श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ६ "ऋषभदेव जी का देहत्याग"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ६                    

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः ६                       

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध छटवां अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

राजोवाच

न नूनं भगव आत्मारामाणां योगसमीरितज्ञानावभर्जित-

कर्मबीजानां ऐश्वर्याणि पुनः क्लेशदानि भवितुमर्हन्ति

यदृच्छयोपगतानि ॥ १॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! योगरूप वायु से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्नि से जिनके रागादि कर्मबीज दग्ध हो गये हैं-उन आत्माराम मुनियों को दैववश यदि स्वयं ही अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायें, तो वे उनके राग-द्वेषादि क्लेशों का कारण तो किसी प्रकार हो नहीं सकतीं। फिर भगवान् ऋषभ ने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया?

ऋषिरुवाच

सत्यमुक्तं किन्त्विह वा एके न मनसोऽद्धा विश्रम्भ-

मनवस्थानस्य शठकिरात इव सङ्गच्छन्ते ॥ २॥

तथा चोक्तं -

न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते ।

यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ॥ ३॥

नित्यं ददाति कामस्य च्छिद्रं तमनु येऽरयः ।

योगिनः कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली ॥ ४॥

कामो मन्युर्मदो लोभः शोकमोहभयादयः ।

कर्मबन्धश्च यन्मूलः स्वीकुर्यात्को नु तद्बुधः ॥ ५॥

अथैवमखिललोकपालललामोऽपि

विलक्षणैर्जडवदवधूतवेषभाषाचरितै-

रविलक्षितभगवत्प्रभावो योगिनां

साम्परायविधिमनुशिक्षयन् स्वकलेवरं

जिहासुरात्मन्यात्मानमसंव्यवहित-

मनर्थान्तरभावेनान्वीक्षमाण

उपरतानुवृत्तिरुपरराम ॥ ६॥

तस्य ह वा एवं मुक्तलिङ्गस्य भगवत

ऋषभस्य योगमायावासनया देह इमां

जगतीमभिमानाभासेन सङ्क्रममाणः

कोङ्कवेङ्ककुटकान् दक्षिणकर्णाटकान्

देशान् यदृच्छयोपगतः कुटकाचलोपवन

आस्यकृताश्मकवल उन्माद इव

मुक्तमूर्धजोऽसंवीत एव विचचार ॥ ७॥

अथ समीरवेगविधूतवेणुविकर्षणजातोग्र-

दावानलस्तद्वनमालेलिहानः सह तेन ददाह ॥ ८॥

यस्य किलानुचरितमुपाकर्ण्य कोङ्कवेङ्ककुटकानां

राजार्हन्नामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणे

भवितव्येन विमोहितः स्वधर्मपथमकुतोभयमपहाय

कुपथपाखण्डमसमञ्जसं निजमनीषया मन्दः

सम्प्रवर्तयिष्यते ॥ ९॥

येन ह वाव कलौ मनुजापसदा देवमायामोहिताः

स्वविधिनियोगशौचचारित्रविहीना देवहेलना-

न्यपव्रतानि निजनिजेच्छया गृह्णाना अस्नाना-

नाचमनाशौचकेशोल्लुञ्चनादीनि कलिनाधर्मबहुलेनो-

पहतधियो ब्रह्मब्राह्मणयज्ञपुरुषलोकविदूषकाः

प्रायेण भविष्यन्ति ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- तुम्हारा कहना ठीक है; किन्तु संसार में जैसे चालाक व्याध अपने पकड़े हुए मृग का विश्वास नहीं करते, उसी प्रकार बुद्धिमान् लोग इस चंचल चित्त का भरोसा नहीं करते। ऐसा ही कहा भी है- इस चंचल चित्त से कभी मैत्री नहीं करनी चाहिये। इसमें विश्वास करने से ही मोहिनीरूप में फँसकर महादेव जी का चिरकाल का संचित तप क्षीण हो गया था। जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों को अवकाश देकर उनके द्वारा अपने में विश्वास रखने वाले पति का वध करा देती है- उसी प्रकार जो योगी मन पर विश्वास करते हैं, उनका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओं को आक्रमण करने का अवसर देकर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म-बन्धन का मूल तो यह मन ही है; इस पर कोई बुद्धिमान् कैसे विश्वास कर सकता है?

इसी से भगवान् ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी लोकपालों के भी भूषणस्वरूप थे, तो भी वे जड़ पुरुषों की भाँति अवधूतों के-से विविध वेष, भाषा और आचरण से अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाये रहते थे। अन्त में उन्होंने योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिये अपना शरीर छोड़ना चाहा। वे अपने अन्तःकरण में अभेद रूप से स्थित परमात्मा को अभिन्न रूप से देखते हुए वासनाओं की अनुवृत्ति से छूटकर लिंग देह के अभिमान से भी मुक्त होकर उपराम हो गये।

इस प्रकार लिंग देह के अभिमान से मुक्त भगवान् ऋषभदेव जी का शरीर योगमाया की वासना से केवल अभिमानाभास के आश्रय ही इस पृथ्वीतल पर विचरता रहा। वह दैववश कोंक, वेंक और दक्षिण आदि कुटक कर्णाटक के देशों में गया और मुँह में पत्थर का टुकड़ा डाले तथा बाल बिखेरे उन्मत्त के समान दिगम्बर रूप से कुटकाचल के वन में घूमने लगा। इसी समय झंझावात झकझोरे हुए बाँसों के घर्षण से प्रबल दावाग्नि धधक उठी और उसने सारे वन को अपनी लाल-लाल लपटों में लेकर ऋषभदेव जी के सहित भस्म कर दिया।

राजन्! जिस समय कलियुग में अधर्म की वृद्धि होगी, उस समय कोंक, वेंक और कुटक देश का मन्दमति राजा अर्हत् वहाँ के लोगों से ऋषभदेव जी के आश्रमातीत आचरण का वृतान्त सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहण कर लोगों के पूर्वसंचित पापफलरूप होनहार के वशीभूत हो भयरहित स्वधर्म-पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखण्डपूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा। उससे कलियुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्रविहित शौच और आचार को छोड़ बैठेंगे। अधर्म बहुल कलियुग के प्रभाव से बुद्धिहीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करने वाले पाखण्ड धर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राह्मण एवं भगवान् यज्ञपुरुष की निन्दा करने लगेंगे।

ते च ह्यर्वाक्तनया निजलोकयात्रयान्धपरम्परया-

ऽऽश्वस्तास्तमस्यन्धे स्वयमेव प्रपतिष्यन्ति ॥ ११॥

अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थः ॥ १२॥

तस्यानुगुणान् श्लोकान् गायन्ति -

अहो भुवः सप्तसमुद्रवत्या

द्वीपेषु वर्षेष्वधिपुण्यमेतत् ।

गायन्ति यत्रत्यजना मुरारेः

कर्माणि भद्राण्यवतारवन्ति ॥ १३॥

अहो नु वंशो यशसावदातः

प्रैयव्रतो यत्र पुमान् पुराणः ।

कृतावतारः पुरुषः स आद्य-

श्चचार धर्मं यदकर्महेतुम् ॥ १४॥

को न्वस्य काष्ठामपरोऽनुगच्छे-

न्मनोरथेनाप्यभवस्य योगी ।

यो योगमायाः स्पृहयत्युदस्ता

ह्यसत्तया येन कृतप्रयत्नाः ॥ १५॥

इति ह स्म सकलवेदलोकदेवब्राह्मणगवां

परमगुरोर्भगवत ऋषभाख्यस्य विशुद्धाचरितमीरितं

पुंसां समस्तदुश्चरिताभिहरणं परममहामङ्गलायन-

मिदमनुश्रद्धयोपचितयानुश‍ृणोत्याश्रावयति वावहितो

भगवति तस्मिन् वासुदेव एकान्ततो भक्तिरनयोरपि

समनुवर्तते ॥ १६॥

यस्यामेव कवय आत्मानमविरतं विविधवृजिनसंसार-

परितापोपतप्यमानमनुसवनं स्नापयन्तस्तयैव परया

निर्वृत्या ह्यपवर्गमात्यन्तिकं परमपुरुषार्थमपि

स्वयमासादितं नो एवाद्रियन्ते भगवदीयत्वेनैव

परिसमाप्तसर्वार्थाः ॥ १७॥

राजन् पतिर्गुरुरलं भवतां यदूनां

दैवं प्रियः कुलपतिः क्व च किङ्करो वः ।

अस्त्वेवमङ्ग भगवान् भजतां मुकुन्दो

मुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम् ॥ १८॥

नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः

श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्धेः ।

लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोक-

माख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥ १९॥

वे अपनी इस नवीन अवैदिक स्वेच्छाकृत प्रवृत्ति में अन्धपरम्परा से विश्वास करके मतवाले रहने के कारण स्वयं ही घोर नरक में गिरेंगे।

भगवान् का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देने के लिये ही हुआ था। इसके गुणों का वर्णन करते हुए लोग इन वाक्यों को कहा करते हैं- अहो! सात समुद्रों वाली पृथ्वी के समस्त द्वीप और वर्षों में यह भारतवर्ष बड़ी ही पुण्यभूमि है, क्योंकि यहाँ के लोग श्रीहरि के मंगलमय अवतार-चरित्रों का गान करते हैं। अहो! महाराज प्रियव्रत का वंश बड़ा ही उज्ज्वल एवं सुयशपूर्ण है, जिसमें पुराणपुरुष श्रीआदिनारायण ने ऋषभावतार लेकर मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले पारमहंस्य धर्म का आचरण किया। अहो! इन जन्मरहित भगवान् ऋषभदेव के मार्ग पर कोई दूसरा योगी मन से भी कैसे चल सकता है। क्योंकि योगी लोग जिन योग सिद्धियों के लिये लालायित होकर निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, उन्हें इन्होंने अपने-आप प्राप्त होने पर भी असत् समझकर त्याग दिया था।

राजन्! इस प्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देवता, ब्राह्मण और गौओं के परमगुरु भगवान् ऋषभदेव का यह विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया। यह मनुष्यों के समस्त पापों को हरने वाला है। जो मनुष्य इस परम मंगलमय पवित्र चरित्र को एकाग्रचित्त से श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनते या सुनाते हैं, उन दोनों की ही भगवान् वासुदेव में अनन्यभक्ति हो जाती है। तरह-तरह के पापों से पूर्ण, सांसारिक तापों से अत्यन्त तपे हुए अपने अन्तःकरण को पण्डितजन इस भक्ति-सरिता में ही नित्य-निरन्तर नहलाते रहते हैं। इससे उन्हें जो परमशान्ति मिलती है, वह इतनी आनन्दमयी होती है कि फिर वे लोग उसके सामने, अपने-ही-आप प्राप्त हुए मोक्षरूप परमपुरुषार्थ का भी आदर नहीं करते। भगवान् के निजजन हो जाने से ही उनके समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हैं।

राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं पाण्डव लोगों के और यदुवंशियों के रक्षक, गुरु, इष्टदेव, सुहृद् और कुलपति थे; यहाँ तक कि वे कभी-कभी आज्ञाकारी सेवक भी बन जाते थे। इसी प्रकार भगवान् दूसरे भक्तों के भी अनेकों कार्य कर सकते हैं और उन्हें मुक्ति भी दे देते हैं, परन्तु मुक्ति से भी बढ़कर जो भक्तियोग है, उसे सहज ही नहीं देते। निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ऋषभदेवानुचरिते षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के ६ अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय ७  

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