श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ७
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय
७ "भरत-चरित्र"
श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: सप्तम अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय
७
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः
७
श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ
स्कन्ध सातवां अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ सप्तमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
भरतस्तु महाभागवतो यदा भगवतावनितल-
परिपालनाय सञ्चिन्तितस्तदनुशासनपरः
पञ्चजनीं विश्वरूपदुहितरमुपयेमे ॥
१॥
तस्यामु ह वा आत्मजान्
कार्त्स्न्येनानुरूपा-
नात्मनः पञ्च जनयामास भूतादिरिव
भूतसूक्ष्माणि सुमतिं राष्ट्रभृतं
सुदर्शनमावरणं
धूम्रकेतुमिति ॥ २॥
अजनाभं नामैतद्वर्षं भारतमिति यत
आरभ्य
व्यपदिशन्ति ॥ ३॥
स बहुविन्महीपतिः
पितृपितामहवदुरुवत्सलतया
स्वे स्वे कर्मणि वर्तमानाः प्रजाः
स्वधर्ममनुवर्तमानः
पर्यपालयत् ॥ ४॥
ईजे च भगवन्तं यज्ञक्रतुरूपं
क्रतुभिरुच्चावचैः
श्रद्धयाऽऽहृताग्निहोत्रदर्शपूर्णमासचातुर्मास्य-
पशुसोमानां प्रकृतिविकृतिभिरनुसवनं
चातुर्होत्रविधिना ॥ ५॥
सम्प्रचरत्सु नानायागेषु
विरचिताङ्गक्रियेष्वपूर्वं
यत्तत्क्रियाफलं धर्माख्यं परे
ब्रह्मणि यज्ञपुरुषे
सर्वदेवतालिङ्गानां
मन्त्राणामर्थनियामकतया
साक्षात्कर्तरि परदेवतायां भगवति
वासुदेव एव
भावयमान आत्मनैपुण्यमृदितकषायो
हविःष्वध्वर्युभिर्गृह्यमाणेषु स यजमानो
यज्ञभाजो
देवांस्तान्
पुरुषावयवेष्वभ्यध्यायत् ॥ ६॥
एवं कर्मविशुद्ध्या
विशुद्धसत्त्वस्यान्तर्हृदयाकाश-
शरीरे ब्रह्मणि भगवति वासुदेवे
महापुरुषरूपो-
पलक्षणे
श्रीवत्सकौस्तुभवनमालादरगदादिभि-
रुपलक्षिते
निजपुरुषहृल्लिखितेनात्मनि पुरुषरूपेण
विरोचमान उच्चैस्तरां
भक्तिमनुदिनमेधमान-
रजयाजायत ॥ ७॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
राजन्! महाराज भरत बड़े ही भगवद्भक्त थे। भगवान् ऋषभदेव ने अपने
संकल्पमात्र से उन्हें पृथ्वी की रक्षा करने के लिये नियुक्त कर दिया। उन्होंने
उनकी आज्ञा में स्थित रहकर विश्वरूप की कन्या पंचजनी से विवाह किया।
जिस प्रकार तामस अहंकार से शब्दादि
पाँच भूततन्मात्र उत्पन्न होते हैं- उसी प्रकार पंचजनी के गर्भ से उनके सुमति,
राष्ट्रभृत्, सुदर्शन, आवरण
और धूम्रकेतु नामक पाँच पुत्र हुए- जो सर्वथा उन्हीं के समान थे। इस वर्ष को,
जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरत के समय
से ही ‘भारतवर्ष’ कहते हैं।
महाराज भरत बहुज्ञ थे। वे अपने-अपने
कर्मों में लगी हुई प्रजा का अपने बाप-दादों के समान स्वधर्म में स्थित रहते हुए
अत्यन्त वात्सल्यभाव से पालन करने लगे। उन्होंने होता,
अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा- इन चार
ऋत्विजों द्वारा कराये जाने वाले प्रकृति और विकृति[1] दोनों
प्रकार के अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास,
चातुर्मास्य, पशु और सोम आदि छोटे-बड़े
क्रतुओं (यज्ञों) से यथासमय श्रद्धापूर्वक यज्ञ और क्रतुरूप श्रीभगवान् का यजन
किया।
इस प्रकार अंग और क्रियाओं के सहित
भिन्न-भिन्न यज्ञों के अनुष्ठान के समय जब अध्वर्युगण आहुति देने के लिये हवि हाथ
में लेते,
जो यजमान भरत उस यज्ञकर्म से होने वाले पुण्यरूप फल को यज्ञ पुरुष
भगवान् वासुदेव को अर्पण कर देते थे। वस्तुतः वे परब्रह्म ही इन्द्रादि समस्त
देवताओं के प्रकाशक, मन्त्रों के वास्तविक प्रतिपाद्य तथा उन
देवताओं के भी नियामक होने से मुख्य कर्ता एवं प्रधान देव हैं।
इस प्रकार अपनी भगवदर्पण बुद्धिरूप
कुशलता से हृदय के रोग-द्वेषादि मलों का मार्जन करते हुए वे सूर्यादि सभी
यज्ञभोक्ता देवताओं का भगवान् के नेत्रादि अवयवों के रूप में चिन्तन करते थे। इस
तरह कर्म की शुद्धि से उनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया। तब उन्हें अन्तर्यामीरूप से
विराजमान,
हृदयाकाश में ही अभिव्यक्त होने वाले, ब्रह्मस्वरूप
एवं महापुरुषों के लक्षणों से उपलक्षित भगवान् वासुदेव में- जो श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाला, चक्र,
शंख और गदा आदि से सुशोभित तथा नारदादि निजजनों के हृदयों में चित्र
के समान निश्चलभाव से स्थित रहते हैं- दिन-दिन वेगपूर्वक बढ़ने वाली उत्कृष्ट
भक्ति प्राप्त हुई।
एवं
वर्षायुतसहस्रपर्यन्तावसितकर्मनिर्वाणावसरो-
ऽधिभुज्यमानं स्वतनयेभ्यो रिक्थं
पितृपैतामहं
यथादायं विभज्य स्वयं सकलसम्पन्निकेतात्पुलहाश्रमं
प्रवव्राज ॥ ८॥
यत्र ह वाव भगवान् हरिरद्यापि
तत्रत्यानां निजजनानां
वात्सल्येन सन्निधाप्यत इच्छारूपेण
॥ ९॥
यत्राश्रमपदान्युभयतो
नाभिभिर्दृषच्चक्रैश्चक्रनदी
नाम सरित्प्रवरा सर्वतः
पवित्रीकरोति ॥ १०॥
तस्मिन् वाव किल स एकलः
पुलहाश्रमोपवने
विविधकुसुमकिसलयतुलसिकाम्बुभिः
कन्दमूल-
फलोपहारैश्च समीहमानो भगवत आराधनं
विविक्त
उपरतविषयाभिलाष उपभृतोपशमः परां
निर्वृतिमवाप ॥ ११॥
तयेत्थमविरतपुरुषपरिचर्यया भगवति
प्रवर्धमाना-
नुरागभरद्रुतहृदयशैथिल्यः
प्रहर्षवेगेनात्मन्युद्भिद्य-
मानरोमपुलककुलकौत्कण्ठ्यप्रवृत्तप्रणयबाष्पनिरुद्धा-
वलोकनयन एवं
निजरमणारुणचरणारविन्दानुध्यान-
परिचितभक्तियोगेन
परिप्लुतपरमाह्लादगम्भीरहृदय-
ह्रदावगाढधिषणस्तामपि क्रियमाणां
भगवत्सपर्यां
न सस्मार ॥ १२॥
इत्थं धृतभगवद्व्रत
ऐणेयाजिनवाससानुसवनाभिषेकार्द्र-
कपिशकुटिलजटाकलापेन च विरोचमानः
सूर्यर्चा
भगवन्तं हिरण्मयं पुरुषमुज्जिहाने
सूर्यमण्डलेऽभ्युपतिष्ठ-
न्नेतदु होवाच ॥ १३॥
परो रजः सवितुर्जातवेदो
देवस्य भर्गो मनसेदं जजान ।
सुरेतसादः पुनराविश्य चष्टे
हंसं गृध्राणं नृषद्रिङ्गिरामिमः ॥
१४॥
इस प्रकार एक करोड़ वर्ष निकल जाने
पर उन्होंने राज्यभोग का प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई वंशपरम्परागत
सम्पत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बाँट दिया। फिर अपने सर्वसम्पत्तिसम्पन्न राजमहल
से निकालकर वे पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में चले आये। इस पुलहाश्रम में रहने वाले
भक्तों पर भगवान् का बड़ा ही वात्सल्य है। वे आज भी उनसे उनके इष्टरूप में मिलते
रहते हैं। वहाँ चक्रनदी (गण्डकी) नाम की प्रसिद्ध सरिता चक्राकार शालग्राम-शिलाओं
से,
जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर नाभि के समान चिह्न होते हैं, सब ओर से ऋषियों के आश्रमों को पवित्र करती रहती है।
उस पुलहाश्रम के उपवन में एकान्त
स्थान में अकेले ही रहकर वे अनेक प्रकार के पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल और
कन्द-मूल-फलादि उपहारों से भगवान् की आराधना करने लगे। इससे उनका अन्तःकरण समस्त
विषयाभिलाषाओं से निवृत्त होकर शान्त हो गया और उन्हें परमआनन्द हुआ।
इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान्
की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेम का
वेग बढ़ता गया-जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शान्त हो गया, आनन्द
के प्रबल वेग से शरीर में रोमांच होने लगा तथा उत्कण्ठा के कारण नेत्रों में प्रेम
के आँसू उमड़ आये, जिससे उनकी दृष्टि रुक गयी। अन्त में जब
अपने प्रियतम के अरुण चरणारविन्दों के ध्यान से भक्तियोग का आविर्भाव हुआ, तब परमानन्द से सराबोर हृदयरूप गम्भीर सरोवर में बुद्धि के डूब जाने से
उन्हें उस नियमपूर्वक की जाने वाली भगवत्पूजा का भी स्मरण न रहा। इस प्रकार वे
भगवत्सेवा के नियम में ही तत्पर रहते थे, शरीर पर कृष्ण
मृगचर्म धारण करते थे तथा त्रिकाल स्नान के कारण भीगते रहने से उनके केश भूरी-भूरी
घुँघराली लटों में परिणत हो गये थे, जिनसे वे बड़े ही
सुहावने लगते थे।
वे उदित हुए सूर्यमण्डल में
सूर्यसम्बन्धिनी ऋचाओं द्वारा ज्योतिर्मय परमपुरुष भगवान् नारायण की आराधना करते
और इस प्रकार कहते- ‘भगवान् सूर्य का
कर्म फलदायक तेज प्रकृति से परे हैं। उसी ने संकल्प द्वारा इस जगत् की उत्पत्ति की
है। फिर वही अन्तर्यामी रूप से इसमें प्रविष्ट होकर अपनी चित्-शक्ति द्वारा
विषयलोलुप जीवों की रक्षा करता है। हम उसी बुद्धिप्रवर्तक तेज की शरण लेते हैं’।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भरतचरिते भगवत्परिचर्यायां सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥
।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण
पञ्चम स्कन्ध के ७ अध्याय समाप्त हुआ ।।
शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय ८
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