श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १४
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय १४ "राजा वेन की कथा"
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय १४
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४
अध्यायः १४
श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध चौदहवाँ
अध्याय
चतुर्थ
स्कन्ध: श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय १४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्टुप्)
भृग्वादयस्ते मुनयो लोकानां
क्षेमदर्शिनः ।
गोप्तर्यसति वै नॄणां पश्यन्तः
पशुसाम्यताम् ॥ १ ॥
वीरमातरमाहूय सुनीथां ब्रह्मवादिनः
।
प्रकृत्यसम्मतं वेनं अभ्यषिञ्चन्
पतिं भुवः ॥ २ ॥
श्रुत्वा नृपासनगतं
वेनमत्युग्रशासनम् ।
निलिल्युर्दस्यवः सद्यः सर्पत्रस्ता
इवाखवः ॥ ३ ॥
स आरूढनृपस्थान
उन्नद्धोऽष्टविभूतिभिः ।
अवमेने महाभागान्स्तब्धः सम्भावितः
स्वतः ॥ ४ ॥
एवं मदान्ध उत्सिक्तो निरङ्कुश इव
द्विपः ।
पर्यटन् रथमास्थाय कम्पयन् इव रोदसी
॥ ५ ॥
न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं
द्विजाः क्वचित् ।
इति न्यवारयद् धर्मं भेरीघोषेण
सर्वशः ॥ ६ ॥
वेनस्यावेक्ष्य मुनयो दुर्वृत्तस्य
विचेष्टितम् ।
विमृश्य लोकव्यसनं कृपयोचुः स्म
सत्रिणः ॥ ७ ॥
अहो उभयतः प्राप्तं लोकस्य व्यसनं
महत् ।
दारुणि उभयतो दीप्ते इव तस्करपालयोः
॥ ८ ॥
अराजकभयादेष कृतो राजातदर्हणः ।
ततोऽप्यासीद्भयं त्वद्य कथं स्यात्
स्वस्ति देहिनाम् ॥ ९ ॥
अहेरिव पयःपोषः पोषकस्याप्यनर्थभृत्
।
वेनः प्रकृत्यैव खलः
सुनीथागर्भसम्भवः ॥ १० ॥
निरूपितः प्रजापालः स जिघांसति वै
प्रजाः ।
तथापि सान्त्वयेमामुं नास्मान्
तत्पातकं स्पृशेत् ॥ ११ ॥
तद् विद्वद्भिः असद्वृत्तो
वेनोऽस्माभिः कृतो नृपः ।
सान्त्वितो यदि नो वाचं न
ग्रहीष्यत्यधर्मकृत् ॥ १२ ॥
लोकधिक्कारसन्दग्धं दहिष्यामः
स्वतेजसा ।
एवं अध्यवसायैनं मुनयो गूढमन्यवः ॥
१३ ॥
उपव्रज्याब्रुवन् वेनं
सान्त्वयित्वा च सामभिः ॥ १३ ॥
मुनय ऊचुः -
नृपवर्य निबोधैतद् यत्ते विज्ञापयाम
भोः ।
आयुःश्रीबलकीर्तीनां तव तात
विवर्धनम् ॥ १४ ॥
धर्म आचरितः पुंसां वाङ्मनःकायबुद्धिभिः
।
लोकान् विशोकान् वितरति अथ
अनन्त्यमसङ्गिनाम् ॥ १५ ॥
स ते मा विनशेद्वीर प्रजानां
क्षेमलक्षणः ।
यस्मिन् विनष्टे नृपतिः
ऐश्वर्यादवरोहति ॥ १६ ॥
राजन् असाध्वमात्येभ्यः चोरादिभ्यः
प्रजा नृपः ।
रक्षन् यथा बलिं गृह्णन् इह प्रेत्य
च मोदते ॥ १७ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
वीरवर विदुर जी! सभी लोकों की कुशल चाहने वाले भृगु आदि मुनियों ने
देखा कि अंग के चले जाने से अब पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई नहीं रह गया है,
सब लोग पशुओं के समान उच्छ्रंखल होते जा रहे हैं। तब उन्होंने माता
सुनीथा की सम्मति से, मन्त्रियों के सहमत न होने पर भी वेन
को भूमण्डल के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया। वेन बड़ा कठोर शासक था। जब चोर-डाकुओं
ने सुना कि वही राजसिंहासन पर बैठा है, तब सर्प से डरे हुए
चूहों के समान वे सब तुरंत ही जहाँ-तहाँ छिप गये।
राज्यासन पाने पर वेन आठों लोकपालों
की ऐश्वर्यकला के कारण उन्मत्त हो गया और अभिमानवश अपने को ही सबसे बड़ा मानकर
महापुरुषों का अपमान करने लगा। वह ऐश्वर्यमद से अंधा हो रथ पर चढ़कर निरंकुश गजराज
के समान पृथ्वी और आकाश को कँपाता हुआ सर्वत्र विचरने लगा। ‘कोई भी द्विजातिय वर्ण का पुरुष कभी प्रकार का यज्ञ, दान और हवन न करे’ अपने राज्य में यह ढिंढोरा
पिटवाकर उसने सारे धर्म-कर्म बंद करवा दिये। दुष्ट वेन का ऐसा अत्याचार देख सारे
ऋषि-मुनि एकत्र हुए और संसार पर संकट आया समझकर करुणावश आपस में कहने लगे- ‘अहो! जैसे दोनों ओर जलती हुई लकड़ी के बीच में रहने वाले चीटी आदि जीव
महान् संकट में पड़ जाते हैं, वैसे ही इस समय सारी प्रजा एक
ओर राजा के और दूसरी ओर चोर-डाकुओं के अत्याचार से महान् संकट में पड़ रही है।
हमने अराजकता के भय से ही अयोग्य होने पर भी वेन को राजा बनाया था; किन्तु अब उससे भी प्रजा को भय हो गया। ऐसी अवस्था में प्रजा को किस
प्रकार सुख-शान्ति मिल सकती है? सुनीथा की कोख से उत्पन्न
हुआ यह वेन स्वभाव से ही दुष्ट है। परन्तु साँप को दूध पिलाने के समान इसको पालना,
पालने वालों के लिये अनर्थ का कारण हो गया। हमने इसे प्रजा की रक्षा
करने के लिये नियुक्त किया था, यह आज उसी को नष्ट करने पर
तुला हुआ है। इतना सब होने पर भी हमें इसे समझाना अवश्य चाहिये; ऐसा करने से इसके किये हुए पाप हमें स्पर्श नहीं करेंगे। हमने जान-बूझकर
दुराचारी वेन को राजा बनाया था। किन्तु यदि समझाने पर भी यह हमारी बात नहीं मानेगा,
तो लोक के धिक्कार से दग्ध हुए इस दुष्ट को हम अपने तेज से भस्म कर
देंगे।’ ऐसा विचार करके मुनि लोग वेन के पास गये और अपने
क्रोध को छिपाकर उसे प्रिय वचनों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे।
मुनियों ने कहा ;-
राजन्! हम आपसे जो बात कहते हैं, उस पर ध्यान
दिजिय। इससे आपकी आयु, श्री, बल और
कीर्ति की वृद्धि होगी। तात! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का आचरण करे, तो उसे
स्वर्गादि शोकरहित लोकों की प्राप्ति होती है। यदि उसका निष्कामभाव हो, तब तो वही धर्म उसे अनन्त मोक्षपद पर पहुँचा देता है। इसलिये वीरवर! प्रजा
का कल्याणरूप वह धर्म आपके कारण नष्ट नहीं होना चाहिये। धर्म के नष्ट होने से राजा
भी ऐश्वर्य से च्युत हो जाता है। जो राजा दुष्ट मन्त्री और चोर आदि से अपनी प्रजा
की रक्षा करते हुए न्यायाकूल रहता है, वह इस लोक में और
परलोक में दोनों जगह सुख पाता है।
यस्य राष्ट्रे पुरे चैव भगवान्
यज्ञपूरुषः ।
इज्यते स्वेन धर्मेण
जनैर्वर्णाश्रमान्वितैः ॥ १८ ॥
तस्य राज्ञो महाभाग भगवान् भूतभावनः
।
परितुष्यति विश्वात्मा तिष्ठतो
निजशासने ॥ १९ ॥
तस्मिन् तुष्टे किमप्राप्यं जगतां
ईश्वरेश्वरे ।
लोकाः सपाला ह्येतस्मै हरन्ति
बलिमादृताः ॥ २० ॥
तं सर्वलोकामरयज्ञसङ्ग्रहं
त्रयीमयं द्रव्यमयं तपोमयम् ।
यज्ञैर्विचित्रैर्यजतो भवाय ते
राजन् स्वदेशान् अनुरोद्धुमर्हसि ॥ २१ ॥
यज्ञेन युष्मद्विषये द्विजातिभिः
वितायमानेन सुराः कला हरेः ।
स्विष्टाः सुतुष्टाः प्रदिशन्ति
वाञ्छितं
तद्धेलनं नार्हसि वीर चेष्टितुम् ॥ २२ ॥
वेन उवाच -
(अनुष्टुप्)
बालिशा बत यूयं वा अधर्मे
धर्ममानिनः ।
ये वृत्तिदं पतिं हित्वा जारं
पतिमुपासते ॥ २३ ॥
अवजानन्त्यमी मूढा नृपरूपिणमीश्वरम्
।
नानुविन्दन्ति ते भद्रं इह लोके
परत्र च ॥ २४ ॥
को यज्ञपुरुषो नाम यत्र वो
भक्तिरीदृशी ।
भर्तृस्नेहविदूराणां यथा जारे
कुयोषिताम् ॥ २५ ॥
विष्णुर्विरिञ्चो गिरिश इन्द्रो
वायुर्यमो रविः ।
पर्जन्यो धनदः सोमः
क्षितिरग्निरपाम्पतिः ॥ २६ ॥
एते चान्ये च विबुधाः प्रभवो
वरशापयोः ।
देहे भवन्ति नृपतेः सर्वदेवमयो नृपः
॥ २७ ॥
तस्मान्मां कर्मभिर्विप्रा यजध्वं गतमत्सराः
।
बलिं च मह्यं हरत मत्तोऽन्यः
कोऽग्रभुक् पुमान् ॥ २८ ॥
मैत्रेय उवाच -
इत्थं विपर्ययमतिः पापीयानुत्पथं
गतः ।
अनुनीयमानस्तद्याच्ञां न चक्रे
भ्रष्टमङ्गलः ॥ २९ ॥
इति तेऽसत्कृतास्तेन द्विजाः
पण्डितमानिना ।
भग्नायां भव्ययाच्ञायां तस्मै विदुर
चुक्रुधुः ॥ ३० ॥
हन्यतां हन्यतामेष पापः
प्रकृतिदारुणः ।
जीवन् जगदसावाशु कुरुते भस्मसाद्
ध्रुवम् ॥ ३१ ॥
नायमर्हत्यसद्वृत्तो नरदेववरासनम्
।
योऽधियज्ञपतिं विष्णुं
विनिन्दत्यनपत्रपः ॥ ३२ ॥
को वैनं परिचक्षीत वेनमेकमृतेऽशुभम्
।
प्राप्त ईदृशमैश्वर्यं
यदनुग्रहभाजनः ॥ ३३ ॥
इत्थं व्यवसिता हन्तुं हृषयो
रूढमन्यवः ।
निजघ्नुर्हुङ्कृतैर्वेनं
हतमच्युतनिन्दया ॥ ३४ ॥
जिसके राज्य अथवा नगर में
वर्णाश्रम-धर्मों का पालन करने वाले पुरुष स्वधर्मपालन के द्वारा भगवान् यज्ञपुरुष
की आरधना करते हैं, महाभाग! अपनी आज्ञा
का पालन करने वाले उस राजा से भगवान् प्रसन्न रहते हैं; क्योंकि
वे ही सारे विश्व की आत्मा तथा सम्पूर्ण भूतों के रक्षक हैं। भगवान् ब्रह्मादि
जगदीश्वरों के भी ईश्वर हैं, उनके प्रसन्न होने पर कोई भी
वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तभी तो इन्द्रादि लोकपालों के सहित समस्त लोक उन्हें
बड़े आदर से पूजपोहार समर्पण करते हैं।
राजन्! भगवान् श्रीहरि समस्त लोक,
लोकपाल और यज्ञों के नियन्ता है; वे
वेदत्रयीरूप, द्रव्यरूप और तपःस्वरूप हैं। इसलिये आपके जो
देशवासी आपकी उन्नति के लिये अनेक प्रकार के यज्ञों से भगवान् का यजन करते हैं,
आपको उनके अनुकूल ही रहना चाहिये। जब आपके राज्य में ब्राह्मण लोग
यज्ञों का अनुष्ठान करेंगे, तब उनकी पूजा से प्रसन्न होकर
भगवान् के अंशस्वरूप देवता आपको मनचाहा फल देंगे। अतः वीरवर! आपको यज्ञादि
धर्मानुष्ठान बंद करके देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिये।
वेन ने कहा ;-
तुम लोग बड़े मूर्ख हो! खेद है, तुमने अधर्म
में ही धर्मबुद्धि कर रखी है। तभी तो तुम जीविका देने वाले मुझ साक्षात् पति को
छोड़कर किसी दूसरे जारपति की उपासना करते हो। जो लोग मूर्खतावश राजारूप परमेश्वर
का अनादर करते हैं, उन्हें न तो इस लोक में सुख मिलता है और
न परलोक में ही। अरे! जिसमें तुम लोगों की इतनी भक्ति है, वह
यज्ञपुरुष है कौन? यह तो ऐसी ही बात हुई जैसे कुलटा
स्त्रियाँ अपने विवाहिता पति से प्रेम न करके किसी परपुरुष में आसक्त हो जायें।
विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि और
वरुण तथा इनके अतिरिक्त जो दूसरे वर और शाप देने में समर्थ देवता हैं, वे सब-के-सब राजा के शरीर में रहते हैं; इसलिये राजा
सर्वदेवमय है और देवता उसके अंशमात्र हैं। इसलिये ब्राह्मणों! तुम मत्सरता छोड़कर
अपने सभी कर्मों द्वारा एक मेरा ही पूजन करो और और मुझी को बलि समर्पण करो। भला
मेरे सिवा और कौन अग्रपूजा का अधिकारी हो सकता है।
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
इस प्रकार विपरीत बुद्धि होने के कारण वह अत्यन्त पापी और
कुमार्गगामी हो गया था। उसका पुण्य क्षीण हो चुका था, इसलिये
मुनियों के बहुत विनयपूर्वक प्रार्थना करने पर भी उसने उनकी बात पर ध्यान न दिया।
कल्याणरूप विदुर जी! अपने को बड़ा
बुद्धिमान् समझने वाले वेन ने जब उन मुनियों का इस प्रकार अपमान किया,
तब अपनी माँग को व्यर्थ हुई देख वे उस पर अत्यन्त कुपित हो गये। ‘मार डालो! इस स्वभाव से ही दुष्ट पापी को मार डालो! यह यदि जीता रह गया तो
कुछ ही दिनों में संसार को अवश्य भस्म कर डालेगा। यह दुराचारी किसी प्रकार
राजसिंहासन के योग्य नहीं है, क्योंकि यह निर्जलज्ज साक्षात्
यज्ञपति श्रीविष्णु भगवान् की निन्दा करता है। अहो! जिनकी कृपा से इसे ऐसा ऐश्वर्य
मिला, उन श्रीहरि की निन्दा अभागे वेन को छोड़कर और कौन कर
सकता है’? इस प्रकार अपने छिपे हुए क्रोध को प्रकट कर
उन्होंने उसे मारने का निश्चय कर लिया। वह तो भगवान् की निन्दा करने के कारण पहले
ही मर चुका था, इसलिये केवल हुंकारों से ही उन्होंने उसका
काम तमाम कर दिया।
ऋषिभिः स्वाश्रमपदं गते
पुत्रकलेवरम् ।
सुनीथा पालयामास विद्यायोगेन शोचती
॥ ३५ ॥
एकदा मुनयस्ते तु सरस्वत्
सलिलाप्लुताः ।
हुत्वाग्नीन् सत्कथाश्चक्रुः
उपविष्टाः सरित्तटे ॥ ३६ ॥
वीक्ष्योत्थितान् तदोत्पातान्
आहुर्लोक भयङ्करान् ।
अप्यभद्रमनाथाया दस्युभ्यो न भवेद्भुवः
॥ ३७ ॥
एवं मृशन्त ऋषयो धावतां सर्वतोदिशम्
।
पांसुः समुत्थितो भूरिः
चोराणामभिलुम्पताम् ॥ ३८ ॥
तदुपद्रवमाज्ञाय लोकस्य वसु
लुम्पताम् ।
भर्तर्युपरते तस्मिन् अन्योन्यं च
जिघांसताम् ॥ ३९ ॥
चोरप्रायं जनपदं हीनसत्त्वमराजकम् ।
लोकान् आवारयञ्छक्ता अपि
तद्दोषदर्शिनः ॥ ४० ॥
ब्राह्मणः समदृक् शान्तो दीनानां
समुपेक्षकः ।
स्रवते ब्रह्म तस्यापि
भिन्नभाण्डात्पयो यथा ॥ ४१ ॥
नाङ्गस्य वंशो राजर्षेः एष
संस्थातुमर्हति ।
अमोघवीर्या हि नृपा वंशेऽस्मिन्
केशवाश्रयाः ॥ ४२ ॥
विनिश्चित्यैवमृषयो विपन्नस्य
महीपतेः ।
ममन्थुरूरुं तरसा तत्रासीद्बाहुको
नरः ॥ ४३ ॥
काककृष्णोऽतिह्रस्वाङ्गो
ह्रस्वबाहुर्महाहनुः ।
ह्रस्वपान् निम्ननासाग्रो
रक्ताक्षस्ताम्रमूर्धजः ॥ ४४ ॥
तं तु तेऽवनतं दीनं किं करोमीति
वादिनम् ।
निषीदेत्यब्रुवंस्तात स
निषादस्ततोऽभवत् ॥ ४५ ॥
तस्य वंश्यास्तु नैषादा
गिरिकाननगोचराः ।
येनाहरत् जायमानो वेनकल्मषमुल्बणम्
॥ ४६ ॥
जब मुनिगण अपने-अपने आश्रमों को चले
गये,
तब इधर वेन की शोकाकुल माता सुनीथा मन्त्रादि के बल से तथा अन्य
युक्तियों से अपने पुत्र के शव की रक्षा करने लगी।
एक दिन वे मुनिगण सरस्वती के पवित्र
जल में स्नान कर अग्निहोत्र से निवृत्त हो नदी के तीर पर बैठे हुए हरिचर्चा कर रहे
थे। उन दिनों लोकों में आतंक फैलाने वाले बहुत-से उपद्रव होते देखकर वे आपस में
कहने लगे,
‘आजकल पृथ्वी का कोई रक्षक नहीं है; इसलिये
चोर-डाकुओं के कारण उसका कुछ अमंगल तो नहीं होने वाला है? ऋषि
लोग ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने सब दिशाओं में धावा करने वाले चोरों और
डाकुओं के कारण उठी हुई बड़ी भारी धूल देखी। देखते ही वे समझ गये कि राजा वेन के
मर जाने के कारण देश में अराजकता फैल गयी है, राज्य शक्तिहीन
हो गया है और चोर-डाकू बढ़ गये हैं; यह सारा उपद्रव लोगों का
धन लूटने वाले तथा एक-दूसरे के खून के प्यासे लुटेरों का ही है।
अपने तेज से अथवा तपोबल से लोगों को
ऐसी कुप्रवृत्ति से रोकने में समर्थ होने पर भी ऐसा करने में हिंसादि दोष देखकर
उन्होंने इसका कोई निवारण नहीं किया। फिर सोचा कि ‘ब्राह्मण यदि समदर्शी और शान्तस्वभाव भी हो तो भी दोनों की उपेक्षा करने
से उसका तप उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जैसे फूटे हुए घड़े
में से जल बह जाता है। फिर राजर्षि अंग का वंश भी नष्ट नहीं होना चाहिये, क्योंकि इसमें अनेक अमोघ-शक्ति और भगवत्परायण राजा हो चुके हैं’।
ऐसा निश्चय कर उन्होंने मृत राजा की
जाँघ को बड़े जोर से मथा तो उसमें से एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। वह कौए के समान
काला था;
उसके सभी अंग और खासकर भुजाएँ बहुत छोटी थीं, जबड़े
बहुत बड़े, टाँगे छोटी, नाक चपटी,
नेत्र लाल और केश ताँबे के-से रंग के थे। उसने बड़ी दीनता और
नम्रताभाव से पूछा कि ‘मैं क्या करूँ?’ तो ऋषियों ने कहा- ‘निषीद (बैठ जा)।’ इसी से वह ‘निषाद’ कहलाया।
उसने जन्म लेते ही राजा वेन के भयंकर पापों को अपने ऊपर ले लिया, इसीलिये उसके वंशधर नैषाद भी हिंसा, लूट-पाट आदि
पापकर्मों में रत रहते हैं; अतः वे गाँव और नगर में न टिककर
वन और पर्वतों में ही निवास करते हैं।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते निषादोत्पत्तिर्नाम
चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण का
परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय १४ समाप्त हुआ ॥ १४ ॥
आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय १५
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box