श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १८                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १८ "वामन भगवान का प्रकट होकर राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १८   

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १८                                                                   

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १८ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टादशोऽध्यायः - १८ ॥

श्रीशुक उवाच

इत्थं विरिञ्चस्तुतकर्मवीर्यः

प्रादुर्बभूवामृतभूरदित्याम् ।

चतुर्भुजः शङ्खगदाब्जचक्रः

पिशङ्गवासा नलिनायतेक्षणः ॥ १॥

श्यामावदातो झषराजकुण्डल-

त्विषोल्लसच्छ्रीवदनाम्बुजः पुमान् ।

श्रीवत्सवक्षा वलयाङ्गदोल्लस-

त्किरीटकाञ्चीगुणचारुनूपुरः ॥ २॥

मधुव्रतव्रातविघुष्टया स्वया

विराजितः श्रीवनमालया हरिः ।

प्रजापतेर्वेश्मतमः स्वरोचिषा

विनाशयन् कण्ठनिविष्टकौस्तुभः ॥ ३॥

दिशः प्रसेदुः सलिलाशयास्तदा

प्रजाः प्रहृष्टा ऋतवो गुणान्विताः ।

द्यौरन्तरिक्षं क्षितिरग्निजिह्वा

गावो द्विजाः सञ्जहृषुर्नगाश्च ॥ ४॥

श्रोणायां श्रवणद्वादश्यां मुहूर्तेऽभिजिति प्रभुः ।

सर्वे नक्षत्रताराद्याश्चक्रुस्तज्जन्म दक्षिणम् ॥ ५॥

द्वादश्यां सवितातिष्ठन्मध्यन्दिनगतो नृप ।

विजया नाम सा प्रोक्ता यस्यां जन्म विदुर्हरेः ॥ ६॥

शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्मृदङ्गपणवानकाः ।

चित्रवादित्रतूर्याणां निर्घोषस्तुमुलोऽभवत् ॥ ७॥

प्रीताश्चाप्सरसोऽनृत्यन् गन्धर्वप्रवरा जगुः ।

तुष्टुवुर्मुनयो देवा मनवः पितरोऽग्नयः ॥ ८॥

सिद्धविद्याधरगणाः सकिम्पुरुषकिन्नराः ।

चारणा यक्षरक्षांसि सुपर्णा भुजगोत्तमाः ॥ ९॥

गायन्तोऽतिप्रशंसन्तो नृत्यन्तो विबुधानुगाः ।

अदित्या आश्रमपदं कुसुमैः समवाकिरन् ॥ १०॥

दृष्ट्वादितिस्तं निजगर्भसम्भवं

परं पुमांसं मुदमाप विस्मिता ।

गृहीतदेहं निजयोगमायया

प्रजापतिश्चाह जयेति विस्मितः ॥ ११॥

यत्तद्वपुर्भाति विभूषणायुधै-

रव्यक्तचिद्व्यक्तमधारयद्धरिः ।

बभूव तेनैव स वामनो वटुः

सम्पश्यतोर्दिव्यगतिर्यथा नटः ॥ १२॥

तं वटुं वामनं दृष्ट्वा मोदमाना महर्षयः ।

कर्माणि कारयामासुः पुरस्कृत्य प्रजापतिम् ॥ १३॥

तस्योपनीयमानस्य सावित्रीं सविताब्रवीत् ।

बृहस्पतिर्ब्रह्मसूत्रं मेखलां कश्यपोऽददात् ॥ १४॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार जब ब्रह्मा जी ने भगवान की शक्ति और लीला की स्तुति की, तब जन्म-मृत्यु रहित भगवान अदिति के सामने प्रकट हुए। भगवान के चार भुजाएँ थीं; उनमें वे शंख, गदा, कमल और चक्र धारण किये हुए थे। कमल के समान कोमल और बड़े-बड़े नेत्र थे। पीताम्बर शोभायमान हो रहा था। विशुद्ध श्यामवर्ण का शरीर था। मकराकृति कुण्डलों की कान्ति से मुखकमल की शोभा और भी उल्लसित हो रही थी। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, हाथों में कंगन और भुजाओं में बाजूबंद, सिर पर किरीट, कमर में करधनी की लड़ियाँ और चरणों में सुन्दर नूपुर जगमगा रहे थे।

भगवान गले में अपनी स्वरूपभूत वनमाला धारण किये हुए थे, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। उनके कण्ठ में कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। भगवान की अंग कान्ति से प्रजापति कश्यप जी के घर का अन्धकार नष्ट हो गया। उस समय दिशाएँ निर्मल हो गयीं। नदी और सरोवरों का जल स्वच्छ हो गया। प्रजा के हृदय में आनन्द की बाढ़ आ गयी। सब ऋतुएँ एक साथ अपना-अपना गुण प्रकट करने लगीं। स्वर्गलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, देवता, गौ, द्विज और पर्वत- इन सबके हृदय में हर्ष का संचार हो गया।

परीक्षित! जिस समय भगवान ने जन्म ग्रहण किया, उस समय चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र पर थे। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की श्रवण नक्षत्र वाली द्वादशी थी। अभिजित् मुहूर्त में भगवान का जन्म हुआ था। सभी नक्षत्र और तारे भगवान के जन्म को मंगलमय सूचित कर रहे थे। परीक्षित! जिस तिथि में भगवान का जन्म हुआ था, उसे विजय द्वादशीकहते हैं। जन्म के समय सूर्य आकाश के मध्य भाग में स्थित थे। भगवान के अवतार के समय शंख, ढोल, मृदंग, डफ और नगाड़े आदि बाजे बजने लगे। इन तरह-तरह के बाजों और तुरहियों की तुमुल ध्वनि होने लगी। अप्सराएँ प्रसन्न होकर नाचने लगीं। श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे। मुनि, देवता, मनु, पितर और अग्नि स्तुति करने लगे। सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, पक्षी, मुख्य-मुख्य नागगण और देवताओं के अनुचर नाचने-गाने एवं भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे तथा उन लोगों ने अदिति के आश्रम को पुष्पों की वर्षा से ढक दिया। जब अदिति ने अपने गर्भ से प्रकट हुए परम पुरुष परमात्मा देखा, तो वह अत्यन्त आश्चर्यचकित और परमानन्दित हो गयी। प्रजापति कश्यप जी भी भगवान को अपनी योगमाया से शरीर धारण किये हुए देख विस्मित हो गये और कहने लगे जय हो! जय हो।

परीक्षित! भगवान स्वयं अव्यक्त एवं चित्स्वरूप हैं। उन्होंने जो परम कान्तिमय आभूषण एवं आयुधों से युक्त वह शरीर ग्रहण किया था, उसी शरीर से, कश्यप और अदिति के देखते-देखते वामन ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया- ठीक वैसे ही, जैसे नट अपना वेष बदल ले। क्यों न हो, भगवान की लीला तो अद्भुत है ही। भगवान को वामन ब्रह्मचारी के रूप में देखकर महर्षियों को बड़ा आनन्द हुआ। उन लोगों ने कश्यप प्रजापति को आगे करके उनके जातकर्म आदि संस्कार करवाये। जब उनका उपनयन-संस्कार होने लगा, तब गायत्री के अधिष्ठातृ-देवता स्वयं सविता ने उन्हें गायत्री का उपदेश किया। देवगुरु बृहस्पति जी ने यज्ञोपवीत और कश्यप ने मेखला दी।

ददौ कृष्णाजिनं भूमिर्दण्डं सोमो वनस्पतिः ।

कौपीनाच्छादनं माता द्यौश्छत्रं जगतः पतेः ॥ १५॥

कमण्डलुं वेदगर्भः कुशान् सप्तर्षयो ददुः ।

अक्षमालां महाराज सरस्वत्यव्ययात्मनः ॥ १६॥

तस्मा इत्युपनीताय यक्षराट् पात्रिकामदात् ।

भिक्षां भगवती साक्षादुमादादम्बिका सती ॥ १७॥

स ब्रह्मवर्चसेनैवं सभां सम्भावितो वटुः ।

ब्रह्मर्षिगणसञ्जुष्टामत्यरोचत मारिषः ॥ १८॥

समिद्धमाहितं वह्निं कृत्वा परिसमूहनम् ।

परिस्तीर्य समभ्यर्च्य समिद्भिरजुहोद्द्विजः ॥ १९॥

श्रुत्वाश्वमेधैर्यजमानमूर्जितं

बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः ।

जगाम तत्राखिलसारसम्भृतो

भारेण गां सन्नमयन् पदे पदे ॥ २०॥

तं नर्मदायास्तट उत्तरे बलेः

य ऋत्विजस्ते भृगुकच्छसंज्ञके ।

प्रवर्तयन्तो भृगवः क्रतूत्तमं

व्यचक्षतारादुदितं यथा रविम् ॥ २१॥

त ऋत्विजो यजमानः सदस्या

हतत्विषो वामनतेजसा नृप ।

सूर्यः किलायात्युत वा विभावसुः

सनत्कुमारोऽथ दिदृक्षया क्रतोः ॥ २२॥

इत्थं सशिष्येषु भृगुष्वनेकधा

वितर्क्यमाणो भगवान् स वामनः ।

छत्रं सदण्डं सजलं कमण्डलुं

विवेश बिभ्रद्धयमेधवाटम् ॥ २३॥

पृथ्वी ने कृष्णमृग का चर्म, वन के स्वामी चन्द्रमा ने दण्ड, माता अदिति ने कौपीन और कटिवस्त्र एवं आकाश के अभिमानी देवता ने वामन वेषधारी भगवान् को छत्र दिया।

परीक्षित! अविनाशी प्रभु को ब्रह्मा जी ने कमण्डलु, सप्तर्षियों ने कुश और सरस्वती ने रुद्राक्ष की माला समर्पित की। इस रीति से जब वामन भगवान का उपनयन-संस्कार हुआ, तब यक्षराज कुबेर ने उनको भिक्षा का पात्र और सतीशिरोमणि जगज्जननी स्वयं भगवती उमा ने भिक्षा दी।

इस प्रकार जब सब लोगों ने वटु वेषधारी भगवान का सम्मान किया, तब वे ब्रह्मर्षियों से भरी हुई सभा मे अपने ब्रह्मतेज के कारण अत्यन्त शोभायमान हुए। इसके बाद भगवान ने स्थापित और प्रज्ज्वलित अग्नि का कुशों से परिसमूहन और परिस्तरण करके पूजा की और समिधाओं से हवन किया।

परीक्षित! उसी समय भगवान् ने सुना कि सब प्रकार की सामग्रियों से सम्पन्न यशस्वी बलि भृगुवंशी ब्राह्मणों के आदेशानुसार बहुत-से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँ के लिये यात्रा की। भगवान समस्त शक्तियों से युक्त हैं। उनके चलने के समय उनके भार से पृथ्वी पग-पग पर झुकने लगी।

नर्मदा नदी के उत्तर तट पर भृगुकच्छनाम का एक बड़ा सुन्दर स्थान है। वहीं बलि के भृगुवंशी ऋत्विज श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करा रहे थे। उन लोगों ने दूर से ही वामन भगवान को देखा, तो उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो साक्षात् सूर्य देव का उदय हो रहा हो।

परीक्षित! वामन भगवान् के तेज से ऋत्विज, यजमान और सदस्य-सब-के-सब निस्तेज हो गये। वे लोग सोचने लगे कि कहीं यज्ञ देखने के लिये सूर्य, अग्नि अथवा सनत्कुमार तो नहीं आ रहे हैं। भृगु के पुत्र शुक्राचार्य आदि अपने शिष्यों के साथ इसी प्रकार अनेकों कल्पनाएँ कर रहे थे। उसी समय हाथ में छत्र, दण्ड और जल से भरा कमण्डलु लिये हुए वामन भगवान ने अश्वमेध यज्ञ के मण्डप में प्रवेश किया।

मौञ्ज्या मेखलया वीतमुपवीताजिनोत्तरम् ।

जटिलं वामनं विप्रं मायामाणवकं हरिम् ॥ २४॥

प्रविष्टं वीक्ष्य भृगवः सशिष्यास्ते सहाग्निभिः ।

प्रत्यगृह्णन् समुत्थाय सङ्क्षिप्तास्तस्य तेजसा ॥ २५॥

यजमानः प्रमुदितो दर्शनीयं मनोरमम् ।

रूपानुरूपावयवं तस्मा आसनमाहरत् ॥ २६॥

स्वागतेनाभिनन्द्याथ पादौ भगवतो बलिः ।

अवनिज्यार्चयामास मुक्तसङ्गमनोरमम् ॥ २७॥

तत्पादशौचं जनकल्मषापहं

स धर्मविन्मूर्ध्न्यदधात्सुमङ्गलम् ।

यद्देवदेवो गिरिशश्चन्द्रमौलिः

दधार मूर्ध्ना परया च भक्त्या ॥ २८॥

वे कमर में मूँज की मेखला और गले में यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। बगल में मृगचर्म था और सिर पर जटा थी। इसी प्रकार बौने ब्राह्मण के वेष में अपनी माया से ब्रह्मचारी बने हुए भगवान् ने जब उनके यज्ञ मण्डप में प्रवेश किया, तब भृगुवंशी ब्राह्मण उन्हें देखकर अपने शिष्यों के साथ उनके तेज से प्रभावित एवं निष्प्रभ हो गये। वे सब-के-सब अग्नियों के साथ उठ खड़े हुए और उन्होंने वामन भगवान का स्वागत-सत्कार किया।

भगवान के लघु रूप के अनुरूप सारे अंग छोटे-छोटे बड़े ही मनोरम एवं दर्शनीय थे। उन्हें देखकर बलि को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने वामन भगवान को एक उत्तम आसन दिया। फिर स्वागत-वाणी से उनका अभिनन्दन करके पाँव पखारे और संगरहित महापुरुषों को भी अत्यन्त मनोहर लगने वाले वामन भगवान की पूजा की। भगवान् के चरणकमलों का धोवन परममंगलमय है। उससे जीवों के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं। स्वयं देवाधिदेव चन्द्रमौलि भगवान शंकर ने अत्यन्त भक्तिभाव से उसे अपने सिर पर धारण किया था। आज वही चरणामृत धर्म के मर्मज्ञ राजा बलि को प्राप्त हुआ। उन्होंने बड़े प्रेम से उसे अपने मस्तक पर रखा।

बलिरुवाच

स्वागतं ते नमस्तुभ्यं ब्रह्मन् किं करवाम ते ।

ब्रह्मर्षीणां तपः साक्षान्मन्ये त्वाऽऽर्य वपुर्धरम् ॥ २९॥

अद्य नः पितरस्तृप्ता अद्य नः पावितं कुलम् ।

अद्य स्विष्टः क्रतुरयं यद्भवानागतो गृहान् ॥ ३०॥

अद्याग्नयो मे सुहुता यथाविधि

द्विजात्मज त्वच्चरणावनेजनैः ।

हतांहसो वार्भिरियं च भूरहो

तथा पुनीता तनुभिः पदैस्तव ॥ ३१॥

यद्यद्वटो वाञ्छसि तत्प्रतीच्छ मे

त्वामर्थिनं विप्रसुतानुतर्कये ।

गां काञ्चनं गुणवद्धाम मृष्टं

तथान्नपेयमुत वा विप्रकन्याम् ।

ग्रामान् समृद्धांस्तुरगान् गजान् वा

रथांस्तथार्हत्तम सम्प्रतीच्छ ॥ ३२॥

बलि ने कहा ;- ब्राह्मणकुमार! आप भले पधारे। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?

आर्य! ऐसा जान पड़ता है कि बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियों की तपस्या ही स्वयं मूर्तिमान होकर मेरे सामने आयी है। आज आप मेरे घर पधारे, इससे मेरे पितर तृप्त हो गये। आज मेरा वंश पवित्र हो गया। आज मेरा यह यज्ञ सफल हो गया।

ब्राह्मणकुमार! आपके पाँव पखारने से मेरे सारे पाप धुल गये और विधिपूर्वक यज्ञ करने से, अग्नि में आहुति डालने से जो फल मिलता, वह अनायास ही मिल गया। आपके इन नन्हे-नन्हे चरणों और इनके धोवन से पृथ्वी पवित्र हो गयी। ब्राह्मणकुमार! ऐसा जान पड़ता है कि आप कुछ चाहते हैं। परमपूज्य ब्रह्मचारी जी! आप जो चाहते हों- गाय, सोना, सामग्रियों से सुसज्जित घर, पवित्र अन्न, पीने की वस्तु, विवाह के लिये ब्राह्मण की कन्या, सम्पत्तियों से भरे हुए गाँव, घोड़े, हाथी, रथ-वह सब आप मुझसे माँग लीजिये। अवश्य ही वह सब मुझसे माँग लीजिये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हितायामष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिवामनसंवादे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: एकोनविंशोऽध्यायः

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