श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ११                              

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ११ "वृत्रासुर की वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: एकादश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ११                                                  

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः ११                                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ११ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकादशोऽध्यायः - ११ ॥

श्रीशुक उवाच

त एवं शंसतो धर्मं वचः पत्युरचेतसः ।

नैवागृह्णन् भयत्रस्ताः पलायनपरा नृप ॥ १॥

विशीर्यमाणां पृतनामासुरीमसुरर्षभः ।

कालानुकूलैस्त्रिदशैः काल्यमानामनाथवत् ॥ २॥

दृष्ट्वातप्यत सङ्क्रुद्ध इन्द्रशत्रुरमर्षितः ।

तान् निवार्यौजसा राजन् निर्भर्त्स्येदमुवाच ह ॥ ३॥

किं व उच्चरितैर्मातुर्धावद्भिः पृष्ठतो हतैः ।

न हि भीतवधः श्लाघ्यो न स्वर्ग्यः शूरमानिनाम् ॥ ४॥

यदि वः प्रधने श्रद्धा सारं वा क्षुल्लका हृदि ।

अग्रे तिष्ठत मात्रं मे न चेद्ग्राम्यसुखे स्पृहा ॥ ५॥

एवं सुरगणान् क्रुद्धो भीषयन् वपुषा रिपून् ।

व्यनदत्सुमहाप्राणो येन लोका विचेतसः ॥ ६॥

तेन देवगणाः सर्वे वृत्रविस्फोटनेन वै ।

निपेतुर्मूर्च्छिता भूमौ यथैवाशनिना हताः ॥ ७॥

ममर्द पद्भ्यां सुरसैन्यमातुरं

निमीलिताक्षं रणरङ्गदुर्मदः ।

गां कम्पयन्नुद्यतशूल ओजसा

नालं वनं यूथपतिर्यथोन्मदः ॥ ८॥

विलोक्य तं वज्रधरोऽत्यमर्षितः

स्वशत्रवेऽभिद्रवते महागदाम् ।

चिक्षेप तामापततीं सुदुःसहां

जग्राह वामेन करेण लीलया ॥ ९॥

स इन्द्रशत्रुः कुपितो भृशं तया

महेन्द्रवाहं गदयोरुविक्रमः ।

जघान कुम्भस्थल उन्नदन् मृधे

तत्कर्म सर्वे समपूजयन् नृप ॥ १०॥

ऐरावतो वृत्रगदाभिमृष्टो

विघूर्णितोऽद्रिः कुलिशाहतो यथा ।

अपासरद्भिन्नमुखः सहेन्द्रो

मुञ्चन्नसृक् सप्तधनुर्भृशार्तः ॥ ११॥

न सन्नवाहाय विषण्णचेतसे

प्रायुङ्क्त भूयः स गदां महात्मा ।

इन्द्रोऽमृतस्यन्दिकराभिमर्श-

वीतव्यथक्षतवाहोऽवतस्थे ॥ १२॥

स तं नृपेन्द्राहवकाम्यया रिपुं

वज्रायुधं भ्रातृहणं विलोक्य ।

स्मरंश्च तत्कर्म नृशंसमंहः

शोकेन मोहेन हसन् जगाद ॥ १३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! असुर सेना भयभीत होकर भाग रही थी। उसके सैनिक इतने अचेत हो रहे थे कि उन्होंने अपने स्वामी के धर्मानुकूल वचनों पर भी ध्यान न दिया। वृत्रासुर ने देखा कि समय की अनुकूलता के कारण देवता लोग असुरों की सेना को खदेड़ रहे हैं और वह इस प्रकार छिन्न-भिन्न हो रही है, मानो बिना नायक की हो।

राजन्! यह देखकर वृत्रासुर असहिष्णुता और क्रोध के मारे तिलमिला उठा। उसने बलपूर्वक देवसेना को आगे बढ़ने से रोक दिया और उन्हें डाँटकर ललकारते हुए कहा- क्षुद्र देवताओं! रणभूमि में पीठ दिखलाने वाले कायर असुरों पर पीछे से प्रहार करने में क्या लाभ है। ये लोग तो अपने माँ-बाप के मल-मूत्र हैं। परन्तु अपने को शूरवीर मानने वाले तुम्हारे-जैसे पुरुषों के लिये भी तो डरपोकों को मारना कोई प्रशंसा की बात नहीं है और न इससे तुम्हें स्वर्ग ही मिल सकता है। यदि तुम्हारे मन में युद्ध करने की शक्ति और उत्साह है तथा अब जीवित रहकर विषय-सुख भोगने की लासला नहीं है, तो क्षण भर मेरे सामने डट जाओ और युद्ध का मजा चख लो

परीक्षित! वृत्रासुर बड़ा बली था। वह अपने डील-डौल से ही शत्रु देवताओं को भयभीत करने लगा। उसने क्रोध में भरकर इतने जोर का सिंहनाद किया कि बहुत-से लोग तो उसे सुनकर ही अचेत हो गये। वृत्रासुर की भयानक गर्जना से सब-के-सब देवता मुर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो उन पर बिजली गिर गयी हो। अब जैसे मदोन्मत्त गजराज नरकट का वन रौंद डालता है, वैसे ही रण बाँकुरा वृत्रासुर हाथ में त्रिशूल लेकर भय से नेत्र बंद किये पड़ी हुई देव सेना को पैरों से कुचलने लगा। उसके वेग से धरती डगमगाने लगी।

वज्रपाणि देवराज इन्द्र उसकी यह करतूत सह न सके। जब वह उनकी ओर झपटा, तब उन्होंने और भी चिढ़कर अपने शत्रु पर एक बहुत बड़ी गदा चलायी। अभी वह असह्य गदा वृत्रासुर के पास पहुँची भी न थी कि उसने खेल-ही खेल में बायें हाथ से उसे पकड़ लिया। राजन्! परमपराक्रमी वृत्रासुर ने क्रोध से आग-बबूला होकर उसी गदा से इन्द्र के वाहन ऐरावत के सिर पर बड़े जोर से गरजते हुए प्रहार किया। उसके इस कार्य की सभी लोग बड़ी प्रशंसा करने लगे। वृत्रासुर की गदा के आघात से ऐरावत हाथी वज्राहत पर्वत के समान तिलमिला उठा। सिर फट जाने से वह अत्यन्त व्याकुल हो गया और खून उगलता हुआ इन्द्र को लिये हुए अट्ठाईस हाथ पीछे हट गया। देवराज इन्द्र अपने वाहन ऐरावत के मुर्च्छित हो जाने से स्वयं भी विषादग्रस्त हो गये। यह देखकर युद्ध धर्म के मर्मज्ञ वृत्रासुर ने उनके ऊपर फिर से गदा नहीं चलायी। तब तक इन्द्र ने अपने अमृतस्रावी हाथ के स्पर्श से घायल ऐरावत की व्यथा मिटा दी और वे फिर रणभूमि में आ डटे।

परीक्षित! जब वृत्रासुर ने देखा कि मेरे भाई विश्वरूप का वध करने वाला शत्रु इन्द्र युद्ध के लिये हाथ में वज्र लेकर फिर सामने आ गया है, तब उसे उनके उस क्रूर पापकर्म का स्मरण हो आया और वह शोक और मोह से युक्त हो हँसता हुआ उनसे कहने लगा।

वृत्र उवाच

दिष्ट्या भवान् मे समवस्थितो रिपु-

र्यो ब्रह्महा गुरुहा भ्रातृहा च ।

दिष्ट्यानृणोऽद्याहमसत्तम त्वया

मच्छूलनिर्भिन्नदृषद्धृदाचिरात् ॥ १४॥

यो नोऽग्रजस्यात्मविदो द्विजाते-

र्गुरोरपापस्य च दीक्षितस्य ।

विश्रभ्य खड्गेन शिरांस्यवृश्च-

त्पशोरिवाकरुणः स्वर्गकामः ॥ १५॥

श्रीह्रीदयाकीर्तिभिरुज्झितं त्वां

स्वकर्मणा पुरुषादैश्च गर्ह्यम् ।

कृच्छ्रेण मच्छूलविभिन्नदेह-

मस्पृष्टवह्निं समदन्ति गृध्राः ॥ १६॥

अन्येऽनु ये त्वेह नृशंसमज्ञा

ये ह्युद्यतास्त्राः प्रहरन्ति मह्यम् ।

तैर्भूतनाथान् सगणान् निशात-

त्रिशूलनिर्भिन्नगलैर्यजामि ॥ १७॥

अथो हरे मे कुलिशेन वीर

हर्ता प्रमथ्यैव शिरो यदीह ।

तत्रानृणो भूतबलिं विधाय

मनस्विनां पादरजः प्रपत्स्ये ॥ १८॥

सुरेश कस्मान्न हिनोषि वज्रं

पुरः स्थिते वैरिणि मय्यमोघम् ।

मा संशयिष्ठा न गदेव वज्रः

स्यान्निष्फलः कृपणार्थेव याच्ञा ॥ १९॥

नन्वेष वज्रस्तव शक्र तेजसा

हरेर्दधीचेस्तपसा च तेजितः ।

तेनैव शत्रुं जहि विष्णुयन्त्रितो

यतो हरिर्विजयः श्रीर्गुणास्ततः ॥ २०॥

अहं समाधाय मनो यथाऽऽह

सङ्कर्षणस्तच्चरणारविन्दे ।

त्वद्वज्ररंहोलुलितग्राम्यपाशो

गतिं मुनेर्याम्यपविद्धलोकः ॥ २१॥

पुंसां किलैकान्तधियां स्वकानां

याः सम्पदो दिवि भूमौ रसायाम् ।

न राति यद्द्वेष उद्वेग आधि-

र्मदः कलिर्व्यसनं सम्प्रयासः ॥ २२॥

त्रैवर्गिकायासविघातमस्म-

त्पतिर्विधत्ते पुरुषस्य शक्र ।

ततोऽनुमेयो भगवत्प्रसादो

यो दुर्लभोऽकिञ्चनगोचरोऽन्यैः ॥ २३॥

अहं हरे तव पादैकमूल-

दासानुदासो भवितास्मि भूयः ।

मनः स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते

गृणीत वाक्कर्म करोतु कायः ॥ २४॥

वृत्रासुर बोला ;- आज मेरे लिये बड़े सौभाग्य का दिन है कि तुम्हारे-जैसा शत्रु-जिसने विश्वरूप के रूप में ब्राह्मण, अपने गुरु एवं मेरे भाई की हत्या की है-मेरे सामने खड़ा है। अरे दुष्ट! अब शीघ्र-से-शीघ्र मैं तेरे पत्थर के समान कठोर हृदय को अपने शूल से विदीर्ण करके भाई से उऋण होऊँगा। अहा! यह मेरे लिये कैसे आनन्द की बात होगी। इन्द्र! तूने मेरे आत्मवेत्ता और निष्पाप बड़े भाई के, जो ब्राह्मण होने के साथ ही यज्ञ में दीक्षित और तुम्हारा गुरु था, विश्वास दिलाकर तलवार से तीनों सिर उतार लिये-ठीक वैसे ही जैसे स्वर्गकामी निर्दय मनुष्य यज्ञ में पशु का सिर काट डालता है। दया, लज्जा, लक्ष्मी और कीर्ति तुझे छोड़ चुकी है। तूने ऐसे-ऐसे नीच कर्म किये हैं, जिनकी निन्दा मनुष्यों की तो बात ही क्या-राक्षस तक करते हैं। आज मेरे त्रिशूल से तेरा शरीर टूक-टूक हो जायेगा। बड़े कष्ट से तेरी मृत्यु होगी। तेरे-जैसे पापी को आग भी नहीं जलायेगी, तुझे तो गीध नोंच-नोंचकर खायेंगे। ये अज्ञानी देवता तेरे-जैसे नीच और क्रूर के अनुयायी बनकर मुझ पर शस्त्रों से प्रहार कर रहे हैं। मैं अपने तीखे त्रिशूल से उनकी गरदन काट डालूँगा और उनके द्वारा गुणों के सहित भैरवादि भूतनाथों को बलि चढ़ाऊँगा।

वीर इन्द्र! यह भी सम्भव है कि तू मेरी सेना को छिन्न-भिन्न करके अपने वज्र से मेरा सिर काट ले। तब तो मैं अपने शरीर की बलि पशु-पक्षियों को समर्पित करके, कर्म-बन्धन से मुक्त हो महापुरुषों की चरणरज का आश्रय ग्रहण करूँगा-जिस लोक में महापुरुषों जाते हैं, वहाँ पहुँच जाऊँगा। देवराज! मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तेरा शत्रु हूँ; अब तू मुझ पर अपना अमोघ वज्र क्यों नहीं छोड़ता? तू यह सन्देह न कर कि जैसे तेरी गदा निष्फल हो गयी, कृपण पुरुष से की हुई याचना के समान यह वज्र भी वैसे ही निष्फल हो जायेगा।

इन्द्र! तेरा यह वज्र श्रीहरि के तेज और दधीचि ऋषि की तपस्या से शक्तिमान् हो रहा है। विष्णु भगवान् ने मुझे मारने के लिये तुझे आज्ञा भी दी है। इसलिये अब तू उसी वज्र से मुझे मार डाल। क्योंकि जिस पक्ष में भगवान् श्रीहरि हैं, उधर ही विजय, लक्ष्मी और सारे गुण निवास करते हैं। देवराज! भगवान् संकर्षण के आज्ञानुसार मैं अपने मन को उनके चरणकमलों में लीन कर दूँगा। तेरे वज्र का वेग मुझे नहीं, मेरे विषय-भोगरूप फंदे को काट डालेगा और मैं शरीर त्यागकर मुनिजनोचित गति प्राप्त करूँगा। जो पुरुष भगवान् से अनन्य प्रेम करते हैं-उनके निजजन हैं-उन्हें वे स्वर्ग, पृथ्वी अथवा रसातल की सम्पत्तियाँ नहीं देते। क्योंकि उनसे परमानन्द की उपलब्धि होती ही नहीं; उलटे द्वेष, उद्वेग, अभिमान, मानसिक पीड़ा, कलह, दुःख और परिश्रम ही हाथ लगते हैं।

इन्द्र! हमारे स्वामी अपने भक्त के अर्थ, धर्म एवं काम सम्बन्धी प्रयास को व्यर्थ कर दिया करते हैं और सच पूछो तो इसी से भगवान् की कृपा का अनुमान होता है। क्योंकि उनका ऐसा कृपा-प्रसाद अकिंचन भक्तों के लिये ही अनुभवगम्य है, दूसरों के लिये तो अत्यन्त दुर्लभ ही है। (भगवान् को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुर ने प्रार्थना की-) प्रभो! आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि अनन्य भाव से आपके चरणकमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का अवसर मुझे अगले जन्म में भी प्राप्त हो। प्राणवल्लभ! मेरा मन आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करता रहे, मेरी वाणी उन्हीं का गान करे और शरीर आपकी सेवा में ही सलंग्न रहे।

न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं

न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।

न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा

समञ्जस त्वा विरहय्य काङ्क्षे ॥ २५॥

अजातपक्षा इव मातरं खगाः

स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः ।

प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा

मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥ २६॥

ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं

संसारचक्रे भ्रमतः स्वकर्मभिः ।

त्वन्माययाऽऽत्माऽऽत्मजदारगेहे-

ष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात् ॥ २७॥

सर्वसौभाग्यनिधे! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमण्डल का साम्राज्य, रसातल का एकच्छत्र राज्य, योग की सिद्धियाँ-यहाँ तक कि मोक्ष भी नहीं चाहता।

जैसे पक्षियों के पंखहीन बच्चे अपनी माँ की बाट जोहते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ का दूध पीने के लिये आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतम से मिलने के लिये उत्कण्ठित रहती है-वैसे ही कमलनयन! मेरा मन आपके दर्शन के लिये छटपटा रहा है।

प्रभो! मैं मुक्ति नहीं चाहता। मेरे कर्मों के फलस्वरूप मुझे बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़े, इसकी परवा नहीं। परन्तु मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ, जिस-जिस योनि में जन्मूँ, वहाँ-वहाँ भगवान् के प्यारे भक्तजनों से मेरी प्रेम-मैत्री बनी रहे।

स्वामिन्! मैं केवल यही चाहता हूँ कि जो लोग आपकी माया से देह-गेह और स्त्री-पुत्र आदि में आसक्त हो रहे हैं, उनके साथ मेरा कभी किसी प्रकार का भी सम्बन्ध न हो

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे वृत्रस्य इन्द्रोपदेशो नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः

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