श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २४
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय
२४ "भगवान के मत्स्यावतार की कथा"
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय
२४
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः २४
श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध
चौबीसवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २४ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
अष्टमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ चतुर्विंशोऽध्यायः - २४ ॥
राजोवाच
भगवन् श्रोतुमिच्छामि
हरेरद्भुतकर्मणः ।
अवतारकथामाद्यां
मायामत्स्यविडम्बनम् ॥ १॥
यदर्थमदधाद्रूपं मात्स्यं
लोकजुगुप्सितम् ।
तमःप्रकृतिदुर्मर्षं कर्मग्रस्त
इवेश्वरः ॥ २॥
एतन्नो भगवन् सर्वं
यथावद्वक्तुमर्हसि ।
उत्तमश्लोकचरितं सर्वलोकसुखावहम् ॥
३॥
राजा परीक्षित ने पूछा ;-
'भगवान के कर्म बड़े अद्भुत हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमाया से
मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी
आदि-अवतार की कथा सुनना चाहता हूँ। भगवन्! मत्स्ययोनि एक तो यों ही लोकनिन्दित है,
दूसरे तमोगुणी और असह्य परतन्त्रता से युक्त भी है। सर्वशक्तिमान्
होने पर भी भगवान ने कर्मबन्धन में बँधे हुए जीव की तरह यह मत्स्य का रूप क्यों
धारण किया? भगवन्! महात्माओं के कीर्तनीय भगवान का चरित्र
समस्त प्राणियों को सुख देने वाला है। आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने
पूर्ण रूप से वर्णन कीजिये।'
सूत उवाच
इत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान्
बादरायणिः ।
उवाच चरितं विष्णोर्मत्स्यरूपेण
यत्कृतम् ॥ ४॥
सूत जी कहते हैं ;-
शौनकादि ऋषियों! जब राजा परीक्षित ने भगवान श्रीशुकदेव जी से यह
प्रश्न किया, तब उन्होंने विष्णु भगवान का वह चरित्र जो
उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया।
श्रीशुक उवाच
गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि
चेश्वरः ।
रक्षामिच्छंस्तनूर्धत्ते
धर्मस्यार्थस्य चैव हि ॥ ५॥
उच्चावचेषु भूतेषु चरन्
वायुरिवेश्वरः ।
नोच्चावचत्वं भजते
निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः ॥ ६॥
आसीदतीतकल्पान्ते ब्राह्मो
नैमित्तिको लयः ।
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो
नृप ॥ ७॥
कालेनागतनिद्रस्य धातुः
शिशयिषोर्बली ।
मुखतो निःसृतान् वेदान्
हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत् ॥ ८॥
ज्ञात्वा तद्दानवेन्द्रस्य
हयग्रीवस्य चेष्टितम् ।
दधार शफरीरूपं भगवान् हरिरीश्वरः ॥
९॥
तत्र राजऋषिः कश्चिन्नाम्ना
सत्यव्रतो महान् ।
नारायणपरोऽतप्यत्तपः स सलिलाशनः ॥
१०॥
योऽसावस्मिन् महाकल्पे तनयः स
विवस्वतः ।
श्राद्धदेव इति ख्यातो मनुत्वे
हरिणार्पितः ॥ ११॥
एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम्
।
तस्याञ्जल्युदके
काचिच्छफर्येकाभ्यपद्यत ॥ १२॥
सत्यव्रतोऽञ्जलिगतां सह तोयेन भारत
।
उत्ससर्ज नदीतोये शफरीं
द्रविडेश्वरः ॥ १३॥
तमाह सातिकरुणं महाकारुणिकं नृपम् ।
यादोभ्यो ज्ञातिघातिभ्यो दीनां मां
दीनवत्सल ।
कथं विसृजसे राजन् भीतामस्मिन्
सरिज्जले ॥ १४॥
तमात्मनोऽनुग्रहार्थं प्रीत्या
मत्स्यवपुर्धरम् ।
अजानन् रक्षणार्थाय शफर्याः स मनो
दधे ॥ १५॥
तस्या दीनतरं वाक्यमाश्रुत्य स
महीपतिः ।
कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य
आश्रमम् ॥ १६॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! यों तो भगवान सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता,
साधु, वेद, धर्म और अर्थ
की रक्षा के लिये शरीर धारण किया करते हैं। वे सर्वशक्तिमान प्रभु वायु की तरह
नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियों में अन्तर्यामी रूप से
लीला करते रहते हैं। परन्तु उन-उन प्राणियों के बुद्धिगत गुणों से वे छोटे-बड़े या
ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तव में समस्त प्राकृत गुणों से
रहित-निर्गुण हैं। परीक्षित! पिछले कल्प के अन्त में ब्रह्मा जी के सो जाने के
कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्र
में डूब गये थे। प्रलयकाल आ जाने के कारण ब्रह्मा जी को नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुख से निकल पड़े और उनसे पास ही रहने
वाले हयग्रीव नामक बली दैत्य ने उन्हें योगबल से चुरा लिया। सर्वशक्तिमान् भगवान
श्रीहरि ने दानवराज हयग्रीव की यह चेष्टा जान ली। इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार
ग्रहण किया।
परीक्षित! उस समय सत्यव्रत नाम के
एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे। वही सत्यव्रत
वर्तमान महाकल्प में विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए
और उन्हें भगवान ने वैवस्वत मनु बना दिया। एक दिन वे राजर्षि कृतमाला नदी में जल
से तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अंजलि के जल में एक छोटी-सी मछली आ गयी।
परीक्षित! द्रविड़ देश के राजा सत्यव्रत ने अपनी अंजलि में आयी हुई मछली को जल के
साथ ही फिर से नदी में डाल दिया। उस मछली ने बड़ी करुणा के साथ परमदयालु राजा
सत्यव्रत से कहा- ‘राजन! आप बड़े दीन
दयालु हैं। आप जानते ही हैं कि जल में रहने वाले जन्तु अपनी जाति वालों को भी खा
डालते है। मैं उनके भय से अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ। आप मुझे फिर इसी नदी के जल
में क्यों छोड़ रहे हैं?'
राजा सत्यव्रत को इस बात का पता
नहीं था कि स्वयं भगवान मुझ पर प्रसन्न होकर कृपा करने के लिये मछली के रूप में
पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस मछली की रक्षा का मन-ही-मन संकल्प किया। राजा
सत्यव्रत ने उस मछली की अत्यन्त दीनता से भरी बात सुनकर बड़ी दया से उसे अपने
पात्र के जल में रख दिया और अपने आश्रम पर ले आये।
सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धमाना
कमण्डलौ ।
अलब्ध्वाऽऽत्मावकाशं वा इदमाह
महीपतिम् ॥ १७॥
नाहं कमण्डलावस्मिन् कृच्छ्रं
वस्तुमिहोत्सहे ।
कल्पयौकः सुविपुलं यत्राहं निवसे
सुखम् ॥ १८॥
स एनां तत आदाय न्यधादौदञ्चनोदके ।
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन
हस्तत्रयमवर्धत ॥ १९॥
न म एतदलं राजन् सुखं
वस्तुमुदञ्चनम् ।
पृथु देहि पदं मह्यं यत्त्वाहं शरणं
गता ॥ २०॥
तत आदाय सा राज्ञा क्षिप्ता राजन्
सरोवरे ।
तदावृत्यात्मना सोऽयं महामीनोऽन्ववर्धत
॥ २१॥
नैतन्मे स्वस्तये राजन्नुदकं
सलिलौकसः ।
निधेहि रक्षायोगेन ह्रदे
मामविदासिनि ॥ २२॥
इत्युक्तः सोऽनयन्मत्स्यं तत्र
तत्राविदासिनि ।
जलाशयेऽसम्मितं तं समुद्रे
प्राक्षिपज्झषम् ॥ २३॥
क्षिप्यमाणस्तमाहेदमिह मां मकरादयः
।
अदन्त्यतिबला वीर मां नेहोत्स्रष्टुमर्हसि
॥ २४॥
एवं विमोहितस्तेन वदता वल्गुभारतीम्
।
तमाह को भवानस्मान् मत्स्यरूपेण
मोहयन् ॥ २५॥
नैवं वीर्यो जलचरो दृष्टोऽस्माभिः
श्रुतोऽपि च ।
यो भवान् योजनशतमह्नाभिव्यानशे सरः
॥ २६॥
नूनं त्वं भगवान्
साक्षाद्धरिर्नारायणोऽव्ययः ।
अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं
जलौकसाम् ॥ २७॥
नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ
स्थित्युत्पत्यप्ययेश्वर ।
भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो
ह्यात्मगतिर्विभो ॥ २८॥
सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां
भूतिहेतवः ।
ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता
धृतम् ॥ २९॥
न तेऽरविन्दाक्ष पदोपसर्पणं
मृषा भवेत्सर्वसुहृत्प्रियात्मनः ।
यथेतरेषां पृथगात्मनां सता-
मदीदृशो यद्वपुरद्भुतं हि नः ॥ ३०॥
आश्रम पर लाने के बाद एक रात में ही
वह मछली उस कमण्डलु में इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय
मछली ने राजा से कहा- ‘अब तो इस कमण्डलु
में मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अतः मेरे लिये कोई
बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक र सकूँ’। राजा सत्यव्रत ने मछली को कमण्डलु से निकालकर एक बहुत बड़े पानी के मटके
में रख दिया। परन्तु वहाँ डालने पर वह मछली दो ही घड़ी में तीन हाथ बढ़ गयी। फिर
उसने राजा सत्यव्रत से कहा- ‘राजन! अब यह मटका भी मेरे लिये
पर्याप्त नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारी शरण में हूँ,
इसलिये मेरे रहने योग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो।'
परीक्षित! सत्यव्रत ने वहाँ से उस
मछली को उठाकर एक सरोवर में डाल दिया। परन्तु वह थोड़ी ही देर में इतनी बढ़ गयी कि
उसने एक महामत्स्य का आकार धारण कर उस सरोवर के जल को घेर लिया और कहा- ‘राजन! मैं जलचर प्राणी हूँ। इस सरोवर का जल भी मेरे सुखपूर्वक रहने के
लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवर में
रख दीजिये। मत्स्य भगवान के इस प्रकार कहने पर वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जल
वाले सरोवरों में ले गये; परन्तु जितना बड़ा सरोवर होता,
उतने ही बड़े वे बन जाते। अन्त में उन्होंने उस लीला मत्स्य को
समुद्र में छोड़ दिया।
समुद्र में डालते समय मत्स्य भगवान
ने सत्यव्रत से कहा- ‘वीर! समुद्र में
बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायेंगे,
इसलिये आप मुझे समुद्र के जल में मत छोड़िये’।
मत्स्य भगवान की यह मधुर वाणी सुनकर
राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा- ‘मत्स्य का रूप धारण करके मुझे मोहित करने वाले आप कौन हैं? आपने एक ही दिन में चार सौ कोस के विस्तार का सरोवर घेर लिया। आज तक ऐसी
शक्ति रखने वाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था। अवश्य ही आप
साक्षात् सर्वशक्तिमान सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवों पर अनुग्रह करने
के लिये ही आपने जलचर का रूप धारण किया है।
पुरुषोत्तम! आप जगत की उत्पत्ति,
स्थिति और प्रलय के स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो!
हम शरणागत भक्तों के लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं। यद्यपि आपके सभी लीलावतार
प्राणियों के अभ्युदय के लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह
जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्य से ग्रहण किया है। कमलनयन प्रभो!
जैसे देहादि अनात्म पदार्थों में अपनेपन का अभिमान करने वाले संसारी पुरुषों का
आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणों की शरण तो
व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी,
परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन
दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है।'
श्रीशुक उवाच
इति ब्रुवाणं नृपतिं जगत्पतिः
सत्यव्रतं मत्स्यवपुर्युगक्षये ।
विहर्तुकामः प्रलयार्णवेऽब्रवी-
च्चिकीर्षुरेकान्तजनप्रियः प्रियम्
॥ ३१॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! भगवान अपने अनन्य प्रेमी भक्तों पर अत्यन्त प्रेम करते
हैं। जब जगत्पति मत्स्य भगवान ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रत की यह
प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करने के लिये, साथ ही
कल्पान्त के प्रलयकालीन समुद्र में विहार करने के लिये उनसे कहा।
श्रीभगवानुवाच
सप्तमेऽद्यतनादूर्ध्वमहन्येतदरिन्दम
।
निमङ्क्ष्यत्यप्ययाम्भोधौ
त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम् ॥ ३२॥
त्रिलोक्यां लीयमानायां
संवर्ताम्भसि वै तदा ।
उपस्थास्यति नौः काचिद्विशाला त्वां
मयेरिता ॥ ३३॥
त्वं तावदोषधीः सर्वा
बीजान्युच्चावचानि च ।
सप्तर्षिभिः परिवृतः
सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ३४॥
आरुह्य बृहतीं नावं
विचरिष्यस्यविक्लवः ।
एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा
॥ ३५॥
दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा
।
उपस्थितस्य मे शृङ्गे निबध्नीहि
महाहिना ॥ ३६॥
अहं त्वामृषिभिः साकं सहनावमुदन्वति
।
विकर्षन् विचरिष्यामि यावद्ब्राह्मी
निशा प्रभो ॥ ३७॥
मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति
शब्दितम् ।
वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे सम्प्रश्नैर्विवृतं
हृदि ॥ ३८॥
इत्थमादिश्य राजानं हरिरन्तरधीयत ।
सोऽन्ववैक्षत तं कालं यं हृषीकेश
आदिशत् ॥ ३९॥
आस्तीर्य दर्भान् प्राक्कूलान्
राजर्षिः प्रागुदङ्मुखः ।
निषसाद हरेः पादौ चिन्तयन्
मत्स्यरूपिणः ॥ ४०॥
ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावयन्
महीम् ।
वर्धमानो महामेघैर्वर्षद्भिः
समदृश्यत ॥ ४१॥
ध्यायन् भगवदादेशं ददृशे नावमागताम्
।
तामारुरोह
विप्रेन्द्रैरादायौषधिवीरुधः ॥ ४२॥
तमूचुर्मुनयः प्रीता राजन् ध्यायस्व
केशवम् ।
स वै नः सङ्कटादस्मादविता शं
विधास्यति ॥ ४३॥
सोऽनुध्यातस्ततो राज्ञा
प्रादुरासीन्महार्णवे ।
एकशृङ्गधरो मत्स्यो हैमो
नियुतयोजनः ॥ ४४॥
निबध्य नावं तच्छृङ्गे यथोक्तो
हरिणा पुरा ।
वरत्रेणाहिना तुष्टस्तुष्टाव
मधुसूदनम् ॥ ४५॥
श्रीभगवान ने कहा ;-
'सत्यव्रत! आज से सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलय के समुद्र
में डूब जायेंगे। उस समय जब तीनों लोक प्रलयकाल की जलराशि में डूबने लगेंगे,
तब मेरी प्रेरणा से तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी। उस समय
तुम समस्त प्राणियों एक सूक्ष्म शरीरों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस नौका पर चढ़
जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकार के बीजों को साथ रख लेना। उस समय सब
ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा। प्रकाश नहीं होगा। केवल ऋषियों की दिव्य ज्योति
के सहारे ही बिना किसी प्रकार की विकलता के तुम उस बड़ी नाव पर चढ़कर चारों ओर
विचरण करना। जब प्रचण्ड आँधी चलने के कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूप में वहाँ आ जाऊँगा और तुम लोग वासुकि नाग के द्वारा उस नाव
को मेरे सींग में बाँध देना।
सत्यव्रत! इसके बाद जब तक ब्रह्मा
जी की रात रहेगी, तब तक मैं ऋषियों
के साथ तुम्हें उस नाव में बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्र में विचरण करूँगा। उस समय
जब तुम प्रश्न करोगे, तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे
अनुग्रह से मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम ‘परब्रह्म’ है, तुम्हारे हृदय
में प्रकट हो जायेगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे।'
भगवान राजा सत्यव्रत को यह आदेश
देकर अन्तर्धान हो गये। अतः अब राजा सत्यव्रत उसी समय की प्रतीक्षा करने लगे,
जिसके लिये भगवान ने आज्ञा दी थी। कुशों का अग्रभाग पूर्व की ओर
करके राजर्षि सत्यव्रत उन पर पूर्वोत्तर मुख से बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान के
चरणों का चिन्तन करने लगे। इतने में ही भगवान का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा। राजा
ने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर बढ़ रहा है। प्रलयकाल के भयंकर मेघ वर्षा
करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी। तब राजा ने भगवान की आज्ञा का
स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजों को लेकर
सप्तर्षियों को लेकर उस पर सवार हो गये।
सप्तर्षियों ने बड़े प्रेम से राजा
सत्यव्रत से कहा- ‘राजन! तुम भगवान का
ध्यान करो। वे ही हमें इस संकट से बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे’। उनकी आज्ञा से राजा ने भगवान का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्र
में मत्स्य के रूप में भगवान प्रकट हुए। मत्स्य भगवान का शरीर सोने के समान
देदीप्यमान था और शरीर का विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीर में एक बड़ा भारी
सींग भी था। भगवान ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह
नौका वासुकि नाग के द्वारा भगवान के सींग में बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रत ने
प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति की।
राजोवाच
अनाद्यविद्योपहतात्मसंविद-
स्तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः ।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयु-
र्विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान् ॥
४६॥
जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः
सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम् ।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
ग्रन्थिं स भिन्द्याद्धृदयं स नो
गुरुः ॥ ४७॥
यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं
पुमान् विजह्यान्मलमात्मनस्तमः ।
भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो
भूयात्स ईशः परमो गुरोर्गुरुः ॥ ४८॥
न यत्प्रसादायुतभागलेश-
मन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम् ।
कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंस-
स्तमीश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥
४९॥
अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणीः कृत-
स्तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः ।
त्वमर्कदृक्सर्वदृशां समीक्षणो
वृतो गुरुर्नः स्वगतिं बुभुत्सताम्
॥ ५०॥
जनो जनस्यादिशतेऽसतीं मतिं
यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः ।
त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमञ्जसा
प्रपद्यते येन जनो निजं पदम् ॥ ५१॥
त्वं सर्वलोकस्य सुहृत्प्रियेश्वरो
ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धिः
।
तथापि लोको न भवन्तमन्धधी-
र्जानाति सन्तं हृदि बद्धकामः ॥ ५२॥
तं त्वामहं देववरं वरेण्यं
प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय ।
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभि-
र्ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु
स्वमोकः ॥ ५३॥
राजा सत्यव्रत ने कहा ;-
'प्रभो! संसार के जीवों का आत्मज्ञान अनादि अविद्या से ढक गया है।
इसी कारण वे संसार के अनेकानेक क्लेशों के भार से पीड़ित हो रहे हैं। जब अनायास ही
आपके अनुग्रह से वे आपकी शरण में पहुँच जाते हैं, तब आपको
प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धन से छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देने वाले
परमगुरु आप ही हैं। यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मों से
बँधा हुआ है। वह सुख की इच्छा से दुःखप्रद कर्मों का अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवा
से उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे ही मेरे परमगुरु आप
मेरे हृदय की गाँठ काट दें। जैसे अग्नि में तपाने से सोने-चाँदी के मल दूर हो जाते
हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवा से
जीव अपने अन्तःकरण का अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूप में
स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनों के भी
परमगुरु हैं। अतः आप ही हमारे भी गुरु बनें।
वे सब यदि स्वतन्त्र रूप से एक साथ
मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपा के दस
हजारवें अंश के अंश की भी बराबरी नहीं कर सकते। प्रभो! आप ही सर्वशक्तिमान हैं।
मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। जैसे कोई अंधा अंधे को ही अपना पथ प्रदर्शक बना ले,
वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानी को ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्य
के समान स्वयं प्रकाश और समस्त इन्द्रियों के प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्व के
जिज्ञासु आपको ही गुरुरूप में वरण करते हैं। अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियों को जिस
ज्ञान का उपदेश करता है, वह तो अज्ञान ही है। उसके द्वारा संसाररूप
घोर अन्धकार की अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परन्तु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञान
का उपदेश करते हैं, जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक
स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
आप सारे लोक के सुहृद्,
प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान और अभीष्ट की सिद्धि भी आपका ही
स्वरूप है। फिर भी कामनाओं के बन्धन में जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें
इस बात का पता ही नहीं है कि आप उनके हृदय में ही विराजमान हैं। आप देवताओं के भी
आराध्यदेव, परमपूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त
करने के लिये आपकी शरण में आया हूँ। भगवन्! आप परमार्थ को प्रकाशित करने वाली अपनी
वाणी के द्वारा मेरे हृदय की ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूप को प्रकाशित
कीजिये।'
श्रीशुक उवाच
इत्युक्तवन्तं नृपतिं
भगवानादिपूरुषः ।
मत्स्यरूपी महाम्भोधौ
विहरंस्तत्त्वमब्रवीत् ॥ ५४॥
पुराणसंहितां दिव्यां
साङ्ख्ययोगक्रियावतीम् ।
सत्यव्रतस्य
राजर्षेरात्मगुह्यमशेषतः ॥ ५५॥
अश्रौषीदृषिभिः
साकमात्मतत्त्वमसंशयम् ।
नाव्यासीनो भगवता प्रोक्तं ब्रह्म
सनातनम् ॥ ५६॥
अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे ।
हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान्
प्रत्याहरद्धरिः ॥ ५७॥
स तु सत्यव्रतो राजा
ज्ञानविज्ञानसंयुतः ।
विष्णोः
प्रसादात्कल्पेऽस्मिन्नासीद्वैवस्वतो मनुः ॥ ५८॥
सत्यव्रतस्य राजर्षेर्मायामत्स्यस्य
शार्ङ्गिणः ।
संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत
किल्बिषात् ॥ ५९॥
अवतारो हरेर्योऽयं कीर्तयेदन्वहं
नरः ।
सङ्कल्पास्तस्य सिध्यन्ति स याति
परमां गतिम् ॥ ६०॥
प्रलयपयसि धातुः
सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः
श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा
।
दितिजमकथयद्यो ब्रह्म सत्यव्रतानां
तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि ॥
६१॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! जब राजा सत्यव्रत ने इस प्रकार प्रार्थना की; तब मत्स्य रूपधारी पुरुषोत्तम भगवान ने प्रलय के समुद्र में विहार करते
हुए उन्हें आत्मतत्त्व का उपदेश किया।
भगवान ने राजर्षि सत्यव्रत को अपने
स्वरूप के सम्पूर्ण रहस्य का वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग से परिपूर्ण दिव्य पुराण का उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं।
सत्यव्रत ने ऋषियों के साथ नाव में
बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप
आत्मतत्त्व का श्रवण किया। इसके बाद जब पिछले प्रलय का अन्त हो गया और ब्रह्मा जी
की नींद टूटी, तब भगवान ने हयग्रीव असुर को
मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्मा जी को दे दिये। भगवान की कृपा से राजा
सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञान से संयुक्त होकर इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए। अपनी
योगमाया से मत्स्यरूप धारण करने वाले भगवान विष्णु और राजर्षि सत्यव्रत का यह
संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है।
जो मनुष्य भगवान के इस अवतार का
प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे संकल्प
सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगति की प्राप्ति होती है। प्रलयकालीन समुद्र में जब
ब्रह्मा जी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी,
उस समय उनके मुख से निकली हुई श्रुतियों को चुराकर हयग्रीव दैत्य
पाताल में ले गया था। भगवान ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्मा जी को लौटा दीं एवं
सत्यव्रत तथा सप्तर्षियों को ब्रह्मतत्त्व का उपदेश किया। उस समस्त जगत के परमकारण
लीला मत्स्य भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे मत्स्यावतारचरितानु-
वर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥
॥ इत्यष्टमस्कन्धः समाप्तः ॥
॥ ॐ तत्सत् ॥
【अष्टम
स्कन्ध: समाप्त】
【 हरिः ॐ
तत्सत्】
।। इस प्रकार "श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम
स्कन्ध:" के 24 अध्याय समाप्त हुये ।।
जारी-आगे पढ़े............... नवम
स्कन्ध:
श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध
के पूर्व अंक पढ़ें-
अध्याय 1 अध्याय
2 अध्याय 3 अध्याय 4
अध्याय 5 अध्याय
6 अध्याय
7 अध्याय 8
अध्याय 9 अध्याय
10 अध्याय 11 अध्याय 12
अध्याय 13 अध्याय 14 अध्याय 15 अध्याय 16
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