श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय २
श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय
स्कन्ध अध्याय २
"भगवान के स्थूल और सूक्ष्मरूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन"
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः २ अध्यायः २
श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्धः
द्वितीय अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण दूसरा स्कन्ध
दूसरा अध्याय
द्वितीय स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
{द्वितीय
स्कन्ध:}
【द्वितीय
अध्याय:】
श्रीशुक उवाच ।
एवं पुरा धारणयाऽऽत्मयोनिः
नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात् ।
तथा ससर्जेदममोघदृष्टिः
यथाप्ययात् प्राक् व्यवसायबुद्धिः ॥ १ ॥
शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था
यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः ।
परिभ्रमन् तत्र न विन्दतेऽर्थान्
मायामये वासनया शयानः ॥ २ ॥
अतः कविर्नामसु यावदर्थः
स्याद् अप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः ।
सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र
परिश्रमं तत्र समीक्षमाणः ॥ ३ ॥
सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैः
बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् ।
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या
दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ॥ ४ ॥
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति
भिक्षां ।
नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन् ।
रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति
नोपसन्नान् ।
कस्माद् भजंति कवयो धनदुर्मदान्धान् ॥ ५ ॥
एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध
आत्मा प्रियोऽर्थो भगवान अनंतः ।
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत
संसारहेतूपरमश्च यत्र ॥ ६ ॥
कस्तां त्वनादृत्य परानुचिन्तां
ऋते पशून् असतीं नाम कुर्यात् ।
पश्यञ्जनं पतितं वैतरण्यां
स्वकर्मजान् परितापान् जुषाणम् ॥ ७ ॥
केचित् स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे
प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् ।
चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्गशङ्ख
गदाधरं धारणया स्मरन्ति ॥ ८ ॥
प्रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं
कदंबकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम् ।
लसन्महारत्नहिरण्मयाङ्गदं
स्फुरन् महारत्नकिरीटकुण्डलम् ॥ ९ ॥
उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये
योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम् ।
श्रीलक्षणं कौस्तुभरत्नकन्धरं
अम्लानलक्ष्म्या वनमालयाचितम् ॥ १० ॥
विभूषितं मेखलयाऽङ्गुलीयकैः
महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः ।
स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलैः
विरोचमानाननहासपेशलम् ॥ ११ ॥
अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लसद्
भ्रूभङ्गसंसूचितभूर्यनुग्रहम् ।
ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं
यावन्मनो धारणयाऽवतिष्ठते ॥ १२ ॥
एकैकशोऽङ्गानि धियानुभावयेत्
पादादि यावद् हसितं गदाभृतः ।
जितं जितं स्थानमपोह्य धारयेत्
परं परं शुद्ध्यति धीर्यथा यथा ॥ १३ ॥
यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन्
विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः ।
तावत् स्थवीयः पुरुषस्य रूपं
क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत ॥ १४ ॥
स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यतिः
यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्
प्राणान् नियच्छेन्मनसा जितासुः ॥ १५ ॥
मनः स्वबुद्ध्याऽमलया नियम्य
क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत् तमात्मनि ।
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो
लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात् ॥ १६ ॥
न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः
कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे ।
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च
न वै विकारो न महान् प्रधानम् ॥ १७ ॥
परं पदं वैष्णवमामनन्ति
तद् यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः ।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
हृदोपगुह्यार्हपदं पदे पदे ॥ १८ ॥
इत्थं मुनिस्तूपरमेद् व्यवस्थितो
विज्ञानदृग्वीर्य सुरन्धिताशयः ।
स्वपार्ष्णिनऽपीड्य गुदं ततोऽनिलं
स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः ॥ १९ ॥
नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य
तस्माद्
उदुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः ।
ततोऽनुसन्धाय धिया मनस्वी
स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत ॥ २० ॥
तस्माद् भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत
निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्षः ।
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठदृष्टिः
निर्भिद्य मूर्धन् विसृजेत् परं गतः ॥ २१ ॥
यदि प्रयास्यन् नृप पारमेष्ठ्यं
वैहायसानामुत यद् विहारम् ।
अष्टाधिपत्यं गुणसन्निवाये
सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च ॥ २२ ॥
योगेश्वराणां गतिमाहुरन्तः
बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम् ।
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति
विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् ॥ २३ ॥
वैश्वानरं याति विहायसा गतः
सुषुम्नया ब्रह्मपथेन शोचिषा ।
विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात्
प्रयाति चक्रं नृप शैशुमारम् ॥ २४ ॥
तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोः
अणीयसा विरजेनात्मनैकः ।
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति
कल्पायुषो यद् विबुधा रमन्ते ॥ २५ ॥
अथो अनन्तस्य मुखानलेन
दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम् ।
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं
यद् द्वैपरार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम् ॥ २६ ॥
न यत्र शोको न जरा न मृत्युः
न आर्तिः न चोद्वेग ऋते कुतश्चित् ।
यच्चित्ततोऽदः कृपयानिदं विदां
दुरन्तदुःखप्रभवानुदर्शनात् ॥ २७ ॥
ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भयः
तेनात्मनापोऽनलमूर्तिरत्वरन् ।
ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले
वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिङ्गम् ॥ २८ ॥
घ्राणेन गन्धं रसनेन वै रसं
रूपं च दृष्ट्या श्वसनं त्वचैव ।
श्रोत्रेण चोपेत्य नभोगुणत्वं
प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी ॥ २९ ॥
स भूतसूक्ष्मेन्द्रियसन्निकर्षं
मनोमयं देवमयं विकार्यम् ।
संसाद्य गत्या सह तेन याति
विज्ञानतत्त्वं गुणसंनिरोधम् ॥ ३० ॥
तेनात्मनात्मानमुपैति शान्तं
आनंदमानंदमयोऽवसाने ।
एतां गतिं भागवतीं गतो यः
स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग ॥ ३१ ॥
एते सृती ते नृप वेदगीते
त्वयाभिपृष्टे च सनातने च ।
ये वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्ट
आराधितो भगवान् वासुदेवः ॥ ३२ ॥
न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः
संसृताविह ।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगो यतो भवेत्
॥ ३३ ॥
भगवान्ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन्
वीक्ष्य मनीषया ।
तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो
भवेत् ॥ ३४ ॥
भगवान् सर्वभूतेषु लक्षितः
स्वात्मना हरिः ।
दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा
लक्षणैः अनुमापकैः ॥ ३५ ॥
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः
सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो
भगवान् नृणाम् ॥ ३६ ॥
पिबन्ति ये भगवत आत्मनः
सतां कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं
व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ॥ ३७ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
द्वितीयस्कंधे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २
॥
श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध द्वितीय अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;-
सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रम्हाजी ने इसी धारणा के द्वारा प्रसन्न
हुए भगवान से वह सृष्टि विषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलयकाल में विलुप्त
हो गयी थी। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी तब उन्होंने इस
जगत् को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलय के पहले था । वेदों की वर्णन शैली ही इस
प्रकार की है कि लोगों की बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामों के फेर में फँस जाती है,
जीव वहाँ सुख की वासना में स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है;
किंतु उस मायामय लोकों में कहीं भी उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं
होती ।
इसलिये विद्वान् पुरुष को चाहिये कि
वह विविध नाम वाले पदार्थों से उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजननीय हो। अपनी बुद्धि को उनकी निस्सारता के निश्चय से
परिपूर्ण रखे और एक क्षण के लिये भी असावधान न हो। यदि संसार के पदार्थ प्रारब्धवश
बिना परिश्रम के यों ही मिल जायँ, तब उनके उपार्जन का
परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे । जब जमीन पर सोने से काम चल
सकता है तब पलँग के लिये प्रयत्न करने से क्या प्रयोजन। जब भुजाएँ अपने को भगवान
की कृपा से स्वयं ही मिली हुई हैं तब तकियों की क्या आवश्यकता। जब अंजलि से काम चल
सकता है तब बहुत-से बर्तन क्यों बटोरें। वृक्ष की छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी
यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रों की क्या आवश्यकता , पहनने को क्या रास्तों में चिथड़े नहीं हैं ? भूख
लगने पर दूसरों के लिये ही शरीर धारण करने वाले वृक्ष क्या फल-फूल की भिक्षा नहीं
देते ? जल चाहने वालों के लिये नदियाँ या बिलकुल सूख गयी हैं
? रहने के लिये क्या पहाड़ों की गुफाएँ बंद कर दी गयीं हैं ?
अरे भाई! सब न सही,
क्या भगवान भी अपने शरणागतों की रक्षा नहीं करते ? ऐसी स्थिति में बुद्धिमान लोग भी धन के नशे में चूर घमंडी धनियों की
चापलूसी क्यों करते हैं ? इस प्रकार विरक्त हो जाने पर अपने
हृदय में नित्य विराजमान, स्वतःसिद्ध, आत्मस्वरुप,
परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्त भगवान हैं,
बड़े प्रेम और आनन्द से दृढ़ निश्चय करके उन्हीं का भजन करें;
क्योंकि उनके भजन से जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले अज्ञान का
नाश हो जाता है । पशुओं की बात तो अलग है; परन्तु मनुष्यों
में भला ऐसा कौन है जो लोगों को इस संसाररूप वैतरणी नदी में गिरकर अपने कर्मजन्य
दुःखों को भोगते हुए देखकर भी भगवान का मंगलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगों में ही अपने चित्त को भटकने देगा ?
कोई-कोई साधक अपने शरीर के भीतर
हृदयाकाश में विराजमान भगवान के प्रादेशमात्र स्वरुप की धारणा करते हैं। वे ऐसा
ध्यान करते हैं कि भगवान की चार भुजाओं में, शंख,
चक्र, गदा और पद्म हैं । उनके मुख पर
प्रसन्नता झलक रही है। कमल के समान विशाल और कोमल नेत्र हैं। कदम्ब के पुष्प की
केसर के समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओं में श्रेष्ठ रत्नों से जड़े
हुए सोने के बाजूबंद शोभायमान हैं। सिर पर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानों में
कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ।
उनके चरणकमल योगेश्वरों के खिले हुए
हृदयकमल की कर्णिका पर विराजित हैं। उनके ह्रदय पर श्रीवत्स का चिन्ह—एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि लटक रही है। वक्षःस्थल कभी न
कुम्हलाने वाली वनमाला घिरा हुआ है । वे कमर में करधनी, अँगुलियों
में बहुमूल्य अँगूठी, चरणों में नूपुर और हाथों में कंगन आदि
आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके बालों की लटें बहुत चिकनी, निर्मल,
घुँघराली और नीली हैं। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकान से खिल रहा है
। लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवन से शोभायमान भौहों के द्वारा वे भक्तोजनों पर
अनन्त अनुग्रह की वर्षा कर रहे हैं। जब तक मन इस धारणा के द्वारा स्थिर न हो जाय,
तब तक बार-बार इन चिन्तन स्वरुप भगवान को देखते रहने की चेष्टा करनी
चाहिये । भगवान के चरण-कमलों से लेकर उनके मुसकान युक्त मुखकमल पर्यन्त समस्त
अंगों की एक-एक करके बुद्धि के द्वारा धारणा करनी चाहिये। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध
होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अंग का
ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोड़कर दूसरे अंग का ध्यान
करना चाहिये ।
ये विश्वेश्वर भगवान का दृश्य नहीं,
द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण—सब कुछ इन्हीं का स्वरुप है। जब तक इनमें अनन्य प्रेममय भक्ति योग न हो
जाय तब तक साधक को नित्य-नैमित्तिक कर्मों के बाद एकाग्रता से भगवान के उपर्युक्त
स्थूलरूप का ही चिन्तन करना चाहिये । परीक्षित्! जब योगी पुरुष इस मनुष्य लोक को
छोड़ना चाहे तब देश और काल में मन को न लगाये। सुख पूर्वक स्थिर आसन से बैठकर
प्राणों को जीतकर मन से इन्द्रियों का संयम करे । तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धि से
मन को नियमित करके मन के साथ बुद्धि को क्षेत्रज्ञ में और क्षेत्रज्ञ को
अन्तरात्मा में लीन कर दे। फिर अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन करके धीर पुरुष उस
समय शान्तिमय अवस्था में स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ।
इस अवस्था में सत्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुण की
तो बात ही क्या है। अहंकार, महतत्व और प्रकृति का भी वहाँ
अस्तित्व नहीं है। उस स्थिति में जब देवताओं के नियामक काल की भी दाल नहीं गलती,
तब देवता और उनके अधीन रहने वाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं ?
योगी लोग ‘यह नहीं, यह
नहीं’—इस प्रकार परमात्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग करना
चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थों में आत्मबुद्धि का त्याग करके हृदय
के द्वारा पद-पद पर भगवान के जिस परम पूज्य स्वरुप का आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेम
से परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान विष्णु का परम पद है—इस विषय में समस्त शास्त्रों की सम्मति है । ज्ञान दृष्टि के बल से जिसके
चित्त की वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रम्हनिष्ठ योगी को इस
प्रकार अपने शरीर का त्याग करना चाहिये। पहले एड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो
जाय और तब बिना घबड़ाहट के प्राण वायु को षट्चक्र भेदन की रीति से ऊपर ले जाय ।
मनस्वी योगी को चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरक में स्थित वायु को हृदयचक्र अनाहत में,
वहाँ से उदानवायु के द्वारा वक्षःस्थल के ऊपर विशुद्ध चक्र में,
फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में (विशुद्ध चक्र के अग्रभाग
में) चढ़ा दे ।
तदनन्तर दो आँख,
दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायु को भौंहों के बीच
आज्ञाचक्र में ले जाय। यदि किसी लोक में जाने की इच्छा न हो तो आधी घड़ी तक उस
वायु को वहीं रोककर स्थिर लक्ष्य के साथ उसे सहस्त्रासर में ले जाकर परमात्मा में
स्थित हो जाय। इसके बाद ब्रम्हरन्ध्र का भेदन करके शरीर-इन्द्रियादि को छोड़ दे ।
परीक्षित्! यदि योगी की इच्छा हो कि
मैं ब्रम्हलोक में जाऊँ, आठों सिद्धियाँ
प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रम्हाण के किसी
भी प्रदेश में विचरण करूँ तो उसे मन और इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना
चाहिये । योगियों का शरीर वायु की भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञान का सेवन करने वाले योगियों को
त्रिलोकी के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है।
केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार बरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ।
परीक्षित्! योगी ज्योतिर्मय मार्ग
सुषुम्णा के द्वारा जब ब्रम्हलोक के लिये प्रस्थान करता है,
तब पहले वह आकाश मार्ग से अग्नि लोक में जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँ से ऊपर भगवान
श्रीहरि के शिशुमार नामक ज्योतिर्मयचक्र पर पहुँचता है । भगवान विष्णु का यह
शिशुमारचक्र विश्व-ब्रम्हाण्ड के भ्रमण का केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त
सूक्ष्म एवं निर्मल शरीर से व अकेला ही महर्लोक में जाता है। वह लोक वेत्ताओं के
द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्प पर्यन्त जीवित रहने वाले देवता विहार करते रहते
हैं । फिर जब प्रलय का समय आता है, तब नीचे के लोकों को शेष
के मुख से निकली हुई आग के द्वारा भस्म होते देख वह ब्रम्हलोक में चला जाता है,
जिस ब्रम्हलोक में बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानों पर निवास करते हैं।
उस ब्रम्हलोक की आयु ब्रम्हा की आयु के समान ही दो परार्द्ध की है । वहाँ न शोक है
न दुःख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकार का
उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दुःख है तो केवल एक बात का। वह यही
है कि इस परम पद को न जानने वाले लोगों के जन्म-मृत्युमय अत्यन्त घोर संकटों को
देखकर दयावश वहाँ के लोगों के मन में बड़ी व्यथा होती है । सत्यलोक में पहुँचने के
पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है और फिर
उतावली न करते हुए सात आवरणों का भेदन करता है। पृथ्वी रूप से जल को और जल रूप से
अग्निमय आवरणों को प्राप्त होकर वह ज्योति रूप से वायु रूप आवरणों में आ जाता है
और वहाँ से समय पर ब्रम्ह की अनन्तता का बोध कराने वाले आकाश रूप आवरणों को
प्राप्त करता है । इस प्रकार स्थूल आवरणों को पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने
सूक्ष्म अधिष्ठान में लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रामें, रसना रसतन्मात्रा में, नेत्र रूपतन्मात्रा में,
त्वचा स्पर्शतन्मात्रा में, श्रोत्र
शब्दतन्मात्रा में और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रिया शक्ति में मिलकर अपने-अपने
सूक्ष्मस्वरुप को प्राप्त हो जाती हैं ।
इस प्रकार योगी पंचभूतों के
स्थूल-सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतो
को तामस अहंकार में, इन्द्रियों को राजस
अहंकार में तथा मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं को सात्विक अहंकार में लीन
कर देता है। इसके बाद अहंकार के सहित लयरूप गति के द्वारा महतत्व में प्रवेश करके
अन्त में समस्त गुणों के लयस्थान प्रकृति रूप आवरण में जा मिलता है ।
परीक्षित्! महाप्रलय के समय प्रकृति
रूप आवरण का भी लय हो जाने पर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरुप होकर अपने उस निवारण उप
से आनन्दस्वरुप शान्त परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गति की
प्राप्ति हो जाती है उसे फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता । परीक्षित्! तुमने जो
पूछा था,
उसके उत्तर में मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्दोमुक्ति और
क्रममुक्ति का तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रम्हाजी ने भगवान वासुदेव की आरधना करके
उनसे जब पश्न किया था, तब उन्होंने उत्तर में इन्हीं दोनों
मार्गों की बात ब्रम्हाजी से कही थी । संसारचक्र में पड़े हुए मनुष्य के लिये जिस
साधन के द्वारा उसे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय,
उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है । भगवान ब्रम्हा
ने एकाग्रचित्त से सारे वेदों का तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धि से यही निश्चय
किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो वही
सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं । समस्त चर-अचर प्राणियों में उनके आत्मारूप से भगवान
श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य
पदार्थ उनका अनुमान कराने वाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी
एकमात्र द्रष्टा हैं ।
परीक्षित्! इसलिये मनुष्यों को
चाहिये कि सब समय सभी स्थितियों में अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि का ही
श्रवण,
कीर्तन और स्मरण करे । राजन्! संत पुरुष आत्मस्वरुप भगवान की कथा का
मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कान के दोनों में
भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके ह्रदय से विषयों का विषैला
प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान
श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण
का पारमहंस्या संहिताया द्वितीय स्कन्ध द्वितीय
अध्याय समाप्त हुआ ॥ २॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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