श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २१

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २१                                               

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २१ "बलि का बाँधा जाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २१

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २१                                                                   

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः २१

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध इक्कीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २१ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकविंशोऽध्यायः - २१ ॥

श्रीशुक उवाच

सत्यं समीक्ष्याब्जभवो नखेन्दुभि-

र्हतस्वधामद्युतिरावृतोऽभ्यगात् ।

मरीचिमिश्रा ऋषयो बृहद्व्रताः

सनन्दनाद्या नरदेव योगिनः ॥ १॥

वेदोपवेदा नियमान्विता यमा-

स्तर्केतिहासाङ्गपुराणसंहिताः ।

ये चापरे योगसमीरदीपित-

ज्ञानाग्निना रन्धितकर्मकल्मषाः ।

ववन्दिरे यत्स्मरणानुभावतः

स्वायम्भुवं धाम गता अकर्मकम् ॥ २॥

अथाङ्घ्रये प्रोन्नमिताय विष्णो-

रुपाहरत्पद्मभवोऽर्हणोदकम् ।

समर्च्य भक्त्याभ्यगृणाच्छुचिश्रवा

यन्नाभिपङ्केरुहसम्भवः स्वयम् ॥ ३॥

धातुः कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य

पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र ।

स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि

लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः ॥ ४॥

ब्रह्मादयो लोकनाथाः स्वनाथाय समादृताः ।

सानुगा बलिमाजह्रुः सङ्क्षिप्तात्मविभूतये ॥ ५॥

तोयैः समर्हणैः स्रग्भिर्दिव्यगन्धानुलेपनैः ।

धूपैर्दीपैः सुरभिभिर्लाजाक्षतफलाङ्कुरैः ॥ ६॥

स्तवनैर्जयशब्दैश्च तद्वीर्यमहिमाङ्कितैः ।

नृत्यवादित्रगीतैश्च शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनैः ॥ ७॥

जाम्बवान् ऋक्षराजस्तु भेरीशब्दैर्मनोजवः ।

विजयं दिक्षु सर्वासु महोत्सवमघोषयत् ॥ ८॥

महीं सर्वां हृतां दृष्ट्वा त्रिपदव्याजयाच्ञया ।

ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्यमर्षिताः ॥ ९॥

न वा अयं ब्रह्मबन्धुर्विष्णुर्मायाविनां वरः ।

द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्यं चिकीर्षति ॥ १०॥

अनेन याचमानेन शत्रुणा वटुरूपिणा ।

सर्वस्वं नो हृतं भर्तुर्न्यस्तदण्डस्य बर्हिषि ॥ ११॥

सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः ।

नानृतं भाषितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्य दयावतः ॥ १२॥

तस्मादस्य वधो धर्मो भर्तुः शुश्रूषणं च नः ।

इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचरासुराः ॥ १३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान का चरणकमल सत्यलोक में पहुँच गया। उनके नखचन्द्र की छटा से सत्यलोक की आभा फीकी पड़ गयी। स्वयं ब्रह्मा भी उसके प्रकाश में डूब-से गये। उन्होंने मरीचि आदि ऋषियों, सनन्दन आदि नैष्ठिक ब्रह्मचारियों एवं बड़े-बड़े योगियों के साथ भगवान के चरणकमल की अगवानी की।

वेद, उपवेद, नियम, यम, तर्क, इतिहास, वेदांग और पुराण-सहिंताएँ-जो ब्रह्मलोक में मूर्तिमान होकर निवास करते हैं-तथा जिन लोगों ने योगरूप वायु से ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करके कर्ममल को भस्म कर डाला है, वे महात्मा, सबने भगवान के चरण की वन्दना की। इसी चरणकमल के स्मरण की महिमा से ये सब कर्म के द्वारा प्राप्त न होने योग्य ब्रह्मा जी के धाम में पहुँचे हैं। भगवान ब्रह्मा की कीर्ति बड़ी पवित्र है। वे विष्णु भगवान के नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं। अगवानी करने के बाद उन्होंने स्वयं विश्वरूप भगवान के ऊपर उठे हुए चरण का अर्घ्यपाद्य से पूजन किया, प्रक्षालन किया। पूजा करके बड़े प्रेम और भक्ति से उन्होंने भगवान की स्तुति की।

परीक्षित! ब्रह्मा के कमण्डलु का वही जल विश्वरूप भगवान के पाँव पखारने से पवित्र होने के कारण उन गंगाजी के रूप में परिणत हो गया, जो आकाशमार्ग से पृथ्वी पर गिरकर तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। ये गंगाजी क्या हैं, भगवान की मूर्तिमान् उज्ज्वल कीर्ति।

जब भगवान ने अपने स्वरूप को कुछ छोटा कर लिया, अपनी विभूतियों को कुछ समेट लिया, तब ब्रह्मा आदि लोकपालों ने अपने अनुचरों के साथ बड़े आदर भाव से अपने स्वामी भगवान को अनेकों प्रकार की भेंटें समर्पित कीं। उन लोगों ने जल-उपहार, माला, दिव्य गन्धों से भरे अंगराग, सुगन्धित धूप, दीप, खील, अक्षत, फल, अंकुर, भगवान की महिमा और प्रभाव से युक्त स्तोत्र, जयघोष, नृत्य, बाजे-गाजे, गान एवं शंख आदि दुन्दुभि के शब्दों से भगवान की आराधना की। उस समय ऋक्षराज जाम्बवान मन के समान वेग से दौड़कर सब दिशाओं में भेरी बजा-बजाकर भगवान की मंगलमय विजय की घोषणा कर आये।

दैत्यों ने देखा कि वामन जी ने तीन पग पृथ्वी माँगने के बहाने सारी पृथ्वी ही छीन ली। तब वे सोचने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञ में दीक्षित हैं, वे तो कुछ कहेंगे नहीं। इसलिये बहुत चिढ़कर वे आपस में कहने लगे- अरे, यह ब्राह्मण नहीं है। यह सबसे बड़ा मायावी विष्णु है। ब्राह्मण के रूप में छिपकर यह देवताओं का काम बनाना चाहता है। जब हमारे स्वामी यज्ञ में दीक्षित होकर किसी को किसी प्रकार का दण्ड देने के लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रु ने ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया। यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनिष्ठ हैं, परन्तु यज्ञ में दीक्षित होने पर वे इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। वे ब्राह्मणों के बड़े भक्त हैं तथा उनके हृदय में दया भी बहुत है। इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते। ऐसी अवस्था में हम लोगों का यह धर्म है कि इस शत्रु को मार डालें। इससे हमारे स्वामी बलि की सेवा भी होती है।यों सोचकर राजा बलि के अनुचर असुरों ने अपने-अपने हथियार उठा लिये।

ते सर्वे वामनं हन्तुं शूलपट्टिशपाणयः ।

अनिच्छतो बले राजन् प्राद्रवन् जातमन्यवः ॥ १४॥

तानभिद्रवतो दृष्ट्वा दितिजानीकपान् नृप ।

प्रहस्यानुचरा विष्णोः प्रत्यषेधन्नुदायुधाः ॥ १५॥

नन्दः सुनन्दोऽथ जयो विजयः प्रबलो बलः ।

कुमुदः कुमुदाक्षश्च विष्वक्सेनः पतत्त्रिराट् ॥ १६॥

जयन्तः श्रुतदेवश्च पुष्पदन्तोऽथ सात्वतः ।

सर्वे नागायुतप्राणाश्चमूं ते जघ्नुरासुरीम् ॥ १७॥

हन्यमानान् स्वकान् दृष्ट्वा पुरुषानुचरैर्बलिः ।

वारयामास संरब्धान् काव्यशापमनुस्मरन् ॥ १८॥

हे विप्रचित्ते हे राहो हे नेमे श्रूयतां वचः ।

मा युध्यत निवर्तध्वं न नः कालोऽयमर्थकृत् ॥ १९॥

यः प्रभुः सर्वभूतानां सुखदुःखोपपत्तये ।

तं नातिवर्तितुं दैत्याः पौरुषैरीश्वरः पुमान् ॥ २०॥

यो नो भवाय प्रागासीदभवाय दिवौकसाम् ।

स एव भगवानद्य वर्तते तद्विपर्ययम् ॥ २१॥

बलेन सचिवैर्बुद्ध्या दुर्गैर्मन्त्रौषधादिभिः ।

सामादिभिरुपायैश्च कालं नात्येति वै जनः ॥ २२॥

भवद्भिर्निर्जिता ह्येते बहुशोऽनुचरा हरेः ।

दैवेनर्द्धैस्त एवाद्य युधि जित्वा नदन्ति नः ॥ २३॥

एतान् वयं विजेष्यामो यदि दैवं प्रसीदति ।

तस्मात्कालं प्रतीक्षध्वं यो नोऽर्थत्वाय कल्पते ॥ २४॥

परीक्षित! राजा बलि की इच्छा न होने पर भी वे सब बड़े क्रोध से शूल, पट्टिश आदि ले-लेकर वामन भगवान को मारने के लिये टूट पड़े।

परीक्षित! जब विष्णु भगवान के पार्षदों ने देखा कि दैत्यों के सेनापति आक्रमण करने के लिये दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने हँसकर अपने-अपने शस्त्र उठा लिये और उन्हें रोक दिया। नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, गरुड़, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त और सात्वत- ये सभी भगवान के पार्षद दस-दस हजार हाथियों का बल रखते हैं। वे असुरों की सेना का संहार करने लगे।

जब राजा बलि ने देखा कि भगवान के पार्षद मेरे सैनिकों को मार रहे हैं और वे भी क्रोध में भरकर उनसे लड़ने के लिये तैयार हो रहे हैं, तो उन्होंने शुक्राचार्य के शाप का स्मरण करके उन्हें युद्ध करने से रोक दिया। उन्होंने विप्रचित्ति, राहु, नेमि आदि दैत्यों को सम्बोधित करके कहा- भाइयों! मेरी बात सुनो। लड़ो मत, वापस लौट आओ। यह समय हमारे कार्य के अनुकूल नहीं है। दैत्यों! जो काल समस्त प्राणियों को सुख और दुःख देने की सामर्थ्य रखता है-उसे यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपने प्रयत्नों से दबा दूँ, तो यह उसकी शक्ति से बाहर है। जो पहले हमारी उन्नति और देवताओं की अवनति के कारण हुए थे, वही काल भगवान अब उनकी उन्नति और हमारी अवनति के कारण हो रहे हैं। बल, मन्त्री, बुद्धि, दुर्ग, मन्त्र, ओषधि और सामादि उपाय-इनमें से किसी भी साधन के द्वारा अथवा सबके द्वारा मनुष्य काल पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जब दैव तुम लोगों के अनुकूल था, तब तुम लोगों ने भगवान के इन पार्षदों को कई बार जीत लिया था। पर देखो, आज वे ही युद्ध में हम पर विजय प्राप्त करके सिंहनाद कर रहे हैं। यदि दैव हमारे अनुकूल हो जायेगा, तो हम भी इन्हें जीत लेंगे। इसलिये उस समय की प्रतीक्षा करो, जो हमारी कार्य-सिद्धि के लिये अनुकूल हो

श्रीशुक उवाच

पत्युर्निगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपाः ।

रसां निर्विविशू राजन् विष्णुपार्षदताडिताः ॥ २५॥

अथ तार्क्ष्यसुतो ज्ञात्वा विराट् प्रभुचिकीर्षितम् ।

बबन्ध वारुणैः पाशैर्बलिं सौत्येऽहनि क्रतौ ॥ २६॥

हाहाकारो महानासीद्रोदस्योः सर्वतोदिशम् ।

निगृह्यमाणेऽसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ २७॥

तं बद्धं वारुणैः पाशैर्भगवानाह वामनः ।

नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारयशसं नृप ॥ २८॥

पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर ।

द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय ॥ २९॥

यावत्तपत्यसौ गोभिर्यावदिन्दुः सहोडुभिः ।

यावद्वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तव ॥ ३०॥

पदैकेन मयाक्रान्तो भूर्लोकः खं दिशस्तनोः ।

स्वर्लोकस्तु द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना ॥ ३१॥

प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते ।

विश त्वं निरयं तस्माद्गुरुणा चानुमोदितः ॥ ३२॥

वृथा मनोरथस्तस्य दूरे स्वर्गः पतत्यधः ।

प्रतिश्रुतस्यादानेन योऽर्थिनं विप्रलम्भते ॥ ३३॥

विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना ।

तद्व्यलीकफलं भुङ्क्ष्व निरयं कतिचित्समाः ॥ ३४॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अपने स्वामी बलि की बात सुनकर भगवान के पार्षदों से हारे हुए दानव और दैत्य सेनापति रसातल में चले गये। उनके जाने के बाद भगवान के हृदय की बात जानकर पक्षिराज गरुड़ ने वरुण के पाशों से बलि को बाँध दिया। उस दिन उनके अश्वमेध यज्ञ में सोमपान होने वाला था।

जब सर्वशक्तिमान भगवान् विष्णु ने बलि को इस प्रकार बँधवा दिया, तब पृथ्वी, आकाश और समस्त दिशाओं में लोग हाय-हाय!करने लगे। यद्यपि बलि वरुण के पाशों से बँधे हुए थे, उनकी सम्पत्ति भी उनके हाथों से निकल गयी थी-फिर भी उनकी बुद्धि निश्चयात्मक थी और सब लोग उनके उदार यश का गान कर रहे थे।

परीक्षित! उस समय भगवान् ने बलि से कहा- असुर! तुमने मुझे पृथ्वी के तीन पग दिये थे; दो पग में तो मैंने सारी त्रिलोकी नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो। जहाँ तक सूर्य की गरमी पहुँचती है, जहाँ तक नक्षत्रों और चन्द्रमा की किरणें पहुँचती हैं और जहाँ तक बादल जाकर बरसते हैं-वहाँ तक की सारी पृथ्वी तुम्हारे अधिकार में थी। तुम्हारे देखते-ही-देखते मैंने अपने एक पैर से भूर्लोक, शरीर से आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैर से स्वर्लोक नाप लिया है। इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चुका है। फिर भी तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा न कर सकने के कारण अब तुम्हें नरक में रहना पड़ेगा। तुम्हारे गुरु की तो इस विषय में सम्मति है ही; अब जाओ, तुम नरक में प्रवेश करो। जो याचक को देने की प्रतिज्ञा करके मुकर जाता है और इस प्रकार उसे धोखा देता है, उसके सारे मनोरथ व्यर्थ होते हैं। स्वर्ग की बात तो दूर रही, उसे नरक में गिरना पड़ता है। तुम्हें इस बात का बड़ा घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ। तुमने मुझसे दूँगा’-ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया। अब तुम कुछ वर्षों तक इस झूठ का फल नरक में भोगो

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिनिग्रहो नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्यायः

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