श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १०    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १० "जडभरत और राजा रहूगण की भेंट"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: दशम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १०                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः १०                           

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध दसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

अथ सिन्धुसौवीरपते रहूगणस्य व्रजत

इक्षुमत्यास्तटे तत्कुलपतिना शिबिकावाहपुरुषा-

न्वेषणसमये दैवेनोपसादितः स द्विजवर उपलब्ध

एष पीवा युवा संहननाङ्गो गोखरवद्धुरं वोढुमलमिति

पूर्वविष्टिगृहीतैः सह गृहीतः प्रसभमतदर्ह उवाह

शिबिकां स महानुभावः ॥ १॥

यदा हि द्विजवरस्येषुमात्रावलोकानुगतेर्न

समाहिता पुरुषगतिस्तदा विषमगतां स्वशिबिकां

रहूगण उपधार्य पुरुषानधिवहत आह हे वोढारः

साध्वतिक्रमत किमिति विषममुह्यते यानमिति ॥ २॥

अथ त ईश्वरवचः सोपालम्भमुपाकर्ण्योपायतुरीया-

च्छङ्कितमनसस्तं विज्ञापयां बभूवुः ॥ ३॥

न वयं नरदेव प्रमत्ता भवन्नियमानुपथाः साध्वेव

वहामः अयमधुनैव नियुक्तोऽपि न द्रुतं व्रजति

नानेन सह वोढुमु ह वयं पारयाम इति ॥ ४॥

सांसर्गिको दोष एव नूनमेकस्यापि सर्वेषां

सांसर्गिकाणां भवितुमर्हतीति निश्चित्य

निशम्य कृपणवचो राजा रहूगण उपासित-

वृद्धोऽपि निसर्गेण बलात्कृत ईषदुत्थित-

मन्युरविस्पष्टब्रह्मतेजसं जातवेदसमिव

रजसाऽऽवृतमतिराह ॥ ५॥

अहो कष्टं भ्रातर्व्यक्तमुरुपरिश्रान्तो दीर्घमध्वानमेक

एव ऊहिवान् सुचिरं नातिपीवा न संहननाङ्गो जरसा

चोपद्रुतो भवान् सखे नो एवापर एते सङ्घट्टिन इति

बहु विप्रलब्धोऽप्यविद्यया रचितद्रव्यगुणकर्माशयस्व-

चरमकलेवरेऽवस्तुनि संस्थानविशेषेऽहम्ममेत्य-

नध्यारोपितमिथ्याप्रत्ययो ब्रह्मभूतस्तूष्णीं शिबिकां

पूर्ववदुवाह ॥ ६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! एक बार सिन्धु सौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर चढ़कर जा रहा था। जब वह इक्षुमती नदी के किनारे पहुँचा, तब उनकी पालकी उठाने वाले कहारों के जमादार को एक कहार की आवश्यकता पड़ी। कहार की खोज करते समय दैववश उसे ये ब्राह्मण देवता मिल गये। इन्हें देखकर उसने सोचा, ‘यह मनुष्य हष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अंगों वाला है। इसलिये यह तो बैल या गधे के समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है।यह सोचकर उसने बेगार में पकड़े हुए अन्य कहारों के साथ इन्हें भी बलात् पकड़कर पालकी में जोड़ दिया। महात्मा भरत जी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्य के योग्य नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पालकी को उठा ले चले।

वे द्विजवर, कोई जीव पैरों तले दब न जाये- इस डर से आगे की एक बाण पृथ्वी देखकर चलते थे। इसलिये दूसरे कहारों के साथ उनकी चाल का मेल नहीं खाता था; अतः जब पालकी टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगण ने पालकी उठाने वालों से कहा- अरे कहारों! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो?’ तब अपने स्वामी का यह अपेक्षायुक्त वचन सुनकर कहारों को डर लगा कि कहीं राजा इन्हें दण्ड न दें। इसलिये उन्होंने राजा से इस प्रकार निवेदन किया- महाराज! यह हमारा प्रमाद नहीं है, हम आपकी नियम मर्यादा के अनुसार ठीक-ठीक ही पालकी ले चल रहे हैं। यह एक नया कहार अभी-अभी पालकी में लगाया गया है, तो भी यह जल्दी-जल्दी नहीं चलता। हम लोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते

कहारों के ये दीन वचन सुनकर राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होने वाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी पुरुषों में आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया जाये तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया। यद्यपि उसने महापुरुषों का सेवन किया था, तथापि क्षत्रिय स्वभाववश बलात् उसकी बुद्धि रजोगुण से व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठ से, जिनका ब्रह्मतेज भस्म से ढके हुए अग्नि के समान प्रकट नहीं था, इस प्रकार व्यंग से भरे वचन कहने लगा- अरे भैया! बड़े दुःख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे इन साथियों ने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है।

इस प्रकार बहुत ताना मारने पर भी वे पहले की ही भाँति चुपचाप पालकी उठाये चलते रहे। उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना; क्योंकि उनकी दृष्टि में तो पंचभूत, इन्द्री और अन्तःकरण का संघात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्या का ही कार्य था। वह विविध अंगों से युक्त दिखायी देने पर भी वस्तुतः था ही नहीं, इसलिये उसमें उनका मैं-मेरेपन का मिथ्या अध्यास सर्वथा निवृत्त हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो गये थे।

अथ पुनः स्वशिबिकायां विषमगतायां प्रकुपित उवाच

रहूगणः किमिदमरे त्वं जीवन्मृतो मां कदर्थीकृत्य

भर्तृशासनमतिचरसि प्रमत्तस्य च ते करोमि

चिकित्सां दण्डपाणिरिव जनताया यथा प्रकृतिं स्वां

भजिष्यस इति ॥ ७॥

एवं बह्वबद्धमपि भाषमाणं नरदेवाभिमानं रजसा

तमसानुविद्धेन मदेन तिरस्कृताशेषभगवत्प्रियनिकेतं

पण्डितमानिनं स भगवान् ब्राह्मणो ब्रह्मभूतः सर्वभूत-

सुहृदात्मा योगेश्वरचर्यायां नातिव्युत्पन्नमतिं स्मयमान

इव विगतस्मय इदमाह ॥ ८॥

(किन्तु) पालकी अब भी सीधी चाल से नहीं चल रही है-यह देखकर राजा रहूगण क्रोध से आग-बबूला हो गया और कहने लगा- अरे! यह क्या? क्या तू जीता ही मर गया है? तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। मालूम होता है, तू सर्वथा प्रमादी है। अरे! जैसे दण्डपाणि यमराज जन-समुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायेंगे

रहूगण को राजा होने का अभिमान था, इसलिये वह इसी प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया। वह अपने को बड़ा पण्डित समझता था, अतः रज-तमयुक्त अभिमान के वशीभूत होकर उसने भगवान् के अनन्य प्रीतिपात्र भक्तवर भरत जी का तिरस्कार कर डाला। योगेश्वरों की विचित्र कथनी-करनी का तो उसे कुछ पता ही न था। उसकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर वे सम्पूर्ण प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा, ब्रह्मभूत ब्राह्मण देवता मुस्कराये और बिना किसी प्रकार का अभिमान किये इस प्रकार कहने लगे।

ब्राह्मण उवाच

त्वयोदितं व्यक्तमविप्रलब्धं

भर्तुः स मे स्याद्यदि वीर भारः ।

गन्तुर्यदि स्यादधिगम्यमध्वा

पीवेति राशौ न विदां प्रवादः ॥ ९॥

स्थौल्यं कार्श्यं व्याधय आधयश्च

क्षुत्तृड्भयं कलिरिच्छा जरा च ।

निद्रा रतिर्मन्युरहं मदः शुचो

देहेन जातस्य हि मे न सन्ति ॥ १०॥

जीवन्मृतत्वं नियमेन राजन्

आद्यन्तवद्यद्विकृतस्य दृष्टम् ।

स्वस्वाम्यभावो ध्रुव ईड्य यत्र

तर्ह्युच्यतेऽसौ विधिकृत्ययोगः ॥ ११॥

विशेषबुद्धेर्विवरं मनाक्च

पश्याम यन्न व्यवहारतोऽन्यत् ।

क ईश्वरस्तत्र किमीशितव्यं

तथापि राजन् करवाम किं ते ॥ १२॥

उन्मत्तमत्तजडवत्स्वसंस्थां

गतस्य मे वीर चिकित्सितेन ।

अर्थः कियान् भवता शिक्षितेन

स्तब्धप्रमत्तस्य च पिष्टपेषः ॥ १३॥

जड भरत ने कहा ;- राजन्! तुमने जो कुछ कहा, वह यथार्थ है। उसमें कोई उलाहना नहीं है। यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलने वाले के लिये है। मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीर के लिये कहा जाता है, आत्मा के लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते। स्थूलता, कृशता, आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक- ये सब धर्म देहाभिमान को लेकर उत्पन्न होने वाले जीव में रहते हैं; मुझमें इनका लेश भी नहीं है।

राजन्! तुमने जो जीने-मरने की बात कही-सो जितने भी विकारी पदार्थ हैं, उन सभी में नियमित रूप से ये दोनों बातें देखी जाती हैं; क्योंकि वे सभी आदि-अन्त वाले हैं। यशस्वी नरेश! जहाँ स्वामी-सेवक भाव स्थिर हो, वहीं आज्ञा पालनादि का नियम भी लागू हो सकता है। तुम राजा हो और मैं प्रजा हूँइस प्रकार की भेदबुद्धि के लिये मुझे व्यवहार के सिवा और कहीं तनिक भी अवकाश नहीं दिखायी देता। परमार्थ दृष्टि से देखा जाये तो किसे स्वामी कहें और किसे सेवक? फिर भी राजन्! तुम्हें यदि स्वामित्व का अभिमान है तो कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ। वीरवर! मैं मत्त, उन्मत्त और जड के समान अपनी ही स्थिति में रहता हूँ। मेरा इलाज करके तुम्हें क्या हाथ लगेगा? यदि मैं वास्तव में जड और प्रमादी ही हूँ, तो भी मुझे शिक्षा देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ ही होगा।

श्रीशुक उवाच

एतावदनुवादपरिभाषया प्रत्युदीर्य मुनिवर

उपशमशील उपरतानात्म्यनिमित्त उपभोगेन

कर्मारब्धं व्यपनयन् राजयानमपि तथोवाह ॥ १४॥

स चापि पाण्डवेय सिन्धुसौवीरपतिस्तत्त्व-

जिज्ञासायां सम्यक् श्रद्धयाधिकृताधिकार-

स्तद्धृदयग्रन्थिमोचनं द्विजवच आश्रुत्य बहु

योगग्रन्थसम्मतं त्वरयावरुह्य शिरसा

पादमूलमुपसृतः क्षमापयन् विगत-

नृपदेवस्मय उवाच ॥ १५॥

कस्त्वं निगूढश्चरसि द्विजानां

बिभर्षि सूत्रं कतमोऽवधूतः ।

कस्यासि कुत्रत्य इहापि कस्मात्

क्षेमाय नश्चेदसि नोत शुक्लः ॥ १६॥

नाहं विशङ्के सुरराजवज्रा-

न्न त्र्यक्षशूलान्न यमस्य दण्डात् ।

नाग्न्यर्कसोमानिलवित्तपास्त्रा-

च्छङ्के भृशं ब्रह्मकुलावमानात् ॥ १७॥

तद्ब्रूह्यसङ्गो जडवन्निगूढ-

विज्ञानवीर्यो विचरस्यपारः ।

वचांसि योगग्रथितानि साधो

न नः क्षमन्ते मनसापि भेत्तुम् ॥ १८॥

अहं च योगेश्वरमात्मतत्त्व-

विदां मुनीनां परमं गुरुं वै ।

प्रष्टुं प्रवृत्तः किमिहारणं तत्

साक्षाद्धरिं ज्ञानकलावतीर्णम् ॥ १९॥

स वै भवाँल्लोकनिरीक्षणार्थ-

मव्यक्तलिङ्गो विचरत्यपि स्वित् ।

योगेश्वराणां गतिमन्धबुद्धिः

कथं विचक्षीत गृहानुबन्धः ॥ २०॥

दृष्टः श्रमः कर्मत आत्मनो वै

भर्तुर्गन्तुर्भवतश्चानुमन्ये ।

यथासतोदानयनाद्यभावात्

समूल इष्टो व्यवहारमार्गः ॥ २१॥

स्थाल्यग्नितापात्पयसोऽभिताप-

स्तत्तापतस्तण्डुलगर्भरन्धिः ।

देहेन्द्रियास्वाशयसन्निकर्षा-

त्तत्संसृतिः पुरुषस्यानुरोधात् ॥ २२॥

शास्ताभिगोप्ता नृपतिः प्रजानां

यः किङ्करो वै न पिनष्टि पिष्टम् ।

स्वधर्ममाराधनमच्युतस्य

यदीहमानो विजहात्यघौघम् ॥ २३॥

तन्मे भवान् नरदेवाभिमान-

मदेन तुच्छीकृतसत्तमस्य ।

कृषीष्ट मैत्री दृशमार्तबन्धो

यथा तरे सदवध्यानमंहः ॥ २४॥

न विक्रिया विश्वसुहृत्सखस्य

साम्येन वीताभिमतेस्तवापि ।

महद्विमानात्स्वकृताद्धि मादृ-

ङ्नङ्क्ष्यत्यदूरादपि शूलपाणिः ॥ २५॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मुनिवर जड भरत यथार्थ तत्त्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये। उनका देहात्मबुद्धि का हेतुभूत अज्ञान निवृत्त हो चुका था, इसलिये वे परमशान्त हो गये थे। अतः इतना कहकर भोग द्वारा प्रराब्ध्य क्षय करने के लिये वे फिर पहले के ही समान उस पालकी को कन्धे पर लेकर चलने लगे। सिन्धु सौवीर नरेश रहूगण भी अपनी उत्तम श्रद्धा के कारण तत्त्व जिज्ञासा का पूरा अधिकारी था। जब उसने उन द्विजश्रेष्ठ के अनेकों योग-ग्रन्थों से समर्थित और हृदय की ग्रन्थि का छेदन करने वाले ये वाक्य सुने, तब वह तत्काल पालकी से उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा।

देव! आपने द्विजों का चिह्न यज्ञोपवीत धारण कर रखा है, बतलाइये इस प्रकार प्रच्छन्न भाव से विचरने वाले आप कौन हैं? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई हैं? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्त्वमूर्ति भगवान् कपिल जी ही तो नहीं हैं?

मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न मैं महादेव जी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से। मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राह्मण कुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ। अतः कृपया बतलाइये, इस प्रकार अपने विज्ञान और शक्ति को छिपाकर मूर्खों की भाँति विचरने वाले आप कौन हैं? विषयों से तो आप सर्वथा अनासक्त जान पड़ते हैं। मुझे आपकी कोई थाह नहीं मिल रही है।

साधो! आपके योगमुक्त वाक्यों की बुद्धि द्वारा आलोचना करने पर भी मेरा सन्देह दूर नहीं होता। मैं आत्मज्ञानी मुनियों के परमगुरु और साक्षात् श्रीहरि की ज्ञानशक्ति के अवतार योगेश्वर भगवान् कपिल से यह पूछने के लिये जा रहा था कि इस लोक में एकमात्र शरण लेने योग्य कौन है। क्या आप वे कपिल मुनि ही हैं, जो लोकों की दशा देखने के लिये इस प्रकार अपना रूप छिपाकर विचर रहे हैं? भला, घर में आसक्त रहने वाला विवेकहीन पुरुष योगेश्वरों की गति कैसे जान सकता है?

मैंने यद्धादि कर्मों में अपने को श्रम होते देखा है, इसलिये मेरा अनुमान है कि बोझा ढोने और मार्ग में चलने से आपको भी अवश्य ही होता होगा। (देहादि के धर्मों का आत्मा पर कोई प्रभाव ही नहीं होता, ऐसी बात भी नहीं है) चूल्हे पर रखी हुई बटलोई जब अग्नि से तपने लगती है, तब उसका जल भी खौलने लगता है और फिर उस जल से चावल का भीतरी भाग भी पक जाता है। इसी प्रकार अपनी उपाधि के धर्मों का अनुवर्तन करने के कारण देह, इन्द्रिय, प्राण और मन की सन्निधि से आत्मा को भी उनके धर्म श्रमादि का अनुभव होता ही है। आपने जो दण्डादि की व्यर्थता बतायी, सो राजा तो प्रजा का शासन और पालन करने के लिये नियुक्त किया हुआ उसका दास ही है। उसका उन्मत्तादि को दण्ड देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ नहीं हो सकता; क्योंकि अपने धर्म का आचरण करना भगवान् की सेवा ही है, उसे करने वाला व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण पापराशि को नष्ट कर देता है।

दीनबन्धो! राजत्व के अभिमान से उन्मत्त होकर मैंने आप-जैसे परम साधु की अवज्ञा की है। अब आप ऐसी कृपा दृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञारूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ। आप देहाभिमानशून्य और विश्व बन्धु श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं; इसलिये सब में समान दृष्टि होने से इस मानापमान के कारण आपमें कोई विकार नहीं हो सकता तथापि एक महापुरुष का अपमान करने के कारण मेरे-जैसा पुरुष साक्षात् त्रिशूलपाणि महादेव जी के समान प्रभावशाली होने पर भी, अपने अपराध से अवश्य थोड़े ही काल में नष्ट हो जायेगा

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १०॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के १० अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय ११ 

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