श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १९                                             

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १९ "भगवान वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना, बलि का वचन देना और शुक्राचार्य जी का उन्हें रोकना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १९                                                                 

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १९   

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १९ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकोनविंशोऽध्यायः - १९ ॥

श्रीशुक उवाच

इति वैरोचनेर्वाक्यं धर्मयुक्तं स सूनृतम् ।

निशम्य भगवान् प्रीतः प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥ १॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजा बलि के ये वचन धर्मभाव से भरे और बड़े मधुर थे। उन्हें सुनकर भगवान वामन ने बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिननदन किया और कहा।

श्रीभगवानुवाच

वचस्तवैतज्जनदेव सूनृतं

कुलोचितं धर्मयुतं यशस्करम् ।

यस्य प्रमाणं भृगवः साम्पराये

पितामहः कुलवृद्धः प्रशान्तः ॥ २॥

न ह्येतस्मिन् कुले कश्चिन्निःसत्त्वः कृपणः पुमान् ।

प्रत्याख्याता प्रतिश्रुत्य यो वादाता द्विजातये ॥ ३॥

न सन्ति तीर्थे युधि चार्थिनार्थिताः

पराङ्मुखा ये त्वमनस्विनो नृपाः ।

युष्मत्कुले यद्यशसामलेन

प्रह्लाद उद्भाति यथोडुपः खे ॥ ४॥

यतो जातो हिरण्याक्षश्चरन्नेक इमां महीम् ।

प्रतिवीरं दिग्विजये नाविन्दत गदायुधः ॥ ५॥

यं विनिर्जित्य कृच्छ्रेण विष्णुः क्ष्मोद्धार आगतम् ।

नात्मानं जयिनं मेने तद्वीर्यं भूर्यनुस्मरन् ॥ ६॥

निशम्य तद्वधं भ्राता हिरण्यकशिपुः पुरा ।

हन्तुं भ्रातृहणं क्रुद्धो जगाम निलयं हरेः ॥ ७॥

तमायान्तं समालोक्य शूलपाणिं कृतान्तवत् ।

चिन्तयामास कालज्ञो विष्णुर्मायाविनां वरः ॥ ८॥

यतो यतोऽहं तत्रासौ मृत्युः प्राणभृतामिव ।

अतोऽहमस्य हृदयं प्रवेक्ष्यामि पराग्दृशः ॥ ९॥

एवं स निश्चित्य रिपोः शरीर-

माधावतो निर्विविशेऽसुरेन्द्र ।

श्वासानिलान्तर्हितसूक्ष्मदेह-

स्तत्प्राणरन्ध्रेण विविग्नचेताः ॥ १०॥

स तन्निकेतं परिमृश्य शून्य-

मपश्यमानः कुपितो ननाद ।

क्ष्मां द्यां दिशः खं विवरान् समुद्रान्

विष्णुं विचिन्वन् न ददर्श वीरः ॥ ११॥

श्रीभगवान ने कहा ;- राजन! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी कुल परम्परा के अनुरूप, धर्मभाव से परिपूर्ण, यश को बढ़ाने वाला और अत्यनत मधुर है। क्यों न हो, परलोकहितकारी धर्म के सम्बनध में आप भृगुपुत्र शुक्राचार्य को परम प्रमाण जो मानते हैं। साथ ही अपने कुलवृद्ध पितामह परमशान्त प्रह्लाद जी की आज्ञा भी तो आप वैसे ही मानते हैं। आपकी वंश परम्परा में कोई धैर्यहीन अथवा कृपण पुरुष कभी हुआ ही नहीं। ऐसा भी कोई नहीं हुआ, जिसने ब्राह्मण को कभी दान न दिया हो अथवा जो एक बार किसी को कुछ देने की प्रतिज्ञा करके बाद में मुकर गया हो। दान के अवसर पर याचकों की याचना सुनकर और युद्ध के अवसर पर शत्रु के ललकारने पर उनकी ओर से मुँह मोड़ लेने वाला कायर आपके वंश में कोई भी नहीं हुआ। क्यों न हो, आपकी कुल परम्परा में प्रह्लाद अपने निर्मल यश से वैसे ही शोभायमान होते हैं, जैसे आकाश में चनद्रमा।

आपके कुल में ही हिरण्याक्ष जैसे वीर का जन्म हुआ था। वह वीर जब हाथ में गदा लेकर अकेला ही दिग्विजय के लिये निकला, तब सारी पृथ्वी में घूमने पर भी उसे अपनी जोड़ का कोई वीर न मिला। जब विष्णु भगवान जल में से पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे, तब वह उनके सामने आया और बड़ी कठिनाई से उन्होंने उस पर विजय प्राप्त की। परन्तु उसके बहुत बाद भी उन्हें बार-बार हिरण्याक्ष की शक्ति और बल का स्मरण हो आया करता था और उसे जीत लेने पर भी वे अपने को विजयी नहीं समझते थे। जब हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकशिपु को उसके वध का वृत्तांत मालूम हुआ, तब वह अपने भाई का वध करने वाले को मार डालने के लिये क्रोध करके भगवान के निवास स्थान वैकुण्ठ धाम में पहुँचा।

विष्णु भगवान माया रचने वालों में सबसे बड़े हैं और समय को खूब पहचानते हैं। जब उन्होंने देखा कि हिरण्यकशिपु तो हाथ में शूल लेकर काल की भाँति मेरे ही ऊपर धावा कर रहा है, तब उन्होंने विचार किया। जैसे संसार के प्राणियों के पीछे मृत्यु लगी रहती है-वैसे ही मैं जहाँ-जहाँ जाऊँगा, वहीं-वहीं यह मेरा पीछा करेगा। इसलिये मैं इसके हृदय में प्रवेश कर जाऊँ, जिससे यह मुझे देख न सके; क्योंकि यह तो बहिर्मुख है, बाहर की वस्तुएँ ही देखता है।

असुरशिरोमणे! जिस समय हिरण्यकशिपु उन पर झपट रहा था, उसी समय ऐसा निश्चय करके डर से काँपते हुए विष्णु भगवान ने अपने शरीर को सूक्ष्म बना लिया और उसके प्राणों के द्वारा नासिकों में से होकर हृदय में जा बैठे। हिरण्यकशिपु ने उनके लोक को भलीभाँति छान डाला, परन्तु उनका कहीं पता न चला। इस पर क्रोधित होकर वह सिंहनाद करने लगा। उस वीर ने पृथ्वी, स्वर्ग, दिशा, आकाश, पाताल और समुद्र-सब कहीं विष्णु भगवान को ढूँढा, परन्तु वे कहीं भी उसे दिखायी न दिये।

अपश्यन्निति होवाच मयान्विष्टमिदं जगत् ।

भ्रातृहा मे गतो नूनं यतो नावर्तते पुमान् ॥ १२॥

वैरानुबन्ध एतावानामृत्योरिह देहिनाम् ।

अज्ञानप्रभवो मन्युरहम्मानोपबृंहितः ॥ १३॥

पिता प्रह्लादपुत्रस्ते तद्विद्वान् द्विजवत्सलः ।

स्वमायुर्द्विजलिङ्गेभ्यो देवेभ्योऽदात्स याचितः ॥ १४॥

भवानाचरितान् धर्मानास्थितो गृहमेधिभिः ।

ब्राह्मणैः पूर्वजैः शूरैरन्यैश्चोद्दामकीर्तिभिः ॥ १५॥

तस्मात्त्वत्तो महीमीषद्वृणेऽहं वरदर्षभात् ।

पदानि त्रीणि दैत्येन्द्र सम्मितानि पदा मम ॥ १६॥

नान्यत्ते कामये राजन् वदान्याज्जगदीश्वरात् ।

नैनः प्राप्नोति वै विद्वान् यावदर्थप्रतिग्रहः ॥ १७॥

उनको कहीं न देखकर वह कहने लगा- मैंने सारा जगत् छान डाला, परन्तु वह मिला नहीं। अवश्य ही वह भ्रातृघाती उस लोक में चला गया, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता। बस, अब उससे वैरभाव रखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वैर तो देह के साथ ही समाप्त हो जाता है। क्रोध का कारण अज्ञान है और अहंकार से उसकी वृद्धि होती है।

राजन! आपके पिता प्रह्लादनन्दन विरोचन बड़े ही ब्राह्मण भक्त थे। यहाँ तक कि उनके शत्रु देवताओं ने ब्राह्मणों का वेष बनाकर उनसे उनकी आयु का दान माँगा और उन्होंने ब्राह्मणों के छल को जानते हुए भी अपनी आयु दे डाली। आप भी उसी धर्म का आचरण करते हैं, जिसका शुक्राचार्य आदि गृहस्थ ब्राह्मण, आपके पूर्वज प्रह्लाद और दूसरे यशस्वी वीरों ने पालन किया है। दैत्येनद्र! आप मुँहमाँगी वस्तु देने वालों में श्रेष्ठ हैं। इसी से मैं आपसे थोड़ी-सी पृथ्वी-केवल अपने पैरों से तीन डग माँगता हूँ। माना कि आप सारे जगत् के स्वामी और बड़े उदार हैं, फिर भी मैं आपसे इससे अधिक नहीं चाहता। विद्वान पुरुष को केवल अपनी आवश्यकता के अनुसार ही दान स्वीकार करना चाहिये। इससे वह प्रतिग्रहजन्य पाप से बच जाता है।

बलिरुवाच

अहो ब्राह्मणदायाद वाचस्ते वृद्धसम्मताः ।

त्वं बालो बालिशमतिः स्वार्थं प्रत्यबुधो यथा ॥ १८॥

मां वचोभिः समाराध्य लोकानामेकमीश्वरम् ।

पदत्रयं वृणीते योऽबुद्धिमान् द्वीपदाशुषम् ॥ १९॥

न पुमान् मामुपव्रज्य भूयो याचितुमर्हति ।

तस्माद्वृत्तिकरीं भूमिं वटो कामं प्रतीच्छ मे ॥ २०॥

राजा बलि ने कहा ;- 'ब्राह्मणकुमार! तुम्हारी बातें तो वृद्धों-जैसी हैं, परन्तु तुम्हारी बुद्धि अभी बच्चों की-सी ही है। अभी तुम हो भी तो बालक ही न, इसी से अपना हानि-लाभ नहीं समझ रहे हो। मैं तीनों लोकों का एकमात्र अधिपति हूँ और द्वीप-का-द्वीप दे सकता हूँ। जो मुझे अपनी वाणी से प्रसन्न कर ले और मुझसे केवल तीन डग भूमि माँगे-वह भी क्या बुद्धिमान कहा जा सकता है? ब्रह्मचारी जी! जो एक बार कुछ माँगने के लिये मेरे पास आ गया, उसे फिर कभी किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिये। अतः अपनी जीविका चलाने के लिये तुम्हें जितनी भूमि की आवश्यकता हो, उतनी मुझसे माँग लो।'

श्रीभगवानुवाच

यावन्तो विषयाः प्रेष्ठास्त्रिलोक्यामजितेन्द्रियम् ।

न शक्नुवन्ति ते सर्वे प्रतिपूरयितुं नृप ॥ २१॥

त्रिभिः क्रमैरसन्तुष्टो द्वीपेनापि न पूर्यते ।

नववर्षसमेतेन सप्तद्वीपवरेच्छया ॥ २२॥

सप्तद्वीपाधिपतयो नृपा वैन्यगयादयः ।

अर्थैः कामैर्गता नान्तं तृष्णाया इति नः श्रुतम् ॥ २३॥

यदृच्छयोपपन्नेन सन्तुष्टो वर्तते सुखम् ।

नासन्तुष्टस्त्रिभिर्लोकैरजितात्मोपसादितैः ॥ २४॥

पुंसोऽयं संसृतेर्हेतुरसन्तोषोऽर्थकामयोः ।

यदृच्छयोपपन्नेन सन्तोषो मुक्तये स्मृतः ॥ २५॥

यदृच्छालाभतुष्टस्य तेजो विप्रस्य वर्धते ।

तत्प्रशाम्यत्यसन्तोषादम्भसेवाशुशुक्षणिः ॥ २६॥

तस्मात्त्रीणि पदान्येव वृणे त्वद्वरदर्षभात् ।

एतावतैव सिद्धोऽहं वित्तं यावत्प्रयोजनम् ॥ २७॥

श्रीभगवान ने कहा ;- राजन! संसार के सब-के-सब प्यारे विषय एक मनुष्य की कामनाओं को भी पूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं, यदि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला-संतोषी न हो। जो तीन पग भूमि से संतोष नहीं कर लेता, उसे नौ वर्षों से युक्त एक द्वीप भी दे दिया जाये तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि उसके मन में सातों द्वीप पाने की इच्छा बनी ही रहेगी।

मैंने सुना है कि पृथु, गय आदि नरेश सातों द्वीपों के अधिपति थे; परन्तु उतने धन और भोग की सामग्रियों के मिलने पर भी वे तृष्णा का पार न पा सके। जो कुछ प्रारब्ध से मिल जाये, उसी से संतुष्ट हो रहने वाला पुरुष अपना जीवन सुख से व्यतीत करता है। परन्तु अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला तीनों लोकों का राज्य पाने पर भी दुःखी ही रहता है। क्योंकि उसके हृदय में असंतोष की आग धधकती रहती है। धन और भोगों से संतोष न होना ही जीव के जन्म-मृत्यु के चक्कर में गिरने का कारण है तथा जो कुछ प्राप्त हो जाये, उसी में संतोष कर लेना मुक्ति का कारण है।

जो ब्राह्मण स्वयंप्राप्त वस्तु से ही संतुष्ट हो रहता है, उसके तेज की वृद्धि होती है। उसके असंतोषी हो जाने पर उसका तेज वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे जल से अग्नि। इसमें संदेह नहीं कि आप मुँहमाँगी वस्तु देने वालों में शिरोमणि हैं। इसलिये मैं आपसे केवल तीन पग भूमि ही माँगता हूँ। इतने से ही मेरा काम बन जायेगा। धन उतना ही संग्रह करना चाहिये, जितने की आवश्यकता हो।

श्रीशुक उवाच

इत्युक्तः स हसन्नाह वाञ्छातः प्रतिगृह्यताम् ।

वामनाय महीं दातुं जग्राह जलभाजनम् ॥ २८॥

विष्णवे क्ष्मां प्रदास्यन्तमुशना असुरेश्वरम् ।

जानंश्चिकीर्षितं विष्णोः शिष्यं प्राह विदां वरः ॥ २९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- भगवान के इस प्रकार कहने पर राजा बलि हँस पड़े। उन्होंने कहा- अच्छी बात है; जितनी तुम्हारी इच्छा हो, उतनी ही ले लो।यों कहकर वामन भगवान को तीन पग पृथ्वी का संकल्प करने के लिये उन्होंने जल पात्र उठाया।

शुक्राचार्य जी सब कुछ जानते थे। उनसे भगवान की यह लीला भी छिपी नहीं थी। उन्होंने राजा बलि को पृथ्वी देने के लिये तैयार देखकर उनसे कहा।

शुक्र उवाच

एष वैरोचने साक्षाद्भगवान् विष्णुरव्ययः ।

कश्यपाददितेर्जातो देवानां कार्यसाधकः ॥ ३०॥

प्रतिश्रुतं त्वयैतस्मै यदनर्थमजानता ।

न साधु मन्ये दैत्यानां महानुपगतोऽनयः ॥ ३१॥

एष ते स्थानमैश्वर्यं श्रियं तेजो यशः श्रुतम् ।

दास्यत्याच्छिद्य शक्राय मायामाणवको हरिः ॥ ३२॥

त्रिभिः क्रमैरिमाँल्लोकान् विश्वकायः क्रमिष्यति ।

सर्वस्वं विष्णवे दत्त्वा मूढ वर्तिष्यसे कथम् ॥ ३३॥

क्रमतो गां पदैकेन द्वितीयेन दिवं विभोः ।

खं च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गतिः ॥ ३४॥

निष्ठां ते नरके मन्ये ह्यप्रदातुः प्रतिश्रुतम् ।

प्रतिश्रुतस्य योऽनीशः प्रतिपादयितुं भवान् ॥ ३५॥

न तद्दानं प्रशंसन्ति येन वृत्तिर्विपद्यते ।

दानं यज्ञस्तपः कर्म लोके वृत्तिमतो यतः ॥ ३६॥

धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च ।

पञ्चधा विभजन् वित्तमिहामुत्र च मोदते ॥ ३७॥

अत्रापि बह्वृचैर्गीतं श‍ृणु मेऽसुरसत्तम ।

सत्यमोमिति यत्प्रोक्तं यन्नेत्याहानृतं हि तत् ॥ ३८॥

सत्यं पुष्पफलं विद्यादात्मवृक्षस्य गीयते ।

वृक्षेऽजीवति तन्न स्यादनृतं मूलमात्मनः ॥ ३९॥

शुक्राचार्य जी ने कहा ;- 'विरोचनकुमार! ये स्वयं अविनाशी भगवान विष्णु हैं। देवताओं का काम बनाने के लिये कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से अवतीर्ण हुए हैं। तुमने यह अनर्थ न जानकर कि ये मेरा सब कुछ छीन लेंगे, इन्हें दान देने की प्रतिज्ञा ली है। यह तो दैत्यों पर बहुत बड़ा अन्याय होने जा रहा है। इसे मैं ठीक नहीं समझता। स्वयं भगवान ही अपनी योगमाया से यह ब्रह्मचारी बनकर बैठे हुए हैं। ये तुम्हारा राज्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज और विश्वविख्यात कीर्ति-सब कुछ तुमसे छीनकर इन्द्र को दे देंगे। ये विश्वरूप हैं। तीन पग में ही तो ये सारे लोकों को नाप लेंगे।

मूर्ख! जब तुम अपना सर्वस्व ही विष्णु को दे डालोगे, तो तुम्हारा जीवन-निर्वाह कैसे होगा। ये विश्वव्यापक भगवान एक पग में पृथ्वी और दूसरे पग में स्वर्ग को नाप लेंगे। इनके विशाल शरीर से आकाश भर जायेगा। तब इनका तीसरा पग कहाँ जायेगा? तुम उसे पूरा न कर सकोगे। ऐसी दशा में मैं समझता हूँ कि प्रतिज्ञा करके पूरा न कर पाने के कारण तुम्हें नरक में ही जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम अपनी की हुई प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में सर्वथा असमर्थ होओगे। विद्वान पुरुष उस दान की प्रशंसा नहीं करते, जिसके बाद जीवन-निर्वाह के लिये कुछ बचे ही नहीं। जिसका जीवन-निर्वाह ठीक-ठीक चलता है-वही संसार में दान, यज्ञ, तप और परोपकार के कर्म कर सकता है। जो मनुष्य अपने धन को पाँच भागों में बाँट देता है-कुछ धर्म के लिये, कुछ यश के लिये, कुछ धन की अभिवृद्धि के लिये, कुछ भोगों के लिये और कुछ अपने स्वजनों के लिये-वही इस लोक और परलोक दोनों में ही सुख पाता है।

असुरशिरोमणे! यदि तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा टूट जाने की चिन्ता हो, तो मैं इस विषय में तुम्हें कुछ ऋग्वेद की श्रुतियों का आशय सुनाता हूँ, तुम सुनो।

श्रुति कहती है ;- ‘किसी को कुछ देने की बात स्वीकार कर लेना सत्य है और नकार जाना अर्थात् अस्वीकार कर देना असत्य है। यह शरीर एक वृक्ष है और सत्य इसका फल-फूल है। परन्तु यदि वृक्ष ही न रहे तो फल-फूल कैसे रह सकते हैं? क्योंकि नकार जाना, अपनी वस्तु दूसरे को न देना, दूसरे शब्दों में अपना संग्रह बचाये रखना-यही शरीररूप वृक्ष का मूल है।

तद्यथा वृक्ष उन्मूलः शुष्यत्युद्वर्ततेऽचिरात् ।

एवं नष्टानृतः सद्य आत्मा शुष्येन्न संशयः ॥ ४०॥

पराग्रिक्तमपूर्णं वा अक्षरं यत्तदोमिति ।

यत्किञ्चिदोमिति ब्रूयात्तेन रिच्येत वै पुमान् ।

भिक्षवे सर्वमों कुर्वन् नालं कामेन चात्मने ॥ ४१॥

अथैतत्पूर्णमभ्यात्मं यच्च नेत्यनृतं वचः ।

सर्वं नेत्यनृतं ब्रूयात्स दुष्कीर्तिः श्वसन् मृतः ॥ ४२॥

स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसङ्कटे ।

गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सितम् ॥ ४३॥

जैसे जड़ न रहने पर वृक्ष सूखकर थोड़े ही दिनों में गिर जाता है, उसी प्रकार यदि धन देने से अस्वीकार न किया जाये तो यह जीवन सूख जाता है-इसमें सन्देह नहीं। हाँ मैं दूँगा’-यह वाक्य ही धन को दूर हटा देता है। इसलिये इसका उच्चारण ही अपूर्ण अर्थात् धन से खाली कर देने वाला है। यही कारण है कि जो पुरुष हाँ मैं दूँगा’-ऐसा कहता है, वह धन से खाली हो जाता है।

जो याचक को सब कुछ देना स्वीकार कर लेता है, वह अपने लिये भोग की कोई सामग्री नहीं रख सकता। इसके विपरीत मैं नहीं दूँगा’-यह जो अस्वीकारात्मक असत्य है, वह अपने धन को सुरक्षित रखने तथा पूर्ण करने वाला है। परन्तु ऐसा सब समय नहीं करना चाहिये।

जो सबसे, सभी वस्तुओं के लिये नहीं करता रहता है, उसकी अपकीर्ति हो जाती है। वह तो जीवित रहने पर भी मृतक के समान ही है। स्त्रियों को प्रसन्न करने के लिये, हास-परिहास में, विवाह में, कन्या आदि की प्रशंसा करते समय, अपनी जीविका की रक्षा के लिये, प्राण संकट उपस्थित होने पर, गौ और ब्राह्मण के हित के लिये तथा किसी को मृत्यु से बचाने के लिये असत्य-भाषण भी उतना निन्दनीय नहीं है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हितायां अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: विंशोऽध्यायः

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