श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ९
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय
९ "भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म"
श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: नवम अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय
९
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः
९
श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ
स्कन्ध नौवां अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ नवमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अथ कस्यचिद्द्विजवरस्याङ्गिरःप्रवरस्य
शमदमतपः-
स्वाध्यायाध्ययनत्यागसन्तोषतितिक्षाप्रश्रयविद्या-
नसूयात्मज्ञानानन्दयुक्तस्यात्मसदृशश्रुतशीलाचार-
रूपौदार्यगुणा नवसोदर्या अङ्गजा
बभूवुर्मिथुनं च
यवीयस्यां भार्यायाम् ॥ १॥
यस्तु तत्र पुमांस्तं परमभागवतं
राजर्षिप्रवरं भरत-
मुत्सृष्टमृगशरीरं चरमशरीरेण
विप्रत्वं गतमाहुः ॥ २॥
तत्रापि स्वजनसङ्गाच्च
भृशमुद्विजमानो भगवतः
कर्मबन्धविध्वंसनश्रवणस्मरणगुणविवरण-
चरणारविन्दयुगलं मनसा विदधदात्मनः
प्रतिघातमाशङ्कमानो
भगवदनुग्रहेणानुस्मृत-
स्वपूर्वजन्मावलिरात्मानमुन्मत्तजडान्धबधिर-
स्वरूपेण दर्शयामास लोकस्य ॥ ३॥
तस्यापि ह वा आत्मजस्य विप्रः
पुत्रस्नेहानुबद्धमना
आ समावर्तनात्संस्कारान् यथोपदेशं
विदधान
उपनीतस्य च पुनः शौचाचमनादीन्
कर्मनियमा-
ननभिप्रेतानपि समशिक्षयदनुशिष्टेन
हि भाव्यं पितुः
पुत्रेणेति ॥ ४॥
स चापि तदु ह पितृसन्निधावेवासध्रीचीनमिव
स्म करोति छन्दांस्यध्यापयिष्यन् सह
व्याहृतिभिः
सप्रणवशिरस्त्रिपदीं सावित्रीं
ग्रैष्मवासन्तिकान्
मासानधीयानमप्यसमवेतरूपं ग्राहयामास
॥ ५॥
एवं स्वतनुज
आत्मन्यनुरागावेशितचित्तः
शौचाध्ययनव्रतनियमगुर्वनलशुश्रूषणाद्यौप-
कुर्वाणककर्माण्यनभियुक्तान्यपि
समनुशिष्टेन
भाव्यमित्यसदाग्रहः पुत्रमनुशास्य
स्वयं
तावदनधिगतमनोरथः कालेनाप्रमत्तेन
स्वयं गृह एव प्रमत्त उपसंहृतः ॥ ६॥
अथ यवीयसी द्विजसती स्वगर्भजातं
मिथुनं
सपत्न्या उपन्यस्य
स्वयमनुसंस्थयापतिलोकमगात् ॥ ७॥
पितर्युपरते भ्रातर
एनमतत्प्रभावविदस्त्रय्यां विद्यायामेव
पर्यवसितमतयो न परविद्यायां
जडमतिरिति भ्रातु-
रनुशासननिर्बन्धान्न्यवृत्सन्त ॥ ८॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
राजन्! आंगिरस गोत्र में शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन,
त्याग (अतिथि आदि को अन्न देना), सन्तोष,
तितिक्षा, विनय, विद्या
(कर्म विद्या), अनसूया (दूसरों के गुणों में दोष न ढूँढना),
आत्मज्ञान (आत्मा के कर्तृप्त और भोक्तृत्व का ज्ञान) एवं आनन्द
(धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणों से सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी
स्त्री से उन्हीं के समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणों वाले नौ पुत्र हुए
तथा छोटी पत्नी से एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। इन दोनों में जो
पुरुष था, वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृग
शरीर का परित्याग करके अन्तिम जन्म में ब्राह्मण हुए थे- ऐसा महापुरुषों का कथन
है। इस जन्म में भी भगवान् की कृपा से अपनी पूर्वजन्म परम्परा का स्मरण रहने के
कारण, वे इस आशंका से कि कहीं फिर कोई विघ्न उपस्थित न हो
जाये, अपने स्वजनों के संग से भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका
श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकार के कर्म बन्धन को काट
देता है, श्रीभगवान् के उन युगल चरणकमलों को ही हृदय में
धारण किये रहते तथा दूसरों की दृष्टि में अपने को पागल, मूर्ख,
अंधे और बहरे के समान दिखाते।
पिता का तो उनमें भी वैसा ही स्नेह
था। इसलिये ब्राह्मण देवता ने अपने पागल पुत्र के भी शास्त्रानुसार
समावर्तनपर्यन्त विवाह से पूर्व के सभी संस्कार करने के विचार से उनका
उपनयन-संस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिता का कर्तव्य है कि पुत्र को शिक्षा दे’ इस
शास्त्रविधि के अनुसार उन्होंने इन्हें शौच-आचमन आदि आवश्यक कर्मों कि शिक्षा दी।
किन्तु भरत जी तो पिता के सामने ही उनके उपदेश के विरुद्ध आचरण करने लगते थे। पिता
चाहते थे कि वर्षाकाल में इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्म
ऋतु के चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और
आषाढ़- चार महीनों तक पढ़ाते रहने पर भी वे उन्हें व्याहृति और शिरोमन्त्रप्रवण के
सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके। ऐसा होने पर भी अपने इस पुत्र
में उनका आत्मा के समान अनुराग था। इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होने पर भी वे ‘पुत्र को अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहीये’ इस अनुचित
आग्रह से उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत,
नियम तथा गुरु और अग्नि की सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रम के आवश्यक
नियमों की शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्र को सुशिक्षित देखने का उनका मनोरथ
पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्य से असावधान रहकर
केवल घर के धंधों में ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहने वाले काल भगवान् ने आक्रमण
करके उनका अन्त कर दिया। तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भ से उत्पन्न हुए दोनों बालक
अपनी सौत को सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोक को चली गयी।
भरत जी के भाई कर्मकाण्ड को सबसे
श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्या से सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिये
उन्हें भरत जी का प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे
उन्हें निरा मूर्ख समझते थे। अतः पिता के परलोक सिधारने पर उन्होंने उन्हें
पढ़ाने-लिखाने का आग्रह छोड़ दिया।
स च
प्राकृतैर्द्विपदपशुभिरुन्मत्तजडबधिरमूके-
त्यभिभाष्यमाणो यदा तदनुरूपाणि
प्रभाषते कर्माणि
च स कार्यमाणः परेच्छया करोति
विष्टितो वेतनतो
वा याच्ञया यदृच्छया वोपसादितमल्पं
बहु मृष्टं
कदन्नं वाभ्यवहरति परं
नेन्द्रियप्रीतिनिमित्तम् ।
नित्यनिवृत्तनिमित्तस्वसिद्धविशुद्धानुभवानन्द-
स्वात्मलाभाधिगमः
सुखदुःखयोर्द्वन्द्वनिमित्तयो-
रसम्भावितदेहाभिमानः ॥ ९॥
शीतोष्णवातवर्षेषु वृष
इवानावृताङ्गः पीनः
संहननाङ्गः स्थण्डिलसंवेशनानुन्मर्दनामज्जन-
रजसा
महामणिरिवानभिव्यक्तब्रह्मवर्चसः
कुपटावृतकटिरुपवीतेनोरुमषिणा
द्विजातिरिति
ब्रह्मबन्धुरिति
संज्ञयातज्ज्ञजनावमतो विचचार ॥ १०॥
यदा तु परत आहारं कर्मवेतनत ईहमानः
स्वभ्रातृभिरपि केदारकर्मणि
निरूपितस्तदपि
करोति किन्तु न समं विषमं
न्यूनमधिकमिति
वेद कणपिण्याकफलीकरणकुल्माषस्थाली-
पुरीषादीन्यप्यमृतवदभ्यवहरति ॥ ११॥
अथ
कदाचित्कश्चिद्वृषलपतिर्भद्रकाल्यै पुरुषपशु-
मालभतापत्यकामः ॥ १२॥
तस्य ह दैवमुक्तस्य पशोः पदवीं
तदनुचराः
परिधावन्तो निशि निशीथसमये तमसा-
वृतायामनधिगतपशव आकस्मिकेन विधिना
केदारान् वीरासनेन मृगवराहादिभ्यः
संरक्षमाणमङ्गिरःप्रवरसुतमपश्यन् ॥
१३॥
अथ त एनमनवद्यलक्षणमवमृश्य
भर्तृकर्म-
निष्पत्तिं मन्यमाना बद्ध्वा रशनया
चण्डिका-
गृहमुपनिन्युर्मुदा विकसितवदनाः ॥
१४॥
अथ पणयस्तं स्वविधिनाभिषिच्याहतेन
वाससाऽऽच्छाद्य भूषणालेपस्रक्तिलकादिभि-
रुपस्कृतं भुक्तवन्तं
धूपदीपमाल्यलाज-
किसलयाङ्कुरफलोपहारोपेतया वैशस-
संस्थया महता
गीतस्तुतिमृदङ्गपणवघोषेण
च पुरुषपशुं भद्रकाल्याः पुरत
उपवेशयामासुः ॥ १५॥
अथ वृषलराजपणिः पुरुषपशोरसृगासवेन
देवीं भद्रकालीं
यक्ष्यमाणस्तदभिमन्त्रितमसि-
मतिकरालनिशितमुपाददे ॥ १६॥
भरत जी को मानपमान का कोई विचार न
था। जब साधारण नर-पशु उन्हें पागल, मूर्ख
अथवा बहरा कहकर पुकारते, तब वे भी उसी के अनुरूप भाषण करने
लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इच्छा
के अनुसार कर देते। बेगार के रूप में, मजदूरी के रूप में,
माँगने पर अथवा बिना माँगे जो भी थोडा-बहुत अच्छा या बुरा अन्न
उन्हें मिल जाता, उसी को जीभ का जरा भी स्वाद न देखते हुए खा
लेते। अन्य किसी कारण से उत्पन्न न होने वाला स्वतःसिद्ध केवल ज्ञानानन्दस्वरूप
आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था; इसलिये शीतोष्ण,
मानापमान आदि द्वन्दों से होने वाले सुख-दुःखादि में उन्हें
देहाभिमान की स्फूर्ति नहीं होती थी। वे सर्दी, गरमी,
वर्षा और आँधी के समय साँड़ के समान नंगे पड़े रहते थे। उनके सभी
अंग हृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वी पर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीर पर मैल जम गयी थी।
उनका ब्रह्मतेज धूलि से ढके हुए
मूल्यवान् मणि के समान छिप गया था। वे अपनी कमर में एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे
रहते थे। उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह कोई द्विज है’, ‘कोई अधम ब्राह्मण है’ ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे
इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे। दूसरों की मजदूरी करके पेट पालते देख
जब उन्हें उनके भाइयों ने खेत की क्यारियाँ ठीक करने में लगा दिया, तब वे उस कार्य को भी करने लगे। परन्तु उन्हें इस बात का कुछ भी ध्यान न
था कि उन क्यारियों की भूमि समतल है या ऊँची-नीची अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके
भाई उन्हें चावल की कनी, खली, भूसी,
घुने हुए उड़द अथवा बरतनों में लगी हुई जले अन्न की खुरचन-जो कुछ भी
दे देते, उसी को वे अमृत के समान खा लेते थे।
किसी समय डाकुओं के सरदार ने,
जिसके सामन्त शूद्र जाति के थे, पुत्र की
कामना से भद्रकाली को मनुष्य की बलि देने का संकल्प किया। उसने जो पुरुष-पशु बलि
देने के लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदे से निकलकर
भाग गया। उसे ढूँढने के लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु
अँधेरी रात में आधी रात के समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोग से अकस्मात्
उनकी दृष्टि इन आंगिरस गोत्रीय ब्राह्मण कुमार पर पड़ी, जो
वीरासन से बैठे हुए मृग-वराहादि जीवों से खेतों की रखवाली कर रहे थे। उन्होंने
देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणों वाला है, इससे हमारे
स्वामी का कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्द से खिल उठा और वे
उन्हें रस्सियों से बाँधकर चण्डिका के मन्दिर में ले आये।
तदनन्तर उन चोरों ने अपनी पद्धति के
अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना
प्रकार के आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदि से विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अंकुर और फल आदि उपहार-सामग्री के सहित
बलिदान की विधि से गान, स्तुति और मृदंग एवं ढोल आदि का
महान् शब्द करते उस पुरुष-पशु को भद्रकाली के सामने नीचा सिर कराके बैठा दिया।
इसके पश्चात् दस्युराज के पुरोहित बने हुए लुटेरे ने उस नर-पशु के रुधिर से देवी
को तृप्त करने के लिये देवीमन्त्रों से अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया।
इति तेषां वृषलानां
रजस्तमःप्रकृतीनां
धनमदरज उत्सिक्तमनसां भगवत्कला-
वीरकुलं कदर्थीकृत्योत्पथेन स्वैरं
विहरतां
हिंसाविहाराणां कर्मातिदारुणं
यद्ब्रह्मभूतस्य
साक्षाद्ब्रह्मर्षिसुतस्य
निर्वैरस्य सर्वभूतसुहृदः
सूनायामप्यननुमतमालम्भनं तदुपलभ्य
ब्रह्मतेजसातिदुर्विषहेण
दन्दह्यमानेन वपुषा
सहसोच्चचाट सैव देवी भद्रकाली ॥॥
१७॥
भृशममर्षरोषावेशरभसविलसितभ्रुकुटि-
विटपकुटिलदंष्ट्रारुणेक्षणाटोपातिभयानक-
वदना हन्तुकामेवेदं
महाट्टहासमतिसंरम्भेण
विमुञ्चन्ती तत उत्पत्य पापीयसां
दुष्टानां
तेनैवासिना विवृक्णशीर्ष्णां
गलात्स्रवन्तमसृगासव-
मत्युष्णं सह गणेन
निपीयातिपानमदविह्वलोच्चैस्तरां
स्वपार्षदैः सह जगौ ननर्त च विजहार
च शिरः
कन्दुकलीलया ॥ १८॥
एवमेव खलु महदभिचारातिक्रमः
कार्त्स्न्येनात्मने फलति ॥ १९॥
न वा एतद्विष्णुदत्त महदद्भुतं
यदसम्भ्रमः
स्वशिरश्च्छेदन आपतितेऽपि
विमुक्तदेहाद्यात्मभाव-
सुदृढहृदयग्रन्थीनां
सर्वसत्त्वसुहृदात्मनां निर्वैराणां
साक्षाद्भगवतानिमिषारिवरायुधेनाप्रमत्तेन
तैस्तैर्भावैः
परिरक्ष्यमाणानां
तत्पादमूलमकुतश्चिद्भयमुपसृतानां
भागवतपरमहंसानाम् ॥ २०॥
चोर स्वभाव से तो रजोगुणी-तमोगुणी
थे ही,
धन के मद से उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसा में भी उनकी
स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान् के अंशस्वरूप ब्राह्मण कुल का तिरस्कार
करके स्वच्छन्दता से कुमार्ग की ओर बढ़ रहे थे। आपत्ति काल में भी जिस हिंसा का
अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्रह्माण वध का सर्वथा निषेध
है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए वैरहीन तथा
समस्त प्राणियों के सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमार की बलि देना चाहते थे।
यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी
भद्रकाली के शरीर में अति दुःसह ब्रह्मतेज से दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्ति को
फोड़कर प्रकट हो गयीं। अत्यन्त असहनशीलता और क्रोध के कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई
थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखों के कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान
पड़ता था। उनके उस विकराल वेष को देखकर ऐसा जान पड़ता था,
मानो वे इस संसार का संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोध से तड़ककर
बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्ग से ही उन सारे पापियों के
सिर उड़ा दिये और अपने गणों के सहित उनके गले से बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव
पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वर से गाती और नाचती हुई उन सिरों को ही गेंद बनाकर
खेलने लगीं। सच है, महापुरुषों के प्रति किया हुआ
अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यों अपने ही ऊपर पड़ता है।
परीक्षित! जिनकी देहाभिमानरूप
सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त
प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात्
भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकने वाले
कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्र से जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान् के निर्भय
चरणकमलों का आश्रय ले रखा है-उन भगवद्भक्त परमहंसों के लिये अपना सिर कटने का अवसर
आने पर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना-यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे जडभरतचरिते नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण
पञ्चम स्कन्ध के ९ अध्याय समाप्त हुआ ।।
शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय १०
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