श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १ "अजामिलोपाख्यान का प्रारम्भ"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १

श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः १                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध पहला अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः प्रथमोऽध्यायः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ षष्ठस्कन्धः ॥

॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥

राजोवाच

निवृत्तिमार्गः कथित आदौ भगवता यथा ।

क्रमयोगोपलब्धेन ब्रह्मणा यदसंसृतिः ॥ १॥

प्रवृत्तिलक्षणश्चैव त्रैगुण्यविषयो मुने ।

योऽसावलीनप्रकृतेर्गुणसर्गः पुनः पुनः ॥ २॥

अधर्मलक्षणा नाना नरकाश्चानुवर्णिताः ।

मन्वन्तरश्च व्याख्यात आद्यः स्वायम्भुवो यतः ॥ ३॥

प्रियव्रतोत्तानपदोर्वंशस्तच्चरितानि च ।

द्वीपवर्षसमुद्राद्रिनद्युद्यानवनस्पतीन् ॥ ४॥

धरामण्डलसंस्थानं भागलक्षणमानतः ।

ज्योतिषां विवराणां च यथेदमसृजद्विभुः ॥ ५॥

अधुनेह महाभाग यथैव नरकान्नरः ।

नानोग्रयातनान् नेयात्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ६॥

राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! आप पहले (द्वितीय स्कन्ध में) निवृत्ति मार्ग का वर्णन कर चुके हैं तथा यह बतला चुके हैं कि उसके द्वारा अर्चिरादि मार्ग से जीव क्रमशः ब्रह्मलोक में पहुँचता है और फिर ब्रह्मा के साथ मुक्त हो जाता है।

मुनिवर! इसके सिवा आपने उस प्रवृत्ति मार्ग का भी (तृतीय स्कन्ध में) भलीभाँति वर्णन किया है, जिससे त्रिगुणमय स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है और प्रकृति का सम्बन्ध न छूटने के करना जीवों को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में आना पड़ता है। आपने यह भी बतलाया कि अधर्म करने से अनेक नरकों की प्राप्ति होती है और (पाँचवें स्कन्ध में) उनका विस्तार से वर्णन भी किया। (चौथे स्कन्ध में) आपने उस प्रथम मन्वन्तर का वर्णन किया, जिसके अधिपति स्वयाम्भुव मनु थे। साथ ही (चौथे और पाँचवें स्कन्ध में) प्रियव्रत और उत्तानपाद के वंशों तथा चरित्रों का एवं द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदी, उद्यान और विभिन्न द्वीपों के वृक्षों का भी निरूपण किया। भूमण्डल की स्थिति, उसके द्वीप-वर्षादि विभाग, उनके लक्षण तथा परिमाण, नक्षत्रों की स्थिति, अतल-वितल आदि भू-विवर (सात पाताल) और भगवान् ने इन सबकी जिस प्रकार सृष्टि की उनका वर्णन भी सुनाया।

महाभाग! अब मैं वह उपाय जानना चाहता हूँ, जिसके अनुष्ठान से मनुष्यों को अनेकानेक भयंकर यातनाओं से पूर्ण नरकों में न जाना पड़े। आप कृपा करके उसका उपदेश कीजिये।

श्रीशुक उवाच

न चेदिहैवापचितिं यथांहसः

कृतस्य कुर्यान्मन उक्तपाणिभिः ।

ध्रुवं स वै प्रेत्य नरकानुपैति

ये कीर्तिता मे भवतस्तिग्मयातनाः ॥ ७॥

तस्मात्पुरैवाश्विह पापनिष्कृतौ

यतेत मृत्योरविपद्यतात्मना ।

दोषस्य दृष्ट्वा गुरुलाघवं यथा

भिषक्चिकित्सेत रुजां निदानवित् ॥ ८॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- मनुष्य मन, वाणी और शरीर से पाप करता है। यदि वह उन पापों का इसी जन्म में प्रायश्चित न कर ले, तो मरने के बाद उसे अवश्य ही उन भयंकर यातनापूर्ण नरकों में जाना पड़ता है, जिनका वर्णन मैंने तुम्हें (पाँचवें स्कन्ध के अन्त में) सुनाया है। इसलिये बड़ी सावधानी और सजगता के साथ रोग एवं मृत्यु के पहले ही शीघ्र-से-शीघ्र पापों की गुरुता और लघुता पर विचार करके उनका प्रायश्चित कर डालना चाहिये, जैसे मर्मज्ञ चिकित्सक रोगों का कारण और उनकी गुरुता-लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर डालता है।

राजोवाच

दृष्टश्रुताभ्यां यत्पापं जानन्नप्यात्मनोऽहितम् ।

करोति भूयो विवशः प्रायश्चित्तमथो कथम् ॥ ९॥

क्वचिन्निवर्ततेऽभद्रात्क्वचिच्चरति तत्पुनः ।

प्रायश्चित्तमथोऽपार्थं मन्ये कुञ्जरशौचवत् ॥ १०॥

राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! मनुष्य राजदण्ड, समाजदण्ड आदि लौकिक और शास्त्रोक्त नरकगमन आदि पारलौकिक कष्टों से यह जानकर भी कि पाप उसका शत्रु है, पाप वासनाओं से विवश होकर बार-बार वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में उसके पापों का प्रायश्चित कैसे सम्भव है? मनुष्य कभी तो प्रायश्चित आदि के द्वारा पापों से छुटकारा पा लेता है, कभी फिर उन्हें ही करने लगता है। ऐसी स्थिति में मैं समझता हूँ कि जैसे स्नान करने के बाद धूल डाल लेने के कारण हाथी का स्नान व्यर्थ हो जाता है, वैसे ही मनुष्य का प्रायश्चित करना भी व्यर्थ ही है।

श्रीशुक उवाच

कर्मणा कर्मनिर्हारो न ह्यात्यन्तिक इष्यते ।

अविद्वदधिकारित्वात्प्रायश्चित्तं विमर्शनम् ॥ ११॥

नाश्नतः पथ्यमेवान्नं व्याधयोऽभिभवन्ति हि ।

एवं नियमकृद्राजन् शनैः क्षेमाय कल्पते ॥ १२॥                         

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- वस्तुतः कर्म के द्वारा ही कर्म का निर्बीजनाश नहीं होता; क्योंकि कर्म का अधिकारी अज्ञानी है। अज्ञान रहते पाप वासनाएँ सर्वथा नहीं मिट सकतीं। इसलिये सच्चा प्रायश्चित तो तत्त्वज्ञान ही है। जो पुरुष केवल सुपथ्य का ही सेवन करता है, उसे रोग अपने वश में नहीं कर सकते। वैसे ही परीक्षित! जो पुरुष नियमों का पालन करता है, वह धीरे-धीरे पाप वासनाओं से मुक्त हो कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है।

तपसा ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च ।

त्यागेन सत्यशौचाभ्यां यमेन नियमेन च ॥ १३॥

देहवाग्बुद्धिजं धीरा धर्मज्ञाः श्रद्धयान्विताः ।

क्षिपन्त्यघं महदपि वेणुगुल्ममिवानलः ॥ १४॥

केचित्केवलया भक्त्या वासुदेवपरायणाः ।

अघं धुन्वन्ति कार्त्स्न्येन नीहारमिव भास्करः ॥ १५॥

न तथा ह्यघवान् राजन् पूयेत तप आदिभिः ।

यथा कृष्णार्पितप्राणस्तत्पूरुषनिषेवया ॥ १६॥

सध्रीचीनो ह्ययं लोके पन्थाः क्षेमोऽकुतोभयः ।

सुशीलाः साधवो यत्र नारायणपरायणाः ॥ १७॥

प्रायश्चित्तानि चीर्णानि नारायणपराङ्मुखम् ।

न निष्पुनन्ति राजेन्द्र सुराकुम्भमिवापगाः ॥ १८॥

सकृन्मनः कृष्णपदारविन्दयो-

र्निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह ।

न ते यमं पाशभृतश्च तद्भटान्

स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः ॥ १९॥

अत्र चोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

दूतानां विष्णुयमयोः संवादस्तं निबोध मे ॥ २०॥

कान्यकुब्जे द्विजः कश्चिद्दासीपतिरजामिलः ।

नाम्ना नष्टसदाचारो दास्याः संसर्गदूषितः ॥ २१॥

बन्द्यक्षकैतवैश्चौर्यैर्गर्हितां वृत्तिमास्थितः ।

बिभ्रत्कुटुम्बमशुचिर्यातयामास देहिनः ॥ २२॥

एवं निवसतस्तस्य लालयानस्य तत्सुतान् ।

कालोऽत्यगान्महान् राजन्नष्टाशीत्यायुषः समाः ॥ २३॥

तस्य प्रवयसः पुत्रा दश तेषां तु योऽवमः ।

बालो नारायणो नाम्ना पित्रोश्च दयितो भृशम् ॥ २४॥

स बद्धहृदयस्तस्मिन्नर्भके कलभाषिणि ।

निरीक्षमाणस्तल्लीलां मुमुदे जरठो भृशम् ॥ २५॥

भुञ्जानः प्रपिबन् खादन् बालकस्नेहयन्त्रितः ।

भोजयन् पाययन् मूढो न वेदागतमन्तकम् ॥ २६॥

जैसे बाँसों के झुरमुट में लगी आग बाँसों को जला डालती है, वैसे ही धर्मज्ञ और श्रद्धावान् धीर पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, मन की स्थिरता, दान, सत्य, बाहर-भीतर की पवित्रता तथा यम एवं नियम-इन नौ साधनों से मन, वाणी और शरीर द्वारा किये गये बड़े-से-बड़े पापों को भी नष्ट कर देते हैं। भगवान् की शरण में रहने वाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्ति के द्वारा अपने सारे पापों को उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरे को।

परीक्षित! पापी पुरुष की जैसी शुद्धि भगवान् को आत्मसमर्पण करने से और उनके भक्तों का सेवन करने से होती है, वैसी तपस्या आदि के द्वारा नहीं होती। जगत् में यह भक्ति का पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है; क्योंकि इस मार्ग पर भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं। परीक्षित! जैसे शराब से भरे घड़े को नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं, वैसे ही बड़े-बड़े प्रायश्चित बार-बार किये जाने पर भी भाग्वाद्विमुख मनुष्य को पवित्र करने में असमर्थ हैं। जिन्होंने अपने भगवद्गुणानुरागी मन-मधुकर को भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्द-मकरन्द का एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित कर लिये। वे स्वप्न में भी यमराज और उनके पाशधारी दूतों को नहीं देखते। फिर नरक की तो बात ही क्या है।

परीक्षित! इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। उसमें भगवान् विष्णु और यमराज के दूतों का संवाद है। तुम मुझसे उसे सुनो।

कान्यकुब्ज नगर (कन्नौज) में एक दासीपति ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था अजामिल। दासी के संसर्ग से दूषित होने के कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था। वह पतित कभी बटोहियों को बाँधकर उन्हें लूट लेता, कभी लोगों को जुए में छल से हरा देता, किसी का धन धोखा-धड़ी से ले लेता तो किसी का चुरा लेता। इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्ति का आश्रय लेकर वह कुटुम्ब का पेट भरता था और दूसरे प्राणियों को बहुत ही सताता था। परीक्षित! इसी प्रकार वह वहाँ रहकर दासी के बच्चों का लालन-पालन करता रहा। इस प्रकार उसकी आयु का बहुत बड़ा भाग-अट्ठासी वर्ष बीत गया। बूढ़े अजामिल के के दस पुत्र थे। उनमें सबसे छोटे का नाम था नारायण। माँ-बाप उससे बहुत प्यार करते थे। वृद्ध अजामिल ने अत्यन्त मोह के कारण अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। वह अपने बच्चे की तोतली बोली सुन-सुनकर तथा बाल सुलभ खेल देख-देखकर फूला नहीं समाता था। अजामिल बालक के स्नेह-बन्धन में बँध गया था। जब वह खाता तब उसे भी खिलाता, जब पानी पीता तो उसे भी पिलाता। इस प्रकार वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुँची है।

स एवं वर्तमानोऽज्ञो मृत्युकाल उपस्थिते ।

मतिं चकार तनये बाले नारायणाह्वये ॥ २७॥

स पाशहस्तांस्त्रीन् दृष्ट्वा पुरुषान् भृशदारुणान् ।

वक्रतुण्डानूर्ध्वरोम्ण आत्मानं नेतुमागतान् ॥ २८॥

दूरे क्रीडनकासक्तं पुत्रं नारायणाह्वयम् ।

प्लावितेन स्वरेणोच्चैराजुहावाकुलेन्द्रियः ॥ २९॥

निशम्य म्रियमाणस्य ब्रुवतो हरिकीर्तनम् ।

भर्तुर्नाम महाराज पार्षदाः सहसापतन् ॥ ३०॥

विकर्षतोऽन्तर्हृदयाद्दासीपतिमजामिलम् ।

यमप्रेष्यान् विष्णुदूता वारयामासुरोजसा ॥ ३१॥

ऊचुर्निषेधितास्तांस्ते वैवस्वतपुरःसराः ।

के यूयं प्रतिषेद्धारो धर्मराजस्य शासनम् ॥ ३२॥

कस्य वा कुत आयाताः कस्मादस्य निषेधथ ।

किं देवा उपदेवा या यूयं किं सिद्धसत्तमाः ॥ ३३॥

सर्वे पद्मपलाशाक्षाः पीतकौशेयवाससः ।

किरीटिनः कुण्डलिनो लसत्पुष्करमालिनः ॥ ३४॥

सर्वे च नूत्नवयसः सर्वे चारुचतुर्भुजाः ।

धनुर्निषङ्गासिगदाशङ्खचक्राम्बुजश्रियः ॥ ३५॥

दिशो वितिमिरालोकाः कुर्वन्तः स्वेन रोचिषा ।

किमर्थं धर्मपालस्य किङ्करान्नो निषेधथ ॥ ३६॥

वह मूर्ख इसी प्रकार अपना जीवन बिता रहा था कि मृत्यु का समय आ पहुँचा। अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के सम्बन्ध में ही सोचने-विचारने लगा। इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं। उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था। यमदूतों को देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने बहुत ऊँचे स्वर से पुकारा- नारायण!। भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेग से झटपट वहाँ आ पहुँचे। उस समय यमराज के दूत दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। विष्णुदूतों ने बलपूर्वक रोक दिया।

उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा ;- ‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करने वाले तुम लोग हो कौन? तुम किसके दूत हो, कहाँ से आये हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हो? क्या तुम लोग कोई देवता, उपदेवता अथवा सिद्धश्रेष्ठ हो? हम देखते हैं कि तुम सब लोगों के नेत्र कमलदल के समान कोमलता से भरे हैं, तुम पीले-पीले रेशमी वस्त्र पहने हो, तुम्हारे सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और गलों में कमल के हार लहरा रहे हैं। सबकी नयी अवस्था है, सुन्दर-सुन्दर चार-चार भुजाएँ हैं, सभी के करकमलों में धनुष, तरकश, तलवार, गदा, शंख, चक्र, कमल आदि सुशोभित हैं। तुम लोगों की अंगकान्ति से दिशाओं का अन्धकार और प्राकृत प्रकाश भी दूर हो रहा है। हम धर्मराज के सेवक हैं। हमें तुम लोग क्यों रोक रहे हो?

श्रीशुक उवाच

इत्युक्ते यमदूतैस्तैर्वासुदेवोक्तकारिणः ।

तान् प्रत्यूचुः प्रहस्येदं मेघनिर्ह्रादया गिरा ॥ ३७॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब यमदूतों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायण के आज्ञाकारी पार्षदों ने हँसकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उनके प्रति यों कहा।

विष्णुदूता ऊचुः

यूयं वै धर्मराजस्य यदि निर्देशकारिणः ।

ब्रूत धर्मस्य नस्तत्त्वं यच्च धर्मस्य लक्षणम् ॥ ३८॥

कथं स्विद्ध्रियते दण्डः किं वास्य स्थानमीप्सितम् ।

दण्ड्याः किं कारिणः सर्वे आहोस्वित्कतिचिन्नृणाम् ॥ ३९॥

भगवान् के पार्षदों ने कहा ;- यमदूतो! यदि तुम लोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्त्व सुनाओ। दण्ड किस प्रकार दिया जाता है? दण्ड का पात्र कौन है? मनुष्यों में सभी पापाचारी दण्डनीय हैं अथवा उनमें से कुछ ही?

यमदूता ऊचुः

वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः ।

वेदो नारायणः साक्षात्स्वयम्भूरिति शुश्रुम ॥ ४०॥

येन स्वधाम्न्यमी भावा रजःसत्त्वतमोमयाः ।

गुणनामक्रियारूपैर्विभाव्यन्ते यथातथम् ॥ ४१॥

सूर्योऽग्निः खं मरुद्गावः सोमः सन्ध्याहनी दिशः ।

कं कुः स्वयं धर्म इति ह्येते दैह्यस्य साक्षिणः ॥ ४२॥

एतैरधर्मो विज्ञातः स्थानं दण्डस्य युज्यते ।

सर्वे कर्मानुरोधेन दण्डमर्हन्ति कारिणः ॥ ४३॥

यमदूतों ने कहा ;- वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरूप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयं प्रकाश ज्ञान हैं-ऐसा हमने सुना है। जगत् के राजोमय, सत्त्वमय और तमोमय-सभी पदार्थ, सभी प्राणी अपने परम आश्रय भगवान् में ही स्थित रहते हैं। वेद ही उनके गुण, नाम, कर्म और रूप आदि के अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं। जीव शरीर अथवा मनोवृत्तियों से जितने कर्म करता है, उसके साक्षी रहते हैं-सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियाँ, चन्द्रमा, सन्ध्या, रात, दिन, दिशाएँ, जल, पृथ्वी, काल और धर्म। इनके द्वारा अधर्म का पता चल जाता है और तब दण्ड के पात्र का निर्णय होता है। पाप कर्म करने वाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार दण्डनीय होते हैं।

सम्भवन्ति हि भद्राणि विपरीतानि चानघाः ।

कारिणां गुणसङ्गोऽस्ति देहवान् न ह्यकर्मकृत् ॥ ४४॥

येन यावान् यथाधर्मो धर्मो वेह समीहितः ।

स एव तत्फलं भुङ्क्ते तथा तावदमुत्र वै ॥ ४५॥

यथेह देवप्रवरास्त्रैविध्यमुपलभ्यते ।

भूतेषु गुणवैचित्र्यात्तथान्यत्रानुमीयते ॥ ४६॥

वर्तमानोऽन्ययोः कालो गुणाभिज्ञापको यथा ।

एवं जन्मान्ययोरेतद्धर्माधर्मनिदर्शनम् ॥ ४७॥

मनसैव पुरे देवः पूर्वरूपं विपश्यति ।

अनुमीमांसतेऽपूर्वं मनसा भगवानजः ॥ ४८॥

यथाज्ञस्तमसा युक्त उपास्ते व्यक्तमेव हि ।

न वेद पूर्वमपरं नष्टजन्मस्मृतिस्तथा ॥ ४९॥

पञ्चभिः कुरुते स्वार्थान् पञ्च वेदाथ पञ्चभिः ।

एकस्तु षोडशेन त्रीन् स्वयं सप्तदशोऽश्नुते ॥ ५०॥

तदेतत्षोडशकलं लिङ्गं शक्तित्रयं महत् ।

धत्तेऽनु संसृतिं पुंसि हर्षशोकभयार्तिदाम् ॥ ५१॥

देह्यज्ञोऽजितषड्वर्गो नेच्छन् कर्माणि कार्यते ।

कोशकार इवात्मानं कर्मणाऽऽच्छाद्य मुह्यति ॥ ५२॥

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।

कार्यते ह्यवशः कर्म गुणैः स्वाभाविकैर्बलात् ॥ ५३॥

लब्ध्वा निमित्तमव्यक्तं व्यक्ताव्यक्तं भवत्युत ।

यथायोनि यथाबीजं स्वभावेन बलीयसा ॥ ५४॥

एष प्रकृतिसङ्गेन पुरुषस्य विपर्ययः ।

आसीत्स एव न चिरादीशसङ्गाद्विलीयते ॥ ५५॥

अयं हि श्रुतसम्पन्नः शीलवृत्तगुणालयः ।

धृतव्रतो मृदुर्दान्तः सत्यवान्मन्त्रविच्छुचिः ॥ ५६॥

निष्पाप पुरुषों! जो प्राणी कर्म करते हैं, उनका गुणों से सम्बन्ध रहता ही है। इसीलिये सभी से कुछ पाप और कुछ पुण्य होते ही हैं और देहवान् होकर कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता। इस लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोक में उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है।

देवशिरोमणियो! सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों के भेद के कारण इस लोक में भी तीन प्रकार के प्राणी दीख पड़ते हैं-पुण्यात्मा, पापात्मा और पुण्य-पाप दोनों से युक्त अथवा सुखी, दुःखी और सुख-दुःख दोनों से युक्त; वैसे ही परलोक में भी उनकी त्रिविधता का अनुमान किया जाता है। वर्तमान समय ही भूत और भविष्य का अनुमान करा देता है। वैसे ही वर्तमान जन्म के पाप-पुण्य भी भूत और भविष्य-जन्मों के पाप-पुण्य का अनुमान करा देते हैं। हमारे स्वामी अजन्मा भगवान् सर्वज्ञ यमराज सबके अन्तःकरणों में ही विराजमान हैं। इसलिये वे अपने मन से ही सबके पूर्व रूपों को देख लेते हैं। वे साथ ही उनके भावी स्वरूप का भी विचार कर लेते हैं। जैसे सोया हुआ अज्ञानी पुरुष स्वप्न के समय प्रतीत हो रहे कल्पित शरीर को ही अपना वास्तविक शरीर समझता है, सोये हुए अथवा जागने वाले शरीर को भूल जाता है, वैसे ही जीव भी अपने पूर्व जन्मों की याद भूल जाता है और वर्तमान शरीर के सिवा पहले और पिछले शरीरों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता।

सिद्धपुरुषो! जीव इस शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियों से लेना-देना, चलना-फिरना आदि काम करता है, पाँच ज्ञानेन्द्रियों से रूप-रस आदि पाँच विषयों का अनुभव करता है और सोलहवें मन के साथ सत्रहवाँ वह स्वयं मिलकर अकेले ही मन, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय-इन तीनों के विषयों को भोगता है। जीव का यह सोलह कला और सत्त्वादि तीन गुणों वाला लिंग शरीर अनादि है। यही जीव को बार-बार हर्ष, शोक, भय और पीड़ा देने वाले जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालता है। जो जीव अज्ञानवश काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए भी विभिन्न वासनाओं के अनुसार अनेकों कर्म करने पड़ते हैं। वैसी स्थिति में वह रेशम के कीड़े के समान अपने को कर्म के जाल में जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों मोह का शिकार बन जाता है। कोई शरीरधारी जीव बिना कर्म किये कभी एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रत्येक प्राणी के स्वाभाविक गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म कराते हैं। जीव अपने पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यमय संस्कारों के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है। उसकी स्वाभाविक एवं प्रबल वासनाएँ कभी उसे माता के-जैसा (स्त्रीरूप) बना देती हैं, तो कभी पिता के-जैसा (पुरुषरूप)। प्रकृति का संसर्ग होने से ही पुरुष अपने को अपने वास्तविक स्वरूप के विपरीत लिंग शरीर मान बैठा है। यह विपर्यय भगवान् के भजन से शीघ्र ही दूर हो जाता है।

देवताओं! आप जानते ही हैं कि यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था। ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था।

गुर्वग्न्यतिथिवृद्धानां शुश्रूषुरनहङ्कृतः ।

सर्वभूतसुहृत्साधुर्मितवागनसूयकः ॥ ५७॥

एकदासौ वनं यातः पितृसन्देशकृद्द्विजः ।

आदाय तत आवृत्तः फलपुष्पसमित्कुशान् ॥ ५८॥

ददर्श कामिनं कञ्चिच्छूद्रं सह भुजिष्यया ।

पीत्वा च मधु मैरेयं मदाघूर्णितनेत्रया ॥ ५९॥

मत्तया विश्लथन्नीव्या व्यपेतं निरपत्रपम् ।

क्रीडन्तमनुगायन्तं हसन्तमनयान्तिके ॥ ६०॥

दृष्ट्वा तां कामलिप्तेन बाहुना परिरम्भिताम् ।

जगाम हृच्छयवशं सहसैव विमोहितः ॥ ६१॥

स्तम्भयन्नात्मनाऽऽत्मानं यावत्सत्त्वं यथाश्रुतम् ।

न शशाक समाधातुं मनो मदनवेपितम् ॥ ६२॥

तन्निमित्तस्मरव्याजग्रहग्रस्तो विचेतनः ।

तामेव मनसा ध्यायन् स्वधर्माद्विरराम ह ॥ ६३॥

तामेव तोषयामास पित्र्येणार्थेन यावता ।

ग्राम्यैर्मनोरमैः कामैः प्रसीदेत यथा तथा ॥ ६४॥

विप्रां स्वभार्यामप्रौढां कुले महति लम्भिताम् ।

विससर्जाचिरात्पापः स्वैरिण्यापाङ्गविद्धधीः ॥ ६५॥

यतस्ततश्चोपनिन्ये न्यायतोऽन्यायतो धनम् ।

बभारास्याः कुटुम्बिन्याः कुटुम्बं मन्दधीरयम् ॥ ६६॥

यदसौ शास्त्रमुल्लङ्घ्य स्वैरचार्यार्यगर्हितः ।

अवर्तत चिरं कालमघायुरशुचिर्मलात् ॥ ६७॥

तत एनं दण्डपाणेः सकाशं कृतकिल्बिषम् ।

नेष्यामोऽकृतनिर्वेशं यत्र दण्डेन शुद्ध्यति ॥ ६८॥

इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्ध पुरुषों की सेवा की थी। अहंकार तो इसमें था ही नहीं। यह समस्त प्राणियों का हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और किसी के गुणों में दोष नहीं ढूँढता था।

एक दिन यह ब्राह्मण अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर के लिये लौटा। लौटते समय इसने देखा कि एक भ्रष्ट शूद्र, जो बहुत कामी और निर्लज्ज है, शराब पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है। वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। नशे के कारण उसकी आँखें नाच रही हैं, वह अर्द्धनग्न अवस्थाओं में हो रही है। वह शूद्र उस वेश्या के साथ कभी गाता, कभी हँसता और कभी तरह-तरह की चेष्टाएँ करके उसे प्रसन्न करता है।

निष्पाप पुरुषो! शूद्र की भुजाओं में अंगरागादि कामोद्दीपक वस्तुएँ लगी हुई थीं और वह उनसे उस कुलटा का आलिंगन कर रहा था। अजामिल उन्हें इस अवस्था में देखकर सहसा मोहित और काम के वश हो गया। यद्यपि अजामिल ने अपने धैर्य और ज्ञान के अनुसार अपने कामवेग से विचलित मन को रोकने की बहुत-बहुत चेष्टाएँ कीं, परन्तु पूरी शक्ति लगा देने पर भी वह अपने मन को रोकने में असमर्थ रहा। उस वेश्या को निमित्त बनाकर काम-पिशाच ने अजामिल के मन को ग्रस लिया। इसकी सदाचार और शास्त्रसम्बन्धी चेतना नष्ट हो गयी। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया।

अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया। यह ब्राह्मण उसी प्रकार की चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो। उस स्वच्छन्दचारिणी कुलटा की तिरछी चितवन ने इसके मन को ऐसा लुभा लिया कि इसने अपने कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया। इसके पाप की भी भला कोई सीमा है। यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता। उस वेश्या के बड़े कुटुम्ब का पालन करने में ही यह व्यस्त रहता।

इस पापी ने शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करके स्वच्छन्द आचरण किया है। यह सत्पुरुषों के द्वारा निन्दित है। इसने बहुत दिनों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया है, इसका सारा जीवन ही पापमय है। इसने अब तक अपने पापों का कोई प्रायश्चित भी नहीं किया है। इसलिये अब हम इस पापी को दण्डपाणि भगवान् यमराज के पास ले जायँगे। वहाँ यह अपने पापों का दण्ड भोगकर शुद्ध हो जायगा।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे अजामिलोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः  

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