श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १२                               

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १२ "वृत्रासुर का वध"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १२                                                   

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः १२                                                      

श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध बारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ द्वादशोऽध्यायः ॥

ऋषिरुवाच

एवं जिहासुर्नृप देहमाजौ

मृत्युं वरं विजयान्मन्यमानः ।

शूलं प्रगृह्याभ्यपतत्सुरेन्द्रं

यथा महापुरुषं कैटभोऽप्सु ॥ १॥

ततो युगान्ताग्निकठोरजिह्व-

माविध्य शूलं तरसासुरेन्द्रः ।

क्षिप्त्वा महेन्द्राय विनद्य वीरो

हतोऽसि पापेति रुषा जगाद ॥ २॥

ख आपतत्तद्विचलद्ग्रहोल्कव-

न्निरीक्ष्य दुष्प्रेक्ष्यमजातविक्लवः ।

वज्रेण वज्री शतपर्वणाच्छिन-

द्भुजं च तस्योरगराजभोगम् ॥ ३॥

छिन्नैकबाहुः परिघेण वृत्रः

संरब्ध आसाद्य गृहीतवज्रम् ।

हनौ तताडेन्द्रमथामरेभं

वज्रं च हस्तान्न्यपतन्मघोनः ॥ ४॥

वृत्रस्य कर्मातिमहाद्भुतं तत्

सुरासुराश्चारणसिद्धसङ्घाः ।

अपूजयंस्तत्पुरुहूतसङ्कटं

निरीक्ष्य हा हेति विचुक्रुशुर्भृशम् ॥ ५॥

इन्द्रो न वज्रं जगृहे विलज्जित-

श्च्युतं स्वहस्तादरिसन्निधौ पुनः ।

तमाह वृत्रो हर आत्तवज्रो

जहि स्वशत्रुं न विषादकालः ॥ ६॥

युयुत्सतां कुत्रचिदाततायिनां

जयः सदैकत्र न वै परात्मनाम् ।

विनैकमुत्पत्तिलयस्थितीश्वरं

सर्वज्ञमाद्यं पुरुषं सनातनम् ॥ ७॥

लोकाः सपाला यस्येमे श्वसन्ति विवशा वशे ।

द्विजा इव शिचा बद्धाः स काल इह कारणम् ॥ ८॥

ओजः सहो बलं प्राणममृतं मृत्युमेव च ।

तमज्ञाय जनो हेतुमात्मानं मन्यते जडम् ॥ ९॥

यथा दारुमयी नारी यथा यन्त्रमयो मृगः ।

एवं भूतानि मघवन्नीशतन्त्राणि विद्धि भोः ॥ १०॥

पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमात्मा भूतेन्द्रियाशयाः ।

शक्नुवन्त्यस्य सर्गादौ न विना यदनुग्रहात् ॥ ११॥

अविद्वानेवमात्मानं मन्यतेऽनीशमीश्वरम् ।

भूतैः सृजति भूतानि ग्रसते तानि तैः स्वयम् ॥ १२॥

आयुः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यमाशिषः पुरुषस्य याः ।

भवन्त्येव हि तत्काले यथानिच्छोर्विपर्ययाः ॥ १३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! वृत्रासुर रणभूमि में अपना शरीर छोड़ना चाहता था, क्योंकि उसके विचार से इन्द्र पर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पाने की अपेक्षा मरकर भगवान् को प्राप्त करना श्रेष्ठ था। इसलिये जैसे प्रलयकालीन जल में कैटभासुर भगवान् विष्णु पर चोट करने के लिये दौड़ा था, वैसे ही वह भी त्रिशूल उठाकर इन्द्र पर टूट पड़ा। वीर वृत्रासुर ने प्रलयकालीन अग्नि की लपटों के समान तीखी नोकों वाले त्रिशूल को घुमाकर बड़े वेग से इन्द्र पर चलाया और अत्यन्त क्रोध से सिंहनाद करके बोला- पापी इन्द्र! अब तू बच नहीं सकता

इन्द्र ने यह देखकर कि वह भयंकर त्रिशूल ग्रह और उल्का के समान चक्कर काटता हुआ आकाश में आ रहा है, किसी प्रकार की अधीरता नहीं प्रकट की और उस त्रिशूल के साथ ही वासुकि नाग के समान वृत्रासुर की विशाल भुजा अपने सौ गाँठों वाले वज्र से काट डाली। एक बाँह कट जाने पर वृत्रासुर को बहुत क्रोध हुआ। उसने वज्रधारी इन्द्र के पास जाकर उनकी ठोड़ी में और गजराज ऐरावत पर परिघ से ऐसा प्रहार किया कि उनके हाथ से वह वज्र गिर पड़ा। वृत्रासुर के इस अत्यन्त अलौकिक कार्य को देखकर देवता, असुर, चारण, सिद्धगण आदि सभी प्रशंसा करने लगे। परन्तु इन्द्र का संकट देखकर वे ही लोग बार-बार हाय-हाय!कहकर चिल्लाने लगे।

परीक्षित! वह वज्र इन्द्र के हाथ से छूटकर वृत्रासुर के पास ही जा पड़ा था। इसलिये लज्जित होकर इन्द्र ने उसे फिर नहीं उठाया। तब वृत्रासुर ने कहा- इन्द्र! तुम वज्र उठाकर अपने शत्रु को मार डालो। यह विषाद करने का समय नहीं है। (देखो- ) सर्वज्ञ, सनातन, आदिपुरुष भगवान् ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने में समर्थ हैं। उनके अतिरिक्त देहाभिमानी और युद्ध के लिये उत्सुक आततायियों को सर्वदा जय ही नहीं मिलती। वे कभी जीतते हैं तो कभी हारते हैं। ये सब लोक और लोकपाल जाल में फँसे हुए पक्षियों की भाँति जिसकी अधीनता में विवश होकर चेष्टा करते हैं, वह काल ही सबकी जय-पराजय का कारण है। वही काल मनुष्य के मनोबल, इन्द्रियबल, शरीरबल, प्राण जीवन और मृत्यु के रूप में स्थित है। मनुष्य उसे न जानकर जड़ शरीर को ही जय-पराजय आदि का कारण समझता है।

इन्द्र! जैसे काठ की पुतली और यन्त्र का हरिण नचाने वाले के हाथ में होते हैं, वैसे ही तुम समस्त प्राणियों को भगवान् के अधीन समझो। भगवान् के कृपा-प्रसाद के बिना पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण-चतुष्टय- ये कोई भी इस विश्व की उत्पत्ति आदि करने में समर्थ नहीं हो सकते। जिसे इस बात का पता नहीं है कि भगवान् ही सबका नियन्त्रण करते हैं, वही इस परतन्त्र जीव को स्वतन्त्र कर्ता-भोक्ता मान बैठता है। वस्तुतः स्वयं भगवान् ही प्राणियों के द्वारा प्राणियों की रचना और उन्हीं के द्वारा उनका संहार करते हैं। जिस प्रकार इच्छा न होने पर भी समय विपरीत होने से मनुष्य को मृत्यु और अपयश आदि प्राप्त होते हैं- वैसे ही समय की अनुकूलता होने पर इच्छा न होने पर भी उसे आयु, लक्ष्मी, यश और ऐश्वर्य आदि भोग भी मिल जाते हैं।

तस्मादकीर्तियशसोर्जयापजययोरपि ।

समः स्यात्सुखदुःखाभ्यां मृत्युजीवितयोस्तथा ॥ १४॥

सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः ।

तत्र साक्षिणमात्मानं यो वेद न स बध्यते ॥ १५॥

पश्य मां निर्जितं शक्र वृक्णायुधभुजं मृधे ।

घटमानं यथाशक्ति तव प्राणजिहीर्षया ॥ १६॥

प्राणग्लहोऽयं समर इष्वक्षो वाहनासनः ।

अत्र न ज्ञायतेऽमुष्य जयोऽमुष्य पराजयः ॥ १७॥

इसलिये यश-अपयश, जय-पराजय, सुख-दुःख, जीवन-मरण- इनमें से किसी एक की इच्छा-अनिच्छा न रखकर सभी परिस्थियों में समभाव से रहना चाहिये- हर्ष-शोक के वशीभूत नहीं होना चाहिये। सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति के हैं, आत्मा के नहीं; अतः जो पुरुष आत्मा को उनका साक्षीमात्र जानता है, वह उनके गुण-दोष से लिप्त नहीं होता।

देवराज इन्द्र! मुझे भी तो देखो; तुमने मेरा हाथ और शस्त्र काटकर एक प्रकार से मुझे परास्त कर दिया है, फिर भी मैं तुम्हारे प्राण लेने के लिये यथाशक्ति प्रयत्न कर ही रहा हूँ। यह युद्ध क्या है, एक जुए का खेल। इसमें प्राण की बाजी लगती है, बाणों के पासे डाले जाते हैं और वाहन ही चौसर हैं। इसमें पहले से यह बात नहीं मालूम होती कि कौन जीतेगा कौन हारेगा।

श्रीशुक उवाच

इन्द्रो वृत्रवचः श्रुत्वा गतालीकमपूजयत् ।

गृहीतवज्रः प्रहसंस्तमाह गतविस्मयः ॥ १८॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वृत्रासुर के ये सत्य एवं निष्कपट वचन सुनकर इन्द्र ने उनका आदर किया और अपना वज्र उठा लिया। इसके बाद बिना किसी प्रकार का आश्चर्य किये मुसकराते हुए वे कहने लगे।

इन्द्र उवाच

अहो दानव सिद्धोऽसि यस्य ते मतिरीदृशी ।

भक्तः सर्वात्मनाऽऽत्मानं सुहृदं जगदीश्वरम् ॥ १९॥

भवानतार्षीन्मायां वै वैष्णवीं जनमोहिनीम् ।

यद्विहायासुरं भावं महापुरुषतां गतः ॥ २०॥

खल्विदं महदाश्चर्यं यद्रजःप्रकृतेस्तव ।

वासुदेवे भगवति सत्त्वात्मनि दृढा मतिः ॥ २१॥

यस्य भक्तिर्भगवति हरौ निःश्रेयसेश्वरे ।

विक्रीडतोऽमृताम्भोधौ किं क्षुद्रैः खातकोदकैः ॥ २२॥

देवराज इन्द्र ने कहा ;- अहो दानवराज! सचमुच तुम सिद्ध पुरुष हो। तभी तो तुम्हारा धैर्य, निश्चय और भगवद्भाव इतना विलक्षण है। तुमने समस्त प्राणियों के सुहृद् आत्मस्वरूप जगदीश्वर की अनन्यभाव से भक्ति की है। अवश्य ही तुम लोगों को मोहित करने वाली भगवान् की माया को पार कर गये हो। तभी तो तुम असुरोचित भाव छोड़कर महापुरुष हो गये हो। अवश्य ही यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तुम रजोगुणी प्रकृति के हो तो भी विशुद्ध सत्त्वस्वरूप भगवान् वासुदेव में तुम्हारी बुद्धि दृढ़ता से लगी हुई है। जो परमकल्याण के स्वामी भगवान् श्रीहरि के चरणों में प्रेममय भक्तिभाव रखता है, उसे जगत् के भोगों की क्या आवश्यकता है। जो अमृत के समुद्र में विहार कर रहा है, उसे क्षुद्र गड्ढ़ों के जल से प्रयोजन ही क्या हो सकता है।

श्रीशुक उवाच

इति ब्रुवाणावन्योन्यं धर्मजिज्ञासया नृप ।

युयुधाते महावीर्याविन्द्रवृत्रौ युधाम्पती ॥ २३॥

आविध्य परिघं वृत्रः कार्ष्णायसमरिन्दमः ।

इन्द्राय प्राहिणोद्घोरं वामहस्तेन मारिष ॥ २४॥

स तु वृत्रस्य परिघं करं च करभोपमम् ।

चिच्छेद युगपद्देवो वज्रेण शतपर्वणा ॥ २५॥

दोर्भ्यामुत्कृत्तमूलाभ्यां बभौ रक्तस्रवोऽसुरः ।

छिन्नपक्षो यथा गोत्रः खाद्भ्रष्टो वज्रिणा हतः ॥ २६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार योद्धाओं में श्रेष्ठ महापराक्रमी देवराज इन्द्र और वृत्रासुर धर्म का तत्त्व जानने की अभिलाषा से एक-दूसरे के साथ बातचीत करते हुए आपस में युद्ध करने लगे।

राजन्! अब शत्रुसूदन वृत्रासुर ने बायें हाथ से फौलाद का बना हुआ एक बहुत भयावना परिघ उठाकर आकाश में घुमाया और उससे इन्द्र पर प्रहार किया। किन्तु देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर का वह परिघ तथा हाथी की सूँड़ के समान लंबी भुजा अपने सौ गाँठों वाले वज्र से एक साथ ही काट गिरायी। जड़ से दोनों भुजाओं के कट जाने पर वृत्रासुर के बायें और दायें कंधों से खून की धारा बहने लगी। उस समय वह ऐसा जान पड़ा, मानो इन्द्र के वज्र की चोट से पंख कट जाने पर कोई पर्वत ही आकाश से गिरा हो।

कृत्वाधरां हनुं भूमौ दैत्यो दिव्युत्तरां हनुम् ।

नभोगम्भीरवक्त्रेण लेलिहोल्बणजिह्वया ॥ २७॥

दंष्ट्राभिः कालकल्पाभिर्ग्रसन्निव जगत्त्रयम् ।

अतिमात्रमहाकाय आक्षिपंस्तरसा गिरीन् ॥ २८॥

गिरिराट् पादचारीव पद्भ्यां निर्जरयन् महीम् ।

जग्रास स समासाद्य वज्रिणं सहवाहनम् ॥ २९॥

महाप्राणो महावीर्यो महासर्प इव द्विपम् ।

वृत्रग्रस्तं तमालक्ष्य सप्रजापतयः सुराः ।

हा कष्टमिति निर्विण्णाश्चुक्रुशुः समहर्षयः ॥ ३०॥

निगीर्णोऽप्यसुरेन्द्रेण न ममारोदरं गतः ।

महापुरुषसन्नद्धो योगमायाबलेन च ॥ ३१॥

भित्त्वा वज्रेण तत्कुक्षिं निष्क्रम्य बलभिद्विभुः ।

उच्चकर्त शिरः शत्रोर्गिरिश्रृङ्गमिवौजसा ॥ ३२॥

वज्रस्तु तत्कन्धरमाशुवेगः

कृन्तन् समन्तात्परिवर्तमानः ।

न्यपातयत्तावदहर्गणेन

यो ज्योतिषामयने वार्त्रहत्ये ॥ ३३॥

तदा च खे दुन्दुभयो विनेदु-

र्गन्धर्वसिद्धाः समहर्षिसङ्घाः ।

वार्त्रघ्नलिङ्गैस्तमभिष्टुवाना

मन्त्रैर्मुदा कुसुमैरभ्यवर्षन् ॥ ३४॥

वृत्रस्य देहान्निष्क्रान्तमात्मज्योतिररिन्दम ।

पश्यतां सर्वलोकानामलोकं समपद्यत ॥ ३५॥

अब पैरों से चलने-फिरने वाले पर्वतराज के समान अत्यन्त दीर्घकाय वृत्रासुर ने अपनी ठोड़ी को धरती से और ऊपर के होठ को स्वर्ग से लगाया तथा आकाश के समन गहरे मुँह, साँप के समान भयावनी जीभ एवं मृत्यु के समान कराल दाढ़ों से मानो त्रिलोकी को निगलता, अपने पैरों की चोट से पृथ्वी को रौंदता और प्रबल वेग से पर्वतों को उलटता-पलटता वह इन्द्र के पास आया और उन्हें उनके वाहन ऐरावत हाथी के सहित इस प्रकार लील गया, जैसे कोई परम पराक्रमी और अत्यन्त बलवान् अजगर हाथी को निगल जाये।

प्रजापतियों और महर्षियों के साथ देवताओं ने जब देखा कि वृत्रासुर इन्द्र को निगल गया, तब तो वे अत्यन्त दुःखी हो गये तथा हाय-हाय! बड़ा अनर्थ हो गया।यों कहकर विलाप करने लगे।

बल दैत्य का संहार करने वाले देवराज इन्द्र ने महापुरुष-विद्या (नारायण कवच) से अपने को सुरक्षित कर रखा था और उनके पास योगमाया का बल था ही। इसलिये वृत्रासुर के निगल लेने पर-उसके पेट में पहुँचकर भी वे मरे नहीं। उन्होंने अपने वज्र से उसकी कोख फाड़ डाली और उसके पेट से निकलकर बड़े वेग से उसका पर्वत-शिखर के समान ऊँचा सिर काट डाला। सूर्यादि ग्रहों की उत्तरायण-दक्षिणायनरूप गति में जितना समय लगता है, उतने दिनों में अर्थात् एक वर्ष में वृत्रवध का योग उपस्थित होने पर घूमते हुए उस तीव्र वेगशाली वज्र ने उसकी गरदन को सब ओर से काटकर भूमि पर गिरा दिया। उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। महर्षियों के साथ गन्धर्व, सिद्ध आदि वृत्रघाती इन्द्र का पराक्रम सूचित करने वाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करके बड़े आनन्द के साथ उन पर पुष्पों की वर्षा करने लगे।

शत्रुदमन परीक्षित! उस समय वृत्रासुर के शरीर से उसकी आत्मज्योति बाहर निकली और इन्द्र आदि सब लोगों के देखते-देखते सर्वलोकातीत भगवान् के स्वरूप में लीन हो गयी।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे वृत्रवधो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः

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