श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ८  

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ८ "भरत जी का मृग के मोह में फँसकर मृगयोनि में जन्म लेना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: अष्टम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ८                      

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः ८                         

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध आठवां अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टमोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

एकदा तु महानद्यां कृताभिषेकनैयमिकावश्यको

ब्रह्माक्षरमभिगृणानो मुहूर्तत्रयमुदकान्त उपविवेश ॥ १॥

तत्र तदा राजन् हरिणी पिपासया

जलाशयाभ्याशमेकैवोपजगाम ॥ २॥

तया पेपीयमान उदके तावदेवाविदूरेण नदतो

मृगपतेरुन्नादो लोकभयङ्कर उदपतत् ॥ ३॥

तमुपश्रुत्य सा मृगवधूः प्रकृतिविक्लवा चकित-

निरीक्षणा सुतरामपि हरिभयाभिनिवेशव्यग्रहृदया

पारिप्लवदृष्टिरगततृषा भयात्सहसैवोच्चक्राम ॥ ४॥

तस्या उत्पतन्त्या अन्तर्वत्न्या उरुभयावगलितो

योनिनिर्गतो गर्भः स्रोतसि निपपात ॥ ५॥

तत्प्रसवोत्सर्पणभयखेदातुरा स्वगणेन

वियुज्यमाना कस्याञ्चिद्दर्यां कृष्णसारसती

निपपाताथ च ममार ॥ ६॥

तं त्वेणकुणकं कृपणं स्रोतसानूह्यमानमभि-

वीक्ष्यापविद्धं बन्धुरिवानुकम्पया राजर्षि-

र्भरत आदाय मृतमातरमित्याश्रमपदमनयत् ॥ ७॥

तस्य ह वा एणकुणक उच्चैरेतस्मिन् कृतनिजाभि-

मानस्याहरहस्तत्पोषणपालनलालनप्रीणना-

नुध्यानेनात्मनियमाः सह यमाः पुरुषपरिचर्यादय

एकैकशः कतिपयेनाहर्गणेन वियुज्यमानाः किल

सर्व एवोदवसन् ॥ ८॥

अहो बतायं हरिणकुणकः कृपण ईश्वररथचरण-

परिभ्रमणरयेण स्वगणसुहृद्बन्धुभ्यः परिवर्जितः

शरणं च मोपसादितो मामेव मातापितरौ

भ्रातृज्ञातीन् यौथिकांश्चैवोपेयाय नान्यं कञ्चन वेद

मय्यतिविस्रब्धश्चात एव मया मत्परायणस्य

पोषणपालनप्रीणनलालनमनसूयुनानुष्ठेयं

शरण्योपेक्षा दोषविदुषा ॥ ९॥

नूनं ह्यार्याः साधव उपशमशीलाः कृपणसुहृद

एवंविधार्थे स्वार्थानपि गुरुतरानुपेक्षन्ते ॥ १०॥

इति कृतानुषङ्ग आसनशयनाटनस्नानाशनादिषु

सह मृगजहुना स्नेहानुबद्धहृदय आसीत् ॥ ११॥

कुशकुसुमसमित्पलाशफलमूलोदकान्याहरिष्यमाणो

वृकसालावृकादिभ्यो भयमाशंसमानो यदा सह

हरिणकुणकेन वनं समाविशति ॥ १२॥

पथिषु च मुग्धभावेन तत्र तत्र विषक्तमतिप्रणयभर-

हृदयः कार्पण्यात्स्कन्धेनोद्वहति एवमुत्सङ्ग उरसि

चाधायोपलालयन् मुदं परमामवाप ॥ १३॥

क्रियायां निर्वर्त्यमानायामन्तरालेऽप्युत्थायोत्थाय

यदैनमभिचक्षीत तर्हि वाव स वर्षपतिः प्रकृतिस्थेन

मनसा तस्मा आशिष आशास्ते स्वस्ति स्ताद्वत्स

ते सर्वत इति ॥ १४॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- एक बार भरत जी गण्डकी में स्नान कर नित्य-नैमित्तिक तथा शौचादि अन्य आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो प्रणव का जप करते हुए तीन मुहूर्त तक नदी की धारा के पास बैठे रहे।

राजन्! इसी समय एक हरिनी प्यास से व्याकुल हो जल पीने के लिये अकेली ही उस नदी के तीर पर आयी। अभी वह जल पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंह की लोक भयंकर दहाड़ सुनायी पड़ी। हरिन जाति तो स्वभाव से ही डरपोक होती है। वह पहले ही चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती जाती थी। अब ज्यों ही उसके कान में वह भीषण शब्द पड़ा कि सिंह के डर के मारे उसका कलेजा धड़कने लगा और नेत्र कातर हो गये। प्यास अभी बुझी न थी, किन्तु अब प्राणों पर आ बनी थी। इसलिये उसने भयवश एकाकी नदी पार करने के लिये छलाँग मारी। उसके पेट में गर्भ था, अतः उछलते समय अत्यन्त भय के कारण उसका गर्भ अपने स्थान से हटकर योनिद्वार से निकलकर नदी के प्रवाह में गिर गया। वह कृष्णमृगपत्नी अकस्मात् गर्भ के गिर जाने, लम्बी छलाँग मारने तथा सिंह से डरी होने के कारण बहुत पीड़ित हो गयी थी। अब अपने झुंड से भी उसका बिछोह हो गया, इसलिये वह किसी गुफा में जा पड़ी और वहीं मर गयी।

राजर्षि भरत ने देखा कि बेचारा हरिनी का बच्चा, अपने बन्धुओं से बिछुड़कर नदी के प्रवाह में बह रहा है। इससे उन्हें उस पर बड़ी दया आयी और वे आत्मीय के समान उस मातृहीन बच्चे को अपने आश्रम पर ले आये। उस मृगछौने के प्रति भरत जी की ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। वे नित्य उसके खाने-पीने का प्रबन्ध करने, व्याघ्रादि से बचाने, लाड़-लड़ाने और पुचकारने आदि की चिंता में ही डूबे रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनके यम-नियम और भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक-एक करके छूटने लगे और अंत में सभी छूट गए। उन्हें ऐसा विचार रहने लगा- अहो! कैसे खेद की बात है! इस बेचारे दीन मृगछौने को कालचक्र के वेग ने अपने झुंड, सुहृद् और बन्धुओं से दूर करके मेरी शरण में पहुँचा दिया है। यह मुझे ही अपना माता-पिता, भाई-बन्धु और यूथ के साथी-संगी समझता है। इसे मेरे सिवा और किसी का पता नहीं है और मुझमें इसका विश्वास भी बहुत है। मैं भी शरणागत की उपेक्षा करने में जो दोष हैं, उन्हें जानता हूँ। इसलिये मुझे अब अपने इस आश्रित का सब प्रकार की दोष बुद्धि छोड़कर अच्छी तरह पालन-पोषण और प्यार-दुलार करना चाहिये। निश्चय ही शान्त-स्वभाव और दीनों की रक्षा करने वाले परोपकारी सज्जन ऐसे शरणागत की रक्षा के लिये अपने बड़े-से-बड़े स्वार्थ की भी परवाह नहीं करते

इस प्रकार उस हरिन के बच्चे में आसक्ति बढ़ जाने से बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाश में बँधा रहता था। जब उन्हें कुश, पुष्प, समिधा, पत्र और फल-मूलादि लाने होते तो भेड़ियों और कुत्तों के भय से उसे वे साथ लेकर ही वन में जाते। मार्ग में जहाँ-तहाँ कोमल घास आदि को देखकर मुग्धभाव से वह हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से दयावश उसे अपने कंधे पर चढ़ा लेते। इसी प्रकार कभी गोद में लेकर और कभी छाती से लगाकर उसका दुलार करने में भी उन्हें बड़ा सुख मिलता। नित्य-नैमित्तिक कर्मों को करते समय भी राजराजेश्वर भरत बीच-बीच में उठ-उठकर उस मृग बालक को देखते और जब उस पर उनकी दृष्टि पड़ती, तभी उनके चित्त को शान्ति मिलती। उस समय उसके लिये मंगलकामना करते हुए वे कहने लगते- बेटा! तेरा सर्वत्र कल्याण हो।

अन्यदा भृशमुद्विग्नमना नष्टद्रविण इव कृपणः

सकरुणमतितर्षेण हरिणकुणकविरहविह्वलहृदय-

सन्तापस्तमेवानुशोचन् किल कश्मलं महदभि-

रम्भित इति होवाच ॥ १५॥

अपि बत स वै कृपण एणबालको मृतहरिणीसुतो-

ऽहो ममानार्यस्य शठकिरातमतेरकृतसुकृतस्य

कृतविस्रम्भ आत्मप्रत्ययेन तदविगणयन् सुजन

इवागमिष्यति ॥ १६॥

अपि क्षेमेणास्मिन्नाश्रमोपवने शष्पाणि चरन्तं

देवगुप्तं द्रक्ष्यामि ॥ १७॥

अपि च न वृकः सालावृकोऽन्यतमो वा नैकचर

एकचरो वा भक्षयति ॥ १८॥

निम्लोचति ह भगवान् सकलजगत्क्षेमोदयस्त्रय्या-

त्माद्यापि मम न मृगवधून्यास आगच्छति ॥ १९॥

अपि स्विदकृतसुकृतमागत्य मां सुखयिष्यति

हरिणराजकुमारो विविधरुचिरदर्शनीयनिजमृग-

दारकविनोदैरसन्तोषं स्वानामपनुदन् ॥ २०॥

क्ष्वेलिकायां मां मृषा समाधिनाऽऽमीलितदृशं

प्रेमसंरम्भेण चकित चकित आगत्य पृषदपरुष-

विषाणाग्रेण लुठति ॥ २१॥

आसादितहविषि बर्हिषि दूषिते मयोपालब्धो

भीतभीतः सपद्युपरतरास ऋषिकुमारवदवहित-

करणकलाप आस्ते ॥ २२॥

किं वा अरे आचरितं तपस्तपस्विन्यानया

यदियमवनिः सविनयकृष्णसारतनयतनुतर-

सुभगशिवतमाखरखुरपदपङ्क्तिभिर्द्रविण-

विधुरातुरस्य कृपणस्य मम द्रविणपदवीं

सूचयन्त्यात्मानं च सर्वतः कृतकौतुकं

द्विजानां स्वर्गापवर्गकामानां देवयजनं करोति ॥ २३॥

अपि स्विदसौ भगवानुडुपतिरेनं मृगपतिभया-

न्मृतमातरं मृगबालकं स्वाश्रमपरिभ्रष्टमनुकम्पया

कृपणजनवत्सलः परिपाति ॥ २४॥

किं वाऽऽत्मजविश्लेषज्वरदवदहनशिखाभि-

रुपतप्यमानहृदयस्थलनलिनीकं मामुपसृत-

मृगीतनयं शिशिरशान्तानुरागगुणितनिज-

वदनसलिलामृतमयगभस्तिभिः स्वधयतीति च ॥ २५॥

कभी यदि वह दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्य के समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो जाता और फिर वे उस हरिनी के बच्चे के विरह से व्याकुल एवं सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहविष्ट हो जाते तथा शोकमग्न होकर इस प्रकार कहने लगते- अहो! क्या कहा जाये? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलिये की-सी बुद्धि वाले मुझ पुण्यहीन अनार्य का विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधों को सत्पुरुषों के समान भूलकर फिर लौट आयेगा? क्या मैं उसे फिर इस आश्रम के उपवन में भगवान् की कृपा से सुरक्षित रहकर निर्विघ्न हरी-हरी दूब चरते देखूँगा? ऐसा न हो कि कोई भेड़िया, कुत्ता गोल बाँधकर विचरने वाले सूकरादि अथवा अकेले घूमने वाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायें।

अरे! सम्पूर्ण जगत् की कुशल के लिये प्रकट होने वाले वेदत्रयीरूप भगवान् सूर्य अस्त होना चाहते हैं; किन्तु अभी तक वह मृगी की धरोहर लौटकर नहीं आयी। क्या वह हरिण राजकुमार मुझ पुण्यहीन के पास आकर अपनी भाँति-भाँति की मृगशावकोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीड़ाओं से अपने स्वजनों का शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा? अहो! जब कभी मैं प्रणयकोप से खेल में झूठ-मूठ समाधि के बहाने आँखें मूँदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्त से मेरे पास आकर जलबिन्दु के समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगों की नोक से किस प्रकार मेरे अंगों को खुजलाने लगता था। मैं कभी कुशों पर हवन सामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतों से खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटने पर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमार के समान अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर चुपचाप बैठ जाता था

[फिर पृथ्वी पर उस मृगशावक के खुर के चिह्न देखकर कहने लगते-] अहो! इस तपस्विनी धरती ने ऐसा कौन-सा तप किया है जो उस अतिविनीत कृष्णसार किशोर के छोटे-छोटे सुन्दर, सुखकारी और सुकोमल खुरों वाले चरणों के चिह्नों से मुझे, जो मैं अपना मृगधन लुट जाने से अत्यन्त व्याकुल और दीन हो रहा हूँ, उस द्रव्य की प्राप्ति का मार्ग दिखा रही है और स्वयं अपने शरीर को भी सर्वत्र उन पदचिह्नों से विभूषित कर स्वर्ग और अपवर्ग के इच्छुक द्विजों के लिये यज्ञस्थल[1] बना रही है। (चन्द्रमा में मृग का-सा श्याम चिह्न देख उसे अपना ही मृग मानकर कहने लगते-) अहो! जिसकी माता सिंह के भय से मर गयी थी, आज वही मृगशिशु अपने आश्रम से बिछुड़ गया है। अतः उसे अनाथ देखकर क्या ये दीनवत्सल भगवान् नक्षत्रनाथ दयावश उसकी रक्षा कर रहे हैं? [फिर उसकी शीतल किरणों से आह्लादित होकर कहने लगते-] अथवा अपने पुत्रों के वियोगरूप दावानलरूप विषम ज्वाला से हृदयकमल दग्ध हो जाने के कारण मैंने एक मृग बालक का सहारा लिया था। अब उसके चले जाने से फिर मेरा हृदय जलने लगा है; इसलिये ये अपनी शीतल, शान्त, स्नेहपूर्ण और वदनसलिलरूपा अमृतमयी किरणों से मुझे शान्त कर रहे हैं

एवमघटमानमनोरथाकुलहृदयो मृगदारकाभासेन

स्वारब्धकर्मणा योगारम्भणतो विभ्रंशितः स

योगतापसो भगवदाराधनलक्षणाच्च कथमितरथा

जात्यन्तर एणकुणक आसङ्गः साक्षान्निःश्रेयस-

प्रतिपक्षतया प्राक्परित्यक्तदुस्त्यजहृदयाभिजातस्य

तस्यैवमन्तरायविहतयोगारम्भणस्य राजर्षेर्भरतस्य

तावन्मृगार्भकपोषणपालनप्रीणनलालनानुषङ्गेणा-

विगणयत आत्मानमहिरिवाखुबिलं दुरतिक्रमः

कालः करालरभस आपद्यत ॥ २६॥

तदानीमपि पार्श्ववर्तिनमात्मजमिवानुशोचन्त-

मभिवीक्षमाणो मृग एवाभिनिवेशितमना विसृज्य

लोकमिमं सह मृगेण कलेवरं मृतमनु न मृतजन्मा-

नुस्मृतिरितरवन्मृगशरीरमवाप ॥ २७॥

तत्रापि ह वा आत्मनो मृगत्वकारणं भगव-

दाराधनसमीहानुभावेनानुस्मृत्य भृशमनु-

तप्यमान आह ॥ २८॥

अहो कष्टं भ्रष्टोऽहमात्मवतामनुपथाद्यद्विमुक्त-

समस्तसङ्गस्य विविक्तपुण्यारण्यशरणस्यात्मवत

आत्मनि सर्वेषामात्मनां भगवति वासुदेवे

तदनुश्रवणमननसङ्कीर्तनाराधनानुस्मरणा-

भियोगेनाशून्यसकलयामेन कालेन समावेशितं

समाहितं कार्त्स्न्येन मनस्तत्तु पुनर्ममाबुधस्या-

रान्मृगसुतमनु परिसुस्राव ॥ २९॥

इत्येवं निगूढनिर्वेदो विसृज्य मृगीं मातरं

पुनर्भगवत्क्षेत्रमुपशमशीलमुनिगणदयितं

शालग्रामं पुलस्त्यपुलहाश्रमं कालञ्जरा-

त्प्रत्याजगाम ॥ ३०॥

तस्मिन्नपि कालं प्रतीक्षमाणः सङ्गाच्च भृशमुद्विग्न

आत्मसहचरः शुष्कपर्णतृणवीरुधा वर्तमानो

मृगत्वनिमित्तावसानमेव गणयन् मृगशरीरं

तीर्थोदकक्लिन्नमुत्ससर्ज ॥ ३१॥

राजन्! इस प्रकार जिनका पूरा होना सर्वथा असम्भव था, उन विविध मनोरथों से भरत का चित्त व्याकुल रहने लगा। अपने मृगशावक के रूप में प्रतीत होने वाले प्रारब्ध कर्म के कारण तपस्वी भरत जी भगवदाराधनरूप कर्म एवं योगानुष्ठान से च्युत हो गये। नहीं तो, जिन्होंने मोक्ष मार्ग में साक्षात् विघ्नरूप समझकर अपने ही हृदय से उत्पन्न दुस्त्यज पुत्रादि को भी त्याग दिया था, उन्हीं की अन्यजातीय हरिणशिशु में ऐसी आसक्ति कैसे हो सकती थी।

इस प्रकार राजर्षि भरत विघ्नों के वशीभूत होकर योग साधन से भ्रष्ट हो गये और उस मृगछौने के पालन-पोषण और लाड़-प्यार में ही लगे रहकर आत्मस्वरूप को भूल गये। इसी समय जिसका टलना अत्यन्त कठिन है, वह प्रबल वेगशाली कराल काल, चूहे के बिल में जैसे सर्प घुस आये, उसी प्रकार उनके सिर पर चढ़ आया। उस समय भी वह हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्र के समान शोकातुर हो रहा था। वे उसे इस स्थिति में देख रहे थे और उनका चित्त उसी में लग रहा था। इस प्रकार की आसक्ति में ही मृग के साथ उनका शरीर भी छूट गया।

तदनन्तर उन्हें अन्तकाल की भावना के अनुसार अन्य साधारण पुरुषों के समान मृग शरीर ही मिला। किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई। उस योनि में भी पूर्वजन्म की भगवदाराधना के प्रभाव से अपने मृगरूप होने का कारण जानकार वे अत्यन्त पश्चाताप करते हुए कहने लगे- अहो! बड़े खेद की बात है, मैं संयमशील महानुभावों के मार्ग से पतित हो गया। मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर एकान्त और पवित्र वन का आश्रय लिया था। वहाँ रहकर जिस चित्त को मैंने सर्वभूतात्मा श्रीवासुदेव में, निरन्तर उन्हीं के गुणों का श्रवण, मनन और संकीर्तन करके तथा प्रत्येक पल को उन्हीं की आराधना और स्मरणादि से सफल करके, स्थिर भाव से पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानी का वही मन अकस्मात् एक नन्हें-से हरिणशिशु के पीछे अपने लक्ष्य से च्युत हो गया।

इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरत के हृदय में जो वैराग्य-भावना जाग्रत् हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगी को त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालंजर पर्वत से वे फिर शान्त स्वभाव मुनियों के प्रिय उसी शालग्राम तीर्थ में, जो भगवान् का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर चले आये। वहाँ रहकर भी वे काल की ही प्रतीक्षा करने लगे। आसक्ति से उन्हें बड़ा भय लगने लगा था। बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाड़ियों द्वारा निर्वाह करते मृगयोनि की प्राप्ति कराने वाला प्रारब्ध के क्षय की बाट देखते रहे। अन्त में उन्होंने अपने शरीर का आधा भाग गण्डकी के जल में डुबाये रखकर उस मृग शरीर को छोड़ दिया।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भरतचरिते अष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के ८ अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय ९   

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