श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ५
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय
५ "ऋषभजी का अपने पुत्रों को उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण
करना"
श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: पञ्चम अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय
५
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः
५
श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ
स्कन्ध पांचवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥
ऋषभ उवाच
नायं देहो देहभाजां नृलोके
कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये ।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं
शुद्ध्येद्यस्माद्ब्रह्मसौख्यं
त्वनन्तम् ॥ १॥
महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्ते-
स्तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम् ।
महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता
विमन्यवः सुहृदः साधवो ये ॥ २॥
ये वा मयीशे कृतसौहृदार्था
जनेषु देहम्भरवार्तिकेषु ।
गृहेषु जायाऽऽत्मजरातिमत्सु
न प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥
३॥
नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म
यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति ।
न साधु मन्ये यत आत्मनोऽय-
मसन्नपि क्लेशद आस देहः ॥ ४॥
पराभवस्तावदबोधजातो
यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम् ।
यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै
कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ॥ ५॥
एवं मनः कर्मवशं प्रयुङ्क्ते
अविद्ययाऽऽत्मन्युपधीयमाने ।
प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे
न मुच्यते देहयोगेन तावत् ॥ ६॥
यदा न पश्यत्ययथा गुणेहां
स्वार्थे प्रमत्तः सहसा विपश्चित् ।
गतस्मृतिर्विन्दति तत्र तापा-
नासाद्य मैथुन्यमगारमज्ञः ॥ ७॥
पुंसः स्त्रिया मिथुनीभावमेतं
तयोर्मिथो हृदयग्रन्थिमाहुः ।
अतो गृहक्षेत्रसुताप्तवित्तै-
र्जनस्यमोहोऽयमहं ममेति ॥ ८॥
यदा मनो हृदयग्रन्थिरस्य
कर्मानुबद्धो दृढ आश्लथेत ।
तदा जनः सम्परिवर्ततेऽस्मा-
न्मुक्तः परं यात्यतिहाय हेतुम् ॥
९॥
श्रीऋषभदेव जी ने कहा ;-
पुत्रो! इस मर्त्यलोक में यह मनुष्य शरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त
करने के लिये ही नहीं है। ये भोग तो विष्ठाभोजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं।
इस शरीर से दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्तःकरण शुद्ध
हो; क्योंकि इसी से अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों ने महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों के संग को
नरक का द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त,
क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचारसम्पन्न
हों अथवा मुझ परमात्मा के प्रेम को ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करने वाले लोगों में तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियों से सम्पन्न घरों में जिनकी अरुचि हो और जो
लौकिक कार्यों में केवल शरीर निर्वाह के लिये ही प्रवृत्त होते हों। मनुष्य अवश्य
प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियों
को तृप्त करने के लिये ही होती है। मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसी के कारण आत्मा को यह असत् और दुःखदायक शरीर प्राप्त होता है।
जब तक जीव को आत्मतत्त्व की
जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश
देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जब तक यह लौकिक-वैदिक कर्मों में फँसा
रहता है, तब तक मन में कर्म की वासनाएँ भी बनी ही रहती हैं
और इन्हीं से देहबन्धन की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अविद्या के द्वारा
आत्मस्वरूप के ढक जाने से कर्मवासनाओं के वशीभूत हुआ चित्त मनुष्य को फिर कर्मों
में ही निवृत्त करता है। अतः जब तक उसको मुझ वासुदेव में प्रीति नहीं होती,
तब तक वह देहबन्धन से छूट नहीं सकता। स्वार्थ में पागल जीव जब तक
विवेक-दृष्टि का आश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टाओं को मिथ्या नहीं देखता, तब तक आत्मस्वरूप की स्मृति को बैठने के कारण वह अज्ञानवश विषयप्रधान गृह
आदि में आसक्त रहता है और तरह-तरह के क्लेश उठाता रहता है।
स्त्री और पुरुष इन दोनों का जो
परस्पर दाम्पत्य-भाव है, इसी को पण्डितजन
उनके हृदय की दूसरी स्थूल एवं दुर्भेद्य ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूपी एक-एक
सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहले से ही है। इसी के कारण जीव को
देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र,
स्वजन और धन आदि में भी ‘मैं’ और ‘मेरेपन' का मोह हो जाता
है। जिस समय कर्मवासनाओं के कारण पड़ी हुई इसकी यह दृढ़ हृदय-ग्रन्थि ढीली हो जाती
है, उसी समय यह दाम्पत्य भाव से निवृत्त हो जाता है और संसार
के हेतुभूत अहंकार को त्यागकर सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो परमपद प्राप्त कर
लेता है।
हंसे गुरौ मयि भक्त्यानुवृत्या
वितृष्णया द्वन्द्वतितिक्षया च ।
सर्वत्र जन्तोर्व्यसनावगत्या
जिज्ञासया तपसेहा निवृत्त्या ॥ १०॥
मत्कर्मभिर्मत्कथया च नित्यं
मद्देवसङ्गाद्गुणकीर्तनान्मे ।
निर्वैरसाम्योपशमेन पुत्रा
जिहासया देहगेहात्मबुद्धेः ॥ ११॥
अध्यात्मयोगेन विविक्तसेवया
प्राणेन्द्रियात्माभिजयेन सध्र्यक्
।
सच्छ्रद्धया ब्रह्मचर्येण शश्व-
दसम्प्रमादेन यमेन वाचाम् ॥ १२॥
सर्वत्र मद्भावविचक्षणेन
ज्ञानेन विज्ञानविराजितेन ।
योगेन धृत्युद्यमसत्त्वयुक्तो
लिङ्गं व्यपोहेत्कुशलोऽहमाख्यम् ॥
१३॥
कर्माशयं हृदयग्रन्थिबन्ध-
मविद्ययासादितमप्रमत्तः ।
अनेन योगेन यथोपदेशं
सम्यग्व्यपोह्योपरमेत योगात् ॥ १४॥
पुत्रांश्च शिष्यांश्च नृपो
गुरुर्वा
मल्लोककामो मदनुग्रहार्थः ।
इत्थं विमन्युरनुशिष्यादतज्ज्ञान्
न योजयेत्कर्मसु कर्ममूढान् ।
कं योजयन् मनुजोऽर्थं लभेत
निपातयन् नष्टदृशं हि गर्ते ॥ १५॥
लोकः स्वयं श्रेयसि नष्टदृष्टि-
र्योऽर्थान् समीहेत निकामकामः ।
अन्योन्यवैरः सुखलेशहेतो-
रनन्तदुःखं च न वेद मूढः ॥ १६॥
कस्तं स्वयं तदभिज्ञो विपश्चि-
दविद्यायामन्तरे वर्तमानम् ।
दृष्ट्वा पुनस्तं सघृणः कुबुद्धिं
प्रयोजयेदुत्पथगं यथान्धम् ॥ १७॥
गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्
पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात् ।
दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या-
न्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम् ॥ १८॥
इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं
सत्त्वं हि मे हृदयं यत्र धर्मः ।
पृष्ठे कृतो मे यदधर्म आरा-
दतो हि मामृषभं प्राहुरार्याः ॥ १९॥
पुत्रो! संसारसागर से पार होने में
कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्त्वगुणविशिष्ट
पुरुष को चाहिये कि सबके आत्मा और गुरुस्वरूप मुझ भगवान् में भक्तिभाव रखने से,
मेरे परायण रहने से, तृष्णा के त्याग से,
सुख-दुःख आदि द्वन्दों के सहने से ‘जीव को सभी
योनियों में दुःख ही उठाना पड़ता है’ इस विचार से, तत्त्वजिज्ञासा से, तप से, सकाम
कर्म के त्याग से, मेरे ही लिये कर्म करने से, मेरी कथाओं का नित्यप्रति श्रवण करने से, मेरे
भक्तों के संग और मेरे गुणों के कीर्तन से, वैर त्याग से,
समता से, शान्ति से और शरीर तथा घर आदि में
मैं-मेरेपन के भाव को त्यागने की इच्छा से, अध्यात्मशास्त्र
के अनुशीलन से, एकान्त-सेवन से, प्राण,
इन्द्रिय और मन के संयम से, शास्त्र और
सत्पुरुषों के वचन में यथार्थ बुद्धि रखने से, पूर्ण
ब्रह्मचर्य से, कर्तव्य कर्मों में निरन्तर सावधान रहने से,
वाणी के संयम से, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखने
से, अनुभवज्ञानरहित तत्त्व विचार से और योग साधन से
अहंकाररूप अपने लिंग शरीर को लीन कर दे। मनुष्य को चाहिये कि वह सावधान रहकर
अविद्या से प्राप्त इस हृदय ग्रन्थिरूप बन्धन को शास्त्रोक्त रीति से इन साधनों के
द्वारा भलीभाँति काट डाले; क्योंकि यही कर्मसंस्कारों के
रहने का स्थान है। तदनन्तर साधन का भी परित्याग कर दे।
जिसको मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो
मेरे अनुग्रह की प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानता हो-वह राजा हो तो अपनी अबोध
प्रजा को,
गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्रों को ऐसी ही शिक्षा दे।
अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परम पुरुषार्थ मानते
रहें, तो भी उन पर क्रोध न करके उन्हें समझा-बुझाकर कर्म में
प्रवृत्त न होने दे। उन्हें विषयासक्तियुक्त काम्यकर्मों में लगाना तो ऐसा ही है,
जैसे किसी अंधे मनुष्य को जान-बूझकर गढ़े में ढकेल देना। इससे भला,
किस पुरुषार्थ की सिद्धि हो सकती है। अपना सच्चा कल्याण किस बात में
है, इसको लोग नहीं जानते; इसी से वे
तरह-तरह की भोग-कामनाओं में फँसकर तुच्छ क्षणिक सुख के लिये आपस में वैर ठान लेते
हैं और निरन्तर विषय भोगों के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मूर्ख इस बात पर
कुछ भी विचार नहीं करते कि इस वैर-विरोध के कारण नरक आदि घोर दुःखों की प्राप्ति
होगी। गढ़े में गिरने के लिये उलटे रास्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे आँख वाला
पुरुष उधर नहीं जाने देता, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य को
अविद्या में फँसकर दुःखों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा,
जो जान-बूझकर भी उसे उसी राह पर जाने दे या जाने के लिये प्रेरणा
करे।
जो अपने प्रिय सम्बन्धी को
भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता,
वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं,
पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है,
इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है। मेरे इस अवतार-शरीर का
रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय है और
उसी में धर्म की स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर
पीछे की ओर ढकेल दिया है, इसी से सत्पुरुष मुझे ‘ऋषभ’ कहते हैं।
तस्माद्भवन्तो हृदयेन जाताः
सर्वे महीयांसममुं सनाभम् ।
अक्लिष्टबुद्ध्या भरतं भजध्वं
शुश्रूषणं तद्भरणं प्रजानाम् ॥ २०॥
भूतेषु वीरुद्भ्य उदुत्तमा ये
सरीसृपास्तेषु सबोधनिष्ठाः ।
ततो मनुष्याः प्रमथास्ततोऽपि
गन्धर्वसिद्धा विबुधानुगा ये ॥ २१॥
देवासुरेभ्यो मघवत्प्रधाना
दक्षादयो ब्रह्मसुतास्तु तेषाम् ।
भवः परः सोऽथ विरिञ्चवीर्यः
स मत्परोऽहं द्विजदेवदेवः ॥ २२॥
न ब्राह्मणैस्तुलये भूतमन्य-
त्पश्यामि विप्राः किमतः परं तु ।
यस्मिन् नृभिः प्रहुतं श्रद्धयाह-
मश्नामि कामं न तथाग्निहोत्रे ॥ २३॥
धृता तनूरुशती मे पुराणी
येनेह सत्त्वं परमं पवित्रम् ।
शमो दमः सत्यमनुग्रहश्च
तपस्तितिक्षानुभवश्च यत्र ॥ २४॥
मत्तोऽप्यनन्तात्परतः परस्मा-
त्स्वर्गापवर्गाधिपतेर्न किञ्चित् ।
येषां किमु स्यादितरेण तेषा-
मकिञ्चनानां मयि भक्तिभाजाम् ॥ २५॥
सर्वाणि मद्धिष्ण्यतया भवद्भि-
श्चराणि भूतानि सुताध्रुवाणि ।
सम्भावितव्यानि पदे पदे वो
विविक्तदृग्भिस्तदु हार्हणं मे ॥
२६॥
मनो वचो दृक्करणेहितस्य
साक्षात्कृतं मे परिबर्हणं हि ।
विना पुमान् येन महाविमोहात्
कृतान्तपाशान्न विमोक्तुमीशेत् ॥
२७॥
तुम सब मेरे उस शुद्ध सत्त्वमय हृदय
से उत्पन्न हुए हो, इसलिये मत्सर
छोड़कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। उसकी सेवा करना मेरी ही सेवा करना है और
यही तुम्हारा प्रजा पालन भी है। अन्य सब भूतों की अपेक्षा वृक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ
हैं, उनसे चलने वाले जीव श्रेष्ठ हैं और उनमें भी कीटादि की
अपेक्षा ज्ञानयुक्त पशु आदि श्रेष्ठ हैं। पशुओं से मनुष्य, मनुष्यों
से प्रमथगण, प्रमथों से गन्धर्व, गन्धर्वों
से सिद्ध और सिद्धों से देवताओं के अनुयायी किन्नरादि श्रेष्ठ हैं। उनसे असुर,
असुरों से देवता और देवताओं से भी इन्द्र श्रेष्ठ हैं। इन्द्र से भी
ब्रह्मा जी के पुत्र दक्षादि प्रजापति श्रेष्ठ हैं, ब्रह्मा
जी के पुत्रों में रुद्र सबसे श्रेष्ठ हैं। वे ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं,
इसलिये ब्रह्मा जी उनसे श्रेष्ठ हैं। वे भी मुझसे उत्पन्न हैं और
मेरी उपासना करते हैं, इसलिये मैं उनसे भी श्रेष्ठ हूँ।
परन्तु ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि मैं उन्हें
पूज्य मानता हूँ।
[सभा में उपस्थित ब्राह्मणों को
लक्ष्य करके] विप्रगण! दूसरे किसी भी प्राणी को मैं ब्राह्मणों के समान भी नहीं
समझता, फिर उनसे अधिक तो मान ही कैसे सकता हूँ। लोग
श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों के मुख में जो अन्नादि आहुति डालते हैं, उसे मैं जैसी प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ, वैसे
अग्निहोत्र में होम की हुई सामग्री को स्वीकार नहीं करता। जिन्होंने इस लोक में
अध्ययनादि के द्वारा मेरी वेदरूपा अति सुन्दर और पुरातन मूर्ति को धारण कर रखा है
तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण, शम, दम,
सत्य, दया, तप, तितिक्षा और ज्ञानादि आठ गुणों से सम्पन्न है। मैं ब्रह्मादि से भी
श्रेष्ठ और अनन्त हूँ तथा स्वर्ग-मोक्ष आदि देने की भी सामर्थ्य रखता हूँ; किन्तु अकिंचन भक्त ऐसे निःस्पृह होते हैं कि वे मुझसे भी कभी कुछ नहीं
चाहते; फिर राज्यादि अन्य वस्तुओं की तो वे इच्छा ही कैसे कर
सकते हैं?
पुत्रों! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों
को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा करो,
यही मेरी सच्ची पूजा है। मन, वचन, दृष्टि तथा अन्य इन्द्रियों की चेष्टाओं का साक्षात् फल मेरा इस प्रकार का
पूजन ही है। इसके बिना मनुष्य अपने को महामोहमय कालपाश से छुड़ा नहीं सकता।
श्रीशुक उवाच
एवमनुशास्यात्मजान्
स्वयमनुशिष्टानपि
लोकानुशासनार्थं महानुभावःपरमसुहृ-
द्भगवान् ऋषभापदेश उपशमशीलाना-
मुपरतकर्मणां महामुनीनां
भक्तिज्ञान-
वैराग्यलक्षणं
पारमहंस्यधर्ममुपशिक्षमाणः
स्वतनयशतज्येष्ठं परमभागवतं
भगवज्जनपरायणं भरतं धरणिपालनाया-
भिषिच्य स्वयं भवन
एवोर्वरितशरीरमात्र-
परिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः
प्रकीर्णकेश आत्मन्यारोपिताहवनीयो
ब्रह्मावर्तात्प्रवव्राज ॥ २८॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
राजन्! ऋषभदेव जी के पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार से सुशिक्षित
थे, तो भी लोगों को शिक्षा देने के उद्देश्य से
महाप्रभावशाली परम सुहृद् भगवान् ऋषभ ने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया। ऋषभदेव जी
के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे। वे भगवान् के परम भक्त और भगवद्भक्तों के
परायण थे। ऋषभदेव जी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया
और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों के भक्त, ज्ञान
और वैराग्यरूप परमहंसोचित्त धर्मों की शिक्षा देने के लिये बिलकुल विरक्त हो गये।
केवल शरीर मात्र का परिग्रह रखा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया। अब वे
वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये। उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे।
उन्मत्त का-सा वेष था। इस स्थिति में वे आह्वनीय (अग्निहोत्र की) अग्नियों को अपने
में ही लीन करके संन्यासी हो गये और ब्रह्मावर्त देश से बाहर निकल गये।
जडान्धमूकबधिरपिशाचोन्मादकवदवधूतवेषो-
ऽभिभाष्यमाणोऽपि जनानां
गृहीतमौनव्रतस्तूष्णीं
बभूव ॥ २९॥
तत्र तत्र
पुरग्रामाकरखेटवाटखर्वटशिबिरव्रजघोष-
सार्थगिरिवनाश्रमादिष्वनुपथमवनिचरापसदैः
परिभूयमानो मक्षिकाभिरिव
वनगजस्तर्जनताडना-
वमेहनष्ठीवनग्रावशकृद्रजःप्रक्षेपपूतिवातदुरुक्तै-
स्तदविगणयन्नेवासत्संस्थान एतस्मिन्
देहोपलक्षणे
सदपदेश उभयानुभवस्वरूपेण
स्वमहिमावस्थानेना-
समारोपिताहम्ममाभिमानत्वादविखण्डितमनाः
पृथिवीमेकचरः परिबभ्राम ॥ ३०॥
अतिसुकुमारकरचरणोरःस्थलविपुलबाह्वंसगलवदना-
द्यवयवविन्यासः
प्रकृतिसुन्दरस्वभावहाससुमुखो
नवनलिनदलायमानशिशिरतारारुणायतनयनरुचिरः
सदृशसुभगकपोलकर्णकण्ठनासो
विगूढस्मितवदन-
महोत्सवेन पुरवनितानां मनसि
कुसुमशरासनमुपदधानः
परागवलम्बमानकुटिलजटिलकपिशकेशभूरिभारो-
ऽवधूतमलिननिजशरीरेण ग्रहगृहीत
इवादृश्यत ॥ ३१॥
यर्हि वाव स भगवान् लोकमिमं
योगस्याद्धा
प्रतीपमिवाचक्षाणस्तत्प्रतिक्रियाकर्म
बीभत्सितमिति
व्रतमाजगरमास्थितः शयान एवाश्नाति
पिबति
खादत्यवमेहति हदति स्म चेष्टमान
उच्चरित
आदिग्धोद्देशः ॥ ३२॥
तस्य ह यः
पुरीषसुरभिसौगन्ध्यवायुस्तं देशं
दशयोजनं समन्तात्सुरभिं चकार ॥ ३३॥
एवं गोमृगकाकचर्यया
व्रजंस्तिष्ठन्नासीनः शयानः
काकमृगगोचरितः पिबति खादत्यवमेहति
स्म ॥ ३४॥
इति नानायोगचर्याचरणो भगवान्
कैवल्यपतिरृषभो-
ऽविरतपरममहानन्दानुभव आत्मनि
सर्वेषां भूताना-
मात्मभूते भगवति वासुदेव
आत्मनोऽव्यवधाना-
नन्तरोदरभावेन
सिद्धसमस्तार्थपरिपूर्णो योगैश्वर्याणि
वैहायसमनोजवान्तर्धानपरकायप्रवेशदूरग्रहणादीनि
यदृच्छयोपगतानि नाञ्जसा नृपहृदयेनाभ्यनन्दत्
॥ ३५॥
वे सर्वथा मौन हो गये थे,
कोई बात करना चाहता तो बोलते नहीं थे। जड़, अंधे,
बहरे, गूँगे, पिशाच और
पागलों की-सी चेष्टा करते हुए वे अवधूत बने जहाँ-तहाँ विचरने लगे। कभी नगरों और
गावों में चले जाते तो कभी खानों, किसानों की बस्तियों,
बगीचों, पहाड़ी गावों, सेना
की छावनियों गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों और यात्रियों के
टिकने के स्थानों में रहते। कभी पहाड़ों, जंगलों और आश्रम
आदि में विचरते। वे किसी भी रास्ते से निकलते तो जिस प्रकार वन में विचरने वाले
हाथी को मक्खियाँ सताती हैं, उसी प्रकार मूर्ख और दुष्ट लोग
उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते। कोई धमकी देते, कोई
मारते, कोई पेशाब कर देते, कोई थूक
देते, कोई ढेला मारते, कोई विष्ठा और
धूल फेंकते, कोई अधोवायु छोड़ते और कोई खोटी-खरी सुनाकर उनका
तिरस्कार करते। किन्तु वे इन सब बातों पर जरा भी ध्यान नहीं देते।
इसका कारण यह था कि भ्रम से सत्य
कहे जाने वाले इस मिथ्या शरीर में उनकी अहंता-ममता तनिक भी नहीं थी। वे
कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंच के साक्षी होकर अपने परमात्मस्वरूप में ही स्थित थे,
इसलिये अखण्ड चित्तवृत्ति से अकेले ही पृथ्वी पर विचरते रहते थे। यद्यपि
उनके हाथ, पैर, छाती, लम्बी-लम्बी बाँहें, कंधे, गले
और मुख आदि अंगों की बनावट बड़ी ही सुकुमार थी; उनका स्वभाव
से ही सुन्दर मुख स्वाभाविक मधुर मुस्कान से और भी मनोहर जान पड़ता था; नेत्र नवीन कमलदल के समान बड़े ही सुहावने, विशाल
एवं कुछ लाली लिये हुए थे; उनकी पुतलियाँ शीतल एवं
संतापहारिणी थीं। उन नेत्रों के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कपोल, कान और नासिका छोटे-बड़े न होकर समान एवं सुन्दर थे तथा उनके अस्फुट हास्य
युक्त मनोहर मुखारविन्द की शोभा को देखकर पुरनारियों के चित्त में कामदेव का संचार
हो जाता था; तथापि उनके मुख के आगे जो भूरे रंग की
लम्बी-लम्बी घुँघराली लटें लटकी रहती थीं, उनके महान् भार और
अवधूतों के समान धूलिधूसरित देह के कारण वे ग्रहग्रस्त मनुष्य के समान जान पड़ते
थे।
जब भगवान् ऋषभदेव ने देखा कि यह
जनता योगसाधन में विघ्नरूप है और इससे बचने का उपाय बीभत्स वृत्ति से रहना ही है,
तब उन्होंने अजगर वृत्ति धारण कर ली। वे लेटे-ही-लेटे खाने-पीने,
चबाने और मल-मूत्र त्याग करने लगे। वे अपने त्यागे हुए मल में
लोट-लोटकर शरीर को उससे सान लेते। (किन्तु) उनके मल में दुर्गन्ध नहीं थी, बड़ी सुगन्ध थी और वायु उस सुगन्ध को लेकर उनके चारों ओर दस योजन तक सारे
देश को सुगन्धित कर देती थी। इसी प्रकार गौ, मृग और काकादि
की वृत्तियों को स्वीकार कर वे उन्हीं के समान कभी चलते हुए, कभी खड़े-खड़े, कभी बैठे हुए और कभी लेटे-लेटे ही
खाने-पीने और मल-मूत्र का त्याग करने लगते थे।
परीक्षित! परमहंसों को त्याग के
आदर्श की शिक्षा देने के लिये इस प्रकार मोक्षपति भगवान् ऋषभदेव ने कई तरह की
योगचर्याओं का आचरण किया। वे निरन्तर सर्वश्रेष्ठ महान् आनन्द का अनुभव करते रहते
थे। उनकी दृष्टि में निरुपाधिरूप से सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा अपने आत्मस्वरूप
भगवान् वासुदेव से किसी प्रकार का भेद नहीं था। इसलिये उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण
हो चुके थे। उनके पास आकाशगमन, मनोजवित्व (मन
की गति के समान ही शरीर का भी इच्छा करते ही सर्वत्र पहुँचा जाना), अन्तर्धान, परकायप्रवेश (दूसरे के शरीर में प्रवेश
करना), दूर की बातें सुन लेना और दूर के दृश्य देख लेना आदि
सब प्रकार की सिद्धियाँ अपने-आप ही सेवा करने को आयीं; परन्तु
उन्होंने उनका मन से आदर या ग्रहण नहीं किया।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ऋषभदेवानुचरिते पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण
पञ्चम स्कन्ध के 5 अध्याय समाप्त हुआ ।।
शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय ६
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