श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ३
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
३ "यम और यमदूतों का संवाद"
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
३
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः
३
श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध तीसरा अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः तृतीयोऽध्यायः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
राजोवाच
निशम्य देवः स्वभटोपवर्णितं
प्रत्याह किं तान् प्रति धर्मराजः ।
एवं हताज्ञो विहतान् मुरारे-
र्नैदेशिकैर्यस्य वशे जनोऽयम् ॥ १॥
यमस्य देवस्य न दण्डभङ्गः
कुतश्चनर्षे श्रुतपूर्व आसीत् ।
एतन्मुने वृश्चति लोकसंशयं
न हि त्वदन्य इति मे विनिश्चितम् ॥
२॥
राजा परीक्षित ने पूछा ;-
भगवन्! देवाधिदेव धर्मराज के वश में सारे जीव हैं और भगवान् के
पार्षदों ने उन्हीं की आज्ञा भंग कर दी तथा उनके दूतों को अपमानित कर दिया। जब
उनके दूतों ने यमपुरी में जाकर उनसे अजामिल का वृतान्त कह सुनाया, तब सब कुछ सुनकर उन्होंने अपने दूतों से क्या कहा? ऋषिवर!
मैंने पहले यह बात कभी नहीं सुनी कि किसी ने किसी भी कारण से धर्मराज के शासन का
उल्लंघन किया हो। भगवन्! इस विषय में लोग बहुत सन्देह करेंगे और उसका निवारण आपके
अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता, ऐसा मेरा निश्चय है।
श्रीशुक उवाच
भगवत्पुरुषै राजन् याम्याः
प्रतिहतोद्यमाः ।
पतिं विज्ञापयामासुर्यमं
संयमनीपतिम् ॥ ३॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! जब भगवान् के पार्षदों ने यमदूतों का प्रयत्न विफल कर
दिया, तब उन लोगों ने संयमनीपुरी के स्वामी एवं अपने शासक
यमराज के पास जाकर निवेदन किया।
यमदूता ऊचुः
कति सन्तीह शास्तारो जीवलोकस्य वै
प्रभो ।
त्रैविध्यं कुर्वतः कर्म
फलाभिव्यक्तिहेतवः ॥ ४॥
यदि स्युर्बहवो लोके शास्तारो
दण्डधारिणः ।
कस्य स्यातां न वा कस्य मृत्युश्चामृतमेव
वा ॥ ५॥
किन्तु शास्तृबहुत्वे
स्याद्बहूनामिह कर्मिणाम् ।
शास्तृत्वमुपचारो हि यथा
मण्डलवर्तिनाम् ॥ ६॥
अतस्त्वमेको भूतानां
सेश्वराणामधीश्वरः ।
शास्ता दण्डधरो नॄणां
शुभाशुभविवेचनः ॥ ७॥
तस्य ते विहतो दण्डो न लोके
वर्ततेऽधुना ।
चतुर्भिरद्भुतैः सिद्धैराज्ञा ते
विप्रलम्भिता ॥ ८॥
नीयमानं
तवादेशादस्माभिर्यातनागृहान् ।
व्यमोचयन् पातकिनं छित्त्वा पाशान्
प्रसह्य ते ॥ ९॥
तांस्ते वेदितुमिच्छामो यदि नो
मन्यसे क्षमम् ।
नारायणेत्यभिहिते मा
भैरित्याययुर्द्रुतम् ॥ १०॥
यमदूतों ने कहा ;-
प्रभो! संसार के जीव तीन प्रकार के कर्म करते हैं- पाप, पुण्य अथवा दोनों से मिश्रित। इन जीवों को उन कर्मों का फल देने वाले शासक
संसार में कितने हैं? यदि संसार में दण्ड देने वाले बहुत-से
शासक हों, तो किसे सुख मिले और किसे दुःख- इसकी व्यवस्था
एक-सी न हो सकेगी। संसार में कर्म करने वालों के अनेक होने के कारण यदि उनके शासक
भी अनेक हों, तो उन शासकों का शासकापना नाममात्र के सामन्त
होते हैं। इसलिये हम तो ऐसा समझते हैं कि अकेले आप ही समस्त प्राणियों और उनके
स्वामियों के भी अधीश्वर हैं। आप ही मनुष्यों के पाप और पुण्य के निर्णायक,
दण्डदाता और शासक हैं।
प्रभो! अब तक संसार में कहीं भी
आपके द्वारा नियत किये हुए दण्ड की अवहेलना नहीं हुई थी;
किन्तु इस समय चार अद्भुत सिद्धों ने आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर दिया
है। प्रभो! आपकी आज्ञा से हम लोग एक पापी को यातनागृह की ओर ले जा रहे थे, परन्तु उन्होंने बलपूर्वक आपके फंदे काटकर उसे छुड़ा दिया। हम आपसे उनका
रहस्य जानना चाहते हैं। यदि आप हमें सुनने का अधिकारी समझें तो कहें। प्रभो! बड़े
ही आश्चर्य की बात हुई कि इधर तो अजामिल के मुँह से ‘नारायण!’
यह शब्द निकला और उधर वे ‘डरो मत, डरो मत!’ कहते हुए झटपट वहाँ आ पहुँचे।
श्रीशुक उवाच
इति देवः स आपृष्टः प्रजासंयमनो यमः
।
प्रीतः स्वदूतान् प्रत्याह स्मरन्
पादाम्बुजं हरेः ॥ ११॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
जब दूतों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब
देवशिरोमणि प्रजा के शासक भगवान् यमराज ने प्रसन्न होकर श्रीहरि के चरणकमलों का
स्मरण करते हुए उनसे कहा।
यम उवाच
परो मदन्यो जगतस्तस्थुषश्च
ओतं प्रोतं पटवद्यत्र विश्वम् ।
यदंशतोऽस्य स्थितिजन्मनाशा
नस्योतवद्यस्य वशे च लोकः ॥ १२॥
यो नामभिर्वाचि जनान्निजायां
बध्नाति तन्त्र्यामिव दामभिर्गाः ।
यस्मै बलिं त इमे नामकर्म-
निबन्धबद्धाश्चकिता वहन्ति ॥ १३॥
यमराज ने कहा ;-
दूतो! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत् के स्वामी हैं। उन्हीं में
यह सम्पूर्ण जगत् सूत में वस्त्र के समान ओत-प्रोत है। उन्हीं के अंश, ब्रह्मा, विष्णु और शंकर इस जगत् की उत्पत्ति,
स्थिति तथा प्रलय करते हैं। उन्हीं ने इस सारे जगत् को नथे हुए बैल
के समान अपने अधीन कर रखा है। मेरे प्यारे दूतों! जैसे किसान अपने बैलों को पहले
छोटी-छोटी रस्सियों में बाँधकर फिर उन रस्सियों को एक बड़ी आड़ी रस्सी में बाँध
देते हैं, वैसे ही जगदीश्वर भगवान् ने भी ब्रह्माणादि वर्ण
और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमरूप छोटी-छोटी नाम की रस्सियों में बाँधकर फिर सब नामों को
वेदवाणीरूप बड़ी रस्सी में बाँध रखा है। इस प्रकार सारे जीव नाम एवं कर्मरूप बन्धन
में बँधे हुए भयभीत होकर उन्हें ही अपना सर्वस्व भेंट कर रहे हैं।
अहं महेन्द्रो निरृतिः प्रचेताः
सोमोऽग्निरीशः पवनोऽर्को विरिञ्चः ।
आदित्यविश्वे वसवोऽथ साध्या
मरुद्गणा रुद्रगणाः ससिद्धाः ॥ १४॥
अन्ये च ये विश्वसृजोऽमरेशा
भृग्वादयोऽस्पृष्टरजस्तमस्काः ।
यस्येहितं न विदुः स्पृष्टमायाः
सत्त्वप्रधाना अपि किं ततोऽन्ये ॥
१५॥
यं वै न गोभिर्मनसासुभिर्वा
हृदा गिरा वासुभृतो विचक्षते ।
आत्मानमन्तर्हृदि सन्तमात्मनां
चक्षुर्यथैवाकृतयस्ततः परम् ॥ १६॥
तस्यात्मतन्त्रस्य हरेरधीशितुः
परस्य मायाधिपतेर्महात्मनः ।
प्रायेण दूता इह वै मनोहरा-
श्चरन्ति तद्रूपगुणस्वभावाः ॥ १७॥
भूतानि विष्णोः सुरपूजितानि
दुर्दर्शलिङ्गानि महाद्भुतानि ।
रक्षन्ति तद्भक्तिमतः परेभ्यो
मत्तश्च मर्त्यानथ सर्वतश्च ॥ १८॥
धर्मं तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतं
न वै विदुरृषयो नापि देवाः ।
न सिद्धमुख्या असुरा मनुष्याः
कुतश्च विद्याधरचारणादयः ॥ १९॥
स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः कुमारः
कपिलो मनुः ।
प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम्
॥ २०॥
द्वादशैते विजानीमो धर्मं भागवतं
भटाः ।
गुह्यं विशुद्धं दुर्बोधं यं
ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥ २१॥
एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां धर्मः
परः स्मृतः ।
भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः
॥ २२॥
नामोच्चारणमाहात्म्यं हरेः पश्यत
पुत्रकाः ।
अजामिलोऽपि येनैव मृत्युपाशादमुच्यत
॥ २३॥
एतावतालमघनिर्हरणाय पुंसां
सङ्कीर्तनं भगवतो गुणकर्मनाम्नाम् ।
विक्रुश्य पुत्रमघवान् यदजामिलोऽपि
नारायणेति म्रियमाण इयाय मुक्तिम् ॥
२४॥
प्रायेण वेद तदिदं न महाजनोऽयं
देव्या विमोहितमतिर्बत माययालम् ।
त्रय्यां जडीकृतमतिर्मधुपुष्पितायां
वैतानिके महति कर्मणि युज्यमानः ॥
२५॥
एवं विमृश्य सुधियो भगवत्यनन्ते
सर्वात्मना विदधते खलु भावयोगम् ।
ते मे न दण्डमर्हन्त्यथ यद्यमीषां
स्यात्पातकं तदपि हन्त्युरुगायवादः
॥ २६॥
दूतों! मैं,
इन्द्र, निर्ऋति, वरुण,
चन्द्रमा, अग्नि, शंकर,
वायु, सूर्य, ब्रह्मा,
बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत्,
सिद्ध, ग्यारहों रुद्र, रजोगुण
एवं तमोगुण से रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवता- सब-के-सब सत्त्वप्रधान
होने पर भी उनकी माया के अधीन हैं तथा भगवान् कब, क्या किस
रूप में करना चाहते हैं- इस बात को नहीं जानते। तब दूसरों की तो बात ही क्या है।
दूतो! जिस प्रकार घट, पट आदि रूपवान् पदार्थ अपने प्रकाशक
नेत्र को नहीं देख सकते-वैसे ही अन्तःकरण में अपने साक्षी रूप से स्थित परमात्मा
को कोई भी प्राणी इन्द्रिय, मन, प्राण,
हृदय या वाणी आदि किसी भी साधन के द्वारा नहीं जान सकता। वे प्रभु
सबके स्वामी और स्वयं परम स्वतन्त्र हैं। उन्हीं मायापति पुरुषोत्तम के दूत उन्हीं
के समान परम मनोहर रूप, गुण और स्वभाव से सम्पन्न होकर इस
लोक में प्रायः विचरण किया करते हैं।
विष्णु भगवान् के सुरपूजित एवं परम
अलौकिक पार्षदों का दर्शन बड़ा दुर्लभ है। वे भगवान् के भक्तजनों को उनके शत्रुओं
से,
मुझसे और अग्नि आदि सब विपत्तियों से सर्वथा सुरक्षित रखते हैं।
स्वयं भगवान् ने ही धर्म की मर्यादा का निर्माण किया है। उसे न तो ऋषि जानते हैं
और न देवता या सिद्धगण ही। ऐसी स्थिति में मनुष्य, विद्याधर,
चारण और असुर आदि तो जान ही कैसे सकते हैं। भगवान् के द्वारा
निर्मित भागवतधर्म परमशुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो
उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
दूतों! भागवतधर्म का रहस्य हम बारह
व्यक्ति ही जानते हैं- ब्रह्मा जी, देवर्षि
नारद, भगवान् शंकर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वयाम्भुव मनु, प्रह्लाद,
जनक, भीष्म पितामह, बलि,
शुकदेव जी और मैं (धर्मराज)। इस जगत् में जीवों के लिये बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्य-परम धर्म है कि वे नाम-कीर्तन आदि उपायों से भगवान्
के चरणों में भक्तिभाव प्राप्त कर लें। प्रिय दूतों! भगवान् के नामोच्चारण की
महिमा तो देखो, अजामिल जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करने
मात्र से मृत्युपाश से छुटकारा पा गया। भगवान् के गुण, लीला
और नामों का भलीभाँति कीर्तन मनुष्यों के पापों का सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त
पापी अजामिल ने मरने के समय चंचलचित्त से अपने पुत्र का नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया। उस नामाभासमात्र से ही उसके
सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्ति की प्राप्ति भी हो गयी।
बड़े-बड़े विद्वानों की बुद्धि कभी भगवान् की माया से मोहित हो जाती है। वे कर्मों
के मीठे-मीठे फलों का वर्णन करने वाली अर्थवादरूपिणी वेदवाणी में ही मोहित हो जाते
हैं और यज्ञ-यागादि बड़े-बड़े कर्मों में ही संलग्न रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम
भगवन्नाम की महिमा को नहीं जानते। यह कितने खेद की बात है।
प्रिय दूतों! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा
विचार कर भगवान् अनन्त में ही सम्पूर्ण अन्तःकरण से अपना भक्तिभाव स्थापित करते
हैं। वे मेरे दण्ड के पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं,
परन्तु यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाये, तो उसे भगवान् का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है।
ते देवसिद्धपरिगीतपवित्रगाथाः
ये साधवः समदृशो भगवत्प्रपन्नाः ।
तान् नोपसीदत हरेर्गदयाभिगुप्तान्
नैषां वयं न च वयः प्रभवाम दण्डे ॥
२७॥
तानानयध्वमसतो विमुखान् मुकुन्द-
पादारविन्दमकरन्दरसादजस्रम् ।
निष्किञ्चनैः परमहंसकुलै रसज्ञैः
जुष्टाद्गृहे निरयवर्त्मनि
बद्धतृष्णान् ॥ २८॥
जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं
चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् ।
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि
तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान् ॥
२९॥
तत्क्षम्यतां स भगवान् पुरुषः
पुराणो
नारायणः स्वपुरुषैर्यदसत्कृतं नः ।
स्वानामहो न विदुषां रचिताञ्जलीनां
क्षान्तिर्गरीयसि नमः पुरुषाय
भूम्ने ॥ ३०॥
तस्मात्सङ्कीर्तनं
विष्णोर्जगन्मङ्गलमंहसाम् ।
महतामपि कौरव्य
विद्ध्यैकान्तिकनिष्कृतिम् ॥ ३१॥
श्रृण्वतां गृणतां
वीर्याण्युद्दामानि हरेर्मुहुः ।
यथा सुजातया भक्त्या
शुद्ध्येन्नात्मा व्रतादिभिः ॥ ३२॥
कृष्णाङ्घ्रिपद्ममधुलिण् न
पुनर्विसृष्ट-
मायागुणेषु रमते वृजिनावहेषु ।
अन्यस्तु कामहत आत्मरजः
प्रमार्ष्टु-
मीहेत कर्म यत एव रजः पुनः स्यात् ॥
३३॥
इत्थं स्वभर्तृगदितं भगवन्महित्वं
संस्मृत्य विस्मितधियो
यमकिङ्करास्ते ।
नैवाच्युताश्रयजनं प्रतिशङ्कमाना
द्रष्टुं च बिभ्यति ततः प्रभृति स्म
राजन् ॥ ३४॥
इतिहासमिमं गुह्यं भगवान्
कुम्भसम्भवः ।
कथयामास मलये आसीनो हरिमर्चयन् ॥
३५॥
जो समदर्शी साधु भगवान् को ही अपना
साध्य और साधन दोनों समझकर उन पर निर्भर हैं, बड़े-बड़े
देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रों का प्रेम से गान करते रहते हैं। मेरे दूतों!
भगवान् की गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है। उनके पास तुम लोग कभी भूलकर भी मत
फटकना। उन्हें दण्ड देने की सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात् काल में ही।
बड़े-बड़े परमहंस दिव्य रस के लोभ से सम्पूर्ण जगत् और शरीर आदि से भी अपनी
अहंता-ममता हटाकर, अकिंचन होकर निरन्तर भगवान् मुकुन्द के
पादारविन्द का मकरन्द-रस पान करते रहते हैं। जो दुष्ट उस दिव्य रस से विमुख हैं और
नरक के दरवाजे घर-गृहस्थी की तृष्णा का बोझा बाँधकर उसे ढो रहे हैं, उन्हीं को मेरे पास बार-बार लाया करो।
जिनकी जीभ भगवान् के गुणों और नामों
का उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके
चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्ण के
चरणों में नहीं झुकता, उन भगवत्सेवा-विमुख पापियों को ही
मेरे पास लाया करो। आज मेरे दूतों ने भगवान् के पार्षदों का अपराध करके स्वयं
भगवान् का ही तिरस्कार किया है। यह मेरा ही अपराध है। पुराणपुरुष भगवान् नारायण हम
लोगों का यह अपराध क्षमा करें। हम अज्ञानी होने पर भी हैं उनके निजजन और उनकी
आज्ञा पाने के लिये अंजलि बाँधकर सदा उत्सुक रहते हैं। अतः परम महिमान्वित भगवान्
के लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर दें। मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभु
को नमस्कार करता हूँ।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! इसलिये तुम ऐसा समझ लो कि बड़े-से-बड़े पापों का
सर्वोत्तम, अन्तिम और पाप-वासनाओं को भी निर्मूल कर डालने
वाला प्रायश्चित यही है कि केवल भगवान् के गुणों, लीलाओं और
नामों का कीर्तन किया जाये। इसी से संसार का कल्याण हो सकता है। जो लोग बार-बार
भगवान् के उदार और कृपापूर्ण चरित्रों का श्रवण-कीर्तन करते हैं, उनके हृदय में प्रेममयी भक्ति का उदय हो जाता है। उस भक्ति से जैसी
आत्मशुद्धि होती है, वैसी कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि व्रतों से
नहीं होती। जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द-मकरन्द-रस का लोभी
भ्रमर है, वह स्वभाव से ही माया के आपातरम्य, दुःखद और पहले से ही छोड़े हुए विषयों में फिर नहीं रमता। किन्तु जो लोग
उस दिव्य रस से विमुख हैं, कामनाओं ने जिनकी विवेकबुद्धि पर
पानी फेर दिया है, वे अपने पापों का मार्जन करने के लिये
पुनः प्रायश्चितरूप कर्म ही करते हैं। इससे होता यह है कि उनके कर्मों की वासना
मिटती नहीं और वे फिर वैसे ही दोष कर बैठते है।
परीक्षित! जब यमदूतों ने अपने
स्वामी धर्मराज के मुख से इस प्रकार भगवान् की महिमा सुनी और उसका स्मरण किया,
तब उनके आश्चर्य की सीमा न रही। तभी से वे धर्मराज की बात पर
विश्वास करके अपने नाश की आशंका से भगवान् के आश्रित भक्तों के पास नहीं जाते और
तो क्या, वे उनकी ओर आँख उठाकर देखने में भी डरते हैं।
प्रिय परीक्षित! यह इतिहास परम
गोपनीय-अत्यन्त रहस्यमय है। मलय पर्वत पर विराजमान भगवान् अगस्त्य जी ने श्रीहरि
की पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे यमपुरुषसंवादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः
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