श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय "ब्रम्हाजी द्वारा भगवान् की स्तुति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध नवम अध्याय

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ३/अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय हिन्दी अनुवाद सहित

ब्रह्मोवाच -

(अनुष्टुप्)

ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां

    न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम् ।

नान्यत्त्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं

    मायागुणव्यतिकराद् यदुरुर्विभासि ॥ १ ॥

रूपं यदेतदवबोधरसोदयेन ।

    शश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।

आदौ गृहीतमवतारशतैकबीजं ।

    यन्नाभिपद्मभवनाद् अहमाविरासम् ॥ २ ॥

नातः परं परम यद्‍भवतः स्वरूपम् ।

    आनन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्चः ।

पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन् ।

    भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाश्रितोऽस्मि ॥ ३ ॥

तद्वा इदं भुवनमङ्गल मङ्गलाय ।

    ध्याने स्म नो दर्शितं त उपासकानाम् ।

तस्मै नमो भगवतेऽनुविधेम तुभ्यं ।

    योऽनादृतो नरकभाग्भिरसत्प्रसङ्गैः ॥ ४ ॥

ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं ।

    जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् ।

भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां ।

    नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥ ५ ॥

तावद्‍भयं द्रविणगेहसुहृन्निमित्तं ।

    शोकः स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभः ।

तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलं ।

    यावन्न तेऽङ्‌घ्रिमभयं प्रवृणीत लोकः ॥ ६ ॥

दैवेन ते हतधियो भवतः प्रसङ्गात् ।

    सर्वाशुभोपशमनाद् विमुखेन्द्रिया ये ।

कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीना ।

    लोभाभिभूतमनसोऽकुशलानि शश्वत् ॥ ७ ॥

क्षुत्तृट्‌त्रधातुभिरिमा मुहुरर्द्यमानाः ।

    शीतोष्णवातवर्षैरितरेतराच्च ।

कामाग्निनाच्युत रुषा च सुदुर्भरेण ।

    सम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे ॥ ८ ॥

यावत् पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ ।

    मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।

तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसङ्क्रमेत ।

    व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रियार्था ॥ ९ ॥

अह्न्यापृतार्तकरणा निशि निःशयाना ।

    नानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्राः ।

दैवाहतार्थरचना ऋषयोऽपि देव ।

    युष्मत् प्रसङ्गविमुखा इह संसरन्ति ॥ १० ॥

ब्रम्हाजी ने कहा ;- आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो! कैसे दुर्भाग्य की बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरुप को नहीं जान पाते। भगवन्! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरुपतः सत्य नहीं है, क्योंकि माया के गुणों के क्षुभित होने के कारण केवल आप ही अनेकों रूपों में प्रतीत हो रहे हैं।

देव! आपकी चित्त शक्ति के प्रकाशित रहने के कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभिकमल से मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारों का मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है। परमात्मन्! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरुप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्व की रचना करने वाले होने पर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूप की ही शरण ली है। यही सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियों का भी अधिष्ठान है। हे विश्वकल्याणमय! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हित के लिये ही मुझे ध्यान में अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूप में बार-बार नमस्कार करता हूँ। मेरे स्वामी! जो लोग वेद रूप वायु से लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोश की गन्ध को अपने कर्णपुटों से ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनों के ह्रदय-कमल से आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्ति रूप डोरी से आपके पादपद्मों को बाँध लेते हैं।

जब तक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दों का आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे धन, घर और बन्धुजनों के कारण प्राप्त होने वाले, भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभी तक उसे मैं-मेरेपन का दुराग्रह रहता है, जो दुःख का एकमात्र का कारण है। जो लोग सब प्रकार के अमंगलों को नष्ट करने वाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसंगों से इन्द्रियों को हटाकर लेशमात्र विषय-सुख के लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कर्मों में लगे रहते हैं, उन बेचारों की बुद्धि दैव ने हर ली है। अच्युत! उरुक्रम! इस प्रजा को भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गरमी, हवा और वर्षा से, परसपर एक-दूसरे से तथा कामाग्नि और दुःसह क्रोध से बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है।

स्वामिन्! जब तक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी माया के प्रभाव से आपसे अपने को भिन्न देखता है, तब तक उसके लिये इस संसार चक्र की निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्म फल भोग का क्षेत्र होने के कारण उसे नाना प्रकार के दुःखों में डालता रहता है। देव! औरों की तो बात ही क्याजो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथा प्रसंग से विमुख रहते हैं तो उन्हें संसार में फँसना पड़ता है। वे दिन में अनेक प्रकार के व्यापारों के कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रि में निद्रा में अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरह के मनोरथों के कारण क्षण-क्षण में उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैवदेश उनकी अर्थ सिद्धि के सा उद्दोग भी विफल होते रहते हैं।

त्वं भक्तियोगपरिभावितहृत्सरोज ।

    आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।

यद् यद् धिया ते उरुगाय विभावयन्ति ।

    तत्तद् वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥ ११ ॥

नातिप्रसीदति तथोपचितोपचारैः ।

    आराधितः सुरगणैर्हृदि बद्धकामैः ।

यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैको ।

    नानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥ १२ ॥

पुंसामतो विविधकर्मभिरध्वराद्यैः ।

    दानेन चोग्रतपसा परिचर्यया च ।

आराधनं भगवतस्तव सत्क्रियार्थो ।

    धर्मोऽर्पितः कर्हिचिद् ध्रियते न यत्र ॥ १३ ॥

शश्वत्स्वरूपमहसैव निपीतभेद ।

    मोहाय बोधधिषणाय नमः परस्मै ।

विश्वोद्‍भवस्थितिलयेषु निमित्तलीला ।

    रासाय ते नम इदं चकृमेश्वराय ॥ १४ ॥

यस्यावतार गुणकर्मविडम्बनानि ।

    नामानि येऽसुविगमे विवशा गृणन्ति ।

तेऽनैकजन्मशमलं सहसैव हित्वा ।

    संयान्त्यपावृतामृतं तमजं प्रपद्ये ॥ १५ ॥

यो वा अहं च गिरिशश्च विभुः स्वयं च ।

    स्थित्युद्‍भवप्रलयहेतव आत्ममूलम् ।

भित्त्वा त्रिपाद्‌ववृध एक उरुप्ररोहः ।

    तस्मै नमो भगवते भुवनद्रुमाय ॥ १६ ॥

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः ।

    कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।

यस्तावदस्य बलवान् इह जीविताशां ।

    सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ १७ ॥

यस्माद्‍बिभेम्यहमपि द्विपरार्धधिष्ण्यं ।

    अध्यासितः सकललोकनमस्कृतं यत् ।

तेपे तपो बहुसवोऽवरुरुत्समानः ।

    तस्मै नमो भगवतेऽधिमखाय तुभ्यम् ॥ १८ ॥

तिर्यङ्‌मनुष्यविबुधादिषु जीवयोनि ।

    ष्वात्मेच्छयात्मकृतसेतुपरीप्सया यः ।

रेमे निरस्तविषयोऽप्यवरुद्धदेहः ।

    तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥ १९ ॥

नाथ! आपका मार्ग केवल गुण श्रवण से ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्यों के भक्तियोग के द्वारा परिशुद्ध हुए ह्रदयकमल में निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभो! आपके भक्तजन जिस-जिस भावना से आपका चिन्तन करते है, उन साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये आप वही-वही रूप धारण कर लेते हैं। भगवन्! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा हैं।

इसलिये यदि देवता लोग भी ह्रदय में तरह-तरह की कामनाएँ रखकर भाँति-भाँति की विपुल सामग्रियों से आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियों पर दया करने से होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ हैं। जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होतावह अक्षय हो जाता है। अतः नाना प्रकार के कर्मयज्ञ, दान, कठिन तपस्या और व्रतादि के द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्म फल है, क्योंकि आपकी प्रसन्नता होने पर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता। आप सर्वदा अपने स्वरुप के प्रकाश से ही प्राणियों से भेद-भ्रमरूप अन्धकार का नाश करते रहते हैं तथा ज्ञान के अधिष्ठान साक्षात् परम पुरुष हैं; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के निमित्त से जो माया की लीला होती है, वह आपका ही खेल है; अतः आप परमेश्वर को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। जो लोग प्राण त्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कर्मों को सूचित करने वाले देवकीनन्दन, जनार्दन, कंसनिकन्दन आदि नामों का विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर मायादि आवरणों से रहित ब्रम्ह पद प्राप्त करते हैं।

आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ। भगवन्! इस विश्व वृक्ष के रूप में आप ही विराजमान हैं। आप ही अपनी मूल प्रकृति को स्वीकार करके जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये मेरे, अपने और महादेवजी के रूप में तीन प्रधान शाखाओं में विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा-प्रशाखाओं के के रूप में फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। भगवन्! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओर से उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मों में लगे रहते हैं। ऐसी प्रमाद की अवस्था में पड़े हुए इस जीवों की जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रता से काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ। यद्यपि मैं सत्यलोक का अधिष्ठाता हूँ, जो दो परार्द्ध पर्यन्त रहने वाला और समस्त लोकों का वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हूँ।

उससे बचने और आपको प्राप्त करने के लिये ही मैंने बहुत समय तक तपस्या की है। आप ही अधियज्ञ रूप से मेरी इस तपस्या के साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता । आप पूर्णकाम हैं, आपको किसी विषयसुख की इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादा की रक्षा के लिये पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीव योनियों में अपनी ही इच्छा से शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान् को मेरा नमस्कार है।

योऽविद्ययानुपहतोऽपि दशार्धवृत्त्या ।

    निद्रामुवाह जठरीकृतलोकयात्रः ।

अन्तर्जलेऽहिकशिपुस्पर्शानुकूलां ।

    भीमोर्मिमालिनि जनस्य सुखं विवृण्वन् ॥ २० ॥

यन्नाभिपद्मभवनाद् अहमासमीड्य ।

    लोकत्रयोपकरणो यदनुग्रहेण ।

तस्मै नमस्त उदरस्थभवाय योग ।

    निद्रावसानविकसन् नलिनेक्षणाय ॥ २१ ॥

सोऽयं समस्तजगतां सुहृदेक आत्मा ।

    सत्त्वेन यन्मृडयते भगवान् भगेन ।

तेनैव मे दृशमनुस्पृशताद्यथाहं ।

    स्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणतप्रियोऽसौ ॥ २२ ॥

एष प्रपन्नवरदो रमयात्मशक्त्या ।

    यद्यत् करिष्यति गृहीतगुणावतारः ।

तस्मिन्स्वविक्रममिदं सृजतोऽपि चेतो ।

    युञ्जीत कर्मशमलं च यथा विजह्याम् ॥ २३ ॥

नाभिह्रदादिह सतोऽम्भसि यस्य पुंसो ।

    विज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्तेः ।

रूपं विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मे ।

    मा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्गः ॥ २४ ॥

सोऽसौ अदभ्रकरुणो भगवान् विवृद्ध ।

    प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरुहं विजृम्भन् ।

उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादं ।

    माध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराणः ॥ २५ ॥

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

स्वसम्भवं निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभिः ।

यावन्मनोवचः स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत् ॥ २६ ॥

अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य ब्रह्मणो मधुसूदनः ।

विषण्णचेतसं तेन कल्पव्यतिकराम्भसा ॥ २७ ॥

लोकसंस्थानविज्ञान आत्मनः परिखिद्यतः ।

तमाहागाधया वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥ २८ ॥

श्रीभगवानुवाच -

मा वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।

तन्मयाऽऽपादितं ह्यग्रे यन्मां प्रार्थयते भवान् ॥ २९ ॥

भूयस्त्वं तप आतिष्ठ विद्यां चैव मदाश्रयाम् ।

ताभ्यां अन्तर्हृदि ब्रह्मन् लोकान् द्रक्ष्यसि अपावृतान् ॥ ३० ॥

तत आत्मनि लोके च भक्तियुक्तः समाहितः ।

द्रष्टासि मां ततं ब्रह्मन् मयि लोकान् त्वमात्मनः ॥ ३१ ॥

यदा तु सर्वभूतेषु दारुष्वग्निमिव स्थितम् ।

प्रतिचक्षीत मां लोको जह्यात्तर्ह्येव कश्मलम् ॥ ३२ ॥

यदा रहितमात्मानं भूतेन्द्रियगुणाशयैः ।

स्वरूपेण मयोपेतं पश्यन् स्वाराज्यमृच्छति ॥ ३३ ॥

प्रभो! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेशपाँचों में से किसी के भी अधीन नहीं हैं; तथापि इस समय जो सारे संसार को अपने उदर में लीनकर भयंकर तरंगमालाओं से विक्षुब्ध प्रलयकालीन जल में अनन्त विग्रह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्प की कर्म परम्परा से श्रमित हुए जीवों को विश्राम देने के लिये ही हैं। आपके नाभिकमल रूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदर में समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मैं त्रिलोकी की रचना रूप उपकारों में प्रवृत्त हुआ हूँ।

इस समय योगनिद्रा का अन्त हो जाने के कारण आपके नेत्रकमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है। आप सम्पूर्ण जगत् के एकमात्र सुहृद् और आत्मा हैं तथा शरणागतों पर कृपा करने वाले हैं। अतः अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्य से आप विश्व को आनन्दित करते हैं, उसी से मेरी बुद्धि को भी युक्त करेंजिससे मैं पूर्वकल्प के समान इस समय भी जगत् की रचना कर सकूँ। आप भक्तवांछाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजी के सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, मेरा यह जगत् की रचना करने का उद्दम भी उन्हीं में से एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करेंशक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टि रचना विषयक अभिमान रूप मल से दूर रह सकूँ। प्रभो! इस प्रलयकालीन जल में शयन करते हुए आप अनन्त शक्ति परमपुरुष के नाभिकमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी विज्ञान शक्ति; अतः इस जगत् के विचित्र रूप का विस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेद रूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो। आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकान के सहित अपने नेत्र कमल खोलिये और शेष शय्या से उठकर विश्व के उद्धव के लिये अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर कीजिये।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;- विदुरजी! इस प्रकार तप, विद्या और समाधि के द्वारा अपने उत्पत्ति स्थान श्रीभगवान् को देखकर तथा अपने मन और वाणी की शक्ति के अनुसार उनकी स्तुति कर ब्रम्हाजी थके-से होकर मौन हो गये। श्रीमधुसूदन भगवान् ने देखा कि ब्रम्हाजी इस प्रलयजलराशि से बहुत घबराये हुए हैं तथा लोक रचना के विषय में कोई निश्चित विचार न होने के कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्राय को जानकर वे अपनी गम्भीर वाणी से उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा ;- वेदगर्भ! तुम विषाद के वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टि रचना के उद्दम में तत्पर हो जाओ। तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले ही कर चुका हूँ। तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञान का अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकों को स्पष्टतया अपने अन्तःकरण में देखो। फिर भक्तियुक्त और समाहित चित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने में मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे। जिस समय जीव काष्ठ में व्याप्त अग्नि के समान समस्त भूतों में मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मल से मुक्त हो जाता है। जब वह अपने को भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरण से रहित तथा स्वरुपतः मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।

नानाकर्मवितानेन प्रजा बह्वीः सिसृक्षतः ।

नात्मावसीदत्यस्मिन् ते वर्षीयान् मदनुग्रहः ॥ ३४ ॥

ऋषिमाद्यं न बध्नाति पापीयान् त्वां रजोगुणः ।

यन्मनो मयि निर्बद्धं प्रजाः संसृजतोऽपि ते ॥ ३५ ॥

ज्ञातोऽहं भवता त्वद्य दुर्विज्ञेयोऽपि देहिनाम् ।

यन्मां त्वं मन्यसेऽयुक्तं भूतेन्द्रियगुणात्मभिः ॥ ३६ ॥

तुभ्यं मद्विचिकित्सायां आत्मा मे दर्शितोऽबहिः ।

नालेन सलिले मूलं पुष्करस्य विचिन्वतः ॥ ३७ ॥

यच्चकर्थाङ्ग मत्स्तोत्रं मत्कथा अभ्युदयांकितम् ।

यद्वा तपसि ते निष्ठा स एष मदनुग्रहः ॥ ३८ ॥

प्रीतोऽहमस्तु भद्रं ते लोकानां विजयेच्छया ।

यद् अस्तौषीर्गुणमयं निर्गुणं मानुवर्णयन् ॥ ३९ ॥

य एतेन पुमान्नित्यं स्तुत्वा स्तोत्रेण मां भजेत् ।

तस्याशु सम्प्रसीदेयं सर्वकामवरेश्वरः ॥ ४० ॥

पूर्तेन तपसा यज्ञैः दानैर्योगसमाधिना ।

राद्धं निःश्रेयसं पुंसां मत्प्रीतिः तत्त्वविन्मतम् ॥ ४१ ॥

अहमात्मात्मनां धातः प्रेष्ठः सन् प्रेयसामपि ।

अतो मयि रतिं कुर्याद् देहादिर्यत्कृते प्रियः ॥ ४२ ॥

सर्ववेदमयेनेदं आत्मनाऽऽत्माऽऽत्मयोनिना ।

प्रजाः सृज यथापूर्वं याश्च मय्यनुशेरते ॥ ४३ ॥

मैत्रेय उवाच -

तस्मा एवं जगत्स्रष्ट्रे प्रधानपुरुषेश्वरः ।

व्यज्येदं स्वेन रूपेण कञ्जनाभस्तिरोदधे ॥ ४४ ॥

ब्रम्हाजी! नाना प्रकार के कर्म संस्कारों के अनुसार अनेक प्रकार की जीव सृष्टि को रचने की इच्छा होने पर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपा का ही फल है। तुम सबसे पहले मन्त्र द्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझमें ही लगा रहता है, इसी से पापमय रजोगुण तुमको बाँध नहीं पाता। तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरण से रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है कि यद्यपि देहधारी जीवों को मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुमने मुझे जान लिया। मेरा आश्रय कोई है या नहींइस सन्देह से तुम कमलनाल के द्वारा जल में उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरुप अन्तःकरण में ही दिखलाया है। प्यारे ब्रम्हाजी! तुमने जो मेरी कथाओं के वैभव से युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्या में जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपा का फल है। लोक रचना की इच्छा से तुमने सगुण प्रतीत होने पर भी जो निर्गुण रूप से मेरा वर्णन करते हुए स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; तुम्हारा कल्याण हो। मैं समस्त कामनाओं और मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ हूँ। जो पुरुष नित्य प्रति इस स्त्रोत द्वारा स्तुति करके मेरा भजन करेगा, उस पर मैं शीघ्र ही प्रसन्न हो जाऊँगा।

तत्ववेत्ताओं का मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनों से प्राप्त होने वाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है। विधाता! मैं आत्माओं का भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियों का भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं। अतः मुझसे ही प्रेम करना चाहिये। ब्रम्हाजी! त्रिलोकी को तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्वकल्प के समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने सर्वदेवमय स्वरुप से स्वयं ही रचो।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;- प्रकृति और पुरुष के स्वामी कमलनाभ भगवान् सृष्टिकर्ता ब्रम्हाजी को इस प्रकार जगत् की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूप से अदृश्य हो गये।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

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