श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ४
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
४ "दक्ष के द्वारा भगवान् की स्तुति और भगवान् का प्रादुर्भाव"
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
४
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः
४
श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध चौथा अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥
राजोवाच
देवासुरनृणां सर्गो नागानां
मृगपक्षिणाम् ।
सामासिकस्त्वया प्रोक्तो यस्तु
स्वायम्भुवेऽन्तरे ॥ १॥
तस्यैव व्यासमिच्छामि ज्ञातुं ते
भगवन् यथा ।
अनुसर्गं यया शक्त्या ससर्ज भगवान्
परः ॥ २॥
राजा परीक्षित ने पूछा ;-
भगवन्! आपने संक्षेप से (तीसरे स्कन्ध में) इस बात का वर्णन किया कि
स्वयाम्भुव मन्वन्तर में देवता, असुर, मनुष्य,
सर्प और पशु-पक्षी आदि की सृष्टि कैसे हुई। अब मैं उसी का विस्तार
जानना चाहता हूँ। प्रकृति आदि कारणों के भी परम कारण भगवान् अपनी जिस शक्ति से जिस
प्रकार उसके बाद की सृष्टि करते हैं, उसे जानने की भी मेरी
इच्छा है।
सूत उवाच
इति सम्प्रश्नमाकर्ण्य
राजर्षेर्बादरायणिः ।
प्रतिनन्द्य महायोगी जगाद
मुनिसत्तमाः ॥ ३॥
सूत जी कहते हैं ;-
शौनकादि ऋषियो! परमयोगी व्यासनन्दन श्रीशुकदेव जी ने राजर्षि
परीक्षित का यह सुन्दर प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा।
श्रीशुक उवाच
यदा प्रचेतसः पुत्रा दश
प्राचीनबर्हिषः ।
अन्तःसमुद्रादुन्मग्ना ददृशुर्गां
द्रुमैर्वृताम् ॥ ४॥
द्रुमेभ्यः क्रुध्यमानास्ते
तपोदीपितमन्यवः ।
मुखतो वायुमग्निं च
ससृजुस्तद्दिधक्षया ॥ ५॥
ताभ्यां निर्दह्यमानांस्तानुपलभ्य
कुरूद्वह ।
राजोवाच महान् सोमो मन्युं
प्रशमयन्निव ॥ ६॥
न द्रुमेभ्यो महाभागा दीनेभ्यो
द्रोग्धुमर्हथ ।
विवर्धयिषवो यूयं प्रजानां पतयः
स्मृताः ॥ ७॥
अहो प्रजापतिपतिर्भगवान् हरिरव्ययः
।
वनस्पतीनोषधीश्च ससर्जोर्जमिषं
विभुः ॥ ८॥
अन्नं चराणामचरा ह्यपदः पादचारिणाम्
।
अहस्ता हस्तयुक्तानां द्विपदां च
चतुष्पदः ॥ ९॥
यूयं च पित्रान्वादिष्टा देवदेवेन
चानघाः ।
प्रजासर्गाय हि कथं वृक्षान्
निर्दग्धुमर्हथ ॥ १०॥
आतिष्ठत सतां मार्गं कोपं यच्छत
दीपितम् ।
पित्रा पितामहेनापि जुष्टं वः
प्रपितामहैः ॥ ११॥
तोकानां पितरौ बन्धू दृशः पक्ष्म
स्त्रियाः पतिः ।
पतिः प्रजानां भिक्षूणां
गृह्यज्ञानां बुधः सुहृत् ॥ १२॥
अन्तर्देहेषु भूतानामात्माऽऽस्ते
हरिरीश्वरः ।
सर्वं तद्धिष्ण्यमीक्षध्वमेवं
वस्तोषितो ह्यसौ ॥ १३॥
यः समुत्पतितं देह
आकाशान्मन्युमुल्बणम् ।
आत्मजिज्ञासया यच्छेत्स
गुणानतिवर्तते ॥ १४॥
अलं दग्धैर्द्रुमैर्दीनैः खिलानां
शिवमस्तु वः ।
वार्क्षी ह्येषा वरा कन्या
पत्नीत्वे प्रतिगृह्यताम् ॥ १५॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
राजा प्राचीनबर्हि के दस लड़के-जिनका नाम प्रचेता था-जब समुद्र से
बाहर निकले, तब उन्होंने देखा कि हमारे पिता के
निवृत्तिपरायण हो जाने से सारी पृथ्वी पेड़ों से घिर गयी है। उन्हें वृक्षों पर
बड़ा क्रोध आया। उनके तपोबल ने तो मानो क्रोध की आग में आहुति ही डाल दी। बस,
उन्होंने वृक्षों को जला डालने के लिये अपने मुख से वायु और अग्नि
की सृष्टि की।
परीक्षित! जब प्रचेताओं की छोड़ी
हुई अग्नि और वायु उन वृक्षों को जलाने लगी, तब
वृक्षों के राजाधिराज चन्द्रमा ने उनका क्रोध शान्त करते हुए इस प्रकार कहा- ‘महाभाग्यवान् प्रचेताओं! ये वृक्ष बड़े दीन हैं। आप लोग इनसे द्रोह मत
कीजिये; क्योंकि आप तो प्रजा की अभिवृद्धि करना चाहते हैं और
सभी जानते हैं कि आप प्रजापति हैं। महात्मा प्रचेताओं! प्रजापतियों के अधिपति
अविनाशी भगवान् श्रीहरि ने सम्पूर्ण वनस्पतियों और ओषधियों को प्रजा के हितार्थ
उनके खान-पान के लिये बनाया है। संसार में पंखों से उड़ने वाले चर प्राणियों के
भोजन फल-पुष्पादि अचर पदार्थ हैं। पैर से चलने वालों के घास-तृणादि बिना पैर वाले
पदार्थ भोजन हैं; हाथ वालों के वृक्ष-लता आदि बिना हाथ वाले
और दो पैर वाले मनुष्यादि के लिये धान, गेहूँ आदि अन्न भोजन
हैं। चार पैर वाले बैल, ऊँट आदि खेती प्रभृति के द्वारा अन्न
की उत्पत्ति में सहायक हैं।
निष्पाप प्रेचाताओं! आपके पिता और
देवाधिदेव भगवान् ने आप लोगों को यह आदेश दिया है कि प्रजा की सृष्टि करो। ऐसी
स्थिति में आप वृक्षों को जला डालें, यह
कैसे उचित हो सकता है। आप लोग अपना क्रोध शान्त करें और अपने पिता, पितामह, प्रपितामह आदि के द्वारा सेवित सत्पुरुषों
के मार्ग का अनुसरण करें। जैसे माँ-बाप बालकों की, पलकें
नेत्रों की, पति पत्नी की, गृहस्थ
भिक्षुकों की और ज्ञानी अज्ञानियों की रक्षा करते हैं और उनका हित चाहते हैं- वैसे
ही प्रजा की रक्षा और हित का उत्तरदायी राजा होता है। प्रचेताओं! समस्त प्राणियों
के हृदय में सर्वशक्तिमान् भगवान् आत्मा के रूप में विराजमान हैं। इसलिये आप लोग
सभी को भगवान् का निवास स्थान समझें। यदि आप ऐसा करेंगे तो भगवान् को प्रसन्न कर
लेंगे। जो पुरुष हृदय के उबलते हुए भयंकर क्रोध को आत्मविचार के द्वारा शरीर में
ही शान्त कर लेता है, बाहर नहीं निकलने देता, वह कालक्रम से तीनों गुणों पर विजय प्राप्त कर लेता है।
प्रचेताओं! इन दीन-हीन वृक्षों को
और न जलाइए; जो कुछ बच रहे हैं, उनकी रक्षा कीजिये। इससे आपका कल्याण होगा। इस श्रेष्ठ कन्या का पालन इन
वृक्षों ने ही किया है, इसे आप लोग पत्नी के रूप में स्वीकार
कीजिये’।
इत्यामन्त्र्य वरारोहां
कन्यामाप्सरसीं नृप ।
सोमो राजा ययौ दत्त्वा ते
धर्मेणोपयेमिरे ॥ १६॥
तेभ्यस्तस्यां समभवद्दक्षः
प्राचेतसः किल ।
यस्य प्रजाविसर्गेण लोका
आपूरितास्त्रयः ॥ १७॥
यथा ससर्ज भूतानि दक्षो
दुहितृवत्सलः ।
रेतसा मनसा चैव तन्ममावहितः श्रृणु
॥ १८॥
मनसैवासृजत्पूर्वं प्रजापतिरिमाः
प्रजाः ।
देवासुरमनुष्यादीन् नभःस्थलजलौकसः ॥
१९॥
तमबृंहितमालोक्य प्रजासर्गं
प्रजापतिः ।
विन्ध्यपादानुपव्रज्य
सोऽचरद्दुष्करं तपः ॥ २०॥
तत्राघमर्षणं नाम तीर्थं पापहरं
परम् ।
उपस्पृश्यानुसवनं तपसातोषयद्धरिम् ॥
२१॥
अस्तौषीद्धंसगुह्येन
भगवन्तमधोक्षजम् ।
तुभ्यं तदभिधास्यामि
कस्यातुष्यद्यथा हरिः ॥ २२॥
परीक्षित! वनस्पतियों के राजा
चन्द्रमा ने प्रचेताओं को इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें प्रम्लोचा अप्सरा की
सुन्दरी कन्या दे दी और वे वहाँ से चले गये। प्रचेताओं ने धर्मानुसार उसका
पाणिग्रहण किया। उन्हीं प्रचेताओं के द्वारा उस कन्या के गर्भ से प्राचेतस् दक्ष
की उत्पत्ति हुई। फिर दक्ष की प्रजा-सृष्टि से तीनों लोक भर गये। इनका अपनी
पुत्रियों पर बड़ा प्रेम था। इन्होंने जिस प्रकार अपने संकल्प और वीर्य से विविध
प्राणियों की सृष्टि की, वह मैं सुनाता हूँ,
तुम सावधान होकर सुनो।
परीक्षित! पहले प्रजापति दक्ष ने जल,
थल और आकाश में रहने वाले देवता, असुर एवं
मनुष्य आदि प्रजा की सृष्टि अपने संकल्प से ही की। जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि
बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचल के निकटवर्ती
पर्वतों पर जाकर बड़ी घोर तपस्या की। वहाँ एक अत्यन्त श्रेष्ठ तीर्थ है, उसका नाम है- अघमर्षण। वह सारे पापों को धो बहाता है। प्रजापति दक्ष उस
तीर्थ में त्रिकाल स्नान करते और तपस्या के द्वारा भगवान् की आराधना करते।
प्रजापति दक्ष ने इंद्रियातीत भगवान की 'हंसगुह्य' नामक स्तोत्र से स्तुति की थी। उसी से भगवान उन पर प्रसन्न हुए थे। मैं
तुम्हें वह स्तुति सुनाता हूँ।
प्रजापतिरुवाच
नमः परायावितथानुभूतये
गुणत्रयाभासनिमित्तबन्धवे ।
अदृष्टधाम्ने गुणतत्त्वबुद्धिभि-
र्निवृत्तमानाय दधे स्वयम्भुवे ॥
२३॥
न यस्य सख्यं पुरुषोऽवैति सख्युः
सखा वसन् संवसतः पुरेऽस्मिन् ।
गुणो यथा गुणिनो व्यक्तदृष्टे-
स्तस्मै महेशाय नमस्करोमि ॥ २४॥
देहोऽसवोऽक्षा मनवो भूतमात्रा
नात्मानमन्यं च विदुः परं यत् ।
सर्वं पुमान् वेद गुणांश्च तज्ज्ञो
न वेद सर्वज्ञमनन्तमीडे ॥ २५॥
यदोपरामो मनसो नामरूप-
रूपस्य दृष्टस्मृतिसम्प्रमोषात् ।
य ईयते केवलया स्वसंस्थया
हंसाय तस्मै शुचिसद्मने नमः ॥ २६॥
मनीषिणोऽन्तर्हृदि सन्निवेशितं
स्वशक्तिभिर्नवभिश्च त्रिवृद्भिः ।
वह्निं यथा दारुणि पाञ्चदश्यं
मनीषया निष्कर्षन्ति गूढम् ॥ २७॥
दक्ष प्रजापति ने इस प्रकार स्तुति
की- भगवन्! आपकी अनुभूति, आपकी चित्त-शक्ति
अमोघ है। आप जीव और प्रकृति से परे, उनके नियन्ता और उन्हें
सत्तास्फूर्ति देने वाले हैं। जिन जीवों ने त्रिगुणमयी सृष्टि को ही वास्तविक सत्य
समझ रखा है, वे आपके स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर सके हैं;
क्योंकि आप तक किसी भी प्रमाण की पहुँच नहीं है-आपकी कोई अवधि,
कोई सीमा नहीं है। आप स्वयं प्रकाश और परात्पर हैं। मैं आपको
नमस्कार करता हूँ। यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरे के सखा हैं तथा इसी शरीर में इकट्ठे
ही निवास करते हैं; परन्तु जीव सर्वशक्तिमान् आपके सख्यभाव
को नहीं जानता-ठीक वैसे ही, जैसे रूप, रस,
गन्ध आदि विषय अपने प्रकाशित करने वाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियों को नहीं जानते। क्योंकि आप जीव और जगत् के
द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं। महेश्वर! मैं आपके श्रीचरणों में
नमस्कार करता हूँ।
देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरण की
वृत्तियाँ, पंचमहाभूत और उनकी तन्मात्राएँ- ये सब जड़ होने
के कारण अपने को और अपने से अतिरिक्त को भी नहीं जानते। परन्तु जीव इन सबको और
इनके कारण सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों को भी जानता है।
परन्तु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूप से आपको नहीं जान सकता। क्योंकि आप ही सबके
ज्ञाता और अनन्त हैं। इसलिये प्रभो! मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ। जब
समाधिकाल में प्रमाण, विकल्प और विपर्यरूप विविध ज्ञान और
स्मरणशक्ति का लोप हो जाने से इस नाम-रूपात्मक जगत् का निरूपण करने वाला मन उपरत
हो जाता है, उस समय बिना मन के भी केवल सच्चिदानन्दमयी अपनी
स्वरूप स्थिति के द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं।
प्रभो! आप शुद्ध हैं और शुद्ध
हृदय-मन्दिर ही आपका निवास स्थान है। आपको मेरा नमस्कार है। जैसे याज्ञिक लोग
काष्ठ में छिपे हुए अग्नि को ‘सामिधेनी’
नाम के पन्द्रह मन्त्रों के द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताईस शक्तियों के भीतर गूढ़भाव से छिपे हुए
आपको अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा हृदय में ही ढूँढ निकालते हैं।
स वै ममाशेषविशेषमाया-
निषेधनिर्वाणसुखानुभूतिः ।
स सर्वनामा स च विश्वरूपः
प्रसीदतामनिरुक्तात्मशक्तिः ॥ २८॥
यद्यन्निरुक्तं वचसा निरूपितं
धियाक्षभिर्वा मनसोऽत यस्य ।
मा भूत्स्वरूपं गुणरूपं हि तत्त-
त्स वै गुणापायविसर्गलक्षणः ॥ २९॥
यस्मिन् यतो येन च यस्य यस्मै
यद्यो यथा कुरुते कार्यते च ।
परावरेषां परमं प्राक्प्रसिद्धं
तद्ब्रह्म तद्धेतुरनन्यदेकम् ॥ ३०॥
यच्छक्तयो वदतां वादिनां वै
विवादसंवादभुवो भवन्ति ।
कुर्वन्ति चैषां मुहुरात्ममोहं
तस्मै नमोऽनन्तगुणाय भूम्ने ॥ ३१॥
अस्तीति नास्तीति च वस्तुनिष्ठयो-
रेकस्थयोर्भिन्नविरुद्धधर्मयोः ।
अवेक्षितं किञ्चन योगसाङ्ख्ययोः
समं परं ह्यनुकूलं बृहत्तत् ॥ ३२॥
योऽनुग्रहार्थं भजतां पादमूल-
मनामरूपो भगवाननन्तः ।
नामानि रूपाणि च जन्मकर्मभि-
र्भेजे स मह्यं परमः प्रसीदतु ॥ ३३॥
यः प्राकृतैर्ज्ञानपथैर्जनानां
यथाशयं देहगतो विभाति ।
यथानिलः पार्थिवमाश्रितो गुणं
स ईश्वरो मे कुरुतान्मनोरथम् ॥ ३४॥
जगत् में जितनी भिन्नताएँ देख पड़ती
हैं,
वे सब माया की ही हैं। माया का निषेध कर देने पर केवल परमसुख के
साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परन्तु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूप में माया की उपलब्धि-निर्वचन नहीं हो सकता। अर्थात् माया
भी आप ही हैं। अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं।
प्रभो! आप मुझ पर प्रसन्न होइये।
मुझे आत्मप्रसाद से पूर्ण कर दीजिये। प्रभो! जो कुछ वाणी से कहा जाता है अथवा जो
कुछ मन,
बुद्धि और इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है, वह
आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणों
की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान हैं। आपमें केवल उनकी प्रतीतिमात्र है।
भगवन्! आपमें ही यह सारा जगत् स्थित
है;
आपसे ही निकला है और आपने-और किसी के सहारे नहीं-अपने-आप से ही इसका
निर्माण किया है। यह आपका ही है और आपके लिये ही है। इसके रूप में बनने वाले भी आप
हैं और बनाने वाले भी आप ही हैं। बनने-बनाने की विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम
लेने वाले भी हैं। जब कार्य और कारण का भेद नहीं था, तब भी
आप स्वयंसिद्ध स्वरूप से स्थित थे। इसी से आप सबके कारण भी हैं। सच्ची बात तो यह
है कि आप जीव-जगत के भेद और स्वगत भेद से सर्वथा रहित एक, अद्वितीय
हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। आप मुझ पर प्रसन्न हों।
प्रभो! आपकी ही शक्तियाँ
वादी-प्रतिवादियों के विवाद और संवाद (ऐकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार
मोह में डाल दिया करती हैं। आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणों से युक्त एवं स्वयं
अनन्त हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। भगवन्! उपासक लोग कहते हैं कि हमारे प्रभु
हस्त-पादादि से युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान्
हस्त-पादादि विग्रह से रहित-निराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तु के दो परस्पर
विरोधी धर्मों का वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी
उसमें विरोध नहीं है। क्योंकि दोनों एक ही परमवस्तु में स्थित हैं। बिना आधार के
हाथ-पैर आदि का होना सम्भव नहीं और निषेध की भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिये। आप
वही आधार और निषेध की अवधि हैं। इसलिये आप साकार, निराकार
दोनों से ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं।
प्रभो! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई
प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप; फिर
भी जो आपके चरणकमलों का भजन करते हैं, उन पर अनुग्रह करने के
लिये आप अनेक रूपों में प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं
लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन्! आप मुझ पर कृपा-प्रसाद
कीजिये। लोगों की उपासनाएँ प्रायः साधारण कोटि की होती हैं। अतः आप सबके हृदय में
रहकर उनकी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप में प्रतीत होते रहते
हैं-ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्ध का आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है; परन्तु वास्तव में सुगन्धित नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओं का अनुसरण करने
वाले प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें।
श्रीशुक उवाच
इति स्तुतः संस्तुवतः स
तस्मिन्नघमर्षणे ।
आविरासीत्कुरुश्रेष्ठ भगवान्
भक्तवत्सलः ॥ ३५॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! विन्ध्याचल के अघमर्षण तीर्थ में जब प्रजापति दक्ष ने इस
प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनके सामने प्रकट
हुए।
कृतपादः सुपर्णांसे
प्रलम्बाष्टमहाभुजः ।
चक्रशङ्खासिचर्मेषु धनुःपाशगदाधरः ॥
३६॥
पीतवासा घनश्यामः प्रसन्नवदनेक्षणः
।
वनमालानिवीताङ्गो
लसच्छ्रीवत्सकौस्तुभः ॥ ३७॥
महाकिरीटकटकः स्फुरन्मकरकुण्डलः ।
काञ्च्यङ्गुलीयवलयनूपुराङ्गदभूषितः
॥ ३८॥
त्रैलोक्यमोहनं रूपं
बिभ्रत्त्रिभुवनेश्वरः ।
वृतो नारदनन्दाद्यैः पार्षदैः
सुरयूथपैः ॥ ३९॥
स्तूयमानोऽनुगायद्भिः
सिद्धगन्धर्वचारणैः ।
रूपं तन्महदाश्चर्यं
विचक्ष्यागतसाध्वसः ॥ ४०॥
ननाम दण्डवद्भूमौ प्रहृष्टात्मा
प्रजापतिः ।
न किञ्चनोदीरयितुमशकत्तीव्रया मुदा
।
आपूरितमनोद्वारैर्ह्रदिन्य इव
निर्झरैः ॥ ४१॥
तं तथावनतं भक्तं प्रजाकामं
प्रजापतिम् ।
चित्तज्ञः सर्वभूतानामिदमाह
जनार्दनः ॥ ४२॥
उस समय भगवान् गरुड़ के कंधों पर
चरण रखे हुए थे। विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट आठ भुजाएँ थीं;
उनके चक्र, शंख, तलवार,
ढाल, बाण, धनुष ,पाश और गदा धारण किये हुए। वर्षाकालीन मेघ के समन श्यामल शरीर पर पीताम्बर
फहरा रहा था। मुखमण्डल प्रफुल्लित था। नेत्रों से प्रमाद की वर्षा हो रही थी।
घुटनों तक वनमाला लटक रही थी। वक्षःस्थल पर सुनहरी रेखा-श्रीवत्स चिह्न और गले में
कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। बहुमूल्य किरीट, कंगन, मकराकृत कुण्डल, करधनी, अँगूठी,
कड़े, नूपुर और बाजूबंद अपने-अपने स्थान पर
सुशोभित थे।
त्रिभुवनपति भगवान् ने त्रैलोक्यविमोहन
रूप धारण कर रखा था। नारद, नन्द, सुनन्द आदि पार्षद उनके चारों ओर खड़े थे। इन्द्र आदि देवेश्वरगण स्तुति
कर रहे थे तथा सिद्ध, गन्धर्व और चारण भगवान् के गुणों का
गान कर रहे थे। यह अत्यन्त आश्चर्यमय और अलौलिक रूप देखकर दक्ष प्रजापति कुछ सहम
गये। प्रजापति दक्ष ने आनन्द से भरकर भगवान् के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया।
जैसे झरनों के जल से नदियाँ भर जाती हैं, वैसे ही परमानन्द
के उद्रेक से उनकी एक-एक इन्द्रिय भर गयी और आनन्द परवश हो जाने के कारण वे कुछ भी
बोल न सके।
परीक्षित! प्रजापति दक्ष अत्यन्त
नम्रता से झुककर भगवान् के सामने खड़े हो गये। भगवान् सबके हृदय की बात जानते ही
हैं,
उन्होंने दक्ष प्रजापति की भक्ति और प्रजावृद्धि की कामना देखकर
उनसे यों कहा।
श्रीभगवानुवाच
प्राचेतस महाभाग संसिद्धस्तपसा
भवान् ।
यच्छ्रद्धया मत्परया मयि भावं परं
गतः ॥ ४३॥
प्रीतोऽहं ते प्रजानाथ
यत्तेऽस्योद्बृंहणं तपः ।
ममैष कामो भूतानां
यद्भूयासुर्विभूतयः ॥ ४४॥
ब्रह्मा भवो भवन्तश्च मनवो
विबुधेश्वराः ।
विभूतयो मम ह्येता भूतानां
भूतिहेतवः ॥ ४५॥
तपो मे हृदयं ब्रह्मंस्तनुर्विद्या
क्रियाऽऽकृतिः ।
अङ्गानि क्रतवो जाता धर्म आत्मासवः
सुराः ॥ ४६॥
अहमेवासमेवाग्रे नान्यत्किञ्चान्तरं
बहिः ।
संज्ञानमात्रमव्यक्तं प्रसुप्तमिव
विश्वतः ॥ ४७॥
मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतो
गुणविग्रहः ।
यदासीत्तत एवाद्यः स्वयम्भूः
समभूदजः ॥ ४८॥
स वै यदा महादेवो मम वीर्योपबृंहितः
।
मेने खिलमिवात्मानमुद्यतः
सर्गकर्मणि ॥ ४९॥
अथ मेऽभिहितो देवस्तपोऽतप्यत
दारुणम् ।
नव विश्वसृजो युष्मान्
येनादावसृजद्विभुः ॥ ५०॥
एषा पञ्चजनस्याङ्ग दुहिता वै
प्रजापतेः ।
असिक्नी नाम पत्नीत्वे प्रजेश
प्रतिगृह्यताम् ॥ ५१॥
मिथुनव्यवायधर्मस्त्वं
प्रजासर्गमिमं पुनः ।
मिथुनव्यवायधर्मिण्यां भूरिशो
भावयिष्यसि ॥ ५२॥
त्वत्तोऽधस्तात्प्रजाः सर्वा
मिथुनीभूय मायया ।
मदीयया भविष्यन्ति हरिष्यन्ति च मे
बलिम् ॥ ५३॥
श्रीभगवान् ने कहा ;-
परम भाग्यवान् दक्ष! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी, क्योंकि मुझ पर श्रद्धा करने से तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति परम
प्रेमभाव का उदय हो गया है। प्रजापते! तुमने इस विश्व की वृद्धि के लिये तपस्या की
है, इसलिये मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। क्योंकि यह मेरी ही
इच्छा है कि जगत् के समस्त प्राणी अभिवृद्ध और समृद्ध हों। ब्रह्मा, शंकर, तुम्हारे जैसे प्रजापति, स्वयाम्भुव आदि मनु तथा इन्द्रादि देवेश्वर-ये सब मेरी विभूतियाँ हैं और
सभी प्राणियों की अभिवृद्धि करने वाले हैं।
ब्रह्मन्! तपस्या मेरा हृदय है,
विद्या शरीर है, कर्म आकृति है, यज्ञ अंग हैं, धर्म मन है और देवता प्राण हैं। जब यह
सृष्टि नहीं थी, तब केवल मैं ही था और वह भी निष्क्रिय रूप
में। बाहर-भीतर कहीं भी और कुछ न था। न तो कोई द्रष्टा था और न दृश्य। मैं केवल
ज्ञानस्वरूप और अव्यक्त था। ऐसा समझ लो, मानो सब ओर
सुषुप्ति-ही-सुषुप्ति छा रही हो। प्रिय दक्ष! मैं अनन्त गुणों का आधार एवं स्वयं
अनन्त हूँ। जब गुणमयी माया के क्षोभ से यह ब्रह्माण्ड-शरीर प्रकट हुआ, तब इसमें अयोनिज आदि पुरुष ब्रह्मा उत्पन्न हुए। जब मैंने उनमे शक्ति और
चेतना का संचार किया, तब देवशिरोमणि ब्रह्मा सृष्टि करने के
लिये उद्यत हुए। परन्तु उन्होंने अपने को सृष्टि कार्य में असमर्थ-सा पाया। उस समय
मैंने उन्हें आज्ञा दी कि तप करो। तब उन्होंने घोर तपस्या की और उस तपस्या के
प्रभाव से पहले-पहल तुम नौ प्रजापतियों की सृष्टि की।
प्रिय दक्ष! देखो,
यह पंचजन प्रजापति की कन्या असिक्नी है। इसे तुम अपनी पत्नी के रूप
में ग्रहण करो। अब तुम गृहस्थोचित स्त्री सहवासरूप धर्म को स्वीकार करो। यह
असिक्नी भी उसी धर्म को स्वीकार करेगी। तब तुम इसके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न
कर सकोगे। प्रजापते! अब तक तो मानसी सृष्टि होती थी, परन्तु
अब तुम्हारे बाद सारी प्रजा मेरी माया से स्त्री-पुरुष के संयोग से ही उत्पन्न
होगी तथा मेरी सेवा में तत्पर रहेगी।
श्रीशुक उवाच
इत्युक्त्वा मिषतस्तस्य भगवान्
विश्वभावनः ।
स्वप्नोपलब्धार्थ इव
तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ ५४॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
विश्व के जीवनदाता भगवान् श्रीहरि यह कहकर दक्ष के सामने ही इस
प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे स्वप्न में देखी हुई वस्तु
स्वप्न टूटते ही लुप्त हो जाती है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः
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