गिसङ्‌गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ ३४ ॥

यत्रेड्यन्ते कथा मृष्टाः तृष्णायाः प्रशमो यतः ।

निर्वैरं यत्र भूतेषु नोद्वेगो यत्र कश्चन ॥ ३५ ॥

यत्र नारायणः साक्षाद् भगवान् न्यासिनां गतिः ।

संस्तूयते सत्कथासु मुक्तसङ्‌गैः पुनः पुनः ॥ ३६ ॥

तेषां विचरतां पद्‍भ्यां तीर्थानां पावनेच्छया ।

भीतस्य किं न रोचेत तावकानां समागमः ॥ ३७ ॥

वयं तु साक्षाद्‍भगवन् भवस्य

     प्रियस्य सख्युः क्षणसङ्‌गमेन ।

सुदुश्चिकित्स्यस्य भवस्य मृत्योः

     भिषक्तमं त्वाद्य गतिं गताः स्म ॥ ३८ ॥

यन्नः स्वधीतं गुरवः प्रसादिता

     विप्राश्च वृद्धाश्च सदानुवृत्त्या ।

आर्या नताः सुहृदो भ्रातरश्च

     सर्वाणि भूतान्यनसूययैव ॥ ३९ ॥

यन्नः सुतप्तं तप एतदीश

     निरन्धसां कालमदभ्रमप्सु ।

सर्वं तदेतत्पुरुषस्य भूम्नो

     वृणीमहे ते परितोषणाय ॥ ४० ॥

मनुः स्वयम्भूर्भगवान् भवश्च

     येऽन्ये तपोज्ञानविशुद्धसत्त्वाः ।

अदृष्टपारा अपि यन्महिम्नः

     स्तुवन्त्यथो त्वात्मसमं गृणीमः ॥ ४१ ॥

(अनुष्टुप्)

नमः समाय शुद्धाय पुरुषाय पराय च ।

वासुदेवाय सत्त्वाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ ४२ ॥

मैत्रेय उवाच -

इति प्रचेतोभिरभिष्टुतो हरिः

     प्रीतस्तथेत्याह शरण्यवत्सलः ।

अनिच्छतां यान् अमतृप्तचक्षुषां

     ययौ स्वधामानपवर्गवीर्यः ॥ ४३ ॥

(अनुष्टुप्)

अथ निर्याय सलिलात् प्रचेतस उदन्वतः ।

वीक्ष्याकुप्यन् द्रुमैश्छन्नां गां गां रोद्धुः इवोच्छ्रितैः ॥ ४४ ॥

ततोऽग्निमारुतौ राजन् अमुञ्चन्मुखतो रुषा ।

महीं निर्वीरुधं कर्तुं संवर्तक इवात्यये ॥ ४५ ॥

भस्मसात् क्रियमाणान् तान् द्रुमान् वीक्ष्य पितामहः ।

आगतः शमयामास पुत्रान् बर्हिष्मतो नयैः ॥ ४६ ॥

तत्रावशिष्टा ये वृक्षा भीता दुहितरं तदा ।

उज्जह्रुस्ते प्रचेतोभ्य उपदिष्टाः स्वयम्भुवा ॥ ४७ ॥

यदि भ्रमर को अनायास ही कल्पवृक्ष मिल जाये, तो क्या वह किसी दूसरे वृक्ष का सेवन करेगा? तब आपकी चरण शरण में आकर अब हम क्या-क्या माँगे। हम आपसे केवल यही माँगते हैं कि जब तक आपकी माया से मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसार में भ्रमते रहें, तब तक जन्म-जन्म में हमें आपके प्रेमी भक्तों का संग प्राप्त होता रहे। हम तो भगवद्भक्तों के क्षण भर के संग के सामने स्वर्ग और मोक्ष को भी कुछ नहीं समझते; फिर मानवी भोगों की तो बात ही क्या है। भगवद्भक्तों के समाज में सदा-सर्वदा भगवान् की मधुर-मधुर कथाएँ होती रहती हैं, जिनके श्रवणमात्र से किसी प्रकार का वैर विरोध या उद्वेग नहीं रहता। अच्छे-अच्छे कथा-प्रसंगों द्वारा निष्काम भाव से संन्यासियों के एकमात्र आश्रय साक्षात् श्रीनारायणदेव का बार-बार गुणगान होता रहता है। आपके वे भक्तजन तीर्थों को पवित्र करने के उद्देश्य से पृथ्वी पर पैदल ही विचरते रहते हैं। भला, उनका समागम संसार से भयभीत हुए पुरुषों को कैसे रुचिकर न होगा।

भगवन्! आपके प्रिय सखा भगवान् शंकर के क्षण भर के समागम से ही आज हमें आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ है। आप जन्म-मरणरूप दुःसाध्य रोग के श्रेष्ठतम वैध्य हैं, अतः अब हमने आपका ही आश्रय लिया है। प्रभो! हमने समाहित चित्त से जो कुछ अध्ययन किया है, निरन्तर सेवा-शुश्रूषा करके गुरु, ब्राह्मण और वृद्धजनों को प्रसन्न किया है तथा दोषबुद्धि त्यागकर श्रेष्ठ पुरुष, सुहृद्गण, बन्धुवर्ग एवं समस्त प्राणियों की वन्दना की है और अन्नादि को त्यागकर दीर्घकाल तक जल में खड़े रहकर तपस्या की है, वह सब आप सर्वव्यापक पुरुषोत्तम के सन्तोष का कारण होयही वर माँगते हैं। स्वामिन्! आपकी महिमा का पार न पाकर भी स्वयाम्भुव मनु, स्वयं ब्रह्मा जी, भगवान् शंकर तथा तप और ज्ञान से शुद्धचित्त हुए अन्य पुरुष निरन्तर आपकी स्तुति करते रहते हैं। अतः हम भी अपनी बुद्धि के अनुसार आपका यशोगान करते हैं। आप सर्वत्र समान शुद्ध स्वरूप और परमपुरुष हैं। आप सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! प्रचेताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर शरणागतवत्सल श्रीभगवान् ने प्रसन्न होकर कहा- तथास्तु। अप्रतिहत प्रभाव श्रीहरि की मधुर मूर्ति के दर्शनों से सभी प्रचेताओं के नेत्र तृप्त नहीं हुए थे, इसलिये वे उन्हें जाने देना नहीं चाहते थे; तथापि वे अपने परमधाम को चले गये। इसके पश्चात् प्रचेताओं ने समुद्र के जल से बाहर निकल कर देखा कि सारी पृथ्वी को ऊँचे-ऊँचे वृक्षों ने ढक दिया है, जो मानो स्वर्ग का मार्ग रोकने के लिये ही इतने बढ़ गये थे। यह देखकर वे वृक्षों पर बड़े कुपित हुए। तब उन्होंने पृथ्वी को वृक्ष, लता आदि से रहित कर देने के लिये अपने मुख से प्रचण्ड वायु और अग्नि को छोड़ा, जैसे कालाग्नि रुद्र प्रलयकाल में छोड़ते हैं। जब ब्रह्मा जी ने देखा कि वे सारे वृक्षों को भस्म कर रहे हैं, तब वे वहाँ आये और प्राचीनबर्हि के पुत्रों को उन्होंने युक्तिपूर्वक समझाकर शान्त किया। फिर जो कुछ वृक्ष वहाँ बचे थे, उन्होंने डरकर ब्रह्मा जी के कहने से वह कन्या लाकर प्रचेताओं को दी।

ते च ब्रह्मण आदेशान् मारिषामुपयेमिरे ।

यस्यां महदवज्ञानाद् अजन्यजनयोनिजः ॥ ४८ ॥

चाक्षुषे त्वन्तरे प्राप्ते प्राक्सर्गे कालविद्रुते ।

यः ससर्ज प्रजा इष्टाः स दक्षो दैवचोदितः ॥ ४९ ॥

यो जायमानः सर्वेषां तेजस्तेजस्विनां रुचा ।

स्वयोपादत्त दाक्ष्याच्च कर्मणां दक्षमब्रुवन् ॥ ५० ॥

तं प्रजासर्गरक्षायां अनादिरभिषिच्य च ।

युयोज युयुजेऽन्यांश्च स वै सर्वप्रजापतीन् ॥ ५१ ॥

प्रचेताओं ने भी ब्रह्मा जी के आदेश से उस मारिषा नाम की कन्या से विवाह कर लिया। इसी के गर्भ से ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष ने, श्रीमहादेव जी की अवज्ञा के कारण अपना पूर्व शरीर त्यागकर जन्म लिया।

इन्हीं दक्ष ने चाक्षुष मन्वन्तर आने पर, जब कालक्रम से पूर्वसर्ग नष्ट हो गया, भगवान् की प्रेरणा से इच्छानुसार नवीन प्रजा उत्पन्न की। इन्होंने जन्म लेते ही अपनी कान्ति से समस्त तेजस्वियों का तेज छीन लिया।

ये कर्म करने में बड़े दक्ष (कुशल) थे, इसी से इनका नाम दक्षहुआ। इन्हें ब्रह्मा जी ने प्रजापतियो के नायक के पद पर अभिषिक्त कर सृष्टि की रक्षा के लिये नियुक्त किया और इन्होंने मरीचि आदि दूसरे प्रजापतियों को अपने-अपने कार्य में नियुक्त किया।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे प्राचेतसे चरिते त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय ३० समाप्त हुआ ॥ ३० ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय ३१  

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