श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ११     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ११ "राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: एकादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ११                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः ११                            

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ११ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकादशोऽध्यायः ॥

ब्राह्मण उवाच

अकोविदः कोविदवादवादान्

वदस्यथो नातिविदां वरिष्ठः ।

न सूरयो हि व्यवहारमेनं

तत्त्वावमर्शेन सहामनन्ति ॥ १॥

तथैव राजन्नुरुगार्हमेध-

वितानविद्योरुविजृम्भितेषु ।

न वेदवादेषु हि तत्त्ववादः

प्रायेण शुद्धो नु चकास्ति साधुः ॥ २॥

न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षा-

द्वरीयसीरपि वाचः समासन् ।

स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यं

न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् ॥ ३॥

यावन्मनो रजसा पूरुषस्य

सत्त्वेन वा तमसा वानुरुद्धम् ।

चेतोभिराकूतिभिरातनोति

निरङ्कुशं कुशलं चेतरं वा ॥ ४॥

स वासनात्मा विषयोपरक्तो

गुणप्रवाहो विकृतः षोडशात्मा ।

बिभ्रत्पृथङ्नामभि रूपभेद-

मन्तर्बहिष्ट्वं च पुरैस्तनोति ॥ ५॥

दुःखं सुखं व्यतिरिक्तं च तीव्रं

कालोपपन्नं फलमाव्यनक्ति ।

आलिङ्ग्य मायारचितान्तरात्मा

स्वदेहिनं संसृतिचक्रकूटः ॥ ६॥

तावानयं व्यवहारः सदाविः

क्षेत्रज्ञसाक्ष्यो भवति स्थूलसूक्ष्मः ।

तस्मान्मनो लिङ्गमदो वदन्ति

गुणागुणत्वस्य परावरस्य ॥ ७॥

गुणानुरक्तं व्यसनाय जन्तोः

क्षेमाय नैर्गुण्यमथो मनः स्यात् ।

यथा प्रदीपो घृतवर्तिमश्नन्

शिखाः सधूमा भजति ह्यन्यदा स्वम् ।

पदं तथा गुणकर्मानुबद्धं

वृत्तीर्मनः श्रयतेऽन्यत्र तत्त्वम् ॥ ८॥

एकादशासन्मनसो हि वृत्तय

आकूतयः पञ्च धियोऽभिमानः ।

मात्राणि कर्माणि पुरं च तासां

वदन्ति हैकादश वीर भूमीः ॥ ९॥

गन्धाकृतिस्पर्शरसश्रवांसि

विसर्गरत्यर्त्यभिजल्पशिल्पाः ।

एकादशं स्वीकरणं ममेति

शय्यामहं द्वादशमेक आहुः ॥ १०॥

द्रव्यस्वभावाशयकर्मकालै-

रेकादशामी मनसो विकाराः ।

सहस्रशः शतशः कोटिशश्च

क्षेत्रज्ञतो न मिथो न स्वतः स्युः ॥ ११॥

जड भरत ने कहा ;- राजन्! तुम अज्ञानी होने पर भी पण्डितों के समान ऊपर-ऊपर की तर्क-वितर्क युक्त बात कह रहे हो। इसलिये श्रेष्ठ ज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्त्वज्ञानी पुरुष इस अविचार सिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहार को तत्त्वविचार के समय सत्य रूप से स्वीकार नहीं करते। लौकिक व्यवहार के समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है, क्योंकि वेद वाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञ विधि के विस्तार में ही व्यस्त हैं, राग-द्वेषादि दोषों से रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञानी की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है। जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होने वाला स्वर्गादि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्त्वज्ञान कराने में साक्षात् उपनिषद्-वाक्य भी समर्थ नहीं है।

जब तक मनुष्य का मन सत्त्व, रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है, तब तक वह बिना किसी अंकुश के उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से शुभाशुभ कर्म कराता रहता है। यह मन वासनामय, विषयासक्त, गुणों से प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरूप सोलह कलाओं में मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामों से देवता और मनुष्यादि रूप धारण करके शरीररूप उपाधियों के भेद से जीव की उत्तमता और अधमता का कारण होता है। यह मायामय मन संसार चक्र में छलने वाला है, यही अपनी देह के अभिमानी जीव से मिलकर उसे कालचक्र से प्राप्त हुए सुख-दुःख और इनसे व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी फलों की अभिव्यक्ति करता है। जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही त्रिगुणमय अधम संसार का और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्ष पद का कारण बताते हैं।

विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्ष पद प्राप्त करा देता है। जिस प्रकार घी से भीगी हुई बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धुंएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है-उसी प्रकार विषय और कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्त्व में लीन हो जाता है।

वीरवर! पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार- ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर- ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं। गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार- ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को यह मेरा हैइस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है। कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं। ये मन की ग्यारह वृतियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है।

क्षेत्रज्ञ एता मनसो विभूती-

र्जीवस्य मायारचितस्य नित्याः ।

आविर्हिताः क्वापि तिरोहिताश्च

शुद्धो विचष्टे ह्यविशुद्धकर्तुः ॥ १२॥

क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः पुराणः

साक्षात्स्वयञ्ज्योतिरजः परेशः ।

नारायणो भगवान्वासुदेवः

स्वमाययाऽऽत्मन्यवधीयमानः ॥ १३॥

यथानिलः स्थावरजङ्गमाना-

मात्मस्वरूपेण निविष्ट ईशेत् ।

एवं परो भगवान् वासुदेवः

क्षेत्रज्ञ आत्मेदमनुप्रविष्टः ॥ १४॥

न यावदेतां तनुभृन्नरेन्द्र

विधूय मायां वयुनोदयेन ।

विमुक्तसङ्गो जितषट्सपत्नो

वेदात्मतत्त्वं भ्रमतीह तावत् ॥ १५॥

न यावदेतन्मन आत्मलिङ्गं

संसारतापावपनं जनस्य ।

यच्छोकमोहामयरागलोभ-

वैरानुबन्धं ममतां विधत्ते ॥ १६॥

भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्य-

मुपेक्षयाध्येधितमप्रमत्तः ।

गुरोर्हरेश्चरणोपासनास्त्रो

जहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम् ॥ १७॥

ऐसा होने पर भी मन से क्षेत्रज्ञ का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीव की ही माया निर्मित उपाधि है। यह प्रायः संसार बन्धन में डालने वाले अविशुद्ध कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है। इसकी उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाह रूप से नित्य ही रहती हैं; जाग्रत् और स्वप्न के समय वे प्रकट हो जाती हैं और सुषुप्ति में छिप जाती हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मन की इन वृत्तियों को साक्षी रूप से देखता रहता है।

यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत् का आदिकारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयं प्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मादि का भी नियन्ता और अपने अधीन रहने वाले माया के द्वारा सबके अन्तःकरणों में रहकर जीवों को प्रेरित करने वाला समस्त भूतों का आश्रयरूप भगवान् वासुदेव हैं। जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणियों में प्राणरूप से प्रविष्ट होकर उन्हें प्रेरित करती है, उसी प्रकार वह परमेश्वर भगवान् वासुदेव सर्वसाक्षी आत्मस्वरूप से इस सम्पूर्ण प्रपंच में ओत-प्रोत है।

राजन्! जब तक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्त्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधिरूप मन को संसार-दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि चित्त उसके शोक, मोह, रोग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है। यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारी उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्मस्वरूप को आच्छादित कर रखा है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ब्राह्मणरहूगणसंवादे एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के ११ अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय १२  

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