श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय २
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
२ "विष्णुदूतों द्वारा भागवतधर्म-निरूपण और अजामिल का परमधाम गमन"
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
२
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः
२
श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध दूसरा अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः
द्वितीयोऽध्यायः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं ते भगवद्दूता यमदूताभिभाषितम् ।
उपधार्याथ तान् राजन्
प्रत्याहुर्नयकोविदाः ॥ १॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! भगवान् के नीतिनिपुण एवं धर्म का मर्म जानने वाले
पार्षदों ने यमदूतों का यह अभिभाषण सुनकर उनसे इस प्रकार कहा।
विष्णुदूता ऊचुः
अहो कष्टं धर्मदृशामधर्मः स्पृशते
सभाम् ।
यत्रादण्ड्येष्वपापेषु दण्डो
यैर्ध्रियते वृथा ॥ २॥
प्रजानां पितरो ये च शास्तारः साधवः
समाः ।
यदि स्यात्तेषु वैषम्यं कं यान्ति
शरणं प्रजाः ॥ ३॥
यद्यदाचरति श्रेयानितरस्तत्तदीहते ।
स यत्प्रमाणं कुरुते
लोकस्तदनुवर्तते ॥ ४॥
यस्याङ्के शिर आधाय लोकः स्वपिति
निर्वृतः ।
स्वयं धर्ममधर्मं वा न हि वेद यथा
पशुः ॥ ५॥
स कथं न्यर्पितात्मानं
कृतमैत्रमचेतनम् ।
विस्रम्भणीयो भूतानां सघृणो द्रोग्धुमर्हति
॥ ६॥
अयं हि कृतनिर्वेशो
जन्मकोट्यंहसामपि ।
यद्व्याजहार विवशो नाम स्वस्त्ययनं
हरेः ॥ ७॥
एतेनैव ह्यघोनोऽस्य कृतं
स्यादघनिष्कृतम् ।
यदा नारायणायेति जगाद चतुरक्षरम् ॥
८॥
स्तेनः सुरापो मित्रध्रुग् ब्रह्महा
गुरुतल्पगः ।
स्त्रीराजपितृगोहन्ता ये च पातकिनोऽपरे
॥ ९॥
सर्वेषामप्यघवतामिदमेव सुनिष्कृतम्
।
नामव्याहरणं विष्णोर्यतस्तद्विषया
मतिः ॥ १०॥
न निष्कृतैरुदितैर्ब्रह्मवादिभि-
स्तथा विशुद्ध्यत्यघवान् व्रतादिभिः
।
यथा हरेर्नामपदैरुदाहृतै-
स्तदुत्तमश्लोकगुणोपलम्भकम् ॥ ११॥
नैकान्तिकं तद्धि कृतेऽपि निष्कृते
मनः पुनर्धावति चेदसत्पथे ।
तत्कर्मनिर्हारमभीप्सतां हरे-
र्गुणानुवादः खलु सत्त्वभावनः ॥ १२॥
भगवान् के पार्षदों ने कहा ;-
यमदूतों! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि धर्मज्ञों की सभा में
अधर्म प्रवेश कर रह है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय
व्यक्तियों को व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है। जो प्रजा के रक्षक हैं, शासक हैं, समदर्शी और परोपकारी हैं- यदि वे ही प्रजा
के प्रति विषमता का व्यवहार करने लगें तो फिर प्रजा किसकी शरण लेगी?
सत्पुरुष जैसा आचरण करते हैं,
साधारण लोग भी वैसा ही करते हैं। वे अपने आचरण के द्वारा जिस कर्म
को धर्मानुकूल प्रमाणित कर देते हैं, लोग उसी का अनुकरण करने
लगते हैं। साधारण लोग पशुओं के समान धर्म और अधर्म का स्वरूप न जानकर किसी
सत्पुरुष पर विश्वास कर लेते हैं, उसकी गोद में सिर रखकर
निर्भय और निश्चिन्त सो जाते हैं। वही दयालु सत्पुरुष, जो
प्राणियों का अत्यन्त विश्वासपात्र है और जिसे मित्रभाव से अपना हितैषी समझकर
उन्होंने आत्मसमर्पण का दिया है, उन अज्ञानी जीवों के साथ
कैसे विश्वासघात कर सकता है?
यमदूतों! इसने कोटि-कोटि जन्मों की
पाप-राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है। क्योंकि इसने विवश होकर ही सही,
भगवान् के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण तो किया है। जिस
समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का
उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी के समस्त
पापों का प्रायश्चित हो गया। चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रह्मघाती, गुरुपत्नीगामी,
ऐसे लोगों का संसर्गी; स्त्री, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिये
यही-इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान् के नामों का उच्चारण किया जाये;
क्योंकि भगवन्नामों के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान् के गुण,
लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति
आत्मीय बुद्धि हो जाती है।
बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियों ने
पापों के बहुत-से प्रायश्चित- कृच्छ्र, चान्द्रायण
आदि व्रत बतलाये हैं; परन्तु उन प्रायश्चितों से पापी की
वैसी जड़ से शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् के नामों का,
उनसे गुम्फित पदों का उच्चारण करने से होती है। क्योंकि वे नाम
पवित्रकीर्ति भगवान् के गुणों का ज्ञान कराने वाले हैं। क्योंकि भगवान् के नाम
अनन्त हैं; सब नामों का उच्चारण सम्भव ही नहीं है। तात्पर्य
यह है कि भगवान् के एक नाम का उच्चारण करने मात्र से सब पापों की निवृत्ति हो जाती
है। पूर्ण विश्वास न होने तथा नामोच्चारण के पश्चात् भी पाप करने के कारण ही उसका
अनुभव नहीं होता। यदि प्रायश्चित करने के बाद भी मन फिर से कुमार्ग में- पाप की ओर
दौड़े, तो वह चरम सीमा का- पूरा-पूरा प्रायश्चित नहीं है।
इसलिये जो लोग ऐसा प्रायश्चित करना चाहें कि जिससे पाप कर्मों और वासनाओं की जड़
ही उखड़ जाये, उन्हें भगवान् के गुणों का गान करना चाहिये;
क्योंकि उससे चित्त सर्वथा शुद्ध हो जाता है।
अथैनं मापनयत कृताशेषाघनिष्कृतम् ।
यदसौ भगवन्नाम म्रियमाणः समग्रहीत्
॥ १३॥
साङ्केत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं
हेलनमेव वा ।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदुः ॥
१४॥
पतितः स्खलितो भग्नः सन्दष्टस्तप्त
आहतः ।
हरिरित्यवशेनाह पुमान् नार्हति
यातनाम् ॥ १५॥
गुरूणां च लघूनां च गुरूणि च लघूनि
च ।
प्रायश्चित्तानि पापानां
ज्ञात्वोक्तानि महर्षिभिः ॥ १६॥
तैस्तान्यघानि पूयन्ते
तपोदानजपादिभिः ।
नाधर्मजं तद्धृदयं
तदपीशाङ्घ्रिसेवया ॥ १७॥
अज्ञानादथवा ज्ञानादुत्तमश्लोकनाम
यत् ।
सङ्कीर्तितमघं पुंसो दहेदेधो यथानलः
॥ १८॥
यथागदं वीर्यतममुपयुक्तं यदृच्छया ।
अजानतोऽप्यात्मगुणं
कुर्यान्मन्त्रोऽप्युदाहृतः ॥ १९॥
इसलिये यमदूतो! तुम लोग अजामिल को
मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है,
क्योंकि इसने मरते समय भगवान् के नाम का उच्चारण किया है। बड़े-बड़े
महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि संकेत में (किसी दूसरे अभिप्राय से), परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना
करने में भी यदि कोई भगवान् के नामों का उच्चारण करता है तो, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय और साँप के डंसते,
आग में जलते तथा चोट लगते समय भी विवशता से ‘हरि-हरि’
कहकर भगवान् के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह
यमयातना का पात्र नहीं रह जाता। महर्षियों ने जान-बूझकर बड़े पापों के लिये बड़े
और छोटे पापों के लिये छोटे प्रायश्चित बतलाये हैं। इसमें सन्देह नहीं कि उन
तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चितों के
द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापों से मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध
नहीं होता। भगवान् के चरणों की सेवा से वह भी शुद्ध हो जाता है।
यमदूतो! जैसे जान या अनजान ईंधन से
अग्नि का स्पर्श हो जाये तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान-बूझकर या अनजान में भगवान् के नामों का संकीर्तन करने से
मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न
जानकर अनजान में पी ले तो भी वह अवश्य ही पीने वाले को अमर बना देता है, वैसे ही अनजान में उच्चारण करने पर भी भगवान् का नाम[2] अपना फल देकर ही
रहता है। (वस्तुशक्ति श्रद्धा की अपेक्षा नहीं करती)
श्रीशुक उवाच
त एवं सुविनिर्णीय धर्मं भागवतं नृप
।
तं याम्यपाशान्निर्मुच्य विप्रं
मृत्योरमूमुचन् ॥ २०॥
इति प्रत्युदिता याम्या दूता यात्वा
यमान्तिके ।
यमराज्ञे यथा सर्वमाचचक्षुररिन्दम ॥
२१॥
द्विजः पाशाद्विनिर्मुक्तो गतभीः
प्रकृतिं गतः ।
ववन्दे शिरसा विष्णोः किङ्करान्
दर्शनोत्सवः ॥ २२॥
तं विवक्षुमभिप्रेत्य
महापुरुषकिङ्कराः ।
सहसा पश्यतस्तस्य
तत्रान्तर्दधिरेऽनघ ॥ २३॥
अजामिलोऽप्यथाकर्ण्य दूतानां
यमकृष्णयोः ।
धर्मं भागवतं शुद्धं त्रैविद्यं च
गुणाश्रयम् ॥ २४॥
भक्तिमान् भगवत्याशु
माहात्म्यश्रवणाद्धरेः ।
अनुतापो महानासीत्स्मरतोऽशुभमात्मनः
॥ २५॥
अहो मे परमं कष्टमभूदविजितात्मनः ।
येन विप्लावितं ब्रह्म वृषल्यां
जायताऽऽत्मना ॥ २६॥
धिङ् मां विगर्हितं सद्भिर्दुष्कृतं
कुलकज्जलम् ।
हित्वा बालां सतीं योऽहं
सुरापामसतीमगाम् ॥ २७॥
वृद्धावनाथौ पितरौ नान्यबन्धू
तपस्विनौ ।
अहो मयाधुना त्यक्तावकृतज्ञेन
नीचवत् ॥ २८॥
सोऽहं व्यक्तं पतिष्यामि नरके
भृशदारुणे ।
धर्मघ्नाः कामिनो यत्र विन्दन्ति
यमयातनाः ॥ २९॥
किमिदं स्वप्न
आहोस्वित्साक्षाद्दृष्टमिहाद्भुतम् ।
क्व याता अद्य ते ये मां व्यकर्षन्
पाशपाणयः ॥ ३०॥
अथ ते क्व गताः सिद्धाश्चत्वारश्चारुदर्शनाः
।
व्यमोचयन् नीयमानं बद्ध्वा पाशैरधो
भुवः ॥ ३१॥
अथापि मे दुर्भगस्य
विबुधोत्तमदर्शने ।
भवितव्यं मङ्गलेन येनात्मा मे
प्रसीदति ॥ ३२॥
अन्यथा म्रियमाणस्य
नाशुचेर्वृषलीपतेः ।
वैकुण्ठनामग्रहणं जिह्वा
वक्तुमिहार्हति ॥ ३३॥
क्व चाहं कितवः पापो ब्रह्मघ्नो
निरपत्रपः ।
क्व च नारायणेत्येतद्भगवन्नाम
मङ्गलम् ॥ ३४॥
सोऽहं तथा यतिष्यामि
यतचित्तेन्द्रियानिलः ।
यथा न भूय आत्मानमन्धे तमसि मज्जये
॥ ३५॥
विमुच्य तमिमं
बन्धमविद्याकामकर्मजम् ।
सर्वभूतसुहृच्छान्तो मैत्रः करुण
आत्मवान् ॥ ३६॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
राजन्! इस प्रकार भगवान् के पार्षदों ने भागवत-धर्म का पूरा-पूरा
निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा
लिया।
प्रिय परीक्षित! पार्षदों की यह बात
सुनकर यमदूत यमराज के पास गये और उन्हें यह सारा वृतान्त ज्यों-का-त्यों सुना
दिया। अजालिम यमदूतों के फंदे से छूटकर निर्भय और स्वस्थ हो गया। उसने भगवान् के
पार्षदों के दर्शनजनित आनन्द में मग्न होकर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया।
निष्पाप परीक्षित! भगवान् के पार्षदों ने देखा कि अजामिल कुछ कहना चाहता है,
तब वे सहसा उसके सामने ही वहीं अन्तर्धान हो गये। इस अवसर पर अजामिल
ने भगवान् के पार्षदों से विशुद्ध भागवत-धर्म और यमदूतों के मुख से वेदोक्त सगुण
(प्रवृत्ति विषयक) धर्म का श्रवण किया था।
सर्वपापहारी भगवान् की महिमा सुनने
से अजामिल के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया। अब उसे अपने पापों को याद
करके बड़ा पश्चाताप होने लगा। (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा-) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियों का दास हूँ। मैंने एक दासी
के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया। यह बड़े दुःख की
बात है। धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतों के द्वारा निन्दित हूँ,
पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया। हाय-हाय,
मैंने अपनी सती एवं अबोध पत्नी का परित्याग कर दिया और शराब पीने
वाली कुलटा का संसर्ग किया। मैं कितना नीच हूँ! मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे।
वे सर्वथा असहाय थे, उनकी सेवा-शुश्रूषा करने वाला और कोई
नहीं था। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ। मैं अब अवश्य
ही अत्यन्त भयावने नरक में गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती
पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकार की यमयातना भोगते हैं।
मैंने अभी जो अद्भुत दृश्य देखा,
क्या वह स्वप्न है? अथवा जाग्रत् अवस्था का ही
प्रत्यक्ष अनुभव है? अभी-अभी जो हाथों में फंदा लेकर मुझे
खींच रहे थे, वे कहाँ चले गये? अभी-अभी
वे मुझे अपने फंदों में फँसाकर पृथ्वी के नीचे ले जा रहे थे, परन्तु चार अत्यन्त सुन्दर सिद्धों ने आकर मुझे छुड़ा लिया। वे अब कहाँ
चले गये। यद्यपि मैं इस जन्म का महापापी हूँ, फिर भी मैंने
पूर्वजन्मों में अवश्य ही शुभ कर्म किये होंगे; तभी तो मुझे
इन श्रेष्ठ देवताओं के दर्शन हुए। उनकी स्मृति से मेरा हृदय अब भी आनन्द से भर रहा
है।
मैं कुलटागामी और अत्यन्त अपवित्र
हूँ। यदि पूर्वजन्म में मैंने पुण्य न किये होते, तो मरने के समय मेरी जीभ भगवान् के मनोमोहक नाम का उच्चारण कैसे कर पाती?
कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रह्मतेज को नष्ट करने वाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम
मंगलमय ‘नारायण’ नाम! (सचमुच मैं तो
कृतार्थ हो गया)। अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश
में करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपने को घोर अन्धकारमय नरक में न डालूँ।
अज्ञानवश मैंने अपने को शरीर समझकर उसके लिये बड़ी-बड़ी कामनाएँ कीं और उनकी
पूर्ति के लिये अनेकों कर्म किये। उन्हीं का फल है यह बन्धन। अब मैं इसे काटकर
समस्त प्राणियों का हित करूँगा, वासनाओं को शान्त कर दूँगा,
सबसे मित्रता का व्यवहार करूँगा, दुःखियों पर
दया करूँगा और पूरे संयम के साथ रहूँगा।
मोचये ग्रस्तमात्मानं
योषिन्मय्याऽऽत्ममायया ।
विक्रीडितो ययैवाहं क्रीडामृग
इवाधमः ॥ ३७॥
ममाहमिति देहादौ हित्वा
मिथ्यार्थधीर्मतिम् ।
धास्ये मनो भगवति शुद्धं
तत्कीर्तनादिभिः ॥ ३८॥
भगवान् की माया ने स्त्री का रूप
धारण करके मुझ अधम को फाँस लिया और क्रीड़ामृग की भाँति मुझे बहुत नाच नचाया। अब
मैं अपने-आपको उस माया से मुक्त करूँगा। मैंने सत्य वस्तु परमात्मा को पहचान लिया
है;
अतः अब मैं शरीर आदि में ‘मैं’ तथा ‘मेरे’ का भाव छोड़कर
भगवन्नाम के कीर्तन आदि से अपने मन को शुद्ध करूँगा और उसे भगवान् में लगाऊँगा।
श्रीशुक उवाच
इति जातसुनिर्वेदः क्षणसङ्गेन
साधुषु ।
गङ्गाद्वारमुपेयाय
मुक्तसर्वानुबन्धनः ॥ ३९॥
स तस्मिन् देवसदन आसीनो योगमाश्रितः
।
प्रत्याहृतेन्द्रियग्रामो युयोज मन
आत्मनि ॥ ४०॥
ततो गुणेभ्य आत्मानं
वियुज्यात्मसमाधिना ।
युयुजे भगवद्धाम्नि
ब्रह्मण्यनुभवात्मनि ॥ ४१॥
यर्ह्युपारतधीस्तस्मिन्नद्राक्षीत्पुरुषान्
पुरः ।
उपलभ्योपलब्धान् प्राग्ववन्दे शिरसा
द्विजः ॥ ४२॥
हित्वा कलेवरं तीर्थे गङ्गायां
दर्शनादनु ।
सद्यः स्वरूपं जगृहे
भगवत्पार्श्ववर्तिनाम् ॥ ४३॥
साकं विहायसा विप्रो
महापुरुषकिङ्करैः ।
हैमं विमानमारुह्य ययौ यत्र श्रियः
पतिः ॥ ४४॥
एवं स विप्लावितसर्वधर्मा
दास्याः पतिः पतितो गर्ह्यकर्मणा ।
निपात्यमानो निरये हतव्रतः
सद्यो विमुक्तो भगवन्नाम गृह्णन् ॥
४५॥
नातः परं कर्मनिबन्धकृन्तनं
मुमुक्षतां तीर्थपदानुकीर्तनात् ।
न यत्पुनः कर्मसु सज्जते मनो
रजस्तमोभ्यां कलिलं ततोऽन्यथा ॥ ४६॥
य एवं परमं गुह्यमितिहासमघापहम् ।
शृणुयाच्छ्रद्धया युक्तो यश्च
भक्त्यानुकीर्तयेत् ॥ ४७॥
न वै स नरकं याति नेक्षितो
यमकिङ्करैः ।
यद्यप्यमङ्गलो मर्त्यो विष्णुलोके
महीयते ॥ ४८॥
म्रियमाणो हरेर्नाम गृणन्
पुत्रोपचारितम् ।
अजामिलोऽप्यगाद्धाम किं पुनः
श्रद्धया गृणन् ॥ ४९॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! उन भगवान् के पार्षद महात्माओं का केवल थोड़ी ही देर के लिये
सत्संग हुआ था। इतने से ही अजामिल के चित्त में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य हो
गया। वे सबसे सम्बन्ध और मोह को छोड़कर हरद्वार चले गये। उस देवस्थान में जाकर वे
भगवान् के मन्दिर में आसन से बैठ गये और उन्होंने योगमार्ग का आश्रय लेकर अपनी
सारी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर मन में लीन कर लिया और मन को बुद्धि में मिला
दिया। इसके बाद आत्मचिन्तन के द्वारा उन्होंने बुद्धि को विषयों से पृथक् कर लिया
तथा भगवान् के धाम अनुभवस्वरूप परब्रह्म में जोड़ दिया।
इस प्रकार जब अजामिल की बुद्धि
त्रिगुणमयी प्रकृति से ऊपर उठकर भगवान् के स्वरूप में स्थित हो गयी,
तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिल ने
सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद उन्होंने उस तीर्थस्थान
में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान् के पार्षदों का स्वरूप
प्राप्त कर दिया। अजामिल भगवान् के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर
आकाश मार्ग से भगवान् लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये।
परीक्षित! अजामिल ने दासी का सहवास
करके सारा धर्म-कर्म चौपट कर दिया था। वे अपने निन्दित कर्म के कारण पतित हो गये
थे। नियमों से च्युत हो जाने के कारण उन्हें नरक में गिराया जा रहा था। परन्तु
भगवान् के एक नाम का उच्चारण करने मात्र से वे उससे तत्काल मुक्त हो गये। जो लोग
इस संसार बन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, उनके
लिये अपने चरणों के स्पर्श से तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले भगवान् के नाम से
बढ़कर और कोई साधन नहीं है; क्योंकि नाम का आश्रय लेने से
मनुष्य का मन फिर कर्म के पचड़ों में नहीं पड़ता। भगवन्नाम के अतिरिक्त और किसी
प्रायश्चित का आश्रय लेने पर रजोगुण और तमोगुण से ग्रस्त ही रहता है तथा पापों का
पूरा-पूरा नाश भी नहीं होता।
परीक्षित! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय
और समस्त पापों का नाश करने वाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्ति के साथ इसका
श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरक में कभी
नहीं जाता। यमराज के दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देख तक नहीं सकते। उस पुरुष का जीवन
चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोक में उसकी पूजा
होती है। परीक्षित! देखो-अजामिल-जैसे पापी ने मृत्यु के समय पुत्र के बहाने भगवान्
नाम का उच्चारण किया। उसे भी वैकुण्ठ की प्राप्ति हो गयी। फिर जो लोग श्रद्धा के
साथ भगवन्नाम का उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे अजामिलोपाख्याने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः
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